वृन्दावन के गोपगण, कृष्ण के अन्तरंग सखा थे। वे अपनी गाय भैंस चराने और कृष्ण के साथ खेलते हुए अधिक आनन्दित होते थे। उन्हें यह नहीं मालूम था कि कृष्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड के नियामक, प्राण पुरुष, पुरुषोत्तम हैं। उन्हें यह बड़ी बड़ी बातें जानने की आवश्यकता ही नहीं थी। वे तो केवल यह जानते थे कि कृष्ण कन्हैया केवल उनका सबसे प्रिय है, उनका अभिन्न है, वे उससे पृथक नहीं हो सकते। जब अक्रूर के साथ कृष्ण मथुरा जाने लगे तब वे सभी उनके रथ के पहिए के नीचे लेट गए और कहने लगे कि वे उन्हें बृज से जाने नहीं देंगे। पर कृष्ण की तो अपनी योजनाएं थीं अतः वे अवश्य ही जाएंगे और बताइए, गोप गोंपियां उन्हें रोक रही हैं। अक्रूर के बहुत समझाने पर भी बात न बनी तो वे केवल इस बात पर कम्प्रोमाइज करने को सहमत हो गई कि यदि कृष्ण कह दें कि वे लौट कर वृन्दावन वापस आएंगे तो पहिए के नीचे से वे सब हट जाएंगे। अब कृष्ण आज के राजनेताओं की तरह झूठ तो बोल नहीं सकते थे, उन्हें वोट तो पाना नहीं था कि वे झूठा आश्वासन देे देते। वे जानते थे कि वे अब वापस नहीं आएंगे, उन्हें तो बड़े बड़े काम करना हैं अतः उन्होंने अपने उन भाभुक भक्तों को भावमयी भाषा में ही कहा ‘‘मेरा शरीर बृज से दूर रह सकता है पर मेरा मन सदा बृज की धूल में लोटता रहेगा।’’ बस, इस भावप्रवण मधुरिमा ने भक्त गोपगोपियों का मन गदगद कर दिया। गोप का अर्थ होता है, ‘‘गोपायते इति सः गोपाः’’। यानी, वे व्यक्ति जिनके जीवन का एकमेव उद्देश्य परमपुरुष को आनन्दित करना है वे हैं गोप। भक्ति के अनेक प्रकारों में से सर्वश्रेष्ठ प्रकार है ‘रागात्मिका भक्ति’ इसमें भक्त की भावना यह होती है कि मुझे चाहे जितना कष्ट मिले मेरे प्रभु मेरी ओर से आनन्दित ही रहें। गोप गोपियाॅं रागात्मिका भक्ति की श्रेणी में आती हैं।
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