ऐसे अनेक लोग समाज में मिल जाएंगे जो परंपरा के नाम पर वह सब कुछ लादे रहते हैं जो आज के समय मेें औचित्यहीन हो चुका होता है। चाहे सड़ा गला दुर्गंध युक्त समान हो या निरर्थक हो चुके सिद्धान्त वे उन्हें परम्परा के नाम पर सहेज कर रखना चाहते हैं। कोई यदि तर्क पूर्वक उन्हें समझाना चाहे तो वे आक्रामक होकर उसे असंस्कृत कहने में भी नहीं चूकते। वास्तव में वे परम्परा और संस्कृति को समानार्थी मानने लगते हैं। सर्वविदित है कि समाज का अर्थ है जो एक समान उद्देश्य को लेकर लगातार आगे बढ़ते रहना चाहता है ‘‘समाने ईजति यः सः समाजः’’। अर्थात् वही लोग आगे बढ़कर उत्तरोत्तर प्रगति कर सकते हैं जो समयानुकूल अद्यतन ज्ञान के द्वारा अपने को परिमार्जित करते रहने का गुण विकसित कर लेते हैं। परन्तु पूर्वोक्त परम्परावादी केवल मानसिक रोगी ही कहला सकते हैं क्योंकि वे जानबूझकर अपनी प्रगति में स्वयं बाधक बन जाते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं और मानसिक विकास के अनुरूप प्रत्येक युग में सामाजिक व्यवस्थाओं में सहज भाव से परिवर्तन होते रहते हैं। समाज की गतिशीलता रुक जाए तो समाज का ढांचा ही चकनाचूर हो जाएगा। आज का हिंदु समाज खोखली परम्पराओं को लादे अपनी गतिशीलता को रुद्ध करके प्रतिदिन ध्वंस की ओर अग्रसर हो रहा है और भविष्य में निश्चिन्ह होने को उन्मुख है। आवश्यकता है पुरानी पड़ चुकी अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण परम्पराओं के नाम पर अंधविश्वास फैलाकर लोगों को भ्रमित करने के स्थान पर उन्हें वैज्ञानिक सोच के साथ समय के अनुकूल परिवर्तित कर तदनुसार चलना और चलाना।
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