Tuesday, 18 October 2022

392 स्वार्थ और अहंकार के दलदल में डूबे धर्ममत


यदि सावधानी पूर्वक परीक्षण किया जाय तो हम पाते हैं कि वेदों के ‘‘ज्ञानकाण्ड’’ जिसमें ‘आरण्यक और उपनिषद’ आते हैं अपनी कठिनता के कारण धीरे धीरे जनसामान्य की रुचि से हट रहे थे और ‘‘कर्मकाण्ड’’ जिसमें ‘ब्राह्मण और मंत्र’ का समावेश किया गया है, अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।  इस कर्मकांड के प्रभाव के विरोध में लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुए ‘ऋषि चार्वाक’ ने आवाज उठाई। महावीर और बुद्ध की आयु में लगभग 50 वर्ष का अन्तर था। ‘चार्वाक’ के शिष्य ‘अजितकुसुम’ जो  बुद्ध के समकालीन थे, का तर्क था कि ‘‘जब थोड़ी दूर खड़े व्यक्ति को कोई वस्तु देने पर वह उसके पास नहीं पहॅुंचती तो जो मर चुके हैं उन्हें घी, चावल और शहद देने पर कैसे पहुॅंचेगी?’’ समाज का एक बड़ा भाग कर्मकाण्ड के प्रभाव में आज भी देखा जा सकता है। इस तरह तात्कालिक चार्वाक के सिद्धान्तों से प्रभावित समाज में महावीर और बुद्ध ने अपनी अपनी शिक्षाओं को प्रचारित करने का कष्टसाध्य कार्य किया। स्वभावतः दोनों को समाज के पूर्ववर्ती अनुकरणकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ा।

भगवान महावीर के महाप्रयाण के कुछ सालों बाद ही उनके अनुयायियों में दो भाग हो गए एक अपने को श्वेताम्बर और दूसरे दिगम्बर कहने लगे। इसी प्रकार भगवान बुद्ध के अनुयायी भी उनके महाप्रयाण के बाद महायान और हीनयान इन दो भागों में बंट गए। दोनों मतों में यह विभाजन ही प्रकट करता है कि महावीर और बुद्ध दोनों के अनुयायियों में अपने अपने अहंकार की वृद्धि और अपने मूल उद्गम श्रोत से विचलन आ गया। इतना ही नहीं आधुनिक युग के बुद्ध कहलाने वाले भीमराव अंबेडकर ने तो कथित रूप से सभी मतों का अध्ययन करने के बाद बौद्ध धर्म को अपनाने का मन बनाया परन्तु वे फिर भी संतुष्ठ नहीं हुए और कुछ बुद्ध के और कुछ अपने सिद्धान्त मिलाकर नया बौद्ध मत ‘नवयान’ बना डाला जिसे आजकल भारत में देखा जाता है। तत्समय अपने अपने प्रभाव को समाज के सामान्य वर्ग में स्थापित करने के लिए जैनों ने महावीर की शिक्षाओं को पत्थरों की मूर्तियों में उकेर कर प्रचारित करना शुरु कर दिया इनसे प्रेरित होकर बौद्धों ने भी बुद्ध की मूर्तियां बनाना प्रारंभ कर दिया और उनके साथ काल्पनिक कथाओं को जोड़ने लगे जबकि न तो महावीर ने और न ही बुद्ध ने अपनी मूर्तियॉं बनाकर धर्म प्रचार करने की सलाह दी थी। जैनमत  और बौद्धमत के इस प्रकार के प्रचार से जन सामान्य उनकी मूर्तियां देखने आने लगे और उनकी कहानियों से प्रभावित होने लगे। इसे देखकर सानातनी (जो बाद में मुगलों के शासन में हिंदु कहलाए) भी क्यों पीछे रहते, वे भी काल्पनिक पौराणिक कथाओं को मूर्तियों के रूप में अपने मत का प्रचार करने लगे जबकि उनका ‘मूल भागवत धर्म’ इस कार्य को कोई महत्व नहीं देता। इसके बाद प्रारंभ हुई अपने को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ जो आज भी जारी है। फलतः कुछ विद्धानों ने तीनों मतों में पारस्परिक सामंजस्य स्थापित करने के प्रयासों में कुछ पौराणिक कहानियों के देवी देवता बौद्ध और जैनों ने स्वीकार कर लिए और कुछ बौद्धों के देवी देवता सनातनियों ने मान लिए जिनमें तारादेवी जो कहीं उग्रतारा कहीं बज्रतारा नाम से स्वीकृत हुई। जैनों की चौंसठ योगिनियॉं भी अन्यों ने मान ली और सभी को भगवान ‘‘सदाशिव’’ के परिवार से जोड़ा गया क्योंकि  शिव तो जनजन के हृदय में पहले से ही बसे थे। यदि वे इन काल्पनिक देवियों का संबंध शिव से न जोड़ते तो उन्हें कोई महत्व ही न मिलता। यही कारण दशमहाविद्याओं के संबंध में माना जाता है। 

भगवान महावीर और भगवान बुद्ध की शिक्षाओं को गलत ढंग से प्रचारित करने वालों के कारण ही पूरे देश में मेडीकल साईंस की प्रगति सैकड़ों वर्ष पिछड़ गयी। यह बड़ी समस्या उत्पन्न हुई, विशेषतः दुखवाद का सिद्धान्त और अहिंसा की गलत परिभाषा देने के कारण। इसके फलस्वरूप सामान्य लोग भीरु हो गये। यही बात भगवान महावीर के जैन धर्म की भी है। ये दोनों ही धर्म समय की कसौटी पर खरे नहीं उतर सके। गौतम बुद्ध ईश्वर के बारे में स्पष्ट मत नहीं दे सके और न ही यह बता सके कि जीवन का अंतिम उद्देश्य क्या है, इतना ही नहीं वे अपने सिद्धान्तों पर आधारित मानव समाज का भी निर्माण नहीं कर सके। महावीर जैन ने भी सबसे पहले निर्ग्रंथवाद अर्थात् नग्न रहने पर बहुत जोर दिया। आदिकाल के लोग अपने शरीर को नहीं ढंकते थे परंतु मौसम के अनुसार वे  अपने शरीर को ढंकने लगे। अब जब कि वे अपने शरीर को ढंकने के अभ्यस्थ हो गये तो उन्हें नग्न रहकर शर्म आने लगी। इसलिये महावीर का दर्शन जनसमान्य का समर्थन नहीं पा सका। इसके अलावा उन्होंने दया और क्षमा करने पर बहुत अधिक बल दिया, उन्होंने यह सिखाया कि अपने जानलेवा शत्रु सॉंप और विच्छू को भी क्षमा करना चाहिये। इस शिक्षा के कारण लोगों ने समाज के शत्रुओं से लड़ना छोड़ दिया और वे भीरु हो गये। इस प्रकार महावीर और बुद्ध की शिक्षायें यद्यपि भावजड़ता पर आधारित नहीं थीं और न ही उन्होंने लोगों को जानबूझकर गलत दिशा दी परंतु कुछ समय के बाद वे असफल हो गये क्योंकि उनकी शिक्षायें पर्याप्त व्यापक और संतुलित नहीं थीं। इसके वावजूद सत्य के अनुसन्धानकर्ताओं ने बुद्ध की ‘अष्टॉंग योग‘ और ‘चक्षुना संवरो साधो‘ तथा अन्य विवेकपूर्ण शिक्षाओं को मान्यता दी है। महावीर की शिक्षा ‘‘जिओ और जीने दो‘‘ को भी मान्यता दी गई है परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि इन दोनों चिंतकों की समग्र विचार धाराओं को मान्यता दी गई है।

यहॉं एक बाद पर चिंतन करना आवश्यक है कि गौतम बुद्ध ने ईश्वर के बारे में स्पष्ट मत नहीं दिया जबकि वे स्वयं परमसत्ता अर्थात् ईश्वर का ध्यान करते थे और उन्हें अनुभूत किया; इसका क्या कारण  हो सकता है? वास्तव में उन दिनों ईश्वर के नाम पर बहुत शोषण हो रहा था, लोभी पंडों और पुजारियों द्वारा जनसामान्य को मूर्ख बनाया जा रहा था, अतः ईश्वर या भगवान का नाम सुनते ही लोग विपरीत प्रतिक्रिया करने लगे थे। इन झंझटों से बचने के लिए बुद्ध ने खुले रूप में ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा परन्तु इससे उनकी शिक्षाओं में गहरे मतभेद आ गए और परिणामतः बुद्ध का दर्शन या धर्म अनीश्वरवादी घोषित हो गया। भौतिकवादियों के लिए वह अनीश्वर धर्म बन गया अतः वर्तमान में कुछ लोग इसी कारण बौद्ध धर्म का पालन करने लगे हैं क्योंकि उनके अनुसार वहॉं ईश्वर का कोई भय नहीं है। इसी से मिलता जुलता दृश्य चर्चों में भी देखा जा सकता है जहॉं अनुचित व्यवहार, ‘डोगमा’ और संकीर्ण मानसिकता से ऊबकर क्रिश्चियन अनुयायी ‘‘गाड‘‘ अर्थात् भगवान नाम से ही चिड़ने लगे हैं । वे पूर्णतः भौतिकवादी और स्वयंकेन्द्रित दृष्टिकोण अपनाने लगे हैं। निष्कर्ष यह कि न तो सनातनी अपने मूल भागवत धर्म का अनुसरण सही ढंग से कर रहे हैं और न ही जैन और बौद्ध। सभी अपने अपने धर्म के ठेकेदारों के अहंकार और स्वार्थ के बबंडर में गोता लगाते अपने आपको श्रेष्ठ कह रहे हैं। आज का युग वैज्ञानिक युग है जहां हर तथ्य को तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर ही ग्रहण किया जाता है कोरी कहानियों के आधार पर नहीं, इसलिए मेरा विनम्र आग्रह है कि ज्ञानी बुद्ध के दर्शन को वाक्युद्ध की भ्रामक कीचड़ से अशुद्ध होने से बचाइए। यदि आप कहानियों में ही विश्वास रखते हैं तो मैं बुद्ध के कार्यकाल की ही एक सत्य घटना का उल्लेख कर अपनी वार्ता को समाप्त करता  हॅूं, भगवान बुद्ध आपको सन्मार्ग पर ले चलें। सुनिए-

भगवान बुद्ध के कार्यकाल में ही बौद्ध धर्म के अनुयायी दो पड़ौसी देशों में युद्ध छिड़ गया। दोनों देशों के योद्धाओं की पत्नियॉं, माताएं, बहिनें भगवान बुद्ध से क्रमशः अपने अपने पतियों, पुत्रों, भाइयों को विजयी होकर सकुशल वापस घर लौटने की प्रार्थना करने उनके पास पहॅुंची। बुद्ध पूरे समय चुपचाप बने रहे। 

बाद में उनके सेवक ने पूछा, भगवन्! आपने किसी भी देश की महिलाओं की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया; वे सभी बड़ी आशा से आपका आशीष लेने दूर दूर से आपके पास आई थीं, दोनों ही देशों के नागरिक आपके भक्त हैं?

भगवान बुद्ध ने कहा, ‘‘यदि वे सच्चे बौद्ध होते तो युद्ध कभी न करते।’’

(आपकी जानकारी के लिए बता दें कि वे देश थे तत्कालीन ‘बर्मा या ब्रह्मदेश’ और ‘थाइलेंड’। आप जानते हैं, युद्ध तो प्रत्यक्षतः राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से ही होते आए है, यही कारण यहॉं भी था। यह युद्ध दोनों देशों के हजारों योद्धाओं के प्राणों की बलि लेकर ही अन्त हुआ।)


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