अकेले मन को समझना है तो एक लाइन का उत्तर है कि हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की सहायता से पूरे शरीर का संचालन करने वाला ‘मन’ कहलाता है। परन्तु सही अर्थ जानना हो तो आपको हमारे "बाबा की क्लास डिस्कशन" में हुए मन ,आत्मा, परमात्मा से जुड़े निम्नांकित प्रश्नोत्तरों को ध्यान से पढ़िए।
रवि- आपने जो भी कहा है वह तो विज्ञान और तर्क दोनों से मान्य है परन्तु हम लोगों ही की नहीं सबकी यह समस्या है कि ‘मन‘ और ‘आत्मा‘ या इनसे जुडे़ समानार्थी अन्य शब्द, बड़ा ही कन्फ्युजन पैदा करते हैं । कभी कभी वे एक ही लगते हैं, यह क्या हैं, इनमें परस्पर क्या संबंध है? जब तक आप हमें यह नहीं बताते हैं हम किस प्रकार से व्यावहारिक अभ्यास नहीं करें?
इन्दु- हॉं बाबा! ‘मन और आत्मा‘ हमें दिखाई तो देते नहीं हैं इससे कभी कभी लगता है हम यह सब जानने और आत्म विद्या सीखने के उपाय बेकार ही कर रहे हैं?
बाबा- मैं ने अनेक बार यह स्पष्ट किया है कि ‘आत्मा‘ साक्षी सत्ता है ‘मन‘ का। इसलिए इकाई मन जो कुछ भी करता है उसका साक्ष्य देता है इकाई आत्मा । इसका अर्थ यह है कि मन के द्वारा किया गया हर अच्छा बुरा कार्य आत्मा के द्वारा केवल देखा जाता है वह उसकी क्रियाओं में सहभागी नहीं होता। मन के साथ इसका उल्टा होता है , वह अपने हर कार्य और क्रियाओं के साथ पूर्ण रूप से प्रभावित रहता है। इसीलिए कहा गया है कि मानव का मन ही बंधन और मुक्ति दोनों के लिए उत्तरदायी होता है। इकाई आत्मा, मन के साथ अपना दृष्टि संबंध बनाये रखता है परन्तु अपने को निर्लिप्त रखकर सदैव शुद्ध भी बनाये रखता है। इन सभी इकाई आत्माओं का साक्ष्य देने वाला परमात्मा कहलाता है। मन से लिंक बनाए रखने और साक्ष्य देने वाला होने के कारण यह आभास होता है कि आत्मा मन के कार्य में भी सम्बद्ध है परन्तु यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति किसी स्थान पर चोरी होते केवल देख रहा हो तो दूर से इस घटना को देखने वाला अन्य व्यक्ति यह सोचेगा कि यह भी चोरों के साथ उनके कार्य में संलग्न है जबकि वह एक अक्रिय दृष्टा मात्र ही है।
राजू- क्या यह विचित्र नहीं लगता कि आत्मा का लिंक मन से होते हुए भी वह मन के कार्यों से प्रभावित नहीं होता? यदि यह सही है तो उसे साक्ष्य देना भी कैसे सम्भव होता है?
बाबा- तुम आत्मा से कुछ भी नहीं छिपा सकते । जैसे, यदि किसी स्टेज पर ड्रामा हो रहा है तो उसे साक्ष्य देता है प्रकाश। सब कहते हैं कि हॉं नाटक खेला जा रहा है। जब नाटक बंद हो जाता है तब भी प्रकाश के साक्ष्य के आधार पर ही कहा जाता है कि अब नाटक समाप्त हो गया। इस प्रकार प्रकाश नाटक को चलते हुए और समाप्त होते हुए साक्ष्य ही देता है नाटक में सहभागिता नहीं देता। या जैसे कोई लाल फूल दर्पण के सामने रखा जाता है तो पूरा दर्पण भी लाल ही दिखाई देता है पर वास्तव में दर्पण अपने मूल रूप में ही रहता है क्योंकि फूल के हटा लिए जाने पर वह फिर अपने मूल रूप में आ जाता है। इस संसार में अनेक सद्गुणी और दुर्गुणी लोग हैं परन्तु सभी के भीतर उनका इकाई आत्मा निष्कलंक रहता है क्योंकि उनका इकाई मन ही क्रिया से प्रभावित होता है आत्मा नहीं। क्रिया की प्रकृति के अनुसार मन ही उसके शुभ या अशुभ प्रभाव से बंधता है इकाई आत्मा नहीं। परन्तु जब यही मन परमात्मा में मिल जाता है तब वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है।
चन्दू- तो शुभ या अशुभ परिणामों के लिये उत्तरदायी कौन होता है? और उनका परिणाम कौन भोगता है?
बाबा- मन ही कार्य करता है , उसमें लिप्त रहता है और उसी से प्रभावित होता है इसलिए परिणाम भी मन के द्वारा ही भोगा जाता है। मन में आने वाले विचार और क्रियाओं के अनुसार ही मन का उत्थान और पतन होता रहता है। वह मन ही है जो साधना करता है और सन्मार्ग का अनुसरण करता है और वह भी मन ही है जो कुसंगति में पड़कर अपना पतन कर डालता है। जब उसे यह समझ में आ जाता है कि वह ब्रह्म है तब इस प्रकार सोचते सोचते वह शुद्ध होता जाता है और पूर्ण रूपसे शुद्ध हो जाने पर वह इकाई आत्मा में ही मिलकर अपना रूपान्तरण कर लेता है जबकि इकाई आत्मा में इस प्रकार का कोई रूपान्तरण नहीं होता, वह हमेशा एकसमान रहता है। परमात्मा की ओर जाने वाले रास्ते पर चलने की सम्पूर्ण प्रक्रिया मन के द्वारा ही अनुभव की जाती है। मन आज गन्दा है तो वह कल स्वच्छ भी हो सकता है। विभिन्न मन ब्रह्म में लिकर स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाते हैं।
नन्दू- तो इकाई मन के कार्यों को देखते रहने के अलावा इकाई आत्मा का और कोई कार्य है ही नहीं?
बाबा- आत्मा, मन को शान्ति पाने के लिए प्रेरित भी करता है। केवल यही काम है जो वह मन के हित में कर सकता है और अच्छे काम करने की ओर लगाने का विचार उत्पन्न करता है। यह उत्प्रेरण तभी समझ में आता है जब मन का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर होता है , यदि वह भौतिकता की ओर खिंच कर उसी में रम जाता है तो उस मन को यह आत्मप्रेरण समझ में नहीं आता । जैसे चुंबक लोहे की वस्तुओं को खीच लेता है परन्तु यदि उन वस्तुओं में गंदगी लगी हो , कीचड़ से सनी हों तो चुंबक की ओर वे वस्तुए नहीं खिंच पाती जबकि चुंबक उन्हें खींचता ही रहता है।
रवि- मेरे मन में फिर नई भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है वह यह कि संस्कारों के प्रभाव में प्रत्येक अस्तित्व का अलग अलग इकाई मन होना तो समझ में आता है परन्तु सभी दर्शन और ऋषिगण आत्मा को तो अखंड ही मानते हैं फिर यह आपने ‘‘इकाई आत्मा ‘‘ कहॉं से खोज ली? यह उस अखंड परमात्मा से किस प्रकार भिन्न है?
बाबा- आत्मा तो अखंड ही है रवि ! वह सभी इकाई अस्तित्वों में उनकी परावर्तन क्षमता के अनुसार परावर्तित होकर कम या अधिक परिमाण में आभास देता है इसीलिए उसे किसी इकाई अस्तित्व का साक्ष्य देते समय इकाई आत्मा कहा जाता है। जैसे दर्पण के अनेक छोटे छोटे टुकड़े कर देने पर उनके सामने रखी एक ही वस्तु अलग अलग दिखाई देने लगती है। मन की तरह वह बाह्य प्रभावों से प्रभावित नहीं होता ।
इन्दु- परन्तु शास्त्रों में तो दुरात्मा, पापात्मा, महात्मा , पुण्यात्मा आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है और विद्वानों को भी अपने व्याख्यानों में इन्हें प्रयुक्त करते देखा जाता है?
बाबा- ‘ब्रह्म ‘ जिसकी कल्पना यह ब्रह्मांड है वही मात्र ‘महात्मा‘ या ‘परमात्मा‘ कहलाने के पात्र हैं अन्य कोई नहीं। जिन्हें जीवात्मा या इकाई आत्मा कहा गया है वह तो इकाई अस्तित्वों के मानसिक पटल पर उसी परमचेतना या परमात्मा का परावर्तन है इसलिये उन्हें महात्मा कहना उचित नहीं है। चूंकि आत्मा पाप या पुण्य से प्रभावित नहीं होता वह सदा ही शुद्ध और बोधमय होता है अतः इन शब्दों को उसके साथ जोड़कर दुरात्मा, पापात्मा और पुण्यात्मा कहना तर्कसंगत नहीं है। कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए चापलूसी करने के उद्देश्य से किसी को महात्मा कहने लगते हैं उनसे सावधान रहना चाहिए क्योंकि अत्यधिक प्रशंसा के पीछे धोखे का संकेत ही छिपा रहता है। इसलिये कहा जा सकता है कि इन शब्दों का निर्माण और उपयोग अज्ञानता के कारण ही किया जाता है। किसी सद्गुणी व्यक्ति, पापी या चीटी के आत्मा में कोई अन्तर नहीं होता अन्तर होता है केवल मन के अवनत या उन्नत होने में जिसके कारण ही कोई पापी, कोई पुण्यवान कहलाते हैं।
चन्दू- यदि कोई आपके अनुसार पुण्यवान की कोटि में आता है तो उसे सम्मान देने के लिए किस प्रकार संबोधित किया जाये?
बाबा- उन्हें महापुरुष या महान महिला कहा जा सकता है।
राजू- अच्छा, तो मैं अपने इकाई आत्मा को कैसे पहचानूं और मन को इससे किस प्रकार भिन्न समझूं ं?
बाबा- जब कोई तुमसे यह पूछता है कि, क्या तुम्हारा अस्तित्व है या नहीं? तो क्या कहते हो, यही कि हॉं मेरा अस्तित्व है। यह आस्तित्विक भावना ही इकाई मन है ‘मैं हॅूं‘ इस भावना का ‘मैं‘ इकाई मन है। जब कोई पूछता है कि, क्या तुम जानते हो कि तुम हो? तो क्या उत्तर होता है यही कि, हॉं मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, यह ‘‘मेरे होने का ज्ञान‘‘ जिस सत्ता के कारण होता है वह है तुम्हारा इकाई आत्मा। मैं जानता हॅूं का ‘‘मैं‘‘ ही इकाई आत्मा, इकाई चेतना या ज्ञातृ सत्ता कहलाता है और मैं हूॅं का ‘‘मैं‘‘ इकाई मन है। हर जीवित सत्ता के भीतर उसके होने की भावना रहती है जो तुम्हारे भीतर ‘‘मैं हॅूं’’ का बोध कराता है वही सूक्ष्म मन कहलाता है। और तुम्हारे भीतर, तुम्हारे होने की भावना के सत्य को जो ‘‘मैं‘‘ कहता है कि मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, वह ‘मैं‘ जीवात्मा, या इकाई आत्मा है।
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