क्वान्टम थियोरी, क्लासीकल थ्योरी का अतिसूक्ष्म क्षेत्र है जहॉं पर कण और तरंग की एकरूपता एक ही समय में होना संभव होता है। क्वान्टम का अर्थ है सूक्ष्मतम क्षेत्र की निर्धारित न्यूनतम मात्रा। उदाहरण के लिए प्रकाश ऊर्जा का सूक्ष्मतम भाग ‘फोटान’ के नाम से जाना जाता है और विद्युत ऊर्जा का ‘इलेक्ट्रान’। यह दोनों ही, कण और तरंग की तरह एक साथ व्यवहार करते हैं। किसी भी कण की ऊर्जा निर्धारित होती है और वह प्लांक स्थिरांक से उसकी आवृत्ति के गुणनफल के बराबर होती है।
माया को क्वान्टम थ्योरी से समझा पाना, ह्युमन माइंड से, जो कि यूनिट माइंड है, संभव प्रतीत नहीं होता क्योंकि ‘माया’ एक दार्शनिक शब्दावली के अतिरिक्त कुछ नहीं है जो ‘कॉस्मिक माइंड’ की कल्पना है। इस संबंध में विद्वान कहते हैं कि ‘‘ घातना अघातना पतीयसी माया’’ अर्थात्, जो नहीं है परन्तु उसे होने का आभास कराती है, वह है माया। अब सोचिए, यह माया क्या ‘‘मिरेज’’ की तरह ही नहीं है कि जिसमें दूर पानी भरा दिख रहा है पर पास जाने पर अदृश्य हो जाता है। परन्तु क्वान्टम सिद्धान्त में किसी कण का तरंग और कण के रूप में होना वास्तविक है। यह अलग बात है कि दार्शनिक रूप से फोटानों और इलेक्ट्रानों सहित बृहद और व्यापक दृष्टिकोण से सोचने पर, हम सब और पूरा कॉसमस, उस कास्मिक माइंड के भीतर ही है जिसे अभी हमारे यूनिट माइंड ने आधुनिक भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों से नहीं समझ पाया है। हॉं कोशिशें जारी हैं और अभी पदार्थ से ऊर्जा के बीच के संबंधों को जब हम क्वान्टम सिद्धान्तों से समझाते हैं तो पदार्थ से जीवन और जीवन से पदार्थ के बीच क्वान्टम सिद्धान्त लागू नहीं हो पाते।
भारतीय दर्शन में अत्यंत सूक्ष्म कणों को ‘‘तन्मात्रा’’(तन्मात्रा = तत् + मात्रा। तत् =वह, मात्रा= सूक्ष्मतम अंश अर्थात् उसका सूक्ष्मतम अंश। यहॉं ‘उसका’ से तात्पर्य परमसत्ता से है जिसकी कल्पना तरंगों का यह सभी प्रपंच है।) कहा जाता है जिसे क्वान्टम के समतुल्य माना जा सकता है परन्तु क्वान्टम सिद्धान्त उन पर लागू हो सकता है यह कहा नहीं जा सकता। अभी कुछ शोधों में प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है कि पदार्थ (इलेक्ट्रान) से पूर्व की अवस्था जीवन के उद्गम का क्षेत्र है जहॉं ‘माइक्रोवाइटम’ (नई टर्म ) को प्रभावी बताया गया है। यह कहा गया है कि लाखों माइक्रोवाइटा मिलकर एक इलेक्ट्रान बनाते हैं। परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इलेक्ट्रान को अविभाज्य मानते हें। यदि अब क्वान्टम सिद्धान्त और माइक्रोवाइटम सिद्धान्त को एकीकृत किया जा सके या उनमें भी क्लासीकल मेकेनिक्स की तरह क्रमागत माना जा सके तभी ‘‘पदार्थ, मन और ऊर्जा’’ के बीच उचित तारतम्य स्थापित करते हुए कास्मिक माइंड के साथ संबंध बनाया जा सकता है। सपष्टतः तभी हम इस माया के अस्तित्व पर भी प्रकाश डाल सकेंगे। मन की कंपनशीलता और उसकी शक्ति सम्पन्नता प्लांक के सिद्धान्त के अनुकूल प्रतीत होती है परन्तु यूनिट माइंड की तरह कास्मिक माइंड (जिसे तन्मात्रा का तत् कहा गया है) का अस्तित्व शोध का विषय है।
आनन्दमार्ग दर्शन में यह माना गया है कि यह समग्र ब्रह्मांड एकमात्र परमसत्ता की विचार तरंगों का समूह है जो उनके मन के भीतर ही है। उनके मन में इस ब्रह्मांड की रचना करने का विचार आते ही उनकी ही क्रियाशीला शक्ति, जिसे प्रकृति के नाम से भी जाना जाता है, क्षण भर में यह सब रच डालती है जिसे विद्वान माया भी कहते हैं। अतः हमें वह मूल तत्वस्वरूप परमसत्ता तो दिखाई नहीं देती परन्तु उसकी प्रकृति के कार्य दिखाई देते हैं स्पष्टतः देखे जाते है, ( वैसे ही जैसे, मन भी दिखाई नहीं देता पर उसके कार्य स्पष्टतः देखे जाते हैं)। इसलिए हम प्रकृति अर्थात् शक्ति को ही प्रधानता देने लगते हैं और उसे परमशक्तिशाली मानकर उसकी उपासना करने लगते हैं। परन्तु तत्वतः प्रकृति है किसकी ? उस परमसत्ता की। इसीलिए आनन्दसूत्रम में कहा गया है कि ‘‘ शक्ति सा शिवस्य शक्ति’’ क्योंकि उस परासत्ता को दार्शनिक नाम शिवतत्व दिया गया है।
जब हम किसी विराट सत्ता के संपर्क में आते हैं तो हम उसके भावों और विचारों के प्रति आकर्षित होकर अपनी अलग भावना निर्मित कर लेते हैं। यह भावना हृदय की जितनी गहराई से निकलती है उतनी ही पवित्र होती है जिसे हम श्रद्धाभक्ति कहते हैं। इसलिए भक्ति उत्पन्न नहीं की जा सकती वह ज्ञानपूर्वक कर्म करने का ही परिणाम होती है। इसलिए माला, फूल, चंदन आदि लगाकर किसी का देखादेखी अनुसरण करने लगना भक्ति नहीं कहा जा सकता। जबकि तन्मात्राओं के और आगे (जैसे माक्रोवाइटम) जाकर नये अस्तित्व का पता लगाकर उसे जनसामान्य के हित में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था और आध्यात्मिक शोध को उन्नत किया जाना चाहिए था परन्तु माया से प्रभावित मन यहीं भटक रहा है। अतः इस वैज्ञानिक युग में आध्यात्मिक उपासना के अर्थ में क्वान्टम सिद्धान्त और माइक्रोवाइटम सिद्धान्त में पारस्परिक समायोजन का कार्य माना जाय तो अनुचित न होगा। श्रद्धा, भक्ति और उपासना आदि दार्शनिक तथ्यों को नए अर्थ में तभी समझा जा सकेगा।
क्वान्टम सिद्धान्त में कणों के ‘तरंग और कण’ दोनों व्यवहारों का साथ साथ पाया जाना क्या ‘अर्धनारीश्वर शिव’ का सीमित दृश्य नहीं माना जा सकता? दार्शनिक अपनी अपनी मान्यताओं और तर्कों के अनुसार जब यह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि उस अद्वितीय सत्ता को आकार में कैसे समझाया जाय तब आज से सात हजार साल पहले भगवान सदाशिव ने ‘‘ शिवशक्त्यात्मक ब्रह्म ’’ कहकर उसे समझाया था कि ‘‘शक्ति सा शिवस्य शक्ति’’ अर्थात् वह परमसत्ता जिसे ब्रह्म कहा जाता है, शिव और शक्ति दोनों से संयुक्त है और जो शक्ति है वह शिव की ही शक्ति है अतः शिव और शक्ति अभिन्न हैं। इस सत्य को आकार में प्रकट करने के लिए दार्शनिकों ने आधे भाग को शिव और आधे भाग को शक्ति का रूप देते हुए संयुक्त रूप में मूर्ति बनाकर प्रकट किया जिसे अर्धनारीश्वर शिव कहा जाता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि शक्ति जिसकी है उसी की उपासना करने के लिए प्रयास करना चाहिए। इस रास्ते पर जो चल चुके हैं और जिनसे आपको आन्तरिक श्रद्धा उत्पन्न होती हो उनके निकट संपर्क में आकर अपना बीजमंत्र (अपनी मूल आवृत्ति) प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करना चाहिए। वे कृपापूर्वक जब आपको मंत्र दे देंगे तभी आपकी उपासना को गति मिल सकेगी। गति जब प्रगति में बदलने लगेगी तब भक्ति के कण (सूक्ष्मतम खोज) आपके भीतर ही द्रवित होंगे और आपको सब कुछ बिना चाहे प्राप्त हो जाएगा। इसलिए आडम्बरी माया को छोड़कर सन्मार्ग की तलाश में जुट जाना चाहिए।
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