Tuesday, 9 September 2025

436 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश है कि 

‘‘ जाग्रतस्वप्नसुषुप्त्यादि चैतन्यं यद् प्रकाशते, तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबंधैः प्रमुच्यते।’’

अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाएं परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती हैं। वह जो इन अवस्थाओं में रहते हुए अनुभव कर लेता है कि ‘वह ब्रह्म ही’ है वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

स्पष्टीकरण :

(1) मन की चार अवस्थाएं होती हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।  इनमें से प्रथम तीन परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती है परन्तु तुरीय अवस्था वह है ‘जब इकाई मन अत्यधिक ईश्वरानुरक्ति में अपने समस्त अस्तित्वबोध ंको, माधुर्यपूर्ण समस्त स्पंदनों को, छन्दमय सभी भाव तरंगों को परमब्रह्म के नित्यानन्द में मिला कर सामयिक रूप से या स्थायी रूप से मानसिक संकल्प विकल्प रहित स्थिति में जा पहुंचता है ’। मन की उच्चतम प्रज्ञा का चितिशक्ति(परमात्मा) के साथ एकत्व ही तुरीय अवस्था कहलाती है जो अलौकिक आनन्द की अवस्था होने के कारण उसका बाहरी प्रकाशन नहीं होता।

जब चेतन मन, आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से, इंद्रिय समूह की सहायता से,  इस भौतिक जगत में भावों के ग्रहण, वर्जन, प्रेषण और निक्षेपण करता है अथवा इंद्रियवर्जित या नाड़ीवर्जित भाव में स्नायुकोष की तरंगों को स्मरण करता है तो उसे जाग्रत अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में मनुष्य के जीवन में घात प्रतिघात हर क्षण आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से स्नायुओं को धक्का देकर कभी सुख और कभी दुख की अनुभूति कराता है। यही कारण है कि मन वास्तविक जगत के तन्मात्रिक स्पंदनों कें स्पर्श की मधुरता या कठोरता को छोड़कर एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता। इस प्रकार ज्रग्रत अवस्था में वह नाड़ी समूह के स्पंदनों के माध्यम से विचारों को सोचता है और याद करता है। परन्तु इन नाड़ियों के विचार और स्मरण आज्ञा और संज्ञा नाडियों की अवधारणा जैसे महान नहीं होते। जब मन की एकाग्रता थोड़ी बढ़ जाती है और वह अन्तर्मुखी हो जाता है तब भौतिक जगत के सुख और दुख सब भूल जाता है अतः इस समय नाड़ियां के प्रभाव से उत्पन्न विचार और स्मरण बढ़ने लगते हैं।ं इस स्थिति में वह व्यक्ति अपने मासिक बल  के द्वारा विशेष विधि का उपयोग कर किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर नियंत्रण कर सकता है। इसे ही ‘हिप्नोटिज्म’ कहा जाता है। इस प्रकार तीन अवस्थाओं में मन केवल जाग्रत अवस्था का ही अधिकतम उपयोग करता है अतः वह अपने आन्तरिक विचारों को व्यावहारिक बनाकर संसार के हित में प्रयुक्त कर सकता है। इसलिए जाग्रत अवस्था का अधिक महत्व है। जो लोग अधिक सोते हैं उन्हें उनींदापन घेरे रहता है और वे अपनी शक्ति का बहुत कम ही उपयोग कर पाते हैं। इसलिए कहा गया है-

‘‘षडदोषाः पुरुषेणेह हन्तव्याः भूतिमिच्छता, निद्रा, तंद्रा, भयं, क्रोधं आलस्यम् दीर्घसूत्रता’’

अर्थात् जो व्यक्ति अपनी उन्नति की कामना करता है उसे इन छः दोषों को त्याग देना चाहिए, वे हैं निद्रा, तंद्रा, आलस्य, भय, क्रोध और दीर्घसूत्रता। अब चूंकि मनुष्य यह जाग्रत अवस्था पाता है परमपुरुष की इच्छा से अतः किसी को भी इसके लिए बड़ी बड़ी बातें करते हुए दंभ  प्रदर्शित करने का अधिकार नहीं है।

(2) स्वप्न अवस्था में मन सोते हुए सोच विचार करता है। परन्तु चह हमेशा सोते हुए सोच विचार क्यों नहीं करता? जबकि जागते हुए मन सदा ही सोच विचार करता है, इतना ही नहीं वह जागते हुए ही ध्यान करता है और परमपुरुष के बारे में सोचविचार करता है और जाग्रत अवस्था में सदा ही सक्रिय रहता है, लेकिन सोते हुए हमेशा स्वप्न क्यों नहीं देखता? वास्तव में साने की अवस्था होती है मन को आराम करने करने की। परन्तु यदि सोने के पहले या सोते समय मन पर गहरा दुख या अत्यधिक प्रसन्नता प्रभाव डाले या किसी  बीमारी या किसी काल्पनिक सुख दुख प्रभावित करते हैं तो सोते समय पेट में बनने वाली गैस ऊपर उठकर नाड़ीतंत्र को कंपित कर देती है और मन सोचविचार करते हुए उन्हीं विचारों को स्वप्न के रूप में देखने लगता है। सोते हुए जब किसी कारण से मन की एकाग्रता बढ़ जाती है तब सर्वज्ञाता अचेतन मन नाड़ीतंत्र को सक्रिय कर देता है और स्वप्न द्रष्टा स्वप्न में उन प्रश्नों के उत्तर पा लेता है जिन्हें जानने के लिए वह संघर्ष कर रहा होता है। पर यह उत्तर विभक्त विचार होने पर कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते। ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकार के समाधान प्रारंभिक रूप से स्वप्न में और द्वितीयक रूप से जाग्रत अवस्था में आते हैं लेकिन अधिकांशतः स्वप्न के समाप्त होते ही भूल जाया करते हैं, ब्रहुत थोड़ा सा भाग ही जागते हुए याद रह पाता है। वास्तव में जाग्रत अवस्था में  अचेतन मन से अवचेतन मन में द्वितीयक रूप से ही ज्ञान प्रवाहित होता है और अधिकांश मामलों में वह वहीं पर स्थिर रह जाता है और फिर चेतन मन में सरलता से आ जाता है। अनेक बीमार व्यक्ति अपने दुख को दूर करने के लिए मूर्तियों के सामने साष्टांग प्रणाम करते हुए सतत रूप से अपनी बीमारी से हो रहे कष्ट का समाधान करने के लिए सोचने लगते हैं। क्षण भर के लिए यदि उनका मन एकाग्र होजा ता है तो सर्वज्ञाताअचेतन मन समस्या का समाधान तत्काल अवचेतन में तरंगित कर देता है । परन्तु यह अवस्था न तो निद्रा की होती है, न स्वप्न की और न ही जाग्रत की, अतः समस्या का समाधान अवचेतन से चेतन में सरलता से आ जाता है और व्यक्ति समझता है कि अमुक अमुक देवी या देवता ने वरदान में मुझे यह समाधान दिया और मैं ठीक हो गया। पर स्पष्ट है कि यह सत्य नहीं है, यह सब खेल अचेतन और अवचेतन मन का ही होता है। सामान्यतः असथायी या स्थायी एकाग्रता  इन पांच मानसिक क्रियाओं में से किसी एक के द्वारा होती है, ‘क्षिप्त’, ‘मूढ़’, ‘विक्षिप्त’, ‘एकाग्रता’, और ‘निरोध’। मूर्ति के सामने लेटा हुआ व्यक्ति अपने मन की अस्थायी एकाग्रता के फल स्वरूप अचेतन मन से आऐ विचार अवचेतन के माधम से चेतन मन को संप्रेषित कर समस्या का समाधान कर देते हैं, इसमें मूर्ति या देवता का  कोई महत्व नहीं होता है। यद्यपि 95 प्रतिशत से भी अधिक स्वप्न सत्य नहीं होते फिर भी यह विचित्र अवस्था होती है जिसमें क्षण भर में एक राजा, रंक हो जाता है और रंक, राजा। स्वप्न में किसी को अपार कष्ट से कराहते तो किसी को अपनी इच्छाओं के पूरे होने पर अपार आनन्द से हंसते हुए देखा जा सकता है। परन्तु उन लोगों का ही जीवन सफल होता है जो परमपुरुष के स्वप्न देखते हैं। यह हो सकता है कि किसी के जीवन में अपार कष्टों ने आ घेरा हो परन्तु रात में जब वे स्वप्न में अपने इष्ट से मिलते हैं तो सभी कष्ट दूर होकर उनमें आनन्द और उत्साह भर देते हैं। वे जो इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं सचमुच भाग्यशाली होते हैं। वे कह उठते हैं मैं उन्हें(अपने इष्ट को) आंखों से नहीं देखता, मैं तो उन्हें अपने मन में ही देखता हॅूं और उस मुलाकात में सभी दुख भूल जाता हॅूं इसलिए जब मैं स्वप्न देखता हॅूं मैं जिंदा रहता हॅूं । जागने पर भी उनका स्मरण बना रहता है और लगता है कि सपना सच हुआ और अब यह जागना उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। परन्तु इस प्रकार के व्यक्ति समाज का कल्याण अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं क्योंकि उनकी यह उनींदेपन की अवस्था आलस्य या जड़ता भरी नहीं होती बल्कि यह उन्हें सुनहला अवसर होता है कि अपने इष्ट (तारक ब्रह्म) के पैरों को पकड़ कर अपने अस्तित्व का जब तक जीवित हैं उपयोग करे।

(3) इस भौतिक जगत में मनुष्य की पांच वृत्तियॉं सक्रिय रहती हैं वे हैं, आहार, निद्रा, भय, मैंथुन और  धर्म साधना। इन पांच में से प्रथम चार तो जानवरों में भी होती हैं परन्तु पांचवी केवल मनुष्यों ही होती है। प्रथम चार वृत्तियों की विचित्रता यह है कि यदि उन्हें बढ़ाया जाय तो वे तेजी से बढ़ती ही जाती हैं परन्तु यदि उन पर प्रारंभ में ही थोड़ा प्रयत्न कर लिया जाय तो वे नियंत्रण में भी आ जाती हैं। पहली पांच वृत्तियां पाथमिक रूप से शारीरिक और द्वितीयक रूप से मानसिक होती हैं जबकि पांचवी बराबर बराबर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक होती है। पहली चार वृत्तियों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए न्यूनतम योगदान है जबकि पांचवीं का योगदान इस क्षेत्र में असीमित है और जितना अधिक इसका योगदान लिया जाय उतना ही अधिक अच्छा होता है। इसलिए शिव का कहना है कि प्रथम चार वृत्तियों को धीरे धीरे पांचवीं की ओर प्रवाहित करते रहना चाहिए जिससे बाद में उन पर नियंत्रण हो जाता है ओर उनकी आवश्यकता बिलकुल नहीं रह जाती। शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक कार्य करते हुए मन थक जाता है तब उसे आराम के लिए नींद की आवश्यकता होती है। जो लोग इन तीनों प्रकार के कार्यों में संतुलन बना लेते हैं उन्हें विस्तर पर जाते ही नींद आ जाती है परन्तु जो यह असंतुलन नहीं बना पाते वे अनिद्रा से पीड़ित रहते हैं। निद्रा की विशेषता यह है कि उसे जितना अधिक प्रश्रय दिया जाता है वह बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार को कोई व्यक्ति 24 में से 23 घंटे तक सो सकता है परन्तु क्या यह मौत से कुछ कम है? इस धरी पर मनुष्य धर्म साधना करने के लिए आया है यदि वह सोता रहेगा तो यह महत्वपूर्ण कार्य कब करेगा? मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि मृत्यु के अंधेरे को दूर करते हुए हृदय की सुनहली प्रकाश तरंगों में आनंदित रहना। यही गतिशील जीवन, आध्यात्मिक तरंगों से प्रेरित होकर जागृत अवस्था में भी अनुभव किया जाता है। इसलिए शिव का कहना यह है कि परमपुरुष के द्वारा ही मनुष्य को जगृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएं प्रदान की गई हैं अतः उनके अस्तित्व को मन में रखते हुए उन्हें तुरीयावस्था तक पहुंचने का अभ्यास करना चाहिए । यह अभ्यास धर्म साधना के द्वारा ही संभव है। चूंकि समग्र ब्रह्मांड उन परमपुरुष की तरंगों से ही तरंगायित हा रहा है अतः धर्म साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक तरंगों को उनकी तरंगों के साथ सरलता से मिला सकता है और उन्हें अनुभव कर सकता है।  साधना में अनुभव करते हुए साधक कहता है, हे प्रभो! आप तो अनन्त हैं, अपरिमाप्य हैं ओर मैं तो अत्यंत छोटा सा आपकी तुलना में नगण्य हॅूं। परन्तु हूं तो आपकी असीमित सत्ता का सूक्ष्म अंश ही अतः मैं अपने सभी संकल्प और विकल्पों को आपके प्रति समर्पित करता हॅूं। अब मेरे और आप के बीच कोई भेद भाव नहीं , कोई भिन्नता नहीं , कोई अलगाव नहीं। मैं तो तुम ही हॅूं। इस प्रकार जब उस परमसत्ता के साथ उसकी व्यक्तिगत सत्ता का भेद समाप्त हो जाता है तो व्यक्ति मुक्त कहा जाता है। उसके भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के बंधन समाप्त हो जाते हैं और वह अलौकिक आनन्द की परम अवस्था को पा लेता है। 


Friday, 5 September 2025

435 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का सातवां उपदेश है कि


‘‘मृच्छिलाधातुदार्वादि मूर्तावीश्वरो बुद्धयो, क्लिश्यन्तस्तपसा ज्ञानम् बिना मोक्षम् न यान्ति ते।’’

अर्थात्, वे लोग जो सोचते हैं कि परमपुरुष मिट्टी, घातु, या लकड़ी की प्रतिमाओं में सीमित रहता है और उनके सामने व्रत उपवास आदि से तपस्या करते हुए अपने शरीर को विभिन्न कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही बिना आत्मज्ञान प्राप्त किए मुक्ति नहीं पा सकते। 

स्पष्टीकरण :

(1) छठवें उपदेश में बताया गया था कि मनुष्य किस प्रकार मूर्ति की कल्पना कर उसकी पूजा द्वारा अपनी मनोकामनाओं और आकांक्षाओं को सरलता से पूरा करने का उपाय बता कर स्वयं को धोखा देता है। इस उपदेश में कहा गया है कि मनुष्य इन कल्पित मूर्तियों को केवल अपने मन में ही नहीं रखता वरन् उन्हें मिट्टी, घातु, लकड़ी आदि का बनाकर  विभिन्न आकार प्रकार देकर कीमती साज सज्जा करता है और पूजा अर्चना के लिए बहुत धन भी व्यय करता है। इनकी पूजा को केन्द्रित करते हुए पुरोहित तंत्र पैदा होता है  और जिन परमपुरुष ने सबको बनाया है उनको मिट्टी पत्थर की मूर्तियों में बनाकर स्नान मंत्र से स्नान कराना, भोजन के लिए राजभोग खिलाना, फूलों की शय्या पर सुलाना, उत्सवों के समय राजसी वस्त्रों में सजाना आदि, सब उन्हें तृप्त करने की व्यवस्थाएं बना ली हैं। किसी किसी स्थान पर उस भोग के उपादान को विभिन्न मूल्यों में बेचा जाता है और रात में मंदिर के द्वार को यह कहकर बंद कर दिया जाता है कि अब भगवान सो रहे हैं! कितना आश्चर्य! भगवान सो गए , परमपुरुष सो गए तो इस जगत का कार्य कैसे चल रहा है? कल्पना में भी धोखाधड़ी, जैसे मूर्ति की कल्पना वैसे ही भावना जगत में चोरी। फिर भी मूर्तियों में केन्द्रित देवता के लिए, तीर्थ यात्राओं में कितना कष्ट उठाना पड़ता है, धन व्यय करना पड़ता है क्योंकि वे मूर्ति में ईश्वर को कैद करके, उसका आरोपण करके उससे भौतिक सुख सुविधाओं की आशा लगाए रहते हैं।  कहा जाता है ि कइस विश्व में कुछ भी व्यर्थ नहीं है, पर यह मिट्टी केन्द्रित क्लेशभोग क्या व्यर्थ है? नहीं, यह व्यर्थ नहीं है परन्तु इस प्रकार के दुख भोग का कोई पारमार्थिक मूल्य नहीं है। जिस दिन मनुष्य को यह समझ में आ जाता है  उस दिन से उतावला होकर वह इस प्रकार की भावजड़ता के विरोध में आ जाता है। परिवेश के दबाव से वह कुछ कर नहीं पाता पर मन ही मन आर्तनाद करता है कि हे परमपुरुष! मैं ने अपनी गलती को सुधार लिया है अब आप मुझे अपनी ओर ले चलो। स्पष्ट है कि इस प्रकार के कृच्छ साधनों से लेशमात्र भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती फिर मुक्ति मोक्ष की आशा करना तो बिलकुल बेकार है। इसलिए शिव का कहना है कि मोक्ष पाने का एकमेव साधन है आत्मज्ञान प्राप्त करना। इस आत्म ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बाहर के जीवन में शुद्ध आचार, मानसिक जीवन में शुद्ध विचार तथा आत्मिक जगत में एक सर्वाश्रय परमसत्ता को जीवन का एकमात्र ध्रुवतारा समझकर दृढ़ता से पकड़े रहने की आवश्यकता होती है। 

(2) विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां बनाकर और उनको केन्द्रित कर मध्ययुग में अनेक पुराणों की रचना की गईं, जिनकी रचनाओं में व्यासदेव अग्रगण्य माने जाते हैं। व्यास जी को जब अपनी इस गलती का आभास हुआ तब उन्होंने परमपुरुष से इस प्रकार क्षमा याचना की है-

‘‘रूपम् रूपविवर्जितस्य भवतो यद्ध्यानेन वर्णितम्।

स्तुत्यानिर्वचनीयताअखिलोगुरो दूरीकृता यन्मया।

व्यापित्वं च निराकृतमं भगवतो यत्तीर्थयात्रादिना।

क्षन्तव्यं जगदीशो तद्विकलता दोषत्रयम मत्कृतम्।’’

अर्थात् "हे प्रभो! आपका कोई रूप या आकार नहीं है फिर भी मैंने आपको अनेक रूप देकर वर्णन कर डाला, जबकि आप केवल ध्यान के माध्यम से ही जाने जा सकते हो।

आप तो अवर्णनीय हैं आपके बारे में कोई शब्दों में कुछ कह ही नहीं सकता, फिर भी मैंने आपको विभिन्न स्तुतियों और प्रार्थनाओं में बांध डाला। 

आप तो निराकार होकर सर्वव्यापी हैं, और मैं ने आपको तीर्थ स्थानों में बांध दिया।

हे जगत के स्वामी! मेरी मानसिक विकृतियों के कारण मुझसे यह तीन दोष अर्थात् गलतियॉं हो गई हैं, इनके लिए आप मुझे क्षमा कर दें।"

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि  जो समस्त जगत के अस्तित्व, समस्त भावों के मध्यमणि हैं, उन्हें तो हमें अपनी आत्मा को देना है, अपनी सबसे प्रिय वस्तु अस्तित्व वोध की सारसत्ता को देना है। इसलिए व्यर्थ के प्रपंच त्याग कर कहना चाहिए ‘‘ निवेदयामि चात्मानं त्वम् गतिः परमेश्वरा।’’ अपने पन के भाव को निवेदित करके परमपुरुष के भाव को आत्मस्थ करने की जो साधना है वही आत्मज्ञान की साधना है। मोक्ष केवल इसी साधनां से मिल सकेगा। भावना के क्षेत्र में चोरी करके कोई भी वैतरणी पार नहीं कर सकता वह पाप से मुक्ति नहीं पा सकता।  जीवन के समस्त जागतिक और मानसिक स्तरों पर भी यही सार कथा है, अजस्र कथाओं में यही प्रधान कथा है।


Monday, 1 September 2025

434 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) :शिव का छठवां उपदेश है कि -



शिव का छठवां उपदेश है कि 

‘‘मनसा कल्पिता मूर्तिः नृणां चेन्मोक्षसाधनी, स्वप्नलब्धेन राज्येन राजानः मानवास्तथा।’’

अर्थात्, जैसे स्वप्न दृष्टा स्वप्न में अपने को राजा बना देखता है पर वह जागते ही राजा नहीं रह जाता उसी प्रकार मनुष्यों के मन से कल्पित मूर्ति मुक्ति कैसे दिला सकती है।

स्पष्टीकरणः

(1)  मन के मुख्यतः दो गुण हैं पहला सोच विचार करना और दूसरा याद रखना। विचार भी अनेक प्रकार के होते हैं जैसे, वर्तमान परिवेश से जुड़े, भूतकाल के परिवेश से जुड़े, किसी भी परिवेश से असंबद्ध और विलक्षण या उद्भट विचार। ‘वर्तमान’ से जुड़े विचार होते हैं घर ग्रहस्थी से जुड़े, पेड़पौधों, मित्रों, आदि से जुड़े; जैसे कोई थोड़ी दूरी पर सांप देख कर सब कुछ भूलकर उसी के बारे में सोचने लगता है, इसी प्रकार भोजन बनाते समय केवल भोजन के संबध में विचार आते हैं और परीक्षा देते समय प्रश्नपत्र से संबंधित, आदि। ‘भूतकाल’ से जुड़े विचारों में जैसे, कोई बचपन में बड़ी सुख सुविधाओं में रहा हो परन्तु  बड़े होने पर उसे अभाव देखना पड़े तो वह अपनी पिछली स्मृतियों में ही बना रहता है, कोई छात्र जो कभी उच्च श्रेणी में पास होता था यदि फेल हो जाए तो वह पुरानी स्थिति पर विचार करते हुए सिसकियॉं भरता है। अधिकारी रिटायर होने के बाद अपने पुराने दिनों के रुतवे को याद करते दूसरों को बताया रहते हैं। ‘किसी भी परिवेश से असम्बद्ध’  विचार हैं, जैसे कोई अपार कष्ट में जीवन बिता रहा है तभी उसके मन में कल्पना की रंगीन पतंग आकाश में उड़ने लगती है और वह उन रंगों में अपनी कल्पना की दुनिया में आनन्दित होने लगता है। अन्य प्रकार के विचार है विलक्षण या उद्भट विचार, जैसे वे काल्पनिक विचार जो किसी अन्य संसार से जुड़े हों। मनुष्य अपने मन में प्रायः वही विचार लाता है जो उसने अपनी इंद्रियों के माध्यम से पूर्व काल में अनुभव किए होते हैं परन्तु इसके अलावा अन्य विचार न आना मानव मन की सबसे बड़ी कमजोरी है। इसलिए इकाई मन और ब्रह्मिक मन के बीच सबसे बड़ा अन्तर यही होता है कि ब्राह्मिक मन में सभी बिचार मौलिक होते है, सदा नए होते हैं, उसे  बाहरी संसार से कोई विचार अपने अंगों के द्वारा अनुभव करने की आवश्यकता नहीं होती। (इसीलिए कहा गया है कि ‘‘भावातीत अभिनव देहि पदम’’ अर्थात् मानव मन के चिन्तन से दूर चिरनवीन हे परमपुरुष मुझे अपने चरणों में स्थान दो।) अतः जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु के पूर्ण या किसी भाग को किसी अन्य वस्तु के पूर्ण या किसी भाग से मिला दे और फिर इन सबको किसी तीसरी  और चौथी वस्तु के पूर्ण या किसी भाग से मिलाकर पूरे मिश्रण से अपनी कल्पना का कोई नया रूप रच दे तो इसे कहा जाता है विलक्षण विचार। उद्भट या विलक्षण विचार प्रायः मनुष्य के मन में भय के कारण जन्म लेते हैं। शेर से भय के कारण सिंह देवता, जगल  के भय से बचने के लिए वनदेवी, सापों के भय से नागदेवता, आदि अनेक देवी देवता केवल भय की प्रवृत्ति से ही कल्पित किए गए हैं। सामान्यतः मनुष्य कम परिश्रम किए सब कुछ पाना चाहता है अतः धन का लोभी धनदेवी या लक्ष्मी, छात्र विद्यादेवी या सरस्वती आदि की कल्पना कर बाहरी सामग्री से उनकी पूजा करने लगता है। मनुष्य मौलिक विचार नहीं कर सकता उसे इसी संसार के अनुभवों के आधार पर ही सोचना चड़ता है जबकि परपुरुष का चिंतन मौलिक होता है उन्हें इस संसार से कुछ भी नहीं लेना होता। मनुष्य द्वारा निर्मित काल्पनिक मूर्तियों में तन्मात्रिक अस्तित्व भी नहीं होता फिर पदार्थ का अस्तित्व वे कैसे पा सकती हैं? यदि यह मूर्तियॉं परमसत्ता का मौलिक विचार होतीं तो उन्हें अवश्य ही भौतिक अस्तित्व दिया गया होता। उनका निर्पेक्ष अस्तित्व  भी नहीं होता क्योंकि निर्पेक्ष अस्तित्व तो केवल परमसत्ता का ही है अन्य किसी का नहीं। इस प्रकार मनष्ुय द्वारा कल्पित अस्तित्व तो कल्पनाओं की कल्पनाएं सिद्ध होते हैं। ( मनुष्य परपुरुष की कल्पना हैं और मूर्ति मनुष्य की, अतः मूर्तियॉ ंतो कल्पना की कल्पना हैं।)   इसीलिए श्लोक के पहले भाग में कहा गया है ‘‘मनसा कल्पिता मूर्तिः’’।

(2) आलसी लोग सरलता से बहुत कुछ पाने की लालसा में कल्पनाओं के जाल बुनकार आकाश में उड़ने लगते है पर भूल जाते हैं कि कभी न कभी उसे इस धूल धूसरित धरा पर वापस आना ही पड़ेगा। जिस प्रकार वे भौतिक जगत की वस्तुओं को पाने के लिए दूसरों को धोखा देते हैं, या हाथ पैर जोड़ते हैं, गिड़गिड़ाते है उसी प्रकार वे अपनी मुक्ति मोक्ष की कामना को पूरा करने के लिए इन काल्पनिक मूर्तियों के सामने गिड़ड़िते हैं; जबकि आध्यात्मिक मुक्ति मोक्ष पाना बिलकुल ही भिन्न मामला है।ं सभी जीवधारियों के पास मन होता है किसी का प्रसुप्त, किसी का उन्नत किसी का अतिउन्नत। परन्तु मनुषय का कितना ही उन्नत मन क्यों न हो अंततः वह इकाई मन ही है जबकि सर्वाधिक उन्नत मन परमपुरुष का है जिसे ‘‘भूमा मन’’ कहते हैं। मनुष्य के सभी प्रकार के सुख और दुख इकाई मन में ही आते हैं वहीं पर अनुभव होते हैं। इसीलिए कहा गया है कि ‘‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः’’। मनुष्य का मन ही उसे बंधन में डालता है और मुक्त भी करता है। मन ही पुण्य कर्म करता है और मन ही पाप। परन्तु जिनका मन परमपुरुष के विचारों में डूबकर कर्म करता है उसे न तो कुछ भी पाप है और न पुण्य। इसलिए मन ही सुख दुख के बोझ को लादे फिरता है। जब तक इकाई मन के बाहर अन्य अस्तित्व बने रहते हैं उसे सुख, दुख, इच्छाएं, उत्कंठा आदि घेरे रहते हैं। विभिन्न प्रकार के भौतिक और मानसिक आघातों के कारण मन में सुख दुख के बुलबुले बनते और मिटते रहते हैं। परन्तु साधना के द्वारा यदि मनुष्य अपने इकाई मन को परमपुरुष के मन में डुबो देता है तो वह परमपुरुष का ही मन बन जाता है और इकाई अस्तित्व भी परमपुरुष में मिल जाता है । इस स्थिति में उसके बाहर कुछ नहीं बचता, संकल्प विकल्प भी नहीं और न ही भौतिक और मानसिक आघात रह पाते हैं। इस अवस्था को ही मुक्ति या मोक्ष कहा गया है। अब मूर्तियों पर विचार कीजिए, वे सभी इकाई मन के भावों विचारों और कल्पनाओं की छवि को प्रकट करती हैं। वे सभी इकाई मन के भीतर उसकी इच्छा के आधीन ही होती हैं जिस क्षण मन ऐसा नहीं चाहेगा वे नहीं रहेंगी वे मन में ही समा जाएंगी। अब सोचिए क्या वे मानव मन को मानसिक बंधनों से मुक्त कर परमपुरुष के मन के साथ जोड़ सकती हैं, या वे संकल्पों और विकल्पों से मुक्त कर सकती हैं? यह वैसा ही है जैसे कोई अपने पूर्वोक्त चारों प्रकार के विचारों द्वारा अपने स्वप्न में राज्य का निर्माण कर ले तो बाह्य संसार की कठोर वास्तविकता से संपर्क न होने के कारण वह अपने को सच का राजा होना अनुभव करेगा। स्वप्न और कुछ नहीं है, वह है सोते हुए सोचना। अतः जब वह जागता है तो उसकी कल्पनाओं का संसार नष्ट हो जाता है और पाता है कि वह उसी फटी दरी और चद्दर ओढ़े पड़ा है। अतः जिस प्रकार स्वप्न में पाया राज्य वास्तविक नहीं हो सकता उसी प्रकार मानव मन के द्वारा कल्पित उद्भट् विचारों द्वारा निर्मित मूर्तियॉं यथार्थता से संपर्क नहीं करा सकती बल्कि स्वप्न समाप्त होने पर जो स्थिति स्वप्न के राजा की होती है वही मूर्तियों की सच्चाई का पता चलने पर मूर्तिपूजक की होती है। इसीलिए श्लोक के अंत में कहा गया है कि ‘स्वप्नलब्धेन राज्येन राजानः मानवास्तथा।


Teachings of Lord Sadashiva, Part-2: (Shivopadesh)

The sixth sermon of Shiva is that

 “Manasa Kalpita Murti: Nrinaam Chenmokshasadhani, 

Swapnalabdhen Rajyen Rajaanah Manavasthatha.”

That is, just as a dreamer sees himself as a king in his dreams but as soon as he wakes up he ceases to be a king, in the same way how can an imaginary idol liberate people from their minds.

Explanation:

(1) The mind has mainly two qualities, first is thinking and second is remembering. There are many types of thoughts like, related to the present environment, related to the past environment, unrelated to any environment and strange or unique thoughts. Thoughts related to the ‘present’ are related to household, trees, plants, friends, etc.; like someone seeing a snake at a distance forgets everything and starts thinking about it, similarly while cooking food, only thoughts related to food come and while giving the exam, thoughts related to the question paper, etc. In the thoughts related to the ‘past’, like, if someone lived in great comforts in childhood but has to face scarcity when he grows up, then he remains stuck in his past memories, if a student who used to pass with high grades once fails, then he sighs while thinking about the old situation. After retirement, officers keep telling others about their old days of status while remembering them. Thoughts ‘unrelated to any environment’ are such, like when someone is living a life of immense pain, then a colourful kite of imagination starts flying in the sky in his mind and he starts enjoying in his world of imagination in those colours. Other types of thoughts are strange or extraordinary thoughts, like those imaginary thoughts which are related to some other world. Man usually brings in his mind the same thoughts which he has experienced in the past through his senses, but not having any other thoughts apart from this is the biggest weakness of the human mind. Therefore, the biggest difference between the unitary mind and the Brahmic mind is that in the Brahmic mind all the thoughts are original, always new, it does not need to experience any thoughts from the outside world through its organs. (That is why it is said that “Bhavatita Abhinav Dehi Padam” i.e. O Param Purush, who is ever new and far from the thinking of human mind, give me a place in your feet.) Therefore, when a person mixes the whole or a part of an object with the whole or a part of another object and then mixes all these with the whole or a part of a third or fourth object and creates a new form of his imagination with the entire mixture, then it is called unique thought. Unique or unique thoughts usually take birth in the mind of a human being due to fear. Lion God due to fear of lion, Vandevi to avoid the fear of jungle, Nag Devta due to fear of snakes, etc., many gods and goddesses have been imagined only due to the tendency of fear. Generally, man wants to get everything by doing less hard work, hence the greedy of money starts worshiping Dhandevi or Lakshmi, student Vidyadevi or Saraswati etc. by imagining them with external materials. Man cannot think original, he has to think on the basis of experiences of this world only, whereas the thinking of Parapurush is original, he does not want to take anything from this world. The imaginary idols created by man do not even have tantric existence, then how can they have the existence of matter? If these idols were the original thoughts of the Supreme Being, then they would have definitely been given a material existence. They do not have an absolute existence either, because only the Supreme Being has an absolute existence and no one else. In this way, the existences created by man are proved to be imaginations of imaginations. (Man is the imagination of another person and idol is of man, hence idols are the imaginations of imagination.) That is why it is said in the first part of the verse, “Manasaa kalpitaa murtih”.

 (2) In the desire to get a lot easily, lazy people weave webs of imagination and start flying in the sky, but forget that someday they will have to come back to this dusty earth. Just as they cheat others to get the things of the material world, or beg by folding hands and legs, in the same way they beg in front of these imaginary idols to fulfill their desire of salvation. Whereas attaining spiritual liberation and salvation is a completely different matter. All living beings have a mind, some are dormant, some are advanced and some are highly advanced. But no matter how advanced a human being's mind is, ultimately it is the unit mind, whereas the most advanced mind is that of the Supreme Being, which is called "Bhumaa mind". All kinds of happiness and sorrows of a human being come to the unit mind and are experienced there only. That is why it is said that "Man eva manushyaanaam kaaranam bandhamokshayoh". It is the mind of a human being that binds him and also liberates him. It is the mind that does virtuous deeds and it is the mind that sins. But those whose minds are immersed in the thoughts of the Supreme Being and perform deeds, they have neither any sin nor virtue. That is why the mind itself goes about bearing the burden of happiness and sorrow. As long as other existences exist outside the unit mind, happiness, sorrow, desires, longing, etc. surround it. Due to various kinds of physical and mental shocks, bubbles of happiness and sorrow keep forming and disappearing in the mind. But if through sadhana a man immerses his unit mind in the mind of Param Purush then he becomes the mind of Param Purush and unit existence also merges with Param Purush. In this state nothing remains outside him, neither resolution nor option nor physical and mental shocks remain. This state is called Mukti or Moksha. Now consider the idols, they all reveal the image of the unit mind's feelings, thoughts and imaginations. They all are within the unit mind and are subject to its will, the moment the mind does not want it, they will not be there, they will merge in the mind itself. Now think whether they can free the human mind from mental bondages and connect it with the mind of Param Purush.

Wednesday, 27 August 2025

433 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का पॉंचवां उपदेश है किः-

 

शिव का पॉंचवां उपदेश है किः- 

‘‘यदभवत यदभवति यदेव भव्यमस्ति, तेषां विलक्षणो साक्षी चिन्मात्रोहम सदाशिवः।’’

अर्थात् जो कुछ भूतकाल में रचा जा चुका है, वर्तमान में है या भविष्य में निर्मित किया जाएगा, मैं एकमात्र ज्ञानात्मक सत्ता ‘सदाशिव’ उन सभी का परम साक्षी हॅूं चाहे उनके लक्षण कैसे भी हों। ( अर्थात् अनुकूल हों या प्रतिकूल।) 

स्पष्टीकरण :

(1) संस्कृत की मूल क्रिया ‘‘भू’’ का अर्थ है ‘होना’ और ‘अभवत्’ का अर्थ है ‘ जो निर्मित किया गया है’। ‘जो निर्मित किया गया है’, इसका क्या अर्थ है? इस ब्रह्मांड में सभी कुछ ब्राह्मिक नाभिक से निकलकर लगातार गतिशील है, दूर से अति दूर और निकट से अति निकट। किसी वस्तु का लघु या विशाल होना उससे उत्सर्जित होने वाले कंपनों की तरंग लंबाई पर निर्भर करता है। इन तरंगों के सब ओर से सक्रिय होने के कारण बड़े बड़े पिंड चूर्ण की तरह लघु हो जाते हैं और इन्हीं असंख्य तरंगों के एकत्रीकरण से लघु पदार्थ विशाल आकार के बन जाते है। इस प्रकार सभी इकाइयों का रूपान्तरण छोटे या बड़े आकार में लगातार जारी है। इसलिए इस निर्मित किए गए संसार में यथास्थिति बिलकुल नहीं है और यह लघु दीर्घ आकार का होना इकाइयों की आन्तरिक और बाह्य तन्मात्राओं (तन्मात्रा  तत्  मात्रा, तत  वह अर्थात् परमसत्ता,  मात्रा  अतिसूक्ष्म इकाई) में परिवर्तन होने के कारण होता है, यह ब्रह्मांड इसी प्रकार बना है जो कि सृष्टि का खेल है। उस अनन्त सत्ता की छाती पर होने वाले इस अलौकिक खेल में ब्राह्मिक दृष्टिकोण से न तो कोई समय है, न कोई अस्तित्व और न ही स्थानिक मापन। यह दिव्यलीला देश, काल, पात्र के ऊपर है जिसके केन्द्र तक पहुंचना किसी के भी  वश में नहीं है। इस गतिशील ब्राह्मिक नृत्यलीला में, चेतना का पदार्थ के साथ चल रहा है खेल, छोटे और बड़े तथा बोधगम्य और अबोधगम्य के साथ। इस नृत्य के प्रवाह में जब कभी कोई पदार्थ इकाई चेतना के संपर्क में आता है तो वह इकाई पदार्थ उस इकाई मन की आन्तरिक धारणा में आ जाता है या बाह्य तन्मात्राओं  की अवधारणा में। इकाई चेतना या इकाई मन इसे केवल ऊपरी तौर पर ही समझ पाता है गंभीरता पूर्वक नहीं। जब इकाई मन तन्मात्राओं के संपर्क में आता है तो वह क्रिया की गतिशीलता का काल्पनिक मापन करता है। क्रिया की इस गतिशीलता का मानसिक मापन ही ‘काल’ या समय कहलाता है। मानसिक मापन या समय केवल सीमित इकाईयों के लिए लागू होता है असीमित के लिए नहीं। यह समय भी अखंड नहीं है बल्कि छोटे छोटे घटकों के आपस में मिलने से मन में समय की विशालता का काल्पनिक आभास होता है। इस काल्पनिक समय अन्तराल को जिससे इकाई मन दूर भागता जा रहा है उसे भूतकाल (अभवत) कहते हैं। सामान्य विश्लेषण से ही यह पता चल जाता है कि भूतकाल जो किसी एक स्थान या व्यक्ति के लिए लागू होता है वह किसी अन्य व्यक्ति या स्थान के लिए नहीं। इस अंतहीन नृत्य में ‘भूतकाल’ वर्तमान से संबंधित है । जो भी इस पृथ्वी के दूर इतिहास में खो गया है वह वर्तमान से निकटता से जुड़ा है भले ही वह लाखों मिलियन प्रकाश वर्ष दूर स्थित तारों पर ही क्यों न हो। इसलिए ‘भूत’ या ‘अभवत’ केवल सापेक्षिक विचार है। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि जो हमारी पहुंच से दूर हो गया है वह सदा के लिए खो गया है क्योंकि उस परमसत्ता के लिए सापेक्षिकता का बंधन है ही नहीं। इस सापेक्षिक संसार के लोगों के लिए जो भी भूतकाल होता है वह सदाशिव अर्थात अनन्त चेतना की गोद में सदा ही उपस्थित रहता है। इसलिए जब कोई आध्यात्मिक, मानसिक या भौतिक इकाई सत्ता एक या अनेक असीमित सत्ताओं संपर्क में आती है और वह तन्मात्रिक परावर्तन या अपवर्तन को संग्रहण या प्रक्षेपण कर सकती है तो वह संग्रहणकाल ही सामान्यतः ‘वर्तमान’ कहलाता है। जब तन्मात्राओं का यह संग्रहण या प्रक्षेपण काल समाप्त हो जाता है तो उसे ‘भूतकाल’ कहते हैं और वह जो इन तन्मात्राओं के संग्रहण या प्रक्षेपण की सीमा में नहीं आ पाता उसे ‘भविष्य’ कहते हैं। सापेक्षिक घटक के रूप में वर्तमान का, भूत और भविष्य के जैसा महत्व नहीं है क्योंकि वर्तमान लगातार गतिशील रहता है और कभी कभी लगता है कि वह अभी नहीं आया और अगले क्षण लगता है आ गया। हम मुश्किल से किसी को देख पाते हैं और वह भूतकाल में बदल जाता है। इसलिए वर्तमान का कुछ भाग भूत के साथ और कुछ भाग भविष्य के साथ जुड़ा होता है अतः ‘वर्तमान’ प्रत्येक व्यक्ति  के साथ बदलता रहता है। परन्तु जिस सापेक्षिक संसार में हम रहते हैं उसमें वर्तमान को मूल्यहीन नहीं कहा जा सकता वरन् भूत और भविष्य की तरह उसका भी अत्यधिक मूल्य है। इसीलिए शिव का कहना है कि ‘‘वर्तमानेषु वर्तेत’’ अर्थात् वर्तमान में रहो। वर्तमान जो कि भूत और भविष्य के संयोजन का परिणाम ह,ै उस परमसत्ता के अनन्त शरीर पर होने वाले कंपनों की तरह मान्य है। अतः इसमें संदेह नहीं कि वर्तमान में जिस परमचेतना की छाती पर ये कंपन उठते गिरते हैं वह उन सभी के कंपनमय प्रवाह को जानती है, उसके साक्ष्य के कारण ही हर अस्तित्व का प्रवाह मधुर लगता है। इसलिए सदाशिव जो कि इन सभी का संग्रहालय हैं सभी निर्मित किए गए अस्तित्वों को जानते हैं, चाहे वे अच्छे हो या बुरे।

(2) ‘भौतिक पदार्थ विज्ञान’ के क्षेत्र में वैज्ञानिकों ने कार्य कारण प्रभाव के आधार पर सभी जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम सभी के बारे में जान लिया है, उन्होंने प्रयोगशाला में अनेक नए पदार्थों को दवाओं के रूप में भी विकसित किया है परन्तु क्या वे सब कुछ जानते हैं? नहीं, वे इस विराट ब्रह्मांड के बारे में बहुत थोड़ा सा ही जान पाए हैं। इस अल्प ज्ञान के कारण ही उनमें आत्मविश्वास की भी कमी होती है। परन्तु उस परमचेतना (जिसकी छाती पर सभी सीमित इकाइयॉं निर्मित होती है, कुछ समय तक रहती हैं और फिर नष्ट होती है) को सभी की प्रकृति के बारे में शतप्रतिशत ज्ञात होता है। इसलिए कहा गया है कि ‘यदभव्यमस्ति’  अर्थात्, जो कुछ होना है वह होगा। क्या होगा क्या नहीं, क्या निर्धारित है क्या नहीं यह सब सदाशिव को ही ज्ञात है, वह सर्वज्ञाता हैं। कुछ भी उनकी सर्वांगीण निगरानी के बाहर नहीं है। शिव को सबकी योग्यता और शक्ति के बारे में सब कुछ ज्ञात है पर व्यक्ति इसे अनुभव नहीं करते है। ‘‘अभवत’’ अर्थात् भूत, ‘‘भवति’’ अर्थात् वर्तमान और ‘‘भव्यम’’ अर्थात् भविष्य, कोई भी एक दूसरे से भिन्न नहीं है और न ही कुछ भी अचानक निर्मित होता या नष्ट होता है। सभी को बह्मचक्र में घूमते हुए ब्राह्मिक नियमों का अनुशासन पूर्वक पालन करना होता है। इस प्रवाह को न तो कोई रोक सकता है और न ही अतिक्रमण कर सकता है। अलौकिक समय के पृष्ठों पर सभी कुछ वैसा ही लिखा है जैसा घटित हुआ है। इसलिए कहा गया है ‘‘तेषां विलक्षणो साक्षी’’ वह सभी के विपरीत  और विशेष दोनों प्रकार के लक्षणों के साक्षी हैं। परमशिव अर्थात् परमचेतनसत्ता इतिहास के सभी भूत, वर्तमान और भविष्य के दृश्यों से निकटता से जुड़े हुए हैं, वह उनके निर्पेक्ष साक्षी हैं और वह इतिहास की घटनाओं में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं करते हैं। वह कार्य कारण नियम की सीमा से बाहर हैं इसलिए वे विलक्षण साक्षी कहलाते हैं। विलक्षण के दो अर्थ हैं पहला विपरीत लक्षण और दूसरा विशेष लक्षण। वह सभी घटनाओं के साक्षी हैं पर उनमें सम्म्लित नहीं होते। इस प्रकार का उनका साक्षित्व उन्हें क्लेश, कर्म, विपाक और संस्कारों से मुक्त रखता है इसीलिए वह ईश्वरों के ईश्वर ‘‘महेश्वर’’ कहलाते हैं। ठीक ही कहा गया है कि परमशिव अर्थात् सदाशिव पूरे ब्रह्माण्ड की सभी घटनाओं में असंलग्न, निर्पेक्ष और अद्वितीय साक्षी हैं जिसे उनकी तीसरी ऑंख से निरूपित किया जाता है। 


Saturday, 23 August 2025

432 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) भगवान शिव का चौथा उपदेश है कि :-


भगवान शिव का चौथा उपदेश है कि :-

‘‘ न मुक्तिः शास्त्रव्याख्याने न मुक्तिर्विधिपूजने, केवलम् ब्रह्मनिष्ठो यः सः मुक्तो नात्रसंशयः’’

अर्थात्, न तो केवल शास्त्रों की व्याख्या करने से मुक्ति मिलती है और न ही देवताओं की शास्त्रों में वर्णित विधियों से पूजा करने से । वह, जो निष्ठापूर्वक बह्म के प्रति आत्मसमर्पण कर देता है उसे ही मुक्ति मिलती है इसमें कोई संशय नहीं है।

स्पष्टीकरण :

(1) ‘शास्त्रव्याख्याने’ अर्थात् शास्त्र की व्याख्या करने से। शास्त्र क्या है? ‘शासनात् तारयेत् यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’ अर्थात् वह जो अनुशासन के द्वारा मुक्ति प्रदान करता है वह शास्त्र के नाम से जाना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक संरचना का कोई न कोई नियंत्रक बल अवश्य होता है जिसके अभाव में वह संरचना विकृत होकर नष्ट हो जाती है। विचार करने पर ज्ञात होता है कि प्रत्येक संरचना के ये नियंत्रक बल तीन प्रकार के होते है क्योंकि किसी भी अस्तित्व के तीन ही घटक होते हैं। भौतिक जगत के जीवित प्राणी या यंत्र सभी का नियंत्रण मनुष्य करता है। मानसिक जगत में नियंत्रक बल होता है ‘यथार्थ और व्यावहारिक दर्शन’, और आध्यात्मिक जगत में नियंत्रक बल होता है ’परमात्मा की अनुभूति करने के तीब्र लालसा’। इस प्रकार की तीब्र लालसा वाले व्यक्ति कहा करते हैं कि मैं इस संसार को जीत लूंगा तलवार के बल पर नहीं बल्कि परमात्मा की अनुभूति के द्वारा। तलवार के द्वारा पाई जीत तो तलवार में जंग लगने के पहले ही समाप्त हो जाती है, वह क्षणिक है। तो इस भौतिक जगत में चाहे कोई व्यक्ति नियंत्रक हो या मशीन यानि यंत्र वह अल्प समय के लिए ही यह कर सकता है अधिक दिन तक नहीं क्योंकि मनुष्य और मशीन दोनों की आयु सीमित है। परन्तु भौतिक जगत में नियंत्रण आवश्यक है क्योंकि यहॉं अनेक लोग पशु की तरह जीवन जीते हुए पागल कुत्ते की तरह दूसरों के मुंह का कौर छीन लेते हैं। मनुष्य के शरीर में रहते हुए भी वे जड़ता से भरे भ्रामक सिद्धान्तों का पालन कते हैं और कट्टरता को बढ़ावा देकर धन के भूखे यह लोग  असंगठित,सरल और निरपराधी लोगों की आवाज सदा के लिए दबा कर धीरे धीरे मौत की ओर धकेलते रहते हैं, वे अपनी आन्तरिक इच्छाओं को कभी किसी से कह ही नहीं पाते। इसीलिए भौतिक जगत में एक अनुशासन की संहिता पुस्तक के रूप में आवश्यक हो जाती है; बल्कि आध्यात्मिक और कल्याणकारी व्यक्ति पुस्तक की अपेक्षा इस क्षेत्र में अधिक प्रभावी होता है। भौतिक जगत में कोई भी संरचना हमेशा नहीं बनी रहती वह धीरे धीरे रूपान्तरित होती रही है। अतः यदि लिखित संहिता की जगह कोई नियंत्रणकर्ता अपने प्रशासनिक अधिकार का उपयोग करके किसी संरचना को बनाए रचाना चाहता है तो उसे शास्त्र या संहिता की तरह ही कल्याणकारी होना चाहिए। कल्याणकारी या अकल्याणकारी होने से तात्पर्य यह है कि वह व्यक्ति अपने आदर्शों से एक इंच भी नहीं हटेगा और न ही किसी को भी आदर्श से दूर हटने देगा। यदि वह जनता की आलोचना पर ध्यान देगा तो वह कभी भी मानव कल्याण नहीं कर सकेगा। इसलिए संहिता की व्याख्या करने वाले नहीं उसके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने वाले सत्यनिष्ठ व्यक्ति ही भौतिक क्षेत्र में नियंत्रक हो सकते है।

(2) मानसिक क्षेत्र की संरचनाएं विशेष प्रकार के आदर्शों पर आधारित होती हैं। ये आदर्श या तो लिखित निर्देशों के रूप में होते है या दूसरों को मार्गदर्शन कर सकने  वाला असाधारण व्यक्ति। परतु व्यावहारिक क्षेत्र में क्या होता है? यह आदर्श दो प्रकार के पाए जाते हैं आंतरिक और बाह्य । जब यह आदर्श इस प्रकार प्रचारित किए जाते हैं कि उनकी आन्तरिक मधुरता बाहर आकर प्रत्येक व्यक्ति के भीतर और बाहर सुसंतुलन स्थापित कर सके तो ये आदर्श स्थायी हो जाते है। यह कहना उचित नहीं है कि  इस प्रकार के आदर्श कभी स्थापित नहीं किए जा सकते  परन्तु हॉं इनका पालन करने और अनुशासन में लाने वालों को पद पद पर विपरीत आघातों का सामना करना पड़ता है। विरोध से यहॉं तात्पर्य यह है कि वह हमारी प्रगति में सहायक होता है । वास्तव में यह विरोध आदर्श दर्शन से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयॉं ही होती हैं जिन्हें उसके सही जानकार ही समाधान कर पाते हैं। हम जानते हैं कि पूर्वकाल में अनेक महापुरुष अपना अपना दर्शन लेकर आए परन्तु जब विरोध का सामना हुआ तो वे स्वयं आडम्बर फैलाने लगे, इस स्थिति में अन्य लोगों से आदर्श पर चलने की क्या अपेक्षा रखी जाए। इसलिए शिव का कहना है कि भौतिक जगत की अपेक्षा चूंकि मनुष्य अपने मानसिक कार्यों, आशाओं और अपेक्षाओं में अधिक उलझा रहता है अतः उसे अपने मानसिक क्षेत्र में विस्तार करने के अनेक अवसर होते हैं परन्तु उचित मार्गदर्शन के अभाव में न केवल एक व्यक्ति बल्कि पूरा समाज निराशा के चौराहे पर खड़ा नष्ट हो जाता है। इसलिए ये आडम्बरी लोग जो शास्त्र का व्याख्यान लच्छे पुच्छेदार भाषा में करते देखे जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। अतः मानसिक संसार में नियंत्रण करने वाले व्यक्ति में भौतिक संसार की अपेक्षा आदर्श का कठोरता से पालन करने और कराने का विशेष गुण होना चाहिए।ष्

(3) शिव का कहना है कि शास्त्र की तरह नियंत्रण करने वाले वाले का व्यक्तित्व लिखी हुई पुस्तक से भी प्रबल होना चाहिए और मानसिक स्तर पर उसे सब कुछ समाहित किए हुए दर्शन शास्त्र में प्रवीण होना चाहिए।  समाज में इस दर्शन को प्रचारित करने वालों का उत्तम चरित्र और बुद्धिमान होना चाहिए । यदि दर्शन में कुछ कमी है और दर्शन के प्रचारक में कोई कमी नहीं है तो वह समाज में  अपने जीवन में समाज की कोई क्षति नहीं कर सकता। परन्तु यदि उस व्याख्याकार व्यक्ति में दोष हैं परन्तु दर्शन शास्त्र में नहीं तो वह दर्शग्न किताबों में ही रह जाएगा और समाज पतन के गर्त में डूब जाएगा। पूर्व में अनेक दर्शन आए जिन्होंने मानव का मन उन्नत किया पर वे उनके मनों में पहले से जमे हुए विचारों को दूर नहीं कर पाए। इसलिए वे जो समाज में स्थायी दर्शन स्थापित करना चाहते हैं उन्हें बड़ी जिम्मेवारी उठाना होगी। इसमें सफलता तभी मिलेगी जब उनमें जिम्मेदारी का अनुभव कराने वाला उन्नत दार्शनिक ज्ञान और मानवता के प्रति निर्दोष प्रेम का सुसामंजस्य हो। वे दर्शन जो सिखाते हैं कि केवल उनकी समाज के लोग ही परमात्मा की प्रिय संताने हैं अन्य सभी अभिशप्त और अवांछित वे दोषपूर्ण दर्शन कहलाते हैं । उनके व्याख्याकार दूसरे समाज के लोगों को मार डालने को पवित्र कार्य मानते हैं। इसी प्रकार की असत्य विचारधारा के लोग जनसाधारण का धर्म के नाम पर शोषण करते हैं और कहते हैं कि यदि हम अपनी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते हैं तो क्या दोष है? इस प्रकार की विचारधारा ने लाखों लागों को मार डाला और असंख्य केवल अपना अस्थिपंजर लादे हुए हैं। इससे अनेक लोगों को आदर्श से भटका कर धर्मविहीन कर डाला है। इस प्रकार की छद्म विचारधारा मानवता की घातक है अतः अवांछनीय है।

(4) सभी युगों और सभी क्षेत्रों में यह सार्वभौमिक सत्य माना गया है कि मानव जीवन की मुख्यधारा ‘धर्म’ है। वही जीवधारियों का उपक्रम है, धन है और जीवन यात्रा का मार्गदर्शक। व्यापक रूप से सभी जड़ ओर चेतन का अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म  किसी  वस्तु के अस्तित्व को प्रकट करता है। मानव का धर्म अन्य प्राणियों की तुलना में जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश पाकर व्यापक होता है। इसलिए वास्तव में धर्म मनुष्यों का सच्चा मार्गदर्शक, नियंत्रक, प्रेरक और रक्षक होता है। इतना ही नहीं वह उत्तम और  व्यापक आदर्श का संवाहक होता है जो मनुष्य को आध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए स्पष्ट और साहसिक दिशा बतलाता है और व्यक्तिगत तथा सामाजिक और आध्यात्मिक गतिविधियों  में सामूहिक रूप से ईश्वर के निकट ले जाने में प्रेरक होता है। अतः शिव का निर्देश है कि जिसमें इन सब शर्तों का समावेश नहीं पाया जाता उसे शास्त्र नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार के ग्रंथों में शास्त्र की इस परिभाषा की चेतना नहीं होती ‘‘ शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’’(जो अनुशासन के द्वारा मुक्ति दिलाता है वही शास्त्र कहलाता है)।  इसप्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में आवश्यक शास्त्र को ‘धर्मशास्त्र’ कहते हैं और गुरु के रूप में ब्रह्म उसका नियंत्रक होता है। मानसिक संसार का अन्य घटक होता है दार्शनिक तथ्य, लिखित रूप में इसे ‘दर्शनशास्त्र’ कहते हैं इसमें किसी भी प्रकार का अंधानुकरण या जड़ता मूलक तत्व नहीं होना चाहिए। इससे जुड़ा हुआ होता है दर्शन प्रवक्ता जो सही ढंग से दार्शनिक तथ्यों को समझ कर जनसामान्य को समझा सके। भूतकाल में दार्शनिक तथ्यों की गलत व्याख्या का परिणाम मानवता को हजारों साल तक भोगना पड़ा (जैसे, पशु बलि, नर बलि और सती प्रथा)। इस पार्थिव जगत में जो शास्त्र  मानव जीवन के मनोवैज्ञानिक,राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक तथ्यों से प्रसारित होने वाली तरंगों को व्यवस्थित रूप नियंत्रित कर सकता है उसे ‘सामाज शास्त्र’ कहते हैं। यह सामाजिक संहिता मानव मन में सामाजिक चेतना को उत्पन्न करती है। 

जब किसी श्लोक, सूत्र या तथ्य को किसी प्रश्नकर्ता को समुचित महत्वपूर्ण ढंग से समझाया जाता है तो उसे व्याख्या या व्याख्यान कहते हैं। इसमें जिन ष्शब्दों  को सामान्य व्याख्याकारों द्वारा छोड़ दिया जाता है उन्हें सही व्याख्या करने वाला उचित कथानक के साथ प्रश्नकर्ता के सामने महत्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। आज धर्मशास्त्र, धर्मगुरु, दर्शन शास्त्र, दर्शन प्रवक्ता, समाजशास्त्र, समाजनेता और समाज आदर्श को उचित प्रकार से समझाना ही शास्त्र व्याख्यान का मूल उद्देश्य है। यदि उसे उचित प्रकार से नहीं समझाया जाता है तो लोग सही ढंग से तथ्य को ग्रहण नहीं कर पाते हैं। इसलिए शास्त्र को योग्य विद्वान, स्पर्धावान दार्शनिक और गहराई से सोच सकने वाले व्यक्ति से ही व्याख्या कराना चाहिए। कुछ लोग न तो विद्वान होते हैं न ही दार्शनिक और न गहराई से सोच सकने वाले फिर भी वे जीवन यापन के लिए शास्त्र व्याख्या करते देखे जाते हैं , इतना ही नहीं कुछ लोग शास्त्र व्याख्या इसलिए करते हैं कि उन्हें समाज में उत्कृष्ट स्तर का ज्ञाता और शोधकर्ता माना जा सके, कुछ व्याख्याता लोगों की मान्यता पाकर घमंड से फूल जाते हैं, इस प्रकार के लोगों से शिव का स्पष्ट कहना है कि ‘न मुक्तिः शास्त्र व्याख्याने’  ऐसे व्याख्यकारों को मुक्ति नही मिल सकती। 

(5) ‘विधि’ का अर्थ है अनुशासन संहिता। अनुशासन क्या है? ‘‘हितार्थे शासनम् इति अनुशासनम्।’’ अर्थात् अनियमितता के विरुद्ध नियमितता, अनुशासनहीनता के विरुद्ध अनुशासन, नैतिक ह्रास के विरुद्ध नैतिक सुधार, अपमानजनक और विश्लेष्णात्मक गति को सम्मानजनक और संश्लेष्णात्मक गति द्वारा संयोजित करने के लिए जो नियंत्रण या शासन किया जाता है उसे अनुशासन कहते हैं। अनुशासन भी अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग होता है, किसी को छोटे अपराध के लिए कड़ा दंड और किसी को बड़े अपराध के लिए छोटा दंड मिलता है। शिव का कहना है कि यह उचित नहीं है ‘जब ज्ञानी, कुशाग्र बुद्धि और संतुलित मस्तिष्क के विद्वान लोग न्याय पर आधारित अनुशासन संहिता का निर्माण करते हैं तो उसे ‘‘विधि’’ कहते हैं।श्परन्तु क्रिया की प्रतिक्रिया, अधिकार पाने पर घमंड, अपने को शक्तिमान कर्ता मानकर उद्दंडता करना आदि के संबंध में कितना ही प्रकांड विद्वान हो वह कानून नहीं बना सकता,  केवल परमपुरुष ही इस संबंध में नियम कानून बना सकते है। इन्हें ईश्वरीय विधान कहते हैं जिनके माध्यम से वह परमसत्ता पूरे ब्रह्मांड पर नियंत्रण करता है। इन्हें  वह स्वयं नहीं तोड़ सकता, ‘‘विधिलिपिः अखंडनीया विधातापि खंडने असमर्थः’’।  चूंकि परमपुरुष ने ही यह अखंडनीय नियम बनाए हैं अतः उनका एक नाम है ‘विधाता’।

हम सभी जानते हैं कि जब कोई विपत्ति आ घेरती है तो हम सिपर पीटते हैं आंसू बहाते हैं और कहने लगते हैं ‘ हे विधाता यह तूने क्या किया, मुझे ही पूरी दुनिया के कष्ट क्यों दे रहा है, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है’ आदि। परन्तु दुखों का सामना करने पर इस प्रकार भगवान को दोष देना न्यायोचित नहीं है क्योंकि सभी अलौकिक मामलों में परमपुरुष अपने वैधानिक नियमों के अनुसार की कार्य करते है; वह अपने द्वारा काई भी कार्य नहीं करते। उसके वैधानिक नियमों का पालन कते हुए ही आग सभी को जलाती है फिर चाहे कोई बुंजुर्ग हो या बच्चा। यदि वह अपने नियम तोड़कर सीधे ही कुछ करना चाहेंगे तो पूरा ब्रह्मांड ही नष्ट हो जाएगा, इसलिए वह समर्थ होते हुण् भी अपने नियम नहीं तोड़ते। यदि वे किसी को क्षमा भी करते हैं तो परोक्ष रूप से यह प्रेरणा देते हैं कि कुछ अच्छा काम करो। परन्तु यह सत्य है कि अच्छा कर्म करने के अच्छे और बुरे कर्म के बुरे परिणाम स्वयं कर्ता को ही भोगना पड़ते हैं। कठिनाई या दुखों के समय सहनशक्ति को पाना उनकी कृपा से संभव है, अतः जब व्यक्ति अपार कष्ट में हो और अपने पर नियंत्रण न कर पा रहा हो तो परमपुरुष से यह निवेदन कर सकता है कि प्रभो! मुझे इस कष्ट को सहन करने की शक्ति दे दो।

(6) पूजा अथवा पूजन-जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट करता है जिसमें बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है या इन वस्तुओं का नहीं भी अर्पण करता है तो उसे पूजा या पूजन कहते हैं।

अर्चा या अर्चना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट कर बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है तो इसे अर्चा या अर्चना कहते हैं।

प्रार्थना- जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या बिना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति गहरे मन से बिना किसी बाहरी सामग्री के साथ अत्यंन्त आदर प्रकट करता है तो उसे प्रार्थना कहते हैं।

विधिपूजन- ऊपर वर्णित पूजा की विधियॉं धार्मिक कर्मकांडियों द्वारा अनेक भागों में कराई जाती हैं जैसे, अंगन्यास, करन्यास, आचमन, शिखाबंधन, आवाहन, माल्यदान, तिलकधारण, और विसर्जन। इस प्रक्रिया सहित पूजन करने को विधिपूजन कहते हैं।

अब विधिपूजन को समझने में कोई अधिक मानसिक प्रयास नहीं करना पड़ता क्योंकि पूजा करने वाले का मन अपने इष्ट की अपेक्षा बाहरी क्रियाओं पर अधिक केन्द्रित होता है। इसके अलावा यदि यह पूजा पंडित के द्वारा कराई जा रही हो (पूजा का नियम है कि उसे निराहार रहकर ही सम्पन्न करें) और उसे अनेक स्थानों पर पूजा करने जाना हो तो नियमानुसार उसे भूखा रहकर यह कार्य सम्पन्न करना होगा। इसलिए दिन के पहले आधे भाग में तो कुछ नहीं कह सकते पर दूसरे भाग में उसके पेट में चूहे दौड़ने लगेंगे और उसका ध्यान इष्ट से बार बार हटकर भोजन की ओर होगा तो इस प्रकार की पूजा को विधिपूजन नहीं कहा जा सकता न ही साधारण पूजा। इसके अलावा पूजा के समय भेंट की गई सामग्री पर भी पंडित का ध्यान रहेगा इसलिए शिव ने सही कहा है कि ‘ न मुक्तिः विधिपूजने’।

(7) शाब्दिक रूप से ‘ब्रह्म’ का अर्थ है ‘जो बहुत बड़ा है’ परन्तु लक्षणात्मक रूप से उसका अर्थ है ‘ब्रहत्वाद ब्रह्म, ब्रंहणत्वाद ब्रह्म’। अर्थात् वह जो स्वयं तो बहुत बड़ा है ही लेकिन उसमें दूसरों को भी बड़ा बनाने की क्षमता है। अब मानलो कोई व्यक्ति जो दूसरों को पैरों के नीचे आई चीटी की तरह नष्ट करता है वह पूर्वोक्त शब्दिक अर्थ में बड़ा हो सकता है परन्तु शब्द में निहित आदर्श भावना के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। अतः वह व्यक्तित्व जो दूसरों को प्रगति का नया मार्ग खोलता है,पतित का उत्थान करता है, वही ब्रह्म शब्द के भीतर की यथार्थ भावना को पारिभाषित करता है। ब्रह्म किसी को नष्ट नहीं करता, वह चाहता है कि सभी विस्तार की चरमावस्था की अनुभूति करें, सभी अपने अस्तित्व आभा की अनुभूति करें। इस प्रकार का व्यक्तित्व ही ब्रह्मांड के हर अस्तित्व के लिए पूर्ण ब्रह्म कहलाएगा। अर्थात् वह पूर्ण है, पूर्ण से ही उसका उद्गम होता है और यदि उससे पूर्ण को निकाला जाय तो भी वह पूर्ण ही बचा रहता है। इसलिए पूर्ण का एक अर्थ है त्रुटिहीन या निर्दोष और दूसरा अर्थ है जिसे मापा नहीं जा सके अर्थात् अमाप्य। इसलिए वह सभी लोकों और उनसे भी आगे जो भी हो उनमें पूर्ण ही है। सभी इकाई सत्ताएं उसी पूर्ण  से निकलकर आई हैं उसी पूर्ण में व्यवस्थित बनी हुई हैं और अन्त में उसी पूर्ण में मिल जाऐंगी।  इसलिए वह स्वयं महान है और दूसरों को भी महान बना देता है ताकि वे भी उसके निकट आ सकें। इस जीपन में वह पूर्ण ब्रह्म ही हम सभी का लक्ष्य होना चाहिए।

इसप्रकार जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति अपनी सभी प्रवृत्तियॉं, सभी विचार और मन की निर्लिप्तता को इस परमकल्याणकारी परमसत्ता की ओर भेजता जाता है इस पवित्र भावना के साथ गति करने को कहा जाता है ‘निष्ठा’। इस प्रकार जो भी निष्ठावान ब्रह्म साधना करता है वह अन्त में ‘ब्रह्मसद्भाव’’ में प्रतिष्ठित होगा ही, इस अवस्था के लिए कहा जाता है आत्मसाक्षात्कार। ध्यान रहे इस प्रकार की ब्रह्म साधना की प्रारंभिक अवस्था में भी बाहरी किसी भी प्रकार की ढेरों विविध वस्तुओं ( फूल, माला, नैवेद्य, फल, मिष्ठान्न और श्रंगार सामग्री ) और साज सामान की आवश्यकता नहीं होती।  इसलिए शिव का कहना है कि, इस प्रकार का आत्म जिज्ञासु जिसे ब्रह्म निष्ठा के साथ ब्रह्मसाधना करने का आशीष मिला है वह अवश्य ही ब्रह्मसद्भाव को पाएगा इसमें कोई संशय नही है, ‘‘केवलम् ब्रह्मनिष्ठो यः सः मुक्तो नात्रसंशयः।’’


Monday, 18 August 2025

431 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

 

भगवान शिव का तीसरा उपदेश है कि :-

न मुक्तिर्तपनादहोमातुपवासशहस्त्रेरपि, ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा मुक्तो भवति देहभ्रत्।

अर्थात्, तप करने, आहुतियॉं देकर बलि अनुष्ठान करने, और हजारों उपवास करने से मुक्ति नहीं मिलती। मनुष्य देहधारी को तब मुक्ति मिलती है जब वह अनुभव कर लेता है कि ‘‘मैं ब्रह्म ही हूॅं।’’

स्पष्टीकरण :

(1) शब्द ‘‘मुक्ति’’ का निर्माण होता है क्रिया ‘मुच’ और प्रत्यय ‘क्तिन’ के मेल से। इसलिए मुक्ति का अर्थ हुआ सभी प्रकार के मौलिक बंधनों का दूर हो जाना। अब प्रश्न है कि बंधनों से दूर किसको होना है? निश्चित ही जिसके हाथ पैर बंधे हों,बोल न पाता हो,हृदय की भावनाएं दब गई हों, जीवन की आशाएं खीण हो गई हों, जो भौतिक रूप से सलाखों के पीछे हो, जिसका मन हठधमिता के चंगुल में हो, जिसकी आत्मा आनन्ददायी अमृत के प्रवाह की अनुभूति से दूर हो, जिसकी प्रगति का पथ अवरुद्ध हो गया हो वह निश्चय ही बंधन में है। इन सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त होने के लिए जो कठिन पराक्रम किया जाता है उसका नाम है ‘‘साधना’’ जिसका उद्ेश्य इस प्रकार के प्रयत्न करने की प्रेरणा देता है वह कहलाता है ‘मुक्ति’।
(2) बंधनों को तीन प्रकार का बताया गया है, आधिभौतिक, आदिदैविक और आध्यात्मिक। व्यापक रूप से इस भौतिक जगत से जुड़े घर गृहस्थी, कामधंधे आदि के बंधन आधिभौतिक बंधन कहलाते हैं। मानसिक विकृतियॉं, भ्रम, मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, श्रेष्ठता बोध, हीनता बोध, पूर्व जन्म के बचे हुए संस्कार(प्रारब्ध) आधिदैविक अर्थात् मानसिक बंधन कहलाते हैं। चेतना, परमचेतना, परमचेतना के अनुभव न कर पाने की पीड़ा आदि आघ्यात्मिक बंधन कहलाते हैं। आधिभौतिक बंधन तीन प्रकार के होते है। जिन्हें भावगत(हठधर्मिता) बंधन, कालगत (समय से जुड़े)बंधन और आधारगत (स्थानीय)बंधन कहा जाता है। इन तीनों में से सबसे खतरनाक भावगत बंधन होते हैं जो हठधर्मिता और जड़ता के प्रभाव से मनुष्य में जन्म से ही भर दिए जाते हैं। इस प्रकार पाए गए क्रियाकलाप प्रगति के मार्ग से दूर करते हैं। वे जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में अंधविश्वासों के रंगीन प्रदर्शन के अलावा कुछ नहीं होते। जैसे, यह मत करो, वह करोगे तो नर्क में जाओगे आदि। मनुष्य इस प्रकार के हठधर्मी विचारों कोमन में दबाए अपनी आवाज नहीं निकाल पाता और आंसू बहाते हुए अपने को जनबूझकर भाग्य के भरोसे छोड़ देता है। समय के साथ होने वाले परिवर्तन अनेक प्रकार की समस्याओं से जुड़ते जाते हैं और स्थानिक घटक इन स्थितियों को भी बदल डालते हैं। इतना तक कि लोगों की भावनाएं विकृत हो जाती है और वे उस स्थान,राज्य, या देश को भी छोड़ कर चले जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। यदि एक उदात्त (सार्वभैमिक) विचारधारा को व्यक्तिगत जीवन में उतारा जाए तो सभी प्रकार के मानसिक बंधन दूर हो सकते है। इसी प्रकार जब वह सोचता है कि परमपुरुष मेंरे ही ह,ैं अभिन्न हैं फिर मेरा हृदय उन्हें क्यों अनुभव नहीं कर रहा है, इस प्रकार मैं कब तक उन्हें अनुभव करने से बंचित रहॅूंगा आदि उन्हें न पाने की मानसिक पीड़ा आध्यात्मिक बंधन कहलाते हैं।
(3) जब कोई व्यक्ति इन तीनों प्रकार के बंधनों को दूर करने का उपाय करते हुए अस्थायी सफलता पाता है तो उसे ‘अर्थ’ कहते हैं। जब यह अस्थायी सफलता कुछ अधिक स्तर पर होती है तो उसे ‘मध्यार्थ’ कहते हैं और जब स्थायी सफलता मिल जाती है तो उसे ‘परमार्थ’ कहते हैं। जैसे कोई भूख से तड़प रहा है और उसे कुछ रुपए दे दिए जाएं तो उस दिन की भूख का दुख दूर हो जाएगा पर अगले दिल फिर भूख लगेगी अतः इस दिए गए रुपयों को कहेंगे ‘अर्थ’। अब यदि उसे बहुत सा धन दे दिया जाए तो कुछ दिन की भूख का कष्ट दूर होगा इसलिए यह कहलाएगा ‘मध्यार्थ’ परन्तु ‘परमार्थ’ नहीं। भूख को स्थायी रूप से दूर करने के लिए भूमि, जल, बीज और खेती की सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना होगी और साथ ही अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए यह प्रार्थना परमात्मा से करना होगी कि हे प्रभो! आपने हमें अर्थ और मध्यार्थ तो दिया है परन्तु अंतिम रूप से सफलता की कुंजी तो आपके हाथ में ही है। अर्थात् परमार्थ तो आपके पास ही है, बिना उसके हम बंधनों से मुक्त कैसे होंगे।
(4) मुक्ति के बाद पूर्वोक्त श्लोक में आता है ‘तपन’। यह शब्द, क्रिया ‘तप’ और प्रत्यय ‘अनट’ के मेल से बनता है। इसका अर्थ है ‘तपाना’। किसी समय तपना और तपाना आवश्यक हो सकते हैं परन्तु हमेशा नहीं। बोलचाल की भाषा में तपन का अर्थ है वह कार्य करना जो शरीर और मन को गर्म करता है। यह दो प्रकार से हो सकता है पहला यदि मन और शरीर किसी गर्म वस्तु या स अनुभूति के संपर्क में आए या शारीरिक परिश्रम जिसमें अंगों का व्यायाम हो तो शरीर या मन गर्म हो सकता है। तपः और तपन की मूल क्रिया एक ही है परन्तु तपः विशेष प्रकार से उपयोग किया जाता है अर्थात् ‘ दूसरों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए स्वयं को भौतिक और मानसिक कष्टों के साथ जोड़ लेना’। इतना ही नहीं उन कठिनाइयों को इस प्रकार पकड़ कर रखना कि मन और शरीर गर्म हो जाए। जब किसी हठधर्मी (डोग्मा प्रभावित) व्यक्ति की भावनाएं लगातार उत्प्रेरित की जाती हैं तो उसका मन गर्म हो जाता है और उसके नर्वसैल और नर्व फाइबर के बीच सूक्ष्म संयोजन हो जाता है और वह अपनी शान्त मनोभावना को छोड़ कर अमानवीय गतिविधियों में लग जाता है। देखा जाता है कि जो लोग डोग्मा से प्रभावित होते हैं उनका मन भाषा, लेखन और चित्रों को देखकर जल्दी ही गर्म हों जाता है। कुछ लोग कष्टदायी तपस्या, जैसे लंबे समय तक हाथ ऊपर किए खड़े रहना, या पैर ऊपर किए सिर नीचे किए रहना, या चारों ओर आग का घेरा बनाकर बीच में बैठना आदि में जुटे रहते हैं। क्या इस स्थिति में उनका मन स्थिर रह सकता है? बाहरी ऊष्मा उनके मन और ष्शरीर के बीच असंतुलन कर गतिरोध करती है। शिव का कहना है कि इन लोगों को परमपपुरुष की समीपता कभी नहीं प्राप्त हो सकती, जो लोग प्रकृति के विरुद्ध आचरण करते हैं वे असामान्य हो जाते हैं उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। शिव का कहना है कि सभी लोग अपने मन की भावनाओं को केवल एक परमसत्ता की ओर ही प्रवाहित करते रहो सभी के सुख दुख अपने मानकर परस्पर मदद करते रहो, ‘संगच्छघ्वं संवदघ्वं सं वो मनांसि जानताम्।’
(5) शिव का कहना है कि ‘तपः’ को यम और नियमों के अन्तर्गत भी रखा गया है परन्तु यह तप पूर्वाक्त तप से भिन्न है। नियम के अन्तर्गत आने वाला ‘तपः’ दूसरों के हित के लिए स्वयं भौतिक कठिनाइयॉ स्वीकार कर लेना है। इस प्रकार के तप से साधारण व्यक्ति भी आध्यात्मिकता के उच्च स्तर पर पहॅुंच जाता है। इस प्रकार का तप भौतिक और मानसिक शुद्धता लाता है और मुक्ति का सुनहला मार्ग खोल देता है।ं
(6) पहले बलि अनुष्ठान के समय ‘होम’ और ‘हवन’ का उपयोगष्अलग अलग महत्व के लिए किया जाता था। सामान्यत बलि अनुष्ठान में होम किसी धार्मिक या सामाजिक समारोह की समाप्ति पर किया जाता था और होम करते समय केवल शुद्ध घी का उपयोग किया जाता था। हवन में शुद्ध घी के साथ साथ विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों का भी उपयोग होता था जो वैदिक देवी देवताओं को प्रसन्न कर उनसे वरदान पाने के लिए किया जाता था। धीरे धीरे इनका यह अन्तर समाप्त हो गया और अब वे एक दूसरे के पूरक बन गए हैं। लोग सोचते थे कि हवन और होम से उत्पन्न सुगंधित धुआं ऊपर जाकर देवताओं को प्रसन्न करेगा और उनके मन और स्वास्थ्य की क्रियाशालता को बढ़ा कर ईश्वर तक ले जाएगा। शिव का निर्देश है कि सुगंधित धुआं नाक को भले ही आनंदित करे पर उसमें पाए जाने वाले अधजले कार्बन के कण फेंफड़ों के लिए घातक सिद्ध होते है। इसके अलावा उससे आध्यात्मिक उपलब्धि नगणय है। कुछ लोग इससे वायु के शुद्ध होने का तर्क देते हैं, परन्तु सब जानते हैं कि धुंआ वायु को प्रदूषित करता है अतः यह सही नहीं है। इस प्रकार उपयोगी खाद्य सामग्री को आग में जला कर नष्ट करने का कोई औचित्य ही नहीं है और न ही उसका किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक विकास या मुक्ति होने से संबंध है।
(7) शब्द उपवास ,उपसर्ग ‘उप, मूल क्रिया ‘वस’ और प्रत्यय ‘घई’ को मिलाकर बनता है। ‘उप का अर्थ है निकट’ (जैसे उपाध्यक्ष अर्थात् अध्यक्ष के निकट) और ‘वास का अर्थ है निवास करना या बैठना’। इसलिए ‘‘उपवास का अर्थ हुआ निकट वैठना ’’। प्रश्न उठता है कि किसके निकट बैठना? उत्तर है ईश्वर के निकट बैठना। चूंकि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि आध्यात्मिक अभ्यास करके आत्म साक्षात्कार करे। परन्तु उसका मन और शरीर तो पंच भौतिक घटकों से बना होता है जो इस भौतिक जगत से दूर नहीं होना चाहता। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह आध्यात्मिक अभ्यास अपने जीवन का प्रारंभिक उद्देश्य मानते हुए सांसारिक जिम्मेवारियों को ईश्वर द्वारा दिए गए कार्य मानकर करता रहे। परन्तु मनुष्य का मनोविज्ञान यह है कि वह सांसारिक कार्य करते हुए अपने जरीवन के मुख्य उद्देश्य से भटकने लगता है। इतना तक कि वह सांसारिक कामों में ही अपना उत्थान मानने लगता है और फिर उसका पतन हो जाता है। तो अब इसका समाधान क्या है? शिव ने कहा कि ठीक है सामान्य दिनों में वह ऊपर बताए गए अनुसार अपना आध्यात्मिक अभ्यास जारी रखे और संसार के काम भी ,परन्तु कुछ दिनों में केवल आध्यात्मिक साधना ही करे और सांसारिक काम बंद रखे। इन विशेष दिनों को शिव ने ‘उपवास’ का नाम दिया है। अर्थात् इन दिनों में वह केवल ईश्वर के निकट ही रहेगा, उन्हीं का ध्यान, भजन, चिंतन और स्वाध्याय करेगा। परन्तु कालान्तर में इसके साथ मुख्य बातें भूलकर उपवास को निराहार रहने से जोड़ा गया और आडम्बर फैलाया गया कि इससे उनके पूरे खानदान को मरने के बाद स्वर्ग में स्थान मिलेगा। इस प्रकार के निराहार (वास्तव में फलाहार या अन्य तथाकथित फलाहारी भोजन कर) रहने के अनेक दिनों को चिन्हित कर हर माह में कुछ न कुछ उपवासों को कलेंडर में बताया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि शिव द्वारा बताए गए ‘उपवास’ को आडम्बर से जोड़ कर उसके पवित्र लक्ष्य को ही नष्ट कर दिया गया है। निराहार रहने से मन और शरीर शुद्ध होता है और साधना के लिए अनुकूल अवसर बनाता है लेकिन साधना को छोड़कर केवल निराहार रहने से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है।

(8) शब्द ‘भ्रत’ की मूल क्रिया है ‘भ्र’ इसलिए ‘भ्रत’ का अर्थ होता है जो दूसरों को भोजन कराता है। ‘भ्रता’ का अर्थ है वह जिसे दूसरा कोई भोजन कराता है। इसलिए ‘देहभ्रत’ का अर्थ हुआ जो शरीर को भोजन कराने पर जीवित रहता है। इसलिए हर जीवधारी देहभ्रत है। अब देहभ्रत के पास तो भौतिक और मानसिक बंधन होते हैं वह उनके रहते कैसे मुक्ति पा सकता है? आदर्श जीवों को अवश्य ही तप के साथ साधना करके मुक्ति मिलेगी परन्तु घी, खाद्यान्न, प्राणियों के खून को अग्नि में झोंककर नहीं। इसी प्रकार आडम्बरपूर्ण उपवासों से मुक्ति की आशा करना व्यर्थ है। तो अब समाधान क्या है? शिव का कहना है कि आदर्श व्यक्ति को अपनी सभी मानसिक प्रवृत्तियां, मानसिक तरंगों के गतिशील प्रवाह को एक बिंदु पर केन्द्रित कर सभी बंधनों के होते हुए भी उस परमसत्ता के साथ मिलाकर एकीकृत करना होगा। इस प्रकार उसका छुद्र ‘मैं’ वृहद ‘मैं’ में मिलकर एक हो जाएगा जिसे सम्पूर्ण समर्पण कहते हैं। इस आल्हादित स्थिति में उसे अनुभव होता है कि करोड़ों व्यक्तिगत सत्ताएं उस महासागरीय ब्रह्म के भीतर मात्र बुलबुले हैं। इस स्थिति को ही ‘ब्रह्मैवाहम’ या ‘ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म ही हॅूं ) कहते हैं जो आत्म साक्षात्कार की अवस्था है। इसीलिए यह कहा गया है कि यदि आदर्श मनुष्य साधना के माध्यम से परम सत्ता के सक्ष सम्पूर्ण समर्पण कर सके तो इस शरीर में रहते हुए भी वह मुक्ति का अनुभव कर सकता है। परन्तु भले ही कुछ पाने के लोभ से उसने हजारों किताबें पढ़ी हों, असंख्य आडम्बरी व्रत उपवास किए हों, हवन अग्नि में हजारों बलि दे दी हों, उसे मुक्ति या मोक्ष प्राप्त होने की लेश मात्र भी आशा नहीं करना चाहिए।




430 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

 

भगवान शिव का दूसरा उपदेश है कि :-

‘‘ आत्मज्ञानम विदुर्ज्ञानम ज्ञानान्यानि यानि तु,
तानि ज्ञानावभासानि सारस्य नैव वोधनात्।’’

अर्थात्, आत्मज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। अन्य सभी ज्ञान केवल ज्ञान की छायामात्र हैं; वे सत्य की अनुभूति की ओर नहीं ले जाते।

स्पष्टीकरण :
(1) ज्ञान क्या है? प्राचीन संस्कृत का मूल क्रिया ‘ज्ञा’ में ‘अनट’ प्रत्यय जोड़ने पर ‘ज्ञान’ शब्द निष्पन्न होता है और, जानने की प्रक्रिया क्या है? परिवेशगत किसी पंच भौतिक तत्व या उससे उत्सर्जित तन्मात्र के आन्तरिक अधिग्रहण को जानने की क्रिया कहते है। दूसरे शब्दों में वस्तुनिष्ठता का विषयीकरण ही ज्ञान का संकाय कहलाता है और वे इकाइयॉं जिन्हें विषयगत किया जा रहा होता है, उन्हें वस्तुनिष्ठता कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या मानसिक संसार की किसी वस्तुनिष्ठता को ग्रहण कर विषयीकृत किया जा सकता है? उत्तर है हॉं। अस्तित्वगत ‘‘मैं’’ की अनुभूति को स्वयं के अलावा भीतरी और बाहरी संसार के सभी अन्य अस्तित्व उसकी जानने की सीमा में आते हैं।
(2) शिव ने समझाया है कि मानसिक संसार का सबसे पहला स्तर है ‘अपने अस्तित्व की सूक्ष्मतम भावना’ जिसकी क्रियाशीलता की साक्षीसत्ता को कहते हैं ‘चितिसत्ता’। जब हम कहते हैं कि ‘‘ मैं जानता हॅूं कि मेरा अस्तित्व है’’ तो यहॉं मेरा अस्तित्व है का ‘‘मैं’’ मन का पहला स्तर है और उसका साक्ष्य देता है ‘मैं जानता हॅूं’ का ‘मैं’ । इससे स्पष्ट है कि मन के प्रथम स्तर की साक्षीसत्ता मन के प्रथम स्तर से अधिक सूक्ष्म है, वास्तव में वह सबसे अधिक सूक्ष्म होती है। जब मन के प्रथम स्तर की साक्षीसत्ता के रूपमें चितिसत्ता कार्य करती है तो उसे ‘‘सकलचितिसत्ता’’ और जब नहीं करती तब उसे ‘‘निष्कलचितिसत्ता’’ कहते है। जब यह चितिसत्ता समग्र ब्रह्मांड की साक्षी सत्ता के रूपमें कार्य करती हैं तो इसे कहते हैं ‘प्रत्यगात्मा’ जो कि गुणों से प्रभावित होकर ‘सकल’ कहलाती है और जब गुणों से प्रभावित नहीं होती तब ‘निष्कल’।
(3) ज्ञानात्मक सत्ता अर्थात् मन का परमज्ञाता व्यावहारिक क्षेत्र में ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है? वास्तव में जब प्रथम स्तर का मन अर्थात् आस्तित्विक ‘मैं’ का मैं जब ‘‘मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, अर्थात् मेरा अस्तित्व है ’’ के ‘मैं’ का चिंतन करता है तो वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हो जाता है और अंततः ज्ञानात्मक संता में विलीन हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञानात्मक सत्ता को जानने का अर्थ है उसमें मिलकर एक हो जाना अर्थात् नमक के पुतले की तरह समुद्र में घुलकर एक हो जाना। समुद्र को नापने नमक का पुतला वापस आकर नहीं बता सकता कि समुद्र कितना गहरा है। ज्ञानात्मक सत्ता से इस तरह का एक हो जाना ही ‘आत्मज्ञान’ कहलाता है। सैद्धान्तिक रूपसे यही आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है अन्य ज्ञान और सभी सांसारिक ज्ञान केवल इस ज्ञान की छाया और उपछाया हैं।
(4) सामान्यतः तथ्यात्मक ज्ञान को केवल जानना कहा जाता है पर वह वास्तविक नहीं है। सांसारिक ज्ञान के लिए संस्कृत की क्रिया ‘विद’ का उपयोग करना अधिक न्यायसंगत है। ‘वद’ को मुख्यतः दो भागों में प्रयुक्त किया जाता हें पहला ‘पराविद्या’ और दूसरा ‘अपराविद्या’। पराविद्या अपरिमित से परिमित और परिमित से अपरिमित का ज्ञान कराती है। पराविद्या मनुष्य को आत्मज्ञान की उस सुनहली रेखा तक ले जाती है जो तथ्यात्मक ज्ञान और आत्मज्ञान के बीच विभाजक रेखा होती है। इस रेखा से आगे सर्वज्ञाता ज्ञान संकाय का मधुर स्मरण आता है। अपराविद्या सांसारिक ज्ञान कराती है। पराविद्यज मोक्ष तक ले जाती है जबकि अपराविद्या इसी संसार में ही फॅंसाती है। इसीलिए ज्ञानियों का कहना है कि मनुष्य को ‘परा और अपरा’ दोनों के बीच संतुलन स्थापित करके चलना चाहिए । इसी लिए शिव का कहना है कि मनुष्य का उद्देश्य होना चाहिए ‘‘आत्म मोक्षार्थं जगद हिताय च।’’
(5) अतः आत्मज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है परन्तु मनुष्य को परा और अपनर दोनों का उचित उपयोग करना होगा। कोई सोचे कि वह तो केवल परविद्या के सहारे साधना करके मोक्ष पा लेगा तो वह गलत है, इसी प्रकार कोई कहे कि वह तो अपना विद्या के सहारे भौतिक जगत की सर्व सुख सुविधाऐं ही पाता रहेगा तो वह भी गलत है। वास्तव में पराविद्या हमें परमार्थ की ओर तो अपराविद्या हमें अर्थ की ओर ले जाती है। चूंकि मानव जीवन के लिए दोनों ही अनिवार्य हैं अतः ज्ञानी लोग दोनों विद्याओं के उचित समन्वय के साथ ही अपना जीवन गुजारते है। इसलिए जब हम साधना में अधिक सूक्ष्मता की ओर बढ़ने लगते हैं तो अनावश्यक तथ्यों को छोड़ते जाते हैं और हम कहते हैं कि हम निस्सार से सार तत्व की ओर जा रहे है। इस प्रकार बढ़ते हुए जब तथ्यात्मक संसार में हम सूक्ष्मतम विन्दु पा लेते हैं तो हम अनुभव करते हैं कि सर्वाधिक सारतत्व है ‘ब्रह्मांण्डीय मन’ (दार्शनिक भाषा में भूमा मन) और परमाप्रकृति। यह भी जान लेना आवश्यक है कि तत्यात्मक ज्ञान से वह असाधारण शक्ति को नहीं पाया जा सकता जो सीधे परमसत्ता के पास ले जा सके। उस शक्ति को पाने के लिए साधना से प्राप्त अखंड ज्ञान की आवश्यकता होती है, अब जब परमसत्ता और परमा प्रकृति का ये हाल है तो उस परमसत्ता को कैसे पाया जा सकता है? इसका उत्तर ज्ञानीजन देते हैं कि गुरु ब्रह्म, तारक ब्रह्म ही वह सारात्सार हैं जो उस परमसत्ता तक ले जाने में पुल का काम करते हैं। इसलिए ध्यान रखना चाहिए कि भूमा मन और परमा प्रकृति को उच्च स्तारीय ज्ञान से पाया जा सकता है परन्तु उस परमसत्ता को नहीं। उस परमसत्ता को पाने के लिए मधुर हृदय, बुद्धि और स्वतंत्र भावना प्रवाह की आवश्यकता होती है जिसकी अनुभूति में मानव चिल्ला उठता है ‘प्रभो! तुम ही हो केवल तुम्हारा ही अस्त्ति्व है मैं कुछ नहीं हॅूं। इसलिए हृदय की अंतिम मधुर अनुभूति आत्मज्ञान ही है।