Sunday, 2 November 2025

443 अभिवादन का सही तरीका क्या है?

 

कोई नमस्ते करता है और कोई नमस्कार, कोई राम राम करता है कोई दण्डवत प्रणाम, कोई हाथ मिलाता है कोई दूर से हाथ हिलाता है, आजकल हाय और वाय का बोलबाला है, आखिर अभिवादन का कोई सबसे अच्छा तरीका है या नहीं? ,

उत्तर-

छोटे बड़े का विचार किये बिना, पहले से ही नमस्कार करने का प्रयास होना चाहिये और यह अपेक्षा नहीं करना चाहिये कि वह प्रत्युत्तर देता है या नहीं या पहले सामने वाला नमस्कार करता है या नहीं ।

सभी से, दोनों हाथ जोड़कर दोनों अंगूठों को आज्ञाचक्र अर्थात् त्रिकुटि के पास ले जाकर स्पर्श करके फिर हाथ जोड़े हुए ही अनाहतचक्र अर्थात् हृदय के पास लाते हुए ‘नमस्कार‘ यह शब्द ही उच्चारित करना चाहिये और यह भावना रखना चाहिये कि मैं आपके रूप में उन परमब्रह्म को ही अपने शुद्ध मन और हृदय से प्रणाम करता हॅूं। नमस्कार, ‘नमः करोमि‘ संस्कृत के इस वाक्य का संक्षिप्त रूप है जिसका अर्थ है ‘‘प्रणाम करता हॅूं।‘‘ नमस्ते का अर्थ है ‘तुमको प्रणाम‘, जो कि केवल परमपुरुष के लिये उनके निकटतम भक्तगण ध्यान में ही करते हैं। 

... तो, क्या जो हम लोग अपने से वरिष्ठों के लिये नमस्ते करते हैं वह उचित नहीं है?

...ठीक है,  पर नमस्ते, अर्थात् ‘तुमको प्रणाम‘, कहने पर दिखाई देने वाले शरीर का ही बोध होता है अतः उसके भीतर परमसत्ता के साक्षी होने का स्मरण नहीं रह पाता है, परंतु नमस्कार, अर्थात् ‘‘प्रणाम करता हॅूं‘‘ कहने पर यह त्रुटि नहीं हो पाती क्योंकि वास्तव में किसी को नमस्कार कहने का अर्थ ‘प्रणाम करता हॅूं‘ होता है पर किसे? यह भाव अलग से लेना पड़ता है जबकि नमस्ते का अर्थ ‘तुमको प्रणाम‘ में दिखाई देने वाला शरीर ही प्रधान हो जाता है।  हर समय यह भावना होना चाहिये कि मैं तुम्हारे भीतर उस साक्षीस्वरूप परमब्रह्म को प्रणाम करता हॅूं परंतु यह बड़े अभ्यास करने पर ही संभव होता है।  वर्तमान में इस भावना से कोई भी प्रणाम नहीं करता, केवल करना चाहिये इसलिये नमस्कार, नमस्ते या प्रणाम कह लेते हैं। 

.... आजकल तो हाथ मिलाने और गले मिलने, और हाय वाय का प्रचलन बढ़ता जा रहा है? 

...हाथ मिलाने से बचना चाहिये। शारीरिक संपर्क से संस्कारों का आदान प्रदान होता है। हमें यदि यह पूर्व से ज्ञात है कि अमुक व्यक्ति हमसे आघ्यात्मिक स्तर पर उन्नत है तो उसे चरणस्पर्श प्रणाम करना चाहिये। वह मौखिक या सिर पर हाथ रखकर आशीष देता है तो दोनों प्रकारों का एक समान प्रभाव होता है। ‘‘शुभमस्तु‘‘ कहने पर सभी तीनों प्रकार की उन्नति भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक और  ‘‘कल्याणमस्तु‘‘ कहने  में केवल भौतिक और मानसिक तथा ‘‘क्षेम‘‘ ; अर्थात् प्रसन्न रहो या सुखी रहो आदि कहने में केवल भौतिक प्रगति करने का भाव निहित होता है।

.. एक बात यह याद रखना चाहिये कि जब कोई महापुरुष किसी को आशीर्वाद देता है तो सामान्यतः वह संबंधित के सिर पर हाथ रखकर यह करता है। सिर पर सहस्त्रार चक्र होता है जिस पर सूक्ष्म धनात्मक दबाव पड़ने पर सभी अन्य चक्रों पर भी धनात्मक प्रभाव होता है। इसका परिणाम यह होता है कि सभी उच्चतर वृत्तियॉं बढ़ने लगती हैं और निम्नतर वृत्तियॉं घटने लगती हैं। इस प्रकार का प्रभाव स्पर्श से ही नहीं ध्वनि द्वारा भी होता है। जब किसी आध्यात्मिक रूप से उन्नत व्यक्ति को कोई साष्टॉंग प्रणाम करता है तो मौखिक रूप से आशीष देने का या उसके हाथ से सिर को स्पर्श करने का एक समान प्र्रभाव आध्यात्मिक उन्नति करने के लिये होता है।  इसमें यह ध्यान रखना चाहिये कि आप उसी को आशीष दें जिसे चाहते हैं क्योंकि जिसे नहीं चाहते उसके प्रणाम को स्वीकार करने पर उसके नकारात्मक संस्कार आपके मन में आ सकते हैं जो आपकी शुभ प्रवृत्तियों को घटा कर अशुभ वृत्तियों में वृद्धि कर सकते हैं। इस प्रकार न तो जिस चाहे को आशीर्वाद देना चाहिये और न ही जिस चाहे को साष्टॉंग प्रणाम करना चाहिये।


Sunday, 19 October 2025

442 ध्यान क्या है? इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

 ध्यान क्या है?  इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।

ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाले  मन  को ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।

यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है। 

अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है।  यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि, गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः।’’अर्थात् गुरु ही परमब्रह्म हैं उन्हें प्रणाम। स्पष्ट है कि इस स्तर पर पहुंचने के लिए ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।


Thursday, 25 September 2025

441 धार्मिक अन्धानुकरण और धर्म के नाम पर शोषण किस प्रकार रोका जा सकता है?

 

सभी धर्मों में भौतिक जगत की उपलब्धियों को पाने के लिए ही पूजा पाठ करने की सलाह दी जाती है। इस कारण कुछ लोगों ने अपने को विशेषज्ञ घोषित कर उसकी शिक्षा देने का धँधा अपना लिया है और तदनुसार लोगों को मार्गदर्शित कर सिखाने लगे हैं कि ‘‘विश्वासे मिले वस्तु तर्के बहु दूर...’’ अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास से होती है न कि तर्क से तथा यह भी कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं ’’ किया जाता। इसका परिणाम यह हुआ है कि भोले भाले अनुयायी , इन निहित स्वार्थी लोगों के हाथ के हथियार बन गए हैं। यदि सर्वसाधारण के मन में नित्यानित्य विवेक और वैज्ञानिक तर्कज्ञान का द्वार खोल दिया जाए तो धर्म के नाम पर इन्हें धोखा दिया जाना सम्भव नहीं हो सकेगा अथवा स्वर्ग और तीसरे संसार के आनन्द का प्रलोभन नहीं दिया जा सकेगा। परन्तु ये निहित स्वार्थी लोग इस बात को जानते हैं इसलिए वे जन साधारण को अज्ञानता के अन्धकार में ही भटकते रहने देना चाहते हैं। इस प्रकार भोले भाले लोग जो भी अपने खून पसीने से अर्जित करते हैं ये परजीवी तथाकथित विद्वान लोग उनमें भय और हीनता के बोध को जगाकर अपना लाभाँश लूटते रहते हैं। इस विज्ञान के युग में इन ठगों से बचा जा सकता है यदि हम किसी भी बात को या सिद्धान्त को स्वीकार काने से पहले उस पर अपने तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर विश्लेषण कर लें।


Tuesday, 23 September 2025

440 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का बारहवां उपदेश है कि-

 

‘‘ मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्, मयि सर्वं लयं याति तद् ब्रहमाद्वयमस्म्यहम्।’’

अर्थात् ब्रह्मांड की सभी चीजें मुझ से ही उत्पन्न होती हैं, मुझ में ही जीवित रहती हैं, अंत में मुझ में ही मिल जाती हैं और मैं ही वह अद्वितीय ब्रह्म हॅूं।

स्पष्टीकरण :

(1) सर्वोच्च चेतना के अवतार चिदानन्दघनसत्ता शिव कहते हैं कि परमपुरुष का नाभिक ही इस ब्रह्मांड का नाभिक है। अतः सभी सत्ताएं उन्हीं के नाभिक से जन्म पाती हैं और अपने अपने संस्कारों के लय के अनुकूल उन्हीं के विराट ब्राह्मिक शरीर में युगों तक घूमते हुए अंत में उसी नाभिक के मूल बिंदु में मिल जाती हैं। अर्थात् पुरुषोत्तम ही सभी के परम श्रोत हैं। पर यह कहना पर्याप्त नहीं है कि सभी उस परम अस्तित्व के नाभिक से निकलते हैं, वास्तव में उनके इस विराट शरीर ब्रह्मांड में चारों ओर जिस ‘समय’ के साथ लयबद्ध ढंग से घूमते हैं वह ‘समय’ भी इसी नाभिक से उत्पन्न होता है। अर्थात् यह नाभिक न केवल सभी का उद्गम केन्द्र है वरन् सभी के प्रकाशित होने के लिए एकमात्र प्रेरक बल भी है। यह वैसा ही है जैसे कोई लड़का पतंग को उड़ाता है, पहले वह रील से धागे को ढीला छोड़ता जाता है और पतंग हवा में स्वच्छंद उड़ती जाती है। वह सोचती है कि अब मैं बिलकुल स्वतंत्र हॅूं , कहीं पर भी उड सकती हॅूं।़ परन्तु उसी समय वह लड़का धागे में एक झटका देता है और धागे को रील में लपेटने लगता है तथा पतंग उसी रील के पास वापस आ जाती है। इसीलिए शिव ने कहा है कि सभी कुछ मुझसे ही उत्पन्न होते हैं मुझ में ही जीवित रहते हैं और अंत में वापस मुझमें ही समा जाते है। कुछ लोग इसे जानते हैं कुछ नहीं और कुछ लोग तो इसे जानना ही नहीं चाहते। सोचिए, जिनका निर्माण हुआ है वे उस निर्माण करने वाली सत्ता के बाहर कैसे रह सकते हैं? उनके बाहर तो ‘‘समय, स्थान या कोई अस्तित्व’’ है ही नहीं। इसलिए सभी अस्तित्व चाहे वे छोटे हों या बड़े उन्हीं एकमेव निर्माणकर्ता के विराट शरीर के भीतर चलते, खिसकते, दौड़ते और कूदते रहते हैं।

(2) जिसमें सरलता है, सत्य कहने की क्षमता है वह साहस के साथ अपनी छाती ठोक कर कहेगा- मैंने असीम पुरुष की विराट गोद में आश्रय पाया है अन्य कहीं भी मेरा आश्रय नहीं है। जो भीरु है, कापुरुष है, सत्य कहने में जिसकी जीभ जड़ता से स्थिर हो जाती है वह कहेगा - मैंने जिस आश्रय को पाया है और जिसकी स्नेहच्छाया में लालित, पालित और वर्धित हो रहा हॅूं उसे अस्वीकार कर रहा हॅूं। लेकिन शिव का कहना है कि मेरी स्नेहपूर्ण सन्तानें सदा ही मेरी गोद में थीं, हैं और रहेंगी। कोई कितना ही पापी हो, मूर्ख हो, हीनाचारी हो, अपनी संतान को मैं अपनी गोद से अलग कैसे कर सकता हॅूं, ‘‘मयि सर्वं लयं याति’’। शिव कहते हैं कि ‘‘जागतिक कर्तव्य के अन्त में जीव मुझ में ही लौट आता है, मुझ में मिलकर एक हो जाता है और उसके द्वित्वभाव की आनन्दमय परिसमाप्ति हो जाती है।’’ शिव का आगे और भी कहना है कि ‘यह जो जीव की सृष्टि है, उसका माधुर्यमय अस्तित्व है, कर्मतत्परता है और जो उसका आनन्दघन प्रशान्तिमय विश्राम है, यह सभी मुझे ही केन्द्र बनाए हुए हैं और मैं ही अद्वय ब्रह्म हॅूं।’

(3) अद्वय क्यों कहा गया है? इस ब्रह्मांड में परमपुरुष एकमात्र अकेली सत्ता हैं कोई दूसरा है ही नहीं। जब कोई व्यक्ति साधना करते हुए परमपुरुष की कृपा से मुक्ति पा जाता है तो सभी प्रकार का द्वैत समाप्त हो जाता है। इस समय होता यह है कि उसका छुद्र ‘मैं’ समाप्त हो जाता है और कुछ नहीं। छुद्र मैं के चारों ओर मंडराने वाली उसकी तुच्छता विराटता में रूपान्तरित हो जाती है। सभी का अपना अपना छुद्र ‘मैं’ है परन्तु  सभी के लिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है। ‘छुद्र मैं’ में द्वैत है पर ‘बड़े मैं’ में नहीं । इसलिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है अद्वय है। इसलिए मुक्ति की अवस्था में व्यक्ति का छोटा मैं परमपुरुष के ‘बड़े मैं’ में मिलकर एक ही हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे नदियॉं ऊॅंचे पहाड़ों , घाटियों, जंगलां, हरे भरे समतलों में से होते हुए अंत में महासागर में मिल जाती हैं। किसी की भी स्थायी मृत्यु नहीं होती। नदियों की लयवद्ध मधुरता महासागर की लहरों में अलौकिक रूप से स्पंदित होती रहती है। लोग इसे जानते हुए भी भूले रहना चाहते हैं। वे इसे भूले रहना चाहते हैं अतः विछोह के डर से सदा दुखित रहते हैं। यथार्थतः सभी सत्ताएं अनादि काल से अनन्त काल तक उस विराट् के वक्ष में परमशान्ति से चिरकाल के लिए समा जाती हैं, कोई भी विलुप्त नहीं होती न ही कभी नष्ट।


Saturday, 20 September 2025

439 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का ग्यारहवां उपदेश है कि-


‘ इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वराणने।’’

अर्थात् तामसिक लोग तीर्थ यात्रा करने के लिए इस सथान से उस स्थान पर भटकते हैं परन्तु हे बराणने! (पार्वती) आत्मतीर्थ (अपने हृदय के भीतर स्थित वास्तविक तीर्थ) को जब तक नहीं पा जाते उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?

स्पष्टीकरण :

(1) सामान्यतः लोगों को तीर्थो के प्रति अदम्य आकर्षण देखा जाता है, महिलाएं तो तीर्थयात्रा के लिए अपने आभूषण तक बेच देती हैं, कुछ लोग अपनी जमीन और बर्तन तक बेचकर तीर्थ जाने में अपने को धन्य समझते हैं। देखा जाता है कि कुछ को तो चलते नहीं बनाता इतना कि दिखाई भी नहीं देता वे भी किसी न किसी के सहारे तीर्थ जाते हैं और पंडे लोग उन्हें मरे हुए घोंघे की खोल दिखा या स्पर्श करा कर कहते हैं यह नारायण हैं और वे विश्वास कर उसके समक्ष दंडवत प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं। जब से मनुष्य के मन में भगवान का विचार आया तब से वे तीर्थों के प्रति अदम्य आकर्षण को पाले हुए हैं। अब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि आखिर तीर्थ है क्या? तीर्थ का सामान्यतः अर्थ है यात्रा का स्थान। तीर्थ =  तीर $ स्था $ डा  अर्थात् किनारे पर स्थित। तीन काअर्थ है किनारा। नदी का पानी और स्थल भाग जहॉं पर मिलते हैं उसे कहते हैं किनारा, यदि कोई इस किनारे से एक कदम आगे बढ़ता है तो वह पानी में पहुंचता है और पीछे की ओर एक कदम रखता है तो स्थल पर ही रहता है। तीर्थ का सही अर्थ है वह रेखा जहॉं भौतिक और आध्यात्मिक संसार आपस में मिलते हैं जो कि इस भौतिक तीर्थ रेखा से मेल करते हैं। इस प्रकार जो भी एक कदम भौतिक संसार की ओर बढ़ाता है वह संसार में उलझा रहता है और जो आध्यात्म के पानी की ओर अपना कदम बढ़ाता है वह उसके बहाव में बहने लगता है। इसीलिए कह गया है कि सांसारिकता और आध्यात्मिकता के बीच संबंधित बिन्दुओं की रेखा को तीर्थ कहते हैं। ‘‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुह’’। शिव का कहना है कि सामान्यतः चाहे भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक, तामसी प्रकृति के लोग अधिक पराक्रम या साधना किए बिना ही सब कुछ पा जाना चाहते हैं। इसलिए जब इस प्रकार के लोग अपना भाग्य बदलना चाहते हैं या मोक्ष चाहते हैं तो वे इस प्रकार के तथाकथित तीर्थों की ओर दौड़ लगाने लगते हैं। वहॉं वे पंडों के कहे अनुसार बछ़ड़े की पूछ पकड़कर तथाकथित वैतरणी पार कर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। स्थानीय व्यापारी इस बात को भांप कर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी आध्यात्मिक भूख इस तीर्थ यात्रा के कार्य से नहीं मिटती तब पछताते हैं कि एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में इस प्रकार भागने में इतना समय, पराक्रम और धन व्यर्थ ही खर्च किया।  

(2) तो सच्चा तीर्थ क्या है? वह कहॉं पर स्थित है? शिव ने उत्तर दिया कि हे वराणने (पार्वती)!  ‘मानव हृदय में जिस सुनहरी रेखा पर मानसिक संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और जहॉं वे आध्यात्मिक प्रशान्ति के मधुर भाव में एक दूसरे को स्पर्श करते हैं वही सच्चा तीर्थ कहलाता है। जो भी इस सुनहरी रेखा पर स्थित रहता है उसे कहा जाता है तीरस्थ या तीर्थ। इस स्थान पर वह व्यक्ति और उस स्थान का नियंत्रक देवता एक समान हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय की गहराई में स्थित पवित्र तीर्थ में विराजे तीर्थपति, जो कि सदा जाग्रत और स्थायी रूपसे स्थिर लौ के समान सदा प्रकाशमान रहते हैं, को भूलकर भौतिक जगत के तीर्थों के चक्कर लगाते रहते हैं, क्या वे मुक्ति मोक्ष पा सकते हैं? शिव ने स्पष्ट कहा कि नहीं पार्वती! इस प्रकार के लोग इन यात्राओं से मुक्तिमोक्ष नहीं पा सकते। 


Wednesday, 17 September 2025

438 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का दसवां उपदेश है कि-


शिव का दसवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मस्थितं शिवं त्यक्तवा बहिस्थं यःसमर्चयेत् , हस्तस्थं पिंडमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया।’’

अर्थात् अपने हृदय में स्थित परमचैतन्य सत्ता की उपेक्षा कर जो बाहरी पूजा करने का दंभ भरते हैं वे वैसे ही है जो हाथ में रखा हुआ भोजन फेक कर भीख मांगते फिरते हैं।

स्पष्टीकरण :

(1) इस विश्व ब्रह्मांड में कोई भी जीवधारी किसी भी परिस्थिति में न तो अकेला है , न था और न रहेगा। सभी प्रकार के अस्तित्व उस परमसत्ता का आधार पाकर प्रारंभ से अंत तक गतिशील हैं और उन सबपर सदा बज्र से भी कठोर उस परम नियंत्रक  परासत्ता के अत्यंत कोमल हाथ का स्पर्श रहता है। वह एक हाथ से अपने प्रोतयोग से सभी स्तरों पर सभी लोकों से जुड़ा रहता है और दूसरे हाथ से ओतयोग द्वारा प्रत्येक अस्तित्व से। सभी प्राणियों के मनों के सर्वाधिक एकान्त कोने में चमकदार मणि की तरह चमकते रहते हैं। इस संसार का बाहरी और भीतरी आकाश उनके ही प्रकाश से चमक रहा है।

‘‘न तत्र सूर्यो भाति न चंद्र तारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः।

तदेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’’

अर्थात् वह जो बाह्य संसार को प्रकाशित करता है वही सभी तारों और नक्षत्रों को भी प्रकाश देता है। परम पुरुष के अलावा किसी की भी अपनी द्युति अर्थात् चमक नही है। अन्य सभी अस्तित्वों का प्रकाश वास्तव में उस एक ही सत्ता के प्रकाश का परावर्तन मात्र है। उसकी चमक के सामने यह सूर्य भी अंधेरे में लिपट जाता है और चंद्रमा काले पर्दे में छिप जाता है। सबकी चमक अंधेरे में डूब जाती है फिर इस अग्नि की ताकत ही क्या है जो उनके सामने चमक सके। सभी कुछ उसके विकिरण से विकिरित हो रहे हैं उनके लिए कोई भी नगण्य नही है, वे ही सभी के केन्द्र बिन्दु हैं। वह अपनी प्रिय संतानों को आनन्द से भरने के लिए सभी में उन्नत भाव भरकर अपने को उन्हीं के भीतर छिपाए हुए लुका छिपी का खेल खेल रहे हैं।

(2)  ‘ब्रहच्च तद्दिव्यंचिन्त्यस्वरूपम् सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति।

         दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च  पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम्।’’

अर्थात् वह विराट अमाप्य दिव्य सत्ता सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हो जाती है और दूर से अत्यधिक दूर तथा पास से भी अधिक पास आ जाती है। कोई भी उन्हें अपने हृदय गुफा के भीतर छिपा हुआ पा सकता है।

इसलिए शिव का कहना है कि किसी को भी उस परमसत्ता को बाहर ढूंड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो आपके अपने अस्तित्व की भावना के भीतर रहते हैं वहॉं जाकर कोई भी उन्हें केवल खोजकर पा सकता है। अतः आन्तरिक संसार के सबसे अधिक चमकदार हीरे को भूलकर जो उसे बाहर तलाशता है वह व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करता है।  शिव कहते हैं कि लोग अपना समय इस प्रकार क्यों नष्ट करे? अपने हाथ में रखा भोजन फेक कर भिक्षा पात्र लिये घर घर भीख मांगते क्यों फिरें? अरे! अपने भीतरी संसार में गहरे जाओ, और गहरे उतरो और गहरे.... ।


Sunday, 14 September 2025

437भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का नौवां उपदेश है कि-

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

शिव का नौवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मज्ञानमिदं देवि परं मोक्षैकसाधनम्, सुकृतैर्मानवो भूत्वा ज्ञानी चेन्मोक्षमाप्नुयात्।’’

अर्थात् हे देवी पार्वती! यह आत्मज्ञान ही मोक्ष पाने का सर्वोत्तम साधन है जिसे अनेक जन्मों के सुकृत्यों के परणिमस्वरूप प्राप्त होने वाले इस मानव शरीर में ही इस आत्मज्ञान की साधना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अन्य शरीरों में नहीं।

स्पष्टीकरण :

(1) शिव के कार्यकाल के समय जनसामान्य के मन की जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करने की प्रतिनिधि थीं शिव की पत्नी पार्वती। वे शिव के समक्ष उन जिज्ञासाओं, परिप्रश्नों (आत्म ज्ञान से संबंधित आध्यात्मिक प्रश्नों) को सबके साने पूछती थी और उनका उत्तर शिव दिया करते थे। पार्वती के प्रश्नों जितने सुंदर होते थे उतने ही सुंदर शिव के उत्तर। पार्वती के इन मूल्यवान प्रश्नों को संग्रहीत कर ‘निगमशास्त्र’ नाम दिया गया तथा शिव के उत्तरों को संग्रहीत कर ‘आगमशास्त्र’ नाम दिया गया है। उत्तम कोटि के इन परिप्रश्नों के उत्तर भले ही शिव की दार्शनिक द्युति से जगमगा रहे हों परन्तु उनके व्यावहारिक मूल्यों ने उनके दार्शनिक मूल्य को ढंक सा लिया है अर्थात् शिव की दार्शनिक व्याख्या व्यावहारिक मूल्यों द्वारा उज्ज्वल हो गई है। निगम और आगम को विद्यातंत्र में हंस के दो पंख कहकर समझाया गया है कि जैसे हंस एक पंख से नहीं उड़ सकता उसे दोनों पंख चाहिए, उसी प्रकार विद्यातंत्र भी निगम और आगम दोनों को मिलाने पर ही सम्पूर्ण होता है। इस श्लोक में शिव, पार्वती के प्रश्न पूछने पर कहते हैं मोक्ष साधना का एकमात्र पथ है उपयुक्त अनुशीलन द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त करना। आत्म ज्ञान के बारे में शिवोपदेश क्रमांक 2 में विस्तार से समझाया जा चुका है जहॉं यह सिद्ध किया गया है कि आत्मज्ञान की साधना को छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर पाना असंभवहै। कुछ विद्वान कहते हैं कि आत्मज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट पथ है भक्तिमार्ग। परन्तु शिव ने यहॉं भक्ति मार्ग का नाम ही नहीं लिया जिसका कारण है शिव के कार्यकाल में विद्यातंत्र साधना में ‘भक्ति’ का व्यवहार नहीं होता था। साधना मार्ग का मूल्यवान उपदेश ‘‘मोक्षकारणसमग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’’ आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व (आचार्य शंकर के समय) का ही है अर्थात् शिव के बहुत बाद प्रकाश में आया। शिव ने पहले ही समझाया है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक साधना करना होगी अर्थात् समस्त मन के विचारों को छोड़कर अपने हृदय की मधुरता को परमशिव की मधुरता में पूर्णांजली देने पर मनुष्य को परम श्रेय अर्थात् आत्मज्ञान मिलता है। भक्ति की इससे अधिक अच्छी, मधुर और गंभीर व्याख्या क्या हो सकती है?

(2) इसके बाद पार्वती ने शिव से पूछा अच्छा, तो कौन इस आत्मज्ञान पाने का सबसे अच्छा पात्र है? शिव जाति, पांति, गोत्र, वर्णभेद आदि नहीं मानते थे अतः वे बोले जन्म जन्मान्तर के सुकृत्य अर्थात् अच्छे कर्म करने के फलस्वरूप जब कोई जीवधारी इस दुर्लभ मानव देह को प्राप्त कर लेता है तभी वह इस आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य अर्थात् पात्र होता है। अब कुछ विद्वान प्रश्न कर सकते हैं कि प्रतिसंचर (ब्रह्चक्र का द्वितीय अर्धचक्र ) की गतिधारा में प्रत्येक जीवधारी क्रमानुसार मानव शरीर पा ही जाऐंगे फिर भी यह क्यों कहा गया है कि पूर्व जन्मों के सुकृत्यों से मनुष्य शरीर पा जाने  के बाद ही आत्मज्ञान पाने की पात्रता आती है? शिव ने कहा, सही है प्रतिसंचर धारा में सुविन्यस्त पद्धति से जीव आगे बढ़ता हुआ मनुष्य शरीर पा जाता है, वह मनुष्य ही कहलाता है परन्तु वे जो अभी अभी अन्य जीवधारी का शरीर छोड़कर मानव शरीर में आए हैं उनका मन अभी भी पशुत्व और मनुष्यत्व की सीमा रेखा पर उलझा रहता है। उनका शरीर भले ही मनुष्य जैसा हो पर संस्कार पशुजीवन से भरे होने के कारण प्रारंभिक मानव जन्मों में उन्हें आध्यात्म चेतना का स्वर कम ही सुनाई देता है। अतः हर समय उसकी वृत्तियॉं पशुसुलभ क्रिया कलापों की ओर ही दौड़ती हैं। वह अच्छी बातें सुनना ही नहीं चाहता, सुनता है तो समझना नहीं चाहता और समझना भी चाहे तो समझ नहीं पाता। इस प्रकार के लोग शरीरिक तौर पर मनुष्य ही कहलाते हैं परन्तु बौद्धिक स्तर पर वे पूर्ण मनुष्य नहीं होते। इस प्रकार के लोग कहते हैं धर्म अफीम है, इसके बिना भी रहा जा सकता है। उनके लिए कोई भी कर्म पाप कर्म नहीं है। वे अपने और अपनों के स्वार्थ में ही मस्त रहते हैं। यही लोग जब धीरे धीरे सुअवसर मिलते मिलते विभिन्न मानव जन्म लेकर सुकर्म अर्जित करते हुए बौद्धिक स्तर पर उन्नत हो जाते हैं तो उनके पास विश्वविद्यालयों की डिग्री भले न हों वे आत्मज्ञान के लिए अवश्य योग्य पात्र माने जाते हैं। इसका प्रमाण यह है कि अनेक लोगों को देखा गया है कि वे अपने बाल्यकाल से ही आध्यात्म की ओर उन्नति करने लगते हैं क्योंकि उनके पिछले जन्मों के संचित आध्यात्मिक साधना के संस्कार उनके जीवन में प्रारंभ से ही प्रभावी हो जाते हैं। अतः शिव ने ठीक ही कहा है कि अनेक जन्मों के सुकृत्य से जब मनुष्य उन्नत बुद्धि पा लेता है तब वह आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य हो जाता है और जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके त्रिविध तापों (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) की ज्वाला स्थायी रूप से शांत होकर मोक्ष की ओर ले जाती है।