भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश है कि
‘‘ जाग्रतस्वप्नसुषुप्त्यादि चैतन्यं यद् प्रकाशते, तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबंधैः प्रमुच्यते।’’
अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाएं परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती हैं। वह जो इन अवस्थाओं में रहते हुए अनुभव कर लेता है कि ‘वह ब्रह्म ही’ है वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
स्पष्टीकरण :
(1) मन की चार अवस्थाएं होती हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। इनमें से प्रथम तीन परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती है परन्तु तुरीय अवस्था वह है ‘जब इकाई मन अत्यधिक ईश्वरानुरक्ति में अपने समस्त अस्तित्वबोध ंको, माधुर्यपूर्ण समस्त स्पंदनों को, छन्दमय सभी भाव तरंगों को परमब्रह्म के नित्यानन्द में मिला कर सामयिक रूप से या स्थायी रूप से मानसिक संकल्प विकल्प रहित स्थिति में जा पहुंचता है ’। मन की उच्चतम प्रज्ञा का चितिशक्ति(परमात्मा) के साथ एकत्व ही तुरीय अवस्था कहलाती है जो अलौकिक आनन्द की अवस्था होने के कारण उसका बाहरी प्रकाशन नहीं होता।
जब चेतन मन, आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से, इंद्रिय समूह की सहायता से, इस भौतिक जगत में भावों के ग्रहण, वर्जन, प्रेषण और निक्षेपण करता है अथवा इंद्रियवर्जित या नाड़ीवर्जित भाव में स्नायुकोष की तरंगों को स्मरण करता है तो उसे जाग्रत अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में मनुष्य के जीवन में घात प्रतिघात हर क्षण आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से स्नायुओं को धक्का देकर कभी सुख और कभी दुख की अनुभूति कराता है। यही कारण है कि मन वास्तविक जगत के तन्मात्रिक स्पंदनों कें स्पर्श की मधुरता या कठोरता को छोड़कर एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता। इस प्रकार ज्रग्रत अवस्था में वह नाड़ी समूह के स्पंदनों के माध्यम से विचारों को सोचता है और याद करता है। परन्तु इन नाड़ियों के विचार और स्मरण आज्ञा और संज्ञा नाडियों की अवधारणा जैसे महान नहीं होते। जब मन की एकाग्रता थोड़ी बढ़ जाती है और वह अन्तर्मुखी हो जाता है तब भौतिक जगत के सुख और दुख सब भूल जाता है अतः इस समय नाड़ियां के प्रभाव से उत्पन्न विचार और स्मरण बढ़ने लगते हैं।ं इस स्थिति में वह व्यक्ति अपने मासिक बल के द्वारा विशेष विधि का उपयोग कर किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर नियंत्रण कर सकता है। इसे ही ‘हिप्नोटिज्म’ कहा जाता है। इस प्रकार तीन अवस्थाओं में मन केवल जाग्रत अवस्था का ही अधिकतम उपयोग करता है अतः वह अपने आन्तरिक विचारों को व्यावहारिक बनाकर संसार के हित में प्रयुक्त कर सकता है। इसलिए जाग्रत अवस्था का अधिक महत्व है। जो लोग अधिक सोते हैं उन्हें उनींदापन घेरे रहता है और वे अपनी शक्ति का बहुत कम ही उपयोग कर पाते हैं। इसलिए कहा गया है-
‘‘षडदोषाः पुरुषेणेह हन्तव्याः भूतिमिच्छता, निद्रा, तंद्रा, भयं, क्रोधं आलस्यम् दीर्घसूत्रता’’
अर्थात् जो व्यक्ति अपनी उन्नति की कामना करता है उसे इन छः दोषों को त्याग देना चाहिए, वे हैं निद्रा, तंद्रा, आलस्य, भय, क्रोध और दीर्घसूत्रता। अब चूंकि मनुष्य यह जाग्रत अवस्था पाता है परमपुरुष की इच्छा से अतः किसी को भी इसके लिए बड़ी बड़ी बातें करते हुए दंभ प्रदर्शित करने का अधिकार नहीं है।
(2) स्वप्न अवस्था में मन सोते हुए सोच विचार करता है। परन्तु चह हमेशा सोते हुए सोच विचार क्यों नहीं करता? जबकि जागते हुए मन सदा ही सोच विचार करता है, इतना ही नहीं वह जागते हुए ही ध्यान करता है और परमपुरुष के बारे में सोचविचार करता है और जाग्रत अवस्था में सदा ही सक्रिय रहता है, लेकिन सोते हुए हमेशा स्वप्न क्यों नहीं देखता? वास्तव में साने की अवस्था होती है मन को आराम करने करने की। परन्तु यदि सोने के पहले या सोते समय मन पर गहरा दुख या अत्यधिक प्रसन्नता प्रभाव डाले या किसी बीमारी या किसी काल्पनिक सुख दुख प्रभावित करते हैं तो सोते समय पेट में बनने वाली गैस ऊपर उठकर नाड़ीतंत्र को कंपित कर देती है और मन सोचविचार करते हुए उन्हीं विचारों को स्वप्न के रूप में देखने लगता है। सोते हुए जब किसी कारण से मन की एकाग्रता बढ़ जाती है तब सर्वज्ञाता अचेतन मन नाड़ीतंत्र को सक्रिय कर देता है और स्वप्न द्रष्टा स्वप्न में उन प्रश्नों के उत्तर पा लेता है जिन्हें जानने के लिए वह संघर्ष कर रहा होता है। पर यह उत्तर विभक्त विचार होने पर कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते। ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकार के समाधान प्रारंभिक रूप से स्वप्न में और द्वितीयक रूप से जाग्रत अवस्था में आते हैं लेकिन अधिकांशतः स्वप्न के समाप्त होते ही भूल जाया करते हैं, ब्रहुत थोड़ा सा भाग ही जागते हुए याद रह पाता है। वास्तव में जाग्रत अवस्था में अचेतन मन से अवचेतन मन में द्वितीयक रूप से ही ज्ञान प्रवाहित होता है और अधिकांश मामलों में वह वहीं पर स्थिर रह जाता है और फिर चेतन मन में सरलता से आ जाता है। अनेक बीमार व्यक्ति अपने दुख को दूर करने के लिए मूर्तियों के सामने साष्टांग प्रणाम करते हुए सतत रूप से अपनी बीमारी से हो रहे कष्ट का समाधान करने के लिए सोचने लगते हैं। क्षण भर के लिए यदि उनका मन एकाग्र होजा ता है तो सर्वज्ञाताअचेतन मन समस्या का समाधान तत्काल अवचेतन में तरंगित कर देता है । परन्तु यह अवस्था न तो निद्रा की होती है, न स्वप्न की और न ही जाग्रत की, अतः समस्या का समाधान अवचेतन से चेतन में सरलता से आ जाता है और व्यक्ति समझता है कि अमुक अमुक देवी या देवता ने वरदान में मुझे यह समाधान दिया और मैं ठीक हो गया। पर स्पष्ट है कि यह सत्य नहीं है, यह सब खेल अचेतन और अवचेतन मन का ही होता है। सामान्यतः असथायी या स्थायी एकाग्रता इन पांच मानसिक क्रियाओं में से किसी एक के द्वारा होती है, ‘क्षिप्त’, ‘मूढ़’, ‘विक्षिप्त’, ‘एकाग्रता’, और ‘निरोध’। मूर्ति के सामने लेटा हुआ व्यक्ति अपने मन की अस्थायी एकाग्रता के फल स्वरूप अचेतन मन से आऐ विचार अवचेतन के माधम से चेतन मन को संप्रेषित कर समस्या का समाधान कर देते हैं, इसमें मूर्ति या देवता का कोई महत्व नहीं होता है। यद्यपि 95 प्रतिशत से भी अधिक स्वप्न सत्य नहीं होते फिर भी यह विचित्र अवस्था होती है जिसमें क्षण भर में एक राजा, रंक हो जाता है और रंक, राजा। स्वप्न में किसी को अपार कष्ट से कराहते तो किसी को अपनी इच्छाओं के पूरे होने पर अपार आनन्द से हंसते हुए देखा जा सकता है। परन्तु उन लोगों का ही जीवन सफल होता है जो परमपुरुष के स्वप्न देखते हैं। यह हो सकता है कि किसी के जीवन में अपार कष्टों ने आ घेरा हो परन्तु रात में जब वे स्वप्न में अपने इष्ट से मिलते हैं तो सभी कष्ट दूर होकर उनमें आनन्द और उत्साह भर देते हैं। वे जो इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं सचमुच भाग्यशाली होते हैं। वे कह उठते हैं मैं उन्हें(अपने इष्ट को) आंखों से नहीं देखता, मैं तो उन्हें अपने मन में ही देखता हॅूं और उस मुलाकात में सभी दुख भूल जाता हॅूं इसलिए जब मैं स्वप्न देखता हॅूं मैं जिंदा रहता हॅूं । जागने पर भी उनका स्मरण बना रहता है और लगता है कि सपना सच हुआ और अब यह जागना उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। परन्तु इस प्रकार के व्यक्ति समाज का कल्याण अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं क्योंकि उनकी यह उनींदेपन की अवस्था आलस्य या जड़ता भरी नहीं होती बल्कि यह उन्हें सुनहला अवसर होता है कि अपने इष्ट (तारक ब्रह्म) के पैरों को पकड़ कर अपने अस्तित्व का जब तक जीवित हैं उपयोग करे।
(3) इस भौतिक जगत में मनुष्य की पांच वृत्तियॉं सक्रिय रहती हैं वे हैं, आहार, निद्रा, भय, मैंथुन और धर्म साधना। इन पांच में से प्रथम चार तो जानवरों में भी होती हैं परन्तु पांचवी केवल मनुष्यों ही होती है। प्रथम चार वृत्तियों की विचित्रता यह है कि यदि उन्हें बढ़ाया जाय तो वे तेजी से बढ़ती ही जाती हैं परन्तु यदि उन पर प्रारंभ में ही थोड़ा प्रयत्न कर लिया जाय तो वे नियंत्रण में भी आ जाती हैं। पहली पांच वृत्तियां पाथमिक रूप से शारीरिक और द्वितीयक रूप से मानसिक होती हैं जबकि पांचवी बराबर बराबर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक होती है। पहली चार वृत्तियों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए न्यूनतम योगदान है जबकि पांचवीं का योगदान इस क्षेत्र में असीमित है और जितना अधिक इसका योगदान लिया जाय उतना ही अधिक अच्छा होता है। इसलिए शिव का कहना है कि प्रथम चार वृत्तियों को धीरे धीरे पांचवीं की ओर प्रवाहित करते रहना चाहिए जिससे बाद में उन पर नियंत्रण हो जाता है ओर उनकी आवश्यकता बिलकुल नहीं रह जाती। शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक कार्य करते हुए मन थक जाता है तब उसे आराम के लिए नींद की आवश्यकता होती है। जो लोग इन तीनों प्रकार के कार्यों में संतुलन बना लेते हैं उन्हें विस्तर पर जाते ही नींद आ जाती है परन्तु जो यह असंतुलन नहीं बना पाते वे अनिद्रा से पीड़ित रहते हैं। निद्रा की विशेषता यह है कि उसे जितना अधिक प्रश्रय दिया जाता है वह बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार को कोई व्यक्ति 24 में से 23 घंटे तक सो सकता है परन्तु क्या यह मौत से कुछ कम है? इस धरी पर मनुष्य धर्म साधना करने के लिए आया है यदि वह सोता रहेगा तो यह महत्वपूर्ण कार्य कब करेगा? मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि मृत्यु के अंधेरे को दूर करते हुए हृदय की सुनहली प्रकाश तरंगों में आनंदित रहना। यही गतिशील जीवन, आध्यात्मिक तरंगों से प्रेरित होकर जागृत अवस्था में भी अनुभव किया जाता है। इसलिए शिव का कहना यह है कि परमपुरुष के द्वारा ही मनुष्य को जगृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएं प्रदान की गई हैं अतः उनके अस्तित्व को मन में रखते हुए उन्हें तुरीयावस्था तक पहुंचने का अभ्यास करना चाहिए । यह अभ्यास धर्म साधना के द्वारा ही संभव है। चूंकि समग्र ब्रह्मांड उन परमपुरुष की तरंगों से ही तरंगायित हा रहा है अतः धर्म साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक तरंगों को उनकी तरंगों के साथ सरलता से मिला सकता है और उन्हें अनुभव कर सकता है। साधना में अनुभव करते हुए साधक कहता है, हे प्रभो! आप तो अनन्त हैं, अपरिमाप्य हैं ओर मैं तो अत्यंत छोटा सा आपकी तुलना में नगण्य हॅूं। परन्तु हूं तो आपकी असीमित सत्ता का सूक्ष्म अंश ही अतः मैं अपने सभी संकल्प और विकल्पों को आपके प्रति समर्पित करता हॅूं। अब मेरे और आप के बीच कोई भेद भाव नहीं , कोई भिन्नता नहीं , कोई अलगाव नहीं। मैं तो तुम ही हॅूं। इस प्रकार जब उस परमसत्ता के साथ उसकी व्यक्तिगत सत्ता का भेद समाप्त हो जाता है तो व्यक्ति मुक्त कहा जाता है। उसके भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के बंधन समाप्त हो जाते हैं और वह अलौकिक आनन्द की परम अवस्था को पा लेता है।