Thursday, 25 September 2025

441 धार्मिक अन्धानुकरण और धर्म के नाम पर शोषण किस प्रकार रोका जा सकता है?

 

सभी धर्मों में भौतिक जगत की उपलब्धियों को पाने के लिए ही पूजा पाठ करने की सलाह दी जाती है। इस कारण कुछ लोगों ने अपने को विशेषज्ञ घोषित कर उसकी शिक्षा देने का धँधा अपना लिया है और तदनुसार लोगों को मार्गदर्शित कर सिखाने लगे हैं कि ‘‘विश्वासे मिले वस्तु तर्के बहु दूर...’’ अर्थात् वस्तु की प्राप्ति विश्वास से होती है न कि तर्क से तथा यह भी कि ‘‘मजहब में अकल का दखल नहीं ’’ किया जाता। इसका परिणाम यह हुआ है कि भोले भाले अनुयायी , इन निहित स्वार्थी लोगों के हाथ के हथियार बन गए हैं। यदि सर्वसाधारण के मन में नित्यानित्य विवेक और वैज्ञानिक तर्कज्ञान का द्वार खोल दिया जाए तो धर्म के नाम पर इन्हें धोखा दिया जाना सम्भव नहीं हो सकेगा अथवा स्वर्ग और तीसरे संसार के आनन्द का प्रलोभन नहीं दिया जा सकेगा। परन्तु ये निहित स्वार्थी लोग इस बात को जानते हैं इसलिए वे जन साधारण को अज्ञानता के अन्धकार में ही भटकते रहने देना चाहते हैं। इस प्रकार भोले भाले लोग जो भी अपने खून पसीने से अर्जित करते हैं ये परजीवी तथाकथित विद्वान लोग उनमें भय और हीनता के बोध को जगाकर अपना लाभाँश लूटते रहते हैं। इस विज्ञान के युग में इन ठगों से बचा जा सकता है यदि हम किसी भी बात को या सिद्धान्त को स्वीकार काने से पहले उस पर अपने तर्क, विज्ञान और विवेक के आधार पर विश्लेषण कर लें।


Tuesday, 23 September 2025

440 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का बारहवां उपदेश है कि-

 

‘‘ मय्येव सकलं जातं मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्, मयि सर्वं लयं याति तद् ब्रहमाद्वयमस्म्यहम्।’’

अर्थात् ब्रह्मांड की सभी चीजें मुझ से ही उत्पन्न होती हैं, मुझ में ही जीवित रहती हैं, अंत में मुझ में ही मिल जाती हैं और मैं ही वह अद्वितीय ब्रह्म हॅूं।

स्पष्टीकरण :

(1) सर्वोच्च चेतना के अवतार चिदानन्दघनसत्ता शिव कहते हैं कि परमपुरुष का नाभिक ही इस ब्रह्मांड का नाभिक है। अतः सभी सत्ताएं उन्हीं के नाभिक से जन्म पाती हैं और अपने अपने संस्कारों के लय के अनुकूल उन्हीं के विराट ब्राह्मिक शरीर में युगों तक घूमते हुए अंत में उसी नाभिक के मूल बिंदु में मिल जाती हैं। अर्थात् पुरुषोत्तम ही सभी के परम श्रोत हैं। पर यह कहना पर्याप्त नहीं है कि सभी उस परम अस्तित्व के नाभिक से निकलते हैं, वास्तव में उनके इस विराट शरीर ब्रह्मांड में चारों ओर जिस ‘समय’ के साथ लयबद्ध ढंग से घूमते हैं वह ‘समय’ भी इसी नाभिक से उत्पन्न होता है। अर्थात् यह नाभिक न केवल सभी का उद्गम केन्द्र है वरन् सभी के प्रकाशित होने के लिए एकमात्र प्रेरक बल भी है। यह वैसा ही है जैसे कोई लड़का पतंग को उड़ाता है, पहले वह रील से धागे को ढीला छोड़ता जाता है और पतंग हवा में स्वच्छंद उड़ती जाती है। वह सोचती है कि अब मैं बिलकुल स्वतंत्र हॅूं , कहीं पर भी उड सकती हॅूं।़ परन्तु उसी समय वह लड़का धागे में एक झटका देता है और धागे को रील में लपेटने लगता है तथा पतंग उसी रील के पास वापस आ जाती है। इसीलिए शिव ने कहा है कि सभी कुछ मुझसे ही उत्पन्न होते हैं मुझ में ही जीवित रहते हैं और अंत में वापस मुझमें ही समा जाते है। कुछ लोग इसे जानते हैं कुछ नहीं और कुछ लोग तो इसे जानना ही नहीं चाहते। सोचिए, जिनका निर्माण हुआ है वे उस निर्माण करने वाली सत्ता के बाहर कैसे रह सकते हैं? उनके बाहर तो ‘‘समय, स्थान या कोई अस्तित्व’’ है ही नहीं। इसलिए सभी अस्तित्व चाहे वे छोटे हों या बड़े उन्हीं एकमेव निर्माणकर्ता के विराट शरीर के भीतर चलते, खिसकते, दौड़ते और कूदते रहते हैं।

(2) जिसमें सरलता है, सत्य कहने की क्षमता है वह साहस के साथ अपनी छाती ठोक कर कहेगा- मैंने असीम पुरुष की विराट गोद में आश्रय पाया है अन्य कहीं भी मेरा आश्रय नहीं है। जो भीरु है, कापुरुष है, सत्य कहने में जिसकी जीभ जड़ता से स्थिर हो जाती है वह कहेगा - मैंने जिस आश्रय को पाया है और जिसकी स्नेहच्छाया में लालित, पालित और वर्धित हो रहा हॅूं उसे अस्वीकार कर रहा हॅूं। लेकिन शिव का कहना है कि मेरी स्नेहपूर्ण सन्तानें सदा ही मेरी गोद में थीं, हैं और रहेंगी। कोई कितना ही पापी हो, मूर्ख हो, हीनाचारी हो, अपनी संतान को मैं अपनी गोद से अलग कैसे कर सकता हॅूं, ‘‘मयि सर्वं लयं याति’’। शिव कहते हैं कि ‘‘जागतिक कर्तव्य के अन्त में जीव मुझ में ही लौट आता है, मुझ में मिलकर एक हो जाता है और उसके द्वित्वभाव की आनन्दमय परिसमाप्ति हो जाती है।’’ शिव का आगे और भी कहना है कि ‘यह जो जीव की सृष्टि है, उसका माधुर्यमय अस्तित्व है, कर्मतत्परता है और जो उसका आनन्दघन प्रशान्तिमय विश्राम है, यह सभी मुझे ही केन्द्र बनाए हुए हैं और मैं ही अद्वय ब्रह्म हॅूं।’

(3) अद्वय क्यों कहा गया है? इस ब्रह्मांड में परमपुरुष एकमात्र अकेली सत्ता हैं कोई दूसरा है ही नहीं। जब कोई व्यक्ति साधना करते हुए परमपुरुष की कृपा से मुक्ति पा जाता है तो सभी प्रकार का द्वैत समाप्त हो जाता है। इस समय होता यह है कि उसका छुद्र ‘मैं’ समाप्त हो जाता है और कुछ नहीं। छुद्र मैं के चारों ओर मंडराने वाली उसकी तुच्छता विराटता में रूपान्तरित हो जाती है। सभी का अपना अपना छुद्र ‘मैं’ है परन्तु  सभी के लिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है। ‘छुद्र मैं’ में द्वैत है पर ‘बड़े मैं’ में नहीं । इसलिए ‘बड़ा मैं’ एक ही है अद्वय है। इसलिए मुक्ति की अवस्था में व्यक्ति का छोटा मैं परमपुरुष के ‘बड़े मैं’ में मिलकर एक ही हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे नदियॉं ऊॅंचे पहाड़ों , घाटियों, जंगलां, हरे भरे समतलों में से होते हुए अंत में महासागर में मिल जाती हैं। किसी की भी स्थायी मृत्यु नहीं होती। नदियों की लयवद्ध मधुरता महासागर की लहरों में अलौकिक रूप से स्पंदित होती रहती है। लोग इसे जानते हुए भी भूले रहना चाहते हैं। वे इसे भूले रहना चाहते हैं अतः विछोह के डर से सदा दुखित रहते हैं। यथार्थतः सभी सत्ताएं अनादि काल से अनन्त काल तक उस विराट् के वक्ष में परमशान्ति से चिरकाल के लिए समा जाती हैं, कोई भी विलुप्त नहीं होती न ही कभी नष्ट।


Saturday, 20 September 2025

439 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का ग्यारहवां उपदेश है कि-


‘ इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वराणने।’’

अर्थात् तामसिक लोग तीर्थ यात्रा करने के लिए इस सथान से उस स्थान पर भटकते हैं परन्तु हे बराणने! (पार्वती) आत्मतीर्थ (अपने हृदय के भीतर स्थित वास्तविक तीर्थ) को जब तक नहीं पा जाते उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?

स्पष्टीकरण :

(1) सामान्यतः लोगों को तीर्थो के प्रति अदम्य आकर्षण देखा जाता है, महिलाएं तो तीर्थयात्रा के लिए अपने आभूषण तक बेच देती हैं, कुछ लोग अपनी जमीन और बर्तन तक बेचकर तीर्थ जाने में अपने को धन्य समझते हैं। देखा जाता है कि कुछ को तो चलते नहीं बनाता इतना कि दिखाई भी नहीं देता वे भी किसी न किसी के सहारे तीर्थ जाते हैं और पंडे लोग उन्हें मरे हुए घोंघे की खोल दिखा या स्पर्श करा कर कहते हैं यह नारायण हैं और वे विश्वास कर उसके समक्ष दंडवत प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं। जब से मनुष्य के मन में भगवान का विचार आया तब से वे तीर्थों के प्रति अदम्य आकर्षण को पाले हुए हैं। अब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि आखिर तीर्थ है क्या? तीर्थ का सामान्यतः अर्थ है यात्रा का स्थान। तीर्थ =  तीर $ स्था $ डा  अर्थात् किनारे पर स्थित। तीन काअर्थ है किनारा। नदी का पानी और स्थल भाग जहॉं पर मिलते हैं उसे कहते हैं किनारा, यदि कोई इस किनारे से एक कदम आगे बढ़ता है तो वह पानी में पहुंचता है और पीछे की ओर एक कदम रखता है तो स्थल पर ही रहता है। तीर्थ का सही अर्थ है वह रेखा जहॉं भौतिक और आध्यात्मिक संसार आपस में मिलते हैं जो कि इस भौतिक तीर्थ रेखा से मेल करते हैं। इस प्रकार जो भी एक कदम भौतिक संसार की ओर बढ़ाता है वह संसार में उलझा रहता है और जो आध्यात्म के पानी की ओर अपना कदम बढ़ाता है वह उसके बहाव में बहने लगता है। इसीलिए कह गया है कि सांसारिकता और आध्यात्मिकता के बीच संबंधित बिन्दुओं की रेखा को तीर्थ कहते हैं। ‘‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुह’’। शिव का कहना है कि सामान्यतः चाहे भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक, तामसी प्रकृति के लोग अधिक पराक्रम या साधना किए बिना ही सब कुछ पा जाना चाहते हैं। इसलिए जब इस प्रकार के लोग अपना भाग्य बदलना चाहते हैं या मोक्ष चाहते हैं तो वे इस प्रकार के तथाकथित तीर्थों की ओर दौड़ लगाने लगते हैं। वहॉं वे पंडों के कहे अनुसार बछ़ड़े की पूछ पकड़कर तथाकथित वैतरणी पार कर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। स्थानीय व्यापारी इस बात को भांप कर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी आध्यात्मिक भूख इस तीर्थ यात्रा के कार्य से नहीं मिटती तब पछताते हैं कि एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में इस प्रकार भागने में इतना समय, पराक्रम और धन व्यर्थ ही खर्च किया।  

(2) तो सच्चा तीर्थ क्या है? वह कहॉं पर स्थित है? शिव ने उत्तर दिया कि हे वराणने (पार्वती)!  ‘मानव हृदय में जिस सुनहरी रेखा पर मानसिक संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और जहॉं वे आध्यात्मिक प्रशान्ति के मधुर भाव में एक दूसरे को स्पर्श करते हैं वही सच्चा तीर्थ कहलाता है। जो भी इस सुनहरी रेखा पर स्थित रहता है उसे कहा जाता है तीरस्थ या तीर्थ। इस स्थान पर वह व्यक्ति और उस स्थान का नियंत्रक देवता एक समान हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय की गहराई में स्थित पवित्र तीर्थ में विराजे तीर्थपति, जो कि सदा जाग्रत और स्थायी रूपसे स्थिर लौ के समान सदा प्रकाशमान रहते हैं, को भूलकर भौतिक जगत के तीर्थों के चक्कर लगाते रहते हैं, क्या वे मुक्ति मोक्ष पा सकते हैं? शिव ने स्पष्ट कहा कि नहीं पार्वती! इस प्रकार के लोग इन यात्राओं से मुक्तिमोक्ष नहीं पा सकते। 


Wednesday, 17 September 2025

438 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का दसवां उपदेश है कि-


शिव का दसवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मस्थितं शिवं त्यक्तवा बहिस्थं यःसमर्चयेत् , हस्तस्थं पिंडमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया।’’

अर्थात् अपने हृदय में स्थित परमचैतन्य सत्ता की उपेक्षा कर जो बाहरी पूजा करने का दंभ भरते हैं वे वैसे ही है जो हाथ में रखा हुआ भोजन फेक कर भीख मांगते फिरते हैं।

स्पष्टीकरण :

(1) इस विश्व ब्रह्मांड में कोई भी जीवधारी किसी भी परिस्थिति में न तो अकेला है , न था और न रहेगा। सभी प्रकार के अस्तित्व उस परमसत्ता का आधार पाकर प्रारंभ से अंत तक गतिशील हैं और उन सबपर सदा बज्र से भी कठोर उस परम नियंत्रक  परासत्ता के अत्यंत कोमल हाथ का स्पर्श रहता है। वह एक हाथ से अपने प्रोतयोग से सभी स्तरों पर सभी लोकों से जुड़ा रहता है और दूसरे हाथ से ओतयोग द्वारा प्रत्येक अस्तित्व से। सभी प्राणियों के मनों के सर्वाधिक एकान्त कोने में चमकदार मणि की तरह चमकते रहते हैं। इस संसार का बाहरी और भीतरी आकाश उनके ही प्रकाश से चमक रहा है।

‘‘न तत्र सूर्यो भाति न चंद्र तारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः।

तदेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’’

अर्थात् वह जो बाह्य संसार को प्रकाशित करता है वही सभी तारों और नक्षत्रों को भी प्रकाश देता है। परम पुरुष के अलावा किसी की भी अपनी द्युति अर्थात् चमक नही है। अन्य सभी अस्तित्वों का प्रकाश वास्तव में उस एक ही सत्ता के प्रकाश का परावर्तन मात्र है। उसकी चमक के सामने यह सूर्य भी अंधेरे में लिपट जाता है और चंद्रमा काले पर्दे में छिप जाता है। सबकी चमक अंधेरे में डूब जाती है फिर इस अग्नि की ताकत ही क्या है जो उनके सामने चमक सके। सभी कुछ उसके विकिरण से विकिरित हो रहे हैं उनके लिए कोई भी नगण्य नही है, वे ही सभी के केन्द्र बिन्दु हैं। वह अपनी प्रिय संतानों को आनन्द से भरने के लिए सभी में उन्नत भाव भरकर अपने को उन्हीं के भीतर छिपाए हुए लुका छिपी का खेल खेल रहे हैं।

(2)  ‘ब्रहच्च तद्दिव्यंचिन्त्यस्वरूपम् सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति।

         दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च  पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम्।’’

अर्थात् वह विराट अमाप्य दिव्य सत्ता सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हो जाती है और दूर से अत्यधिक दूर तथा पास से भी अधिक पास आ जाती है। कोई भी उन्हें अपने हृदय गुफा के भीतर छिपा हुआ पा सकता है।

इसलिए शिव का कहना है कि किसी को भी उस परमसत्ता को बाहर ढूंड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो आपके अपने अस्तित्व की भावना के भीतर रहते हैं वहॉं जाकर कोई भी उन्हें केवल खोजकर पा सकता है। अतः आन्तरिक संसार के सबसे अधिक चमकदार हीरे को भूलकर जो उसे बाहर तलाशता है वह व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करता है।  शिव कहते हैं कि लोग अपना समय इस प्रकार क्यों नष्ट करे? अपने हाथ में रखा भोजन फेक कर भिक्षा पात्र लिये घर घर भीख मांगते क्यों फिरें? अरे! अपने भीतरी संसार में गहरे जाओ, और गहरे उतरो और गहरे.... ।


Sunday, 14 September 2025

437भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का नौवां उपदेश है कि-

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश)

शिव का नौवां उपदेश है कि- 

‘‘आत्मज्ञानमिदं देवि परं मोक्षैकसाधनम्, सुकृतैर्मानवो भूत्वा ज्ञानी चेन्मोक्षमाप्नुयात्।’’

अर्थात् हे देवी पार्वती! यह आत्मज्ञान ही मोक्ष पाने का सर्वोत्तम साधन है जिसे अनेक जन्मों के सुकृत्यों के परणिमस्वरूप प्राप्त होने वाले इस मानव शरीर में ही इस आत्मज्ञान की साधना करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है अन्य शरीरों में नहीं।

स्पष्टीकरण :

(1) शिव के कार्यकाल के समय जनसामान्य के मन की जिज्ञासाओं को प्रस्तुत करने की प्रतिनिधि थीं शिव की पत्नी पार्वती। वे शिव के समक्ष उन जिज्ञासाओं, परिप्रश्नों (आत्म ज्ञान से संबंधित आध्यात्मिक प्रश्नों) को सबके साने पूछती थी और उनका उत्तर शिव दिया करते थे। पार्वती के प्रश्नों जितने सुंदर होते थे उतने ही सुंदर शिव के उत्तर। पार्वती के इन मूल्यवान प्रश्नों को संग्रहीत कर ‘निगमशास्त्र’ नाम दिया गया तथा शिव के उत्तरों को संग्रहीत कर ‘आगमशास्त्र’ नाम दिया गया है। उत्तम कोटि के इन परिप्रश्नों के उत्तर भले ही शिव की दार्शनिक द्युति से जगमगा रहे हों परन्तु उनके व्यावहारिक मूल्यों ने उनके दार्शनिक मूल्य को ढंक सा लिया है अर्थात् शिव की दार्शनिक व्याख्या व्यावहारिक मूल्यों द्वारा उज्ज्वल हो गई है। निगम और आगम को विद्यातंत्र में हंस के दो पंख कहकर समझाया गया है कि जैसे हंस एक पंख से नहीं उड़ सकता उसे दोनों पंख चाहिए, उसी प्रकार विद्यातंत्र भी निगम और आगम दोनों को मिलाने पर ही सम्पूर्ण होता है। इस श्लोक में शिव, पार्वती के प्रश्न पूछने पर कहते हैं मोक्ष साधना का एकमात्र पथ है उपयुक्त अनुशीलन द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त करना। आत्म ज्ञान के बारे में शिवोपदेश क्रमांक 2 में विस्तार से समझाया जा चुका है जहॉं यह सिद्ध किया गया है कि आत्मज्ञान की साधना को छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर पाना असंभवहै। कुछ विद्वान कहते हैं कि आत्मज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट पथ है भक्तिमार्ग। परन्तु शिव ने यहॉं भक्ति मार्ग का नाम ही नहीं लिया जिसका कारण है शिव के कार्यकाल में विद्यातंत्र साधना में ‘भक्ति’ का व्यवहार नहीं होता था। साधना मार्ग का मूल्यवान उपदेश ‘‘मोक्षकारणसमग्रयां भक्तिरेव गरीयसी’’ आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व (आचार्य शंकर के समय) का ही है अर्थात् शिव के बहुत बाद प्रकाश में आया। शिव ने पहले ही समझाया है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक साधना करना होगी अर्थात् समस्त मन के विचारों को छोड़कर अपने हृदय की मधुरता को परमशिव की मधुरता में पूर्णांजली देने पर मनुष्य को परम श्रेय अर्थात् आत्मज्ञान मिलता है। भक्ति की इससे अधिक अच्छी, मधुर और गंभीर व्याख्या क्या हो सकती है?

(2) इसके बाद पार्वती ने शिव से पूछा अच्छा, तो कौन इस आत्मज्ञान पाने का सबसे अच्छा पात्र है? शिव जाति, पांति, गोत्र, वर्णभेद आदि नहीं मानते थे अतः वे बोले जन्म जन्मान्तर के सुकृत्य अर्थात् अच्छे कर्म करने के फलस्वरूप जब कोई जीवधारी इस दुर्लभ मानव देह को प्राप्त कर लेता है तभी वह इस आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य अर्थात् पात्र होता है। अब कुछ विद्वान प्रश्न कर सकते हैं कि प्रतिसंचर (ब्रह्चक्र का द्वितीय अर्धचक्र ) की गतिधारा में प्रत्येक जीवधारी क्रमानुसार मानव शरीर पा ही जाऐंगे फिर भी यह क्यों कहा गया है कि पूर्व जन्मों के सुकृत्यों से मनुष्य शरीर पा जाने  के बाद ही आत्मज्ञान पाने की पात्रता आती है? शिव ने कहा, सही है प्रतिसंचर धारा में सुविन्यस्त पद्धति से जीव आगे बढ़ता हुआ मनुष्य शरीर पा जाता है, वह मनुष्य ही कहलाता है परन्तु वे जो अभी अभी अन्य जीवधारी का शरीर छोड़कर मानव शरीर में आए हैं उनका मन अभी भी पशुत्व और मनुष्यत्व की सीमा रेखा पर उलझा रहता है। उनका शरीर भले ही मनुष्य जैसा हो पर संस्कार पशुजीवन से भरे होने के कारण प्रारंभिक मानव जन्मों में उन्हें आध्यात्म चेतना का स्वर कम ही सुनाई देता है। अतः हर समय उसकी वृत्तियॉं पशुसुलभ क्रिया कलापों की ओर ही दौड़ती हैं। वह अच्छी बातें सुनना ही नहीं चाहता, सुनता है तो समझना नहीं चाहता और समझना भी चाहे तो समझ नहीं पाता। इस प्रकार के लोग शरीरिक तौर पर मनुष्य ही कहलाते हैं परन्तु बौद्धिक स्तर पर वे पूर्ण मनुष्य नहीं होते। इस प्रकार के लोग कहते हैं धर्म अफीम है, इसके बिना भी रहा जा सकता है। उनके लिए कोई भी कर्म पाप कर्म नहीं है। वे अपने और अपनों के स्वार्थ में ही मस्त रहते हैं। यही लोग जब धीरे धीरे सुअवसर मिलते मिलते विभिन्न मानव जन्म लेकर सुकर्म अर्जित करते हुए बौद्धिक स्तर पर उन्नत हो जाते हैं तो उनके पास विश्वविद्यालयों की डिग्री भले न हों वे आत्मज्ञान के लिए अवश्य योग्य पात्र माने जाते हैं। इसका प्रमाण यह है कि अनेक लोगों को देखा गया है कि वे अपने बाल्यकाल से ही आध्यात्म की ओर उन्नति करने लगते हैं क्योंकि उनके पिछले जन्मों के संचित आध्यात्मिक साधना के संस्कार उनके जीवन में प्रारंभ से ही प्रभावी हो जाते हैं। अतः शिव ने ठीक ही कहा है कि अनेक जन्मों के सुकृत्य से जब मनुष्य उन्नत बुद्धि पा लेता है तब वह आत्मज्ञान पाने के लिए योग्य हो जाता है और जिसने आत्मज्ञान पा लिया उसके त्रिविध तापों (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) की ज्वाला स्थायी रूप से शांत होकर मोक्ष की ओर ले जाती है।


Tuesday, 9 September 2025

436 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश

 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) का आठवां उपदेश है कि 

‘‘ जाग्रतस्वप्नसुषुप्त्यादि चैतन्यं यद् प्रकाशते, तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबंधैः प्रमुच्यते।’’

अर्थात् जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाएं परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती हैं। वह जो इन अवस्थाओं में रहते हुए अनुभव कर लेता है कि ‘वह ब्रह्म ही’ है वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

स्पष्टीकरण :

(1) मन की चार अवस्थाएं होती हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।  इनमें से प्रथम तीन परमपुरुष की इच्छा से प्रकाशित होती है परन्तु तुरीय अवस्था वह है ‘जब इकाई मन अत्यधिक ईश्वरानुरक्ति में अपने समस्त अस्तित्वबोध ंको, माधुर्यपूर्ण समस्त स्पंदनों को, छन्दमय सभी भाव तरंगों को परमब्रह्म के नित्यानन्द में मिला कर सामयिक रूप से या स्थायी रूप से मानसिक संकल्प विकल्प रहित स्थिति में जा पहुंचता है ’। मन की उच्चतम प्रज्ञा का चितिशक्ति(परमात्मा) के साथ एकत्व ही तुरीय अवस्था कहलाती है जो अलौकिक आनन्द की अवस्था होने के कारण उसका बाहरी प्रकाशन नहीं होता।

जब चेतन मन, आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से, इंद्रिय समूह की सहायता से,  इस भौतिक जगत में भावों के ग्रहण, वर्जन, प्रेषण और निक्षेपण करता है अथवा इंद्रियवर्जित या नाड़ीवर्जित भाव में स्नायुकोष की तरंगों को स्मरण करता है तो उसे जाग्रत अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में मनुष्य के जीवन में घात प्रतिघात हर क्षण आज्ञानाड़ी और संज्ञानाड़ी के माध्यम से स्नायुओं को धक्का देकर कभी सुख और कभी दुख की अनुभूति कराता है। यही कारण है कि मन वास्तविक जगत के तन्मात्रिक स्पंदनों कें स्पर्श की मधुरता या कठोरता को छोड़कर एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता। इस प्रकार ज्रग्रत अवस्था में वह नाड़ी समूह के स्पंदनों के माध्यम से विचारों को सोचता है और याद करता है। परन्तु इन नाड़ियों के विचार और स्मरण आज्ञा और संज्ञा नाडियों की अवधारणा जैसे महान नहीं होते। जब मन की एकाग्रता थोड़ी बढ़ जाती है और वह अन्तर्मुखी हो जाता है तब भौतिक जगत के सुख और दुख सब भूल जाता है अतः इस समय नाड़ियां के प्रभाव से उत्पन्न विचार और स्मरण बढ़ने लगते हैं।ं इस स्थिति में वह व्यक्ति अपने मासिक बल  के द्वारा विशेष विधि का उपयोग कर किसी दूसरे व्यक्ति के मन पर नियंत्रण कर सकता है। इसे ही ‘हिप्नोटिज्म’ कहा जाता है। इस प्रकार तीन अवस्थाओं में मन केवल जाग्रत अवस्था का ही अधिकतम उपयोग करता है अतः वह अपने आन्तरिक विचारों को व्यावहारिक बनाकर संसार के हित में प्रयुक्त कर सकता है। इसलिए जाग्रत अवस्था का अधिक महत्व है। जो लोग अधिक सोते हैं उन्हें उनींदापन घेरे रहता है और वे अपनी शक्ति का बहुत कम ही उपयोग कर पाते हैं। इसलिए कहा गया है-

‘‘षडदोषाः पुरुषेणेह हन्तव्याः भूतिमिच्छता, निद्रा, तंद्रा, भयं, क्रोधं आलस्यम् दीर्घसूत्रता’’

अर्थात् जो व्यक्ति अपनी उन्नति की कामना करता है उसे इन छः दोषों को त्याग देना चाहिए, वे हैं निद्रा, तंद्रा, आलस्य, भय, क्रोध और दीर्घसूत्रता। अब चूंकि मनुष्य यह जाग्रत अवस्था पाता है परमपुरुष की इच्छा से अतः किसी को भी इसके लिए बड़ी बड़ी बातें करते हुए दंभ  प्रदर्शित करने का अधिकार नहीं है।

(2) स्वप्न अवस्था में मन सोते हुए सोच विचार करता है। परन्तु चह हमेशा सोते हुए सोच विचार क्यों नहीं करता? जबकि जागते हुए मन सदा ही सोच विचार करता है, इतना ही नहीं वह जागते हुए ही ध्यान करता है और परमपुरुष के बारे में सोचविचार करता है और जाग्रत अवस्था में सदा ही सक्रिय रहता है, लेकिन सोते हुए हमेशा स्वप्न क्यों नहीं देखता? वास्तव में साने की अवस्था होती है मन को आराम करने करने की। परन्तु यदि सोने के पहले या सोते समय मन पर गहरा दुख या अत्यधिक प्रसन्नता प्रभाव डाले या किसी  बीमारी या किसी काल्पनिक सुख दुख प्रभावित करते हैं तो सोते समय पेट में बनने वाली गैस ऊपर उठकर नाड़ीतंत्र को कंपित कर देती है और मन सोचविचार करते हुए उन्हीं विचारों को स्वप्न के रूप में देखने लगता है। सोते हुए जब किसी कारण से मन की एकाग्रता बढ़ जाती है तब सर्वज्ञाता अचेतन मन नाड़ीतंत्र को सक्रिय कर देता है और स्वप्न द्रष्टा स्वप्न में उन प्रश्नों के उत्तर पा लेता है जिन्हें जानने के लिए वह संघर्ष कर रहा होता है। पर यह उत्तर विभक्त विचार होने पर कभी भी प्राप्त नहीं हो सकते। ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकार के समाधान प्रारंभिक रूप से स्वप्न में और द्वितीयक रूप से जाग्रत अवस्था में आते हैं लेकिन अधिकांशतः स्वप्न के समाप्त होते ही भूल जाया करते हैं, ब्रहुत थोड़ा सा भाग ही जागते हुए याद रह पाता है। वास्तव में जाग्रत अवस्था में  अचेतन मन से अवचेतन मन में द्वितीयक रूप से ही ज्ञान प्रवाहित होता है और अधिकांश मामलों में वह वहीं पर स्थिर रह जाता है और फिर चेतन मन में सरलता से आ जाता है। अनेक बीमार व्यक्ति अपने दुख को दूर करने के लिए मूर्तियों के सामने साष्टांग प्रणाम करते हुए सतत रूप से अपनी बीमारी से हो रहे कष्ट का समाधान करने के लिए सोचने लगते हैं। क्षण भर के लिए यदि उनका मन एकाग्र होजा ता है तो सर्वज्ञाताअचेतन मन समस्या का समाधान तत्काल अवचेतन में तरंगित कर देता है । परन्तु यह अवस्था न तो निद्रा की होती है, न स्वप्न की और न ही जाग्रत की, अतः समस्या का समाधान अवचेतन से चेतन में सरलता से आ जाता है और व्यक्ति समझता है कि अमुक अमुक देवी या देवता ने वरदान में मुझे यह समाधान दिया और मैं ठीक हो गया। पर स्पष्ट है कि यह सत्य नहीं है, यह सब खेल अचेतन और अवचेतन मन का ही होता है। सामान्यतः असथायी या स्थायी एकाग्रता  इन पांच मानसिक क्रियाओं में से किसी एक के द्वारा होती है, ‘क्षिप्त’, ‘मूढ़’, ‘विक्षिप्त’, ‘एकाग्रता’, और ‘निरोध’। मूर्ति के सामने लेटा हुआ व्यक्ति अपने मन की अस्थायी एकाग्रता के फल स्वरूप अचेतन मन से आऐ विचार अवचेतन के माधम से चेतन मन को संप्रेषित कर समस्या का समाधान कर देते हैं, इसमें मूर्ति या देवता का  कोई महत्व नहीं होता है। यद्यपि 95 प्रतिशत से भी अधिक स्वप्न सत्य नहीं होते फिर भी यह विचित्र अवस्था होती है जिसमें क्षण भर में एक राजा, रंक हो जाता है और रंक, राजा। स्वप्न में किसी को अपार कष्ट से कराहते तो किसी को अपनी इच्छाओं के पूरे होने पर अपार आनन्द से हंसते हुए देखा जा सकता है। परन्तु उन लोगों का ही जीवन सफल होता है जो परमपुरुष के स्वप्न देखते हैं। यह हो सकता है कि किसी के जीवन में अपार कष्टों ने आ घेरा हो परन्तु रात में जब वे स्वप्न में अपने इष्ट से मिलते हैं तो सभी कष्ट दूर होकर उनमें आनन्द और उत्साह भर देते हैं। वे जो इस प्रकार के स्वप्न देखते हैं सचमुच भाग्यशाली होते हैं। वे कह उठते हैं मैं उन्हें(अपने इष्ट को) आंखों से नहीं देखता, मैं तो उन्हें अपने मन में ही देखता हॅूं और उस मुलाकात में सभी दुख भूल जाता हॅूं इसलिए जब मैं स्वप्न देखता हॅूं मैं जिंदा रहता हॅूं । जागने पर भी उनका स्मरण बना रहता है और लगता है कि सपना सच हुआ और अब यह जागना उनके लिए व्यर्थ हो जाता है। परन्तु इस प्रकार के व्यक्ति समाज का कल्याण अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं क्योंकि उनकी यह उनींदेपन की अवस्था आलस्य या जड़ता भरी नहीं होती बल्कि यह उन्हें सुनहला अवसर होता है कि अपने इष्ट (तारक ब्रह्म) के पैरों को पकड़ कर अपने अस्तित्व का जब तक जीवित हैं उपयोग करे।

(3) इस भौतिक जगत में मनुष्य की पांच वृत्तियॉं सक्रिय रहती हैं वे हैं, आहार, निद्रा, भय, मैंथुन और  धर्म साधना। इन पांच में से प्रथम चार तो जानवरों में भी होती हैं परन्तु पांचवी केवल मनुष्यों ही होती है। प्रथम चार वृत्तियों की विचित्रता यह है कि यदि उन्हें बढ़ाया जाय तो वे तेजी से बढ़ती ही जाती हैं परन्तु यदि उन पर प्रारंभ में ही थोड़ा प्रयत्न कर लिया जाय तो वे नियंत्रण में भी आ जाती हैं। पहली पांच वृत्तियां पाथमिक रूप से शारीरिक और द्वितीयक रूप से मानसिक होती हैं जबकि पांचवी बराबर बराबर शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक होती है। पहली चार वृत्तियों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए न्यूनतम योगदान है जबकि पांचवीं का योगदान इस क्षेत्र में असीमित है और जितना अधिक इसका योगदान लिया जाय उतना ही अधिक अच्छा होता है। इसलिए शिव का कहना है कि प्रथम चार वृत्तियों को धीरे धीरे पांचवीं की ओर प्रवाहित करते रहना चाहिए जिससे बाद में उन पर नियंत्रण हो जाता है ओर उनकी आवश्यकता बिलकुल नहीं रह जाती। शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक कार्य करते हुए मन थक जाता है तब उसे आराम के लिए नींद की आवश्यकता होती है। जो लोग इन तीनों प्रकार के कार्यों में संतुलन बना लेते हैं उन्हें विस्तर पर जाते ही नींद आ जाती है परन्तु जो यह असंतुलन नहीं बना पाते वे अनिद्रा से पीड़ित रहते हैं। निद्रा की विशेषता यह है कि उसे जितना अधिक प्रश्रय दिया जाता है वह बढ़ती ही जाती है। इस प्रकार को कोई व्यक्ति 24 में से 23 घंटे तक सो सकता है परन्तु क्या यह मौत से कुछ कम है? इस धरी पर मनुष्य धर्म साधना करने के लिए आया है यदि वह सोता रहेगा तो यह महत्वपूर्ण कार्य कब करेगा? मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि मृत्यु के अंधेरे को दूर करते हुए हृदय की सुनहली प्रकाश तरंगों में आनंदित रहना। यही गतिशील जीवन, आध्यात्मिक तरंगों से प्रेरित होकर जागृत अवस्था में भी अनुभव किया जाता है। इसलिए शिव का कहना यह है कि परमपुरुष के द्वारा ही मनुष्य को जगृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएं प्रदान की गई हैं अतः उनके अस्तित्व को मन में रखते हुए उन्हें तुरीयावस्था तक पहुंचने का अभ्यास करना चाहिए । यह अभ्यास धर्म साधना के द्वारा ही संभव है। चूंकि समग्र ब्रह्मांड उन परमपुरुष की तरंगों से ही तरंगायित हा रहा है अतः धर्म साधना के द्वारा व्यक्ति अपनी मानसिक तरंगों को उनकी तरंगों के साथ सरलता से मिला सकता है और उन्हें अनुभव कर सकता है।  साधना में अनुभव करते हुए साधक कहता है, हे प्रभो! आप तो अनन्त हैं, अपरिमाप्य हैं ओर मैं तो अत्यंत छोटा सा आपकी तुलना में नगण्य हॅूं। परन्तु हूं तो आपकी असीमित सत्ता का सूक्ष्म अंश ही अतः मैं अपने सभी संकल्प और विकल्पों को आपके प्रति समर्पित करता हॅूं। अब मेरे और आप के बीच कोई भेद भाव नहीं , कोई भिन्नता नहीं , कोई अलगाव नहीं। मैं तो तुम ही हॅूं। इस प्रकार जब उस परमसत्ता के साथ उसकी व्यक्तिगत सत्ता का भेद समाप्त हो जाता है तो व्यक्ति मुक्त कहा जाता है। उसके भौतिक , मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के बंधन समाप्त हो जाते हैं और वह अलौकिक आनन्द की परम अवस्था को पा लेता है। 


Friday, 5 September 2025

435 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का सातवां उपदेश है कि


‘‘मृच्छिलाधातुदार्वादि मूर्तावीश्वरो बुद्धयो, क्लिश्यन्तस्तपसा ज्ञानम् बिना मोक्षम् न यान्ति ते।’’

अर्थात्, वे लोग जो सोचते हैं कि परमपुरुष मिट्टी, घातु, या लकड़ी की प्रतिमाओं में सीमित रहता है और उनके सामने व्रत उपवास आदि से तपस्या करते हुए अपने शरीर को विभिन्न कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही बिना आत्मज्ञान प्राप्त किए मुक्ति नहीं पा सकते। 

स्पष्टीकरण :

(1) छठवें उपदेश में बताया गया था कि मनुष्य किस प्रकार मूर्ति की कल्पना कर उसकी पूजा द्वारा अपनी मनोकामनाओं और आकांक्षाओं को सरलता से पूरा करने का उपाय बता कर स्वयं को धोखा देता है। इस उपदेश में कहा गया है कि मनुष्य इन कल्पित मूर्तियों को केवल अपने मन में ही नहीं रखता वरन् उन्हें मिट्टी, घातु, लकड़ी आदि का बनाकर  विभिन्न आकार प्रकार देकर कीमती साज सज्जा करता है और पूजा अर्चना के लिए बहुत धन भी व्यय करता है। इनकी पूजा को केन्द्रित करते हुए पुरोहित तंत्र पैदा होता है  और जिन परमपुरुष ने सबको बनाया है उनको मिट्टी पत्थर की मूर्तियों में बनाकर स्नान मंत्र से स्नान कराना, भोजन के लिए राजभोग खिलाना, फूलों की शय्या पर सुलाना, उत्सवों के समय राजसी वस्त्रों में सजाना आदि, सब उन्हें तृप्त करने की व्यवस्थाएं बना ली हैं। किसी किसी स्थान पर उस भोग के उपादान को विभिन्न मूल्यों में बेचा जाता है और रात में मंदिर के द्वार को यह कहकर बंद कर दिया जाता है कि अब भगवान सो रहे हैं! कितना आश्चर्य! भगवान सो गए , परमपुरुष सो गए तो इस जगत का कार्य कैसे चल रहा है? कल्पना में भी धोखाधड़ी, जैसे मूर्ति की कल्पना वैसे ही भावना जगत में चोरी। फिर भी मूर्तियों में केन्द्रित देवता के लिए, तीर्थ यात्राओं में कितना कष्ट उठाना पड़ता है, धन व्यय करना पड़ता है क्योंकि वे मूर्ति में ईश्वर को कैद करके, उसका आरोपण करके उससे भौतिक सुख सुविधाओं की आशा लगाए रहते हैं।  कहा जाता है ि कइस विश्व में कुछ भी व्यर्थ नहीं है, पर यह मिट्टी केन्द्रित क्लेशभोग क्या व्यर्थ है? नहीं, यह व्यर्थ नहीं है परन्तु इस प्रकार के दुख भोग का कोई पारमार्थिक मूल्य नहीं है। जिस दिन मनुष्य को यह समझ में आ जाता है  उस दिन से उतावला होकर वह इस प्रकार की भावजड़ता के विरोध में आ जाता है। परिवेश के दबाव से वह कुछ कर नहीं पाता पर मन ही मन आर्तनाद करता है कि हे परमपुरुष! मैं ने अपनी गलती को सुधार लिया है अब आप मुझे अपनी ओर ले चलो। स्पष्ट है कि इस प्रकार के कृच्छ साधनों से लेशमात्र भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती फिर मुक्ति मोक्ष की आशा करना तो बिलकुल बेकार है। इसलिए शिव का कहना है कि मोक्ष पाने का एकमेव साधन है आत्मज्ञान प्राप्त करना। इस आत्म ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बाहर के जीवन में शुद्ध आचार, मानसिक जीवन में शुद्ध विचार तथा आत्मिक जगत में एक सर्वाश्रय परमसत्ता को जीवन का एकमात्र ध्रुवतारा समझकर दृढ़ता से पकड़े रहने की आवश्यकता होती है। 

(2) विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां बनाकर और उनको केन्द्रित कर मध्ययुग में अनेक पुराणों की रचना की गईं, जिनकी रचनाओं में व्यासदेव अग्रगण्य माने जाते हैं। व्यास जी को जब अपनी इस गलती का आभास हुआ तब उन्होंने परमपुरुष से इस प्रकार क्षमा याचना की है-

‘‘रूपम् रूपविवर्जितस्य भवतो यद्ध्यानेन वर्णितम्।

स्तुत्यानिर्वचनीयताअखिलोगुरो दूरीकृता यन्मया।

व्यापित्वं च निराकृतमं भगवतो यत्तीर्थयात्रादिना।

क्षन्तव्यं जगदीशो तद्विकलता दोषत्रयम मत्कृतम्।’’

अर्थात् "हे प्रभो! आपका कोई रूप या आकार नहीं है फिर भी मैंने आपको अनेक रूप देकर वर्णन कर डाला, जबकि आप केवल ध्यान के माध्यम से ही जाने जा सकते हो।

आप तो अवर्णनीय हैं आपके बारे में कोई शब्दों में कुछ कह ही नहीं सकता, फिर भी मैंने आपको विभिन्न स्तुतियों और प्रार्थनाओं में बांध डाला। 

आप तो निराकार होकर सर्वव्यापी हैं, और मैं ने आपको तीर्थ स्थानों में बांध दिया।

हे जगत के स्वामी! मेरी मानसिक विकृतियों के कारण मुझसे यह तीन दोष अर्थात् गलतियॉं हो गई हैं, इनके लिए आप मुझे क्षमा कर दें।"

इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि  जो समस्त जगत के अस्तित्व, समस्त भावों के मध्यमणि हैं, उन्हें तो हमें अपनी आत्मा को देना है, अपनी सबसे प्रिय वस्तु अस्तित्व वोध की सारसत्ता को देना है। इसलिए व्यर्थ के प्रपंच त्याग कर कहना चाहिए ‘‘ निवेदयामि चात्मानं त्वम् गतिः परमेश्वरा।’’ अपने पन के भाव को निवेदित करके परमपुरुष के भाव को आत्मस्थ करने की जो साधना है वही आत्मज्ञान की साधना है। मोक्ष केवल इसी साधनां से मिल सकेगा। भावना के क्षेत्र में चोरी करके कोई भी वैतरणी पार नहीं कर सकता वह पाप से मुक्ति नहीं पा सकता।  जीवन के समस्त जागतिक और मानसिक स्तरों पर भी यही सार कथा है, अजस्र कथाओं में यही प्रधान कथा है।