Saturday, 20 September 2025

439 भगवान सदाशिव की शिक्षाएं, भाग -2 : (शिवोपदेश) शिव का ग्यारहवां उपदेश है कि-


‘ इदम तीर्थमिदम तीर्थम् भ्रमन्ति तामसाः जनाः, आत्मतीर्थम् न जानन्ति कथं मोक्ष वराणने।’’

अर्थात् तामसिक लोग तीर्थ यात्रा करने के लिए इस सथान से उस स्थान पर भटकते हैं परन्तु हे बराणने! (पार्वती) आत्मतीर्थ (अपने हृदय के भीतर स्थित वास्तविक तीर्थ) को जब तक नहीं पा जाते उन्हें मोक्ष कैसे मिल सकता है?

स्पष्टीकरण :

(1) सामान्यतः लोगों को तीर्थो के प्रति अदम्य आकर्षण देखा जाता है, महिलाएं तो तीर्थयात्रा के लिए अपने आभूषण तक बेच देती हैं, कुछ लोग अपनी जमीन और बर्तन तक बेचकर तीर्थ जाने में अपने को धन्य समझते हैं। देखा जाता है कि कुछ को तो चलते नहीं बनाता इतना कि दिखाई भी नहीं देता वे भी किसी न किसी के सहारे तीर्थ जाते हैं और पंडे लोग उन्हें मरे हुए घोंघे की खोल दिखा या स्पर्श करा कर कहते हैं यह नारायण हैं और वे विश्वास कर उसके समक्ष दंडवत प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं। जब से मनुष्य के मन में भगवान का विचार आया तब से वे तीर्थों के प्रति अदम्य आकर्षण को पाले हुए हैं। अब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि आखिर तीर्थ है क्या? तीर्थ का सामान्यतः अर्थ है यात्रा का स्थान। तीर्थ =  तीर $ स्था $ डा  अर्थात् किनारे पर स्थित। तीन काअर्थ है किनारा। नदी का पानी और स्थल भाग जहॉं पर मिलते हैं उसे कहते हैं किनारा, यदि कोई इस किनारे से एक कदम आगे बढ़ता है तो वह पानी में पहुंचता है और पीछे की ओर एक कदम रखता है तो स्थल पर ही रहता है। तीर्थ का सही अर्थ है वह रेखा जहॉं भौतिक और आध्यात्मिक संसार आपस में मिलते हैं जो कि इस भौतिक तीर्थ रेखा से मेल करते हैं। इस प्रकार जो भी एक कदम भौतिक संसार की ओर बढ़ाता है वह संसार में उलझा रहता है और जो आध्यात्म के पानी की ओर अपना कदम बढ़ाता है वह उसके बहाव में बहने लगता है। इसीलिए कह गया है कि सांसारिकता और आध्यात्मिकता के बीच संबंधित बिन्दुओं की रेखा को तीर्थ कहते हैं। ‘‘तीरस्थम् तीर्थमित्याहुह’’। शिव का कहना है कि सामान्यतः चाहे भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक, तामसी प्रकृति के लोग अधिक पराक्रम या साधना किए बिना ही सब कुछ पा जाना चाहते हैं। इसलिए जब इस प्रकार के लोग अपना भाग्य बदलना चाहते हैं या मोक्ष चाहते हैं तो वे इस प्रकार के तथाकथित तीर्थों की ओर दौड़ लगाने लगते हैं। वहॉं वे पंडों के कहे अनुसार बछ़ड़े की पूछ पकड़कर तथाकथित वैतरणी पार कर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। स्थानीय व्यापारी इस बात को भांप कर उनका आर्थिक शोषण करते हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी आध्यात्मिक भूख इस तीर्थ यात्रा के कार्य से नहीं मिटती तब पछताते हैं कि एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में इस प्रकार भागने में इतना समय, पराक्रम और धन व्यर्थ ही खर्च किया।  

(2) तो सच्चा तीर्थ क्या है? वह कहॉं पर स्थित है? शिव ने उत्तर दिया कि हे वराणने (पार्वती)!  ‘मानव हृदय में जिस सुनहरी रेखा पर मानसिक संकल्प और विकल्प उत्पन्न होते हैं और जहॉं वे आध्यात्मिक प्रशान्ति के मधुर भाव में एक दूसरे को स्पर्श करते हैं वही सच्चा तीर्थ कहलाता है। जो भी इस सुनहरी रेखा पर स्थित रहता है उसे कहा जाता है तीरस्थ या तीर्थ। इस स्थान पर वह व्यक्ति और उस स्थान का नियंत्रक देवता एक समान हो जाते हैं। वे जो अपने हृदय की गहराई में स्थित पवित्र तीर्थ में विराजे तीर्थपति, जो कि सदा जाग्रत और स्थायी रूपसे स्थिर लौ के समान सदा प्रकाशमान रहते हैं, को भूलकर भौतिक जगत के तीर्थों के चक्कर लगाते रहते हैं, क्या वे मुक्ति मोक्ष पा सकते हैं? शिव ने स्पष्ट कहा कि नहीं पार्वती! इस प्रकार के लोग इन यात्राओं से मुक्तिमोक्ष नहीं पा सकते। 


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