शिव का दसवां उपदेश है कि-
‘‘आत्मस्थितं शिवं त्यक्तवा बहिस्थं यःसमर्चयेत् , हस्तस्थं पिंडमुत्सृज्य भ्रमते जीविताशया।’’
अर्थात् अपने हृदय में स्थित परमचैतन्य सत्ता की उपेक्षा कर जो बाहरी पूजा करने का दंभ भरते हैं वे वैसे ही है जो हाथ में रखा हुआ भोजन फेक कर भीख मांगते फिरते हैं।
स्पष्टीकरण :
(1) इस विश्व ब्रह्मांड में कोई भी जीवधारी किसी भी परिस्थिति में न तो अकेला है , न था और न रहेगा। सभी प्रकार के अस्तित्व उस परमसत्ता का आधार पाकर प्रारंभ से अंत तक गतिशील हैं और उन सबपर सदा बज्र से भी कठोर उस परम नियंत्रक परासत्ता के अत्यंत कोमल हाथ का स्पर्श रहता है। वह एक हाथ से अपने प्रोतयोग से सभी स्तरों पर सभी लोकों से जुड़ा रहता है और दूसरे हाथ से ओतयोग द्वारा प्रत्येक अस्तित्व से। सभी प्राणियों के मनों के सर्वाधिक एकान्त कोने में चमकदार मणि की तरह चमकते रहते हैं। इस संसार का बाहरी और भीतरी आकाश उनके ही प्रकाश से चमक रहा है।
‘‘न तत्र सूर्यो भाति न चंद्र तारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः।
तदेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’’
अर्थात् वह जो बाह्य संसार को प्रकाशित करता है वही सभी तारों और नक्षत्रों को भी प्रकाश देता है। परम पुरुष के अलावा किसी की भी अपनी द्युति अर्थात् चमक नही है। अन्य सभी अस्तित्वों का प्रकाश वास्तव में उस एक ही सत्ता के प्रकाश का परावर्तन मात्र है। उसकी चमक के सामने यह सूर्य भी अंधेरे में लिपट जाता है और चंद्रमा काले पर्दे में छिप जाता है। सबकी चमक अंधेरे में डूब जाती है फिर इस अग्नि की ताकत ही क्या है जो उनके सामने चमक सके। सभी कुछ उसके विकिरण से विकिरित हो रहे हैं उनके लिए कोई भी नगण्य नही है, वे ही सभी के केन्द्र बिन्दु हैं। वह अपनी प्रिय संतानों को आनन्द से भरने के लिए सभी में उन्नत भाव भरकर अपने को उन्हीं के भीतर छिपाए हुए लुका छिपी का खेल खेल रहे हैं।
(2) ‘‘ब्रहच्च तद्दिव्यंचिन्त्यस्वरूपम् सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति।
दूरात्सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यत्स्विहैव निहितं गुहायाम्।’’
अर्थात् वह विराट अमाप्य दिव्य सत्ता सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम हो जाती है और दूर से अत्यधिक दूर तथा पास से भी अधिक पास आ जाती है। कोई भी उन्हें अपने हृदय गुफा के भीतर छिपा हुआ पा सकता है।
इसलिए शिव का कहना है कि किसी को भी उस परमसत्ता को बाहर ढूंड़ने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह तो आपके अपने अस्तित्व की भावना के भीतर रहते हैं वहॉं जाकर कोई भी उन्हें केवल खोजकर पा सकता है। अतः आन्तरिक संसार के सबसे अधिक चमकदार हीरे को भूलकर जो उसे बाहर तलाशता है वह व्यर्थ ही अपना समय नष्ट करता है। शिव कहते हैं कि लोग अपना समय इस प्रकार क्यों नष्ट करे? अपने हाथ में रखा भोजन फेक कर भिक्षा पात्र लिये घर घर भीख मांगते क्यों फिरें? अरे! अपने भीतरी संसार में गहरे जाओ, और गहरे उतरो और गहरे.... ।
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