‘‘मृच्छिलाधातुदार्वादि मूर्तावीश्वरो बुद्धयो, क्लिश्यन्तस्तपसा ज्ञानम् बिना मोक्षम् न यान्ति ते।’’
अर्थात्, वे लोग जो सोचते हैं कि परमपुरुष मिट्टी, घातु, या लकड़ी की प्रतिमाओं में सीमित रहता है और उनके सामने व्रत उपवास आदि से तपस्या करते हुए अपने शरीर को विभिन्न कष्ट देते हैं, वे निश्चित ही बिना आत्मज्ञान प्राप्त किए मुक्ति नहीं पा सकते।
स्पष्टीकरण :
(1) छठवें उपदेश में बताया गया था कि मनुष्य किस प्रकार मूर्ति की कल्पना कर उसकी पूजा द्वारा अपनी मनोकामनाओं और आकांक्षाओं को सरलता से पूरा करने का उपाय बता कर स्वयं को धोखा देता है। इस उपदेश में कहा गया है कि मनुष्य इन कल्पित मूर्तियों को केवल अपने मन में ही नहीं रखता वरन् उन्हें मिट्टी, घातु, लकड़ी आदि का बनाकर विभिन्न आकार प्रकार देकर कीमती साज सज्जा करता है और पूजा अर्चना के लिए बहुत धन भी व्यय करता है। इनकी पूजा को केन्द्रित करते हुए पुरोहित तंत्र पैदा होता है और जिन परमपुरुष ने सबको बनाया है उनको मिट्टी पत्थर की मूर्तियों में बनाकर स्नान मंत्र से स्नान कराना, भोजन के लिए राजभोग खिलाना, फूलों की शय्या पर सुलाना, उत्सवों के समय राजसी वस्त्रों में सजाना आदि, सब उन्हें तृप्त करने की व्यवस्थाएं बना ली हैं। किसी किसी स्थान पर उस भोग के उपादान को विभिन्न मूल्यों में बेचा जाता है और रात में मंदिर के द्वार को यह कहकर बंद कर दिया जाता है कि अब भगवान सो रहे हैं! कितना आश्चर्य! भगवान सो गए , परमपुरुष सो गए तो इस जगत का कार्य कैसे चल रहा है? कल्पना में भी धोखाधड़ी, जैसे मूर्ति की कल्पना वैसे ही भावना जगत में चोरी। फिर भी मूर्तियों में केन्द्रित देवता के लिए, तीर्थ यात्राओं में कितना कष्ट उठाना पड़ता है, धन व्यय करना पड़ता है क्योंकि वे मूर्ति में ईश्वर को कैद करके, उसका आरोपण करके उससे भौतिक सुख सुविधाओं की आशा लगाए रहते हैं। कहा जाता है ि कइस विश्व में कुछ भी व्यर्थ नहीं है, पर यह मिट्टी केन्द्रित क्लेशभोग क्या व्यर्थ है? नहीं, यह व्यर्थ नहीं है परन्तु इस प्रकार के दुख भोग का कोई पारमार्थिक मूल्य नहीं है। जिस दिन मनुष्य को यह समझ में आ जाता है उस दिन से उतावला होकर वह इस प्रकार की भावजड़ता के विरोध में आ जाता है। परिवेश के दबाव से वह कुछ कर नहीं पाता पर मन ही मन आर्तनाद करता है कि हे परमपुरुष! मैं ने अपनी गलती को सुधार लिया है अब आप मुझे अपनी ओर ले चलो। स्पष्ट है कि इस प्रकार के कृच्छ साधनों से लेशमात्र भी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती फिर मुक्ति मोक्ष की आशा करना तो बिलकुल बेकार है। इसलिए शिव का कहना है कि मोक्ष पाने का एकमेव साधन है आत्मज्ञान प्राप्त करना। इस आत्म ज्ञान को प्राप्त करने के लिए बाहर के जीवन में शुद्ध आचार, मानसिक जीवन में शुद्ध विचार तथा आत्मिक जगत में एक सर्वाश्रय परमसत्ता को जीवन का एकमात्र ध्रुवतारा समझकर दृढ़ता से पकड़े रहने की आवश्यकता होती है।
(2) विभिन्न देवी देवताओं की मूर्तियां बनाकर और उनको केन्द्रित कर मध्ययुग में अनेक पुराणों की रचना की गईं, जिनकी रचनाओं में व्यासदेव अग्रगण्य माने जाते हैं। व्यास जी को जब अपनी इस गलती का आभास हुआ तब उन्होंने परमपुरुष से इस प्रकार क्षमा याचना की है-
‘‘रूपम् रूपविवर्जितस्य भवतो यद्ध्यानेन वर्णितम्।
स्तुत्यानिर्वचनीयताअखिलोगुरो दूरीकृता यन्मया।
व्यापित्वं च निराकृतमं भगवतो यत्तीर्थयात्रादिना।
क्षन्तव्यं जगदीशो तद्विकलता दोषत्रयम मत्कृतम्।’’
अर्थात् "हे प्रभो! आपका कोई रूप या आकार नहीं है फिर भी मैंने आपको अनेक रूप देकर वर्णन कर डाला, जबकि आप केवल ध्यान के माध्यम से ही जाने जा सकते हो।
आप तो अवर्णनीय हैं आपके बारे में कोई शब्दों में कुछ कह ही नहीं सकता, फिर भी मैंने आपको विभिन्न स्तुतियों और प्रार्थनाओं में बांध डाला।
आप तो निराकार होकर सर्वव्यापी हैं, और मैं ने आपको तीर्थ स्थानों में बांध दिया।
हे जगत के स्वामी! मेरी मानसिक विकृतियों के कारण मुझसे यह तीन दोष अर्थात् गलतियॉं हो गई हैं, इनके लिए आप मुझे क्षमा कर दें।"
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि जो समस्त जगत के अस्तित्व, समस्त भावों के मध्यमणि हैं, उन्हें तो हमें अपनी आत्मा को देना है, अपनी सबसे प्रिय वस्तु अस्तित्व वोध की सारसत्ता को देना है। इसलिए व्यर्थ के प्रपंच त्याग कर कहना चाहिए ‘‘ निवेदयामि चात्मानं त्वम् गतिः परमेश्वरा।’’ अपने पन के भाव को निवेदित करके परमपुरुष के भाव को आत्मस्थ करने की जो साधना है वही आत्मज्ञान की साधना है। मोक्ष केवल इसी साधनां से मिल सकेगा। भावना के क्षेत्र में चोरी करके कोई भी वैतरणी पार नहीं कर सकता वह पाप से मुक्ति नहीं पा सकता। जीवन के समस्त जागतिक और मानसिक स्तरों पर भी यही सार कथा है, अजस्र कथाओं में यही प्रधान कथा है।
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