मित्रो! आपने विद्वानों के प्रवचनों में प्रायः उन तथ्यों को अवश्य सुना होगा जिनके साथ कुछ न कुछ अंक अर्थात् संख्याएं जुड़ी होती हैं । एक जिज्ञासु के लिये इन संख्याओं के संबंध में कोई समाधानकारक उत्तर नहीं मिल पाता और वे कहानियों में उलझकर भ्रमित बने रहते हैं। इस क्लास में हमने कुछ इसी प्रकार के महत्वपूर्ण तथ्यों को लेकर समाधान जुटाया है कृपया पढ़कर चिंतन करें और फिर भी शंका हो तो पूछना न भूलें।
75 बाबा की क्लास (संख्यात्मक तथ्य)
राजू- बाबा! आध्यात्म के अनेक विद्वानों द्वारा कुछ ऐंसे संख्यात्मक तथ्यों के उदाहरण दिये जाते हैं जिन्हें व्यावहारिक रूप से सहज नहीं कहा जा सकता ?
बाबा- कौन से ?
राजू- जैसे ‘पंचाग्नि‘ अर्थात् पाॅंच प्रकार की अग्नि का ताप सहन करने को तपस्या करना कहा जाता है?
बाबा- यह तो आडम्बर ही है। वास्तव में मनुष्य के शरीर में अनेक प्रकार की ग्रंथियाॅं पाई जाती हैं जो जीवन के संचालन के लिये आवश्यक ग्रंथि रसों का स्राव करती रहती हैं। ये ग्रंथियाॅं एक नियत ताप पर ही अपनी पूरी क्षमता से कार्य कर शरीर को अधिकतम लाभ पहुंचाती हैं। प्रधानतः पाॅंच प्रकार की ग्रंथियाॅं शरीर के संतुलन को बनाये रखती हैं ये क्रमशः सिर, दाढ़ीमूछों, कंधों के नीचे संधियों पर, और जननेद्रिय तथा पैरों के संधिस्थल पर रहती हैं । प्रकृति ने ही इस तापक्रम को उचित बनाये रखने के लिये इन स्थानों पर बालों का समूह स्थापित किया है अतः वाह्य वातावरण में होने वाले तापीय परिवर्तनों को ये बाल ऊष्मा के संग्राहक और विकिरक दोनों प्रकार से कार्य करते हुए शरीर के ताप को नियत बनाये रखते हैं। इन स्थानों के इन बालों को स्वच्छ रखना और उनका संरक्षण करना ही पंचाग्नि का तापना कहलाता है। आध्यात्मिक राह पर चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इन्हें स्वच्छ रखते हुए संरक्षण करना चाहिये। यदि ऐंसा नहीं किया जाता तो ग्रंथियों की क्रियाशीलता प्रभावित होती है और शरीर तथा मन पर नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होता ।
नन्दू- इसी प्रकार ‘ त्रिलोकों ‘ के बारे में भी अनेक व्याख्यान उपलब्ध हैं?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि परम ज्ञानात्मक सत्ता एक ही है जो अपने मन में ही विचार तरंगों द्वारा इस भौतिक जगत का निर्माण पालन और लय करता है। उस परम सत्ता की मानसिक तरंगों से निर्मित भौतिक जगत में हमारा भौतिक शरीर ही पहला लोक है। इसमें हमारा मन और मानसिक संसार दूसरा लोक है, याद रखना! तुम लोग मन नहीं, मन के धारक हो। भौतिक शरीर में ‘मैं‘ का अपना अहं चारों ओर बना रहता है और जब यह केन्द्रीकृत हो जाता है तो वह आत्मलोक में कहलाता है, यही तीसरा लोक है। इस प्रकार भौतिक, मानसिक और आत्मिक ये ही तीन लोक होते हैं जो उस परम सत्ता के मन में ही स्थित होते हैं अन्यत्र नहीं।
इंदु- ‘‘ षोडश कलायें ‘‘ क्या होती हैं बार ,बार इनकी चर्चा भी आ ही जाती है?
बाबा- इन्हें अच्छी तरह समझ लो! मनुष्य का अस्तित्व षोडश कला युक्त कैसे है, और वह कौन सी हैं। जब तक मनुष्यों की वृत्ति वर्हिमुखी रहती है तब तक वे भौतिक जगत से सुख की सामग्री खोजते रहते हैं और तब तक उन्हें इन सोलह कलाओं से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है। इनके अंतर्गत, पाॅंच ज्ञानेन्द्रियाॅं (चक्षु, कर्ण, नासिका, जिव्हा और त्वक्,) पाॅंच कर्मेंद्रियाॅं (वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ,) पॅंच प्राण, (प्राण, अपान, उदान, व्यान और समान,) (पंच वर्हिवायु नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनन्जय, कला में सम्मिलित नहीं हैं, क्योंकि वे अंतर्वायु समूह के परिणाम हैं) और अहंतत्व। ये ही षोडश कलायें हैं। तद्गत भाव से साधक की पंचदश कलाओं का भाव उन सबके मूल कारण में मिल जाता है। देवता अर्थात् इंद्रियां अपने अपने प्रतिदेवता अर्थात् नियंत्रक शक्ति में, अंत में, लीन हो जातीं हैं।
चंदू- लेकिन देवता तो करोड़ों की संख्या में बताये जाते हैं, यह भी बड़ा कन्फ्यूजन है?
बाबा- अनेक विद्वानों के विभिन्न मतों का अधिकाॅंशतः साराॅंश यह माना जाता है कि मनुष्य के शरीर में तेतीस करोड़ नाड़ियाॅं होती हैं अतः देवता भी तेतीस करोड़ हैं। वस्तुतः मनुष्यों के शरीर नियंत्रक स्नायु तथा नाड़ीपुॅंज ही अविद्या और अंधविश्वास के कारण तेतीस करोड़ देवताओं में परिणित हो गये हैं।
देवता के संबंध में शंकराचार्य का कहना है, ‘‘सर्वद्योत्नात्मक अखंडचिदैकरस।" और याज्ञवल्क्य का कहना है, ‘‘द्योतते क्रीडते यस्मादुद्यते द्योतते दिवि, तस्माद्देव इतिप्रोक्तः स्तूयते सर्व देवतैः।" निष्कर्ष यह है कि देवता दो प्रकार के हैं 1. आत्मा का प्रकाश इंद्रियों द्वारा होता है अतः इंद्रिय समूह को दैहिक देवता कहा जाता है, 2. विश्व ब्रह्माण्ड का प्रकाश और नियंत्रण जिस देवता समूह के द्वारा होता है उन्हें ब्राह्मी देवता कहा जाता है। दोनों की सॅंख्या तेतीस है क्योंकि ब्राह्मी देवतागण प्रत्येक देहिक देवता गण के प्रतिदेवता हैं। दैहिक देवतागण प्रतिदेवता में लय होते हैं और प्रतिदेवता ब्रह्म में मिल जाते हैं, इसलिये मोक्ष प्राप्त साधक ब्रह्म ही हो जाता है।
रवि- तो वे तेतीस देवता कौन से हैं और वे कहाॅं रहते हैं?
बाबा- मनुष्य के शरीर की असंख्य नाड़ियों में से तेतीस ही प्रधान हैं इन्हीं की नियंत्रक सत्ता को तेतीस देवता कहा जाता है। ये हैं, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, अष्टवसु, इंद्र, और प्रजापति। ब्रह्मशक्ति के प्रधान विकास को इंद्र कहा जाता है, यही देवता मनुष्य शरीर का पूर्णरूप से नियंत्रण करता है।
चंदू- ये एकादश अर्थात् ग्यारह ‘रुद्र‘ कौन से हैं?
बाबा- एकादश रुद्र कहीें दूर नहीं हैं ये हैं हमारी दस इंद्रियां और मन। रुद्र का अर्थ है जो रुलाता है। मृत्यु के समय जब प्रत्येक इंद्रिय अपने प्रतिदेवता में मिल जाती है, मन निष्क्रिय हो जाता है, शरीर अचल और अस्पंद हो जाता है तब उसके आत्मीय गण कातर भाव से रोने लगते हैं। चॅंॅूकि ये ग्यारह देवता मनुष्य को रुलाते हैं अतः ये रुद्र कहलाते हैं।
राजू- और ‘‘ अष्टवसुओं ‘‘ का क्या अर्थ है?
बाबा- वसु का अर्थ है जीवों का वास स्थान अर्थात् जो इंद्रियों के वास स्थान, आश्रय स्थल या विषय हैं वही वसु हैं। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, अन्तरिक्ष, व्योम, वायु ,तेज, और धरती ये आठ वसु हैं।
इन्दु- ‘द्वादश आदित्य‘ भी क्या हमारे भीतर ही हैं?
बाबा- आदित्य का अर्थ है लेने वाला। यहां पर अर्थ है जो कर्मफल और आयु को ले लेता है। प्रत्येक क्षण आयु क्षीण होती रहती है, और कर्मफल भोग के लिये मनुष्य को एक शरीर छोड़कर दूसरा लेना पड़ता है, यह सब काल प्रवाह के कारण ही होता है अतः समय ही आदित्य है इसलिये वर्ष के ‘बारह मास‘ ही द्वादश आदित्य हैं।
नन्दू - अब तक तो केवल इकतीस देवता ही हुए शेष दो कौन से हैं?
बाबा- वे हैं इंद्र और प्रजापति। ‘‘इंद्र‘‘ शब्द का अर्थ विद्द्युत , वज्र या कर्मशक्ति है। और ‘‘प्रजापति‘‘ इस शब्द का अर्थ है यज्ञ या कर्म।
रवि- बाबा! कुछ शब्द और हैं जो बार बार सभी लोग उच्चारित करते हैं, परंतु उनका सही अर्थ स्पष्ट नहीं कर पाते, जैसे ‘‘हरि, हर, और ईश्वर‘‘?
बाबा- हरति पापान् इत्यर्थे हरिः। अर्थात् जो दूसरों के पापों को हर लेता है वह हरि।
हरति बंधानम् इत्यर्थे हरः। अर्थात् जो बंधनों को काट देता है वह हर।
क्लेशकर्मविपाकाशयैर्परामिष्ट सः पुरुषविशेष ईश्वरः । अर्थात्, वह पुरुष, जो क्लेशों से प्रभावित नहीं होता, कर्मबंधन में नहीं बंधता, प्रतिक्रियाओं में नहीं उलझता, और संस्कारों से मुक्त रहता है वह ईश्वर कहलाता है।
राजू- आध्यात्म की हर क्रिया में ‘‘भाव‘‘ को ही महत्व दिया गया है वास्तव में यह क्या है?
बाबा- शुद्धसत्वविशेषाद्वा प्रेमसूर्यां्षुसम्यभाक् रुचिभिष्चित्तमाश्रन्य क्रदासौ भाव उच्यते।
अर्थात्, वह जो परम शुद्ध और सात्विक बनाता है, जो प्रेम के सूर्य को चमकाता है, जो मन को भक्ति की किरणों से चमकदार और चिकना बनाता है उसे भाव कहते हैं। भावार्थ यह कि मन की वह एकान्तिक सूक्ष्मतम अवस्था जो विचारों को व्यावहारिक उत्प्रेरण देकर व्यक्तित्व का विकास करती है भाव कहलाती है।