245 सर्वशक्तिमान
मेरे एक मित्र ईश्वर की सत्ता को स्वरीकार नहीं करते इसलिए उनका हर प्रयास होता है कि मेरे द्वारा ईश्वर के संबंध में जो भी कहा जाता है उसके विपरीत कुछ उद्धरण देकर अपनी बात को सिद्ध करने की कुचेष्टा करते रहते हैं। कल वे कहने लगे,
‘‘ चलो थोड़ी देर के लिए मैं मान लेता हॅूं कि तुम्हारा ईश्वर है, पर मैं यह नहीं मान सकता कि वह सर्वशक्तिमान है ।’’
‘‘ ईश्वर ही तो सर्वशक्तिमान होता है अन्य कोई नहीं’’ मैं ने कहा।
‘‘ लेकिन, आज मैं सिद्ध कर दूंगा कि वह दो काम कर ही नहीं सकते, इसलिए वे सर्वशक्तिमान नहीं कहला सकते ’’।
‘‘ कौन से दो काम?’’
‘‘ एक तो वे किसी से घृणा नहीं कर सकते और दूसरा यह कि वे दूसरे ईश्वर की रचना नहीं कर सकते।’’
‘‘ अरे वाह! लगता है आज तुम अध्ययन करके आए हो, चलो पहली बात पर विचार करें। तुम जानते हो कि यह सब जड़ और चेतन, दृश्य और अदृश्य सभी कुछ उस ईश्वर की ही रचनाएं हैं और वे सभी उनके मन के अन्दर ही स्थित हैं बाहर कुछ है ही नहीं। यदि वे किसी से घृणा करने लगें और कहें कि यहाॅं से बाहर हटो, तो वह उनसे पूछ सकता है कि कहाॅं? बाहर तो कुछ है ही नहीं। यही कारण है कि वह अपनी रचना चाहे अच्छी हो या बुरी घृणा नहीं करते सब से प्यार ही करते हैं। क्या तुम स्वयं किसी घृणित व्यक्ति से प्रेम कर सकते हो या किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो जो घृणित व्यक्ति से भी उतना ही प्रेम करे जितना स्वयं से? ’’
‘‘ नहीं ।’’
‘‘बस, तो यही गुण उन्हें सर्वशक्तिमान बनाता है ।’’
‘‘ तो दूसरा काम?’’
‘‘ दूसरा काम भी इसी तरह स्पष्ट है, प्रत्येक प्रणाली के अपने कुछ नियम होते हैं, यह विश्व ब्रह्माॅंड एक व्यवस्थित प्रणाली पर चल रहा है जिसके एक ही नियन्ता हो सकते हैं, यदि दूसरा नियन्ता बनाया जाएगा तो एक ही प्रणाली को दोनों अपने अपने ढंग से संचालित करने लगेंगे जिससे अव्यवस्था और अनावश्यक आपसी तनाव उत्पन्न होकर ब्रह्मचक्र की गति प्रभावित होगी। इसलिए सर्वशक्तिमान ईश्वर ‘एक’ ही हो सकते हैं ‘दो’ कभी नहीं।’’
यह सुनकर मेरे मित्र, उठे और कहने लगे ‘‘किसी अन्य समस्या को खोजकर कल फिर आक्रमण करूंगा।’’
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