Friday, 29 March 2019

244 भाग्य, हठयोग और ब्राह्मण

244  भाग्य, हठयोग और ब्राह्मण

'भाग्य'
बहुत लोग हैं जो भाग्य को पूजते हैं और भाग्यवादी होते हैं, ज्योतिषियों के पास जाकर अपने भाग्य पर गणनायें कराते हैं और तदनुसार कार्य करते देखे जाते हैं। परंतु  ब्रह्माॅंड में भाग्य जैसा कुछ है ही नहीं , दर्शनशास्त्र  में भी भाग्य जैसा कुछ नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है जो कि अपनी मूल क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप घटित होता है। मानलो आपकी अंगुली आग के संपर्क में आ गई जिससे आपको कष्ट पहुंचा।  समीप में देख रहा व्यक्ति कहेगा चूंकि  आपकी अंगुली आग के संपर्क में आ गई इसलिये आप जल गये।  परंतु जब मूल क्रिया की प्रतिक्रिया बहुत दिनों के बाद हुई हो या तब तक मूल क्रिया की घटना ही भूल गये हों या कि पिछले जन्म की मूलक्रिया की प्रतिक्रिया को घटित होने का अभी अवसर आया हो तो आप कहेंगे कि भाग्य में जलना लिखा था सो जल गये। पर वास्तव में भाग्य था ही नहीं आपको मूल क्रिया के बारे में ज्ञान नहीं रहा जिसकी प्रतिक्रिया को आप भाग्य का नाम दे रहे हैं। संस्कृत में इसे "संस्कार" और लेटिन में 'रीएक्टिव मूमेंटा' कहते है। इसलिये भाग्य की पूजा करना व्यर्थ है, यदि मूल क्रिया नहीं होगी तो उसकी प्रतिक्रया का प्रश्न  ही नहीं होगा। आप स्वयं ही अपनी क्रिया के जनक है, अतः भाग्यवादी न होकर बहादुरी से सभी कठिनाइयों और परिणामों का सामना करते हुए  भाग्य से लगातार संघर्ष करना चाहिये। 

'हठयोग'
 ईश्वरतत्त्व-विहीन, भक्ति-विहीन योग को  संस्कृत में कहते हैं 'हठयोग' । हठयोग मानवता के लिए लाभदायक नहीं है, हानिकारक है । ‘ह‘ माने है ‘सूर्य-बीज‘ तथा  ‘ठ‘ माने है ‘चन्द्र-बीज‘ ।  सूर्य-नाड़ी और चन्द्र-नाड़ी , अर्थात् इडा-नाड़ी और पिङ्गला-नाड़ी को जबरदस्ती रोध कर लिया, तो, वह हुआ ह+ठ योग ।‘‘ह‘ को ‘ठ‘ के साथ जबरदस्ती मिलाकर रुद्ध कर दिया, तो हठयोग । शक्ति-प्रयोग के द्वारा अचानक जो होता है उसको हठयोग कहते हैं । हठ से जो काम होता है हम लोग संस्कृत में उसको ‘हठात्‘ बोलते हैं । ‘हठात् हो गया‘माने ‘ह‘ और ‘ठ‘ से हो गया, जबरदस्ती हो गया, हमारा हाथ नहीं था । “हठात्” बोलते हैं  हम लोग अचानक को।   वह कभी मुक्त नहीं हो सकता है जो हठ से काम करता  है । हठकारिता की निन्दा की जाती है ।

 ब्राह्मण
पञ्चकोशों  को परिपूर्ण बनाया जाना चाहिये परंतु कैसे? उन्हें यम नियम और साधना के सभी पाठों के द्वारा समृद्ध बनाया जा सकता है। अन्नमय कोश  को आसनों के द्वारा, काममय कोश  को यम और नियम साधना के द्वारा, प्राणायाम के द्वारा मनोमय कोश , अतिमानस कोश  प्रत्याहार से ,विज्ञानमय कोश  धारणा से और हिरण्यमय कोश  ध्यान से परिपक्व वनाया जा सकता है। केवल ध्यान समाधि ही आत्मा तक पहुंचाती है। पवित्र व्यक्ति वही हैं जिन्हें अपने पंचकोशों  को समृद्ध करने की तीब्र इच्छा होती है। मानव शरीर पंचकोशों  से निर्मित होता है जबकि साधना करने का अभ्यास आठ स्तरों पर होता है। आध्यात्मिक साधना करना ही धर्म है, जो पंचकोशों  की व्याख्या नहीं करता वह धर्म नहीं है वह मतवाद है।
सूक्ष्म  कारण मन अर्थात् हिरण्यमयकोश  के ऊपर जो लोक है उसे सत्यलोक कहते हैं। जब साधक अपने इस छुद्र मैंपन को सत्यलोक की वास्तविकता में मिला देते हैं तब वे सगुण ब्रह्म में अपने को पूर्णतः स्थापित कर लेते हैं। इस अवस्था में साधक की अस्मिता यदि चूर चूर होकर पुरुष में एकीकृत हो जाती है तब वह निर्गुण ब्रह्म से साक्षात्कार करता है। इसे ही सत्यलोक या ब्रह्मलोक कहते हैं, वे जो इस ब्रह्मलोक में अपनी स्थापना कर चुके हैं केवल वही ब्राह्मण कहलाने के अधिकारी हैं।

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