243 होली
होली के संबंध में विद्वानों ने पौराणिक कथाओं के आधार पर अनेक प्रकार के मत प्रकट किये हैं जिनमें सबका निचोड़ यह है कि हिन्दी नववर्ष (चैत्र माह) प्रारंभ होने के पूर्व फाल्गुन माह की समाप्ति पर एक दूसरे से सौहार्द पूर्वक मिलकर गत वर्ष के गिले शिकवे दूर कर लें और आगामी वर्ष में मंगलमय प्रवेश करें। इसलिए, इस प्रकार की प्रसन्नता प्रकट करने हेतु लोगों को रंगों या फूलों का उपयोग करना ही सरल लगता है। आज हम रंगों के संबंध में कुछ वैज्ञानिक तथ्यों के साथ ‘‘योगियों की होली’’ पर चर्चा करना चाहते हैं। ध्यान रहे योगी से यहाॅं तात्पर्य है जो यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठों का नियमित पालन करते हैं न कि केवल कुछ आसनों का अभ्यास।
(1) ‘‘भौतिकवेत्ता (physicists) कहते हैं कि किसी भी वस्तु का अपना कोई रंग नहीं होता , सभी रंग प्रकाश के ही होते हैं। प्रकाश तरंगों की विभिन्न लम्बाईयाॅं (wave lengths) ही रंग प्रदर्शित करती हैं। जो वस्तु प्रकाश की जिन तरंग लम्बाइयों को परावर्तित करती है वह उसी रंग की दिखाई देती है अतः यदि कोई वस्तु प्रकाश विकिरण की सभी तरंग लम्बाइयों को परावर्तित कर दे तो वह ‘सफेद’ और सभी को शोषित कर ले तो ‘काली’ दिखाई देती है। सफेद और काला कोई पृथक रंग नहीं हैं। ’’
(2)‘‘ मनोभौतिकीविद (psycho-physicists) कहते हैं कि मन के वैचारिक कम्पनों से बनने वाली मानसिक तरंगें (psychic waves) भी व्यक्ति के चारों ओर अपना ‘‘ पैटर्न ’’ बनाती हैं जिसे ‘‘आभामण्डल‘‘ (aura) कहते हैं। अनेक जन्मों के संस्कार भी इसी पैटर्न में विभिन्न परतों में संचित रहते हैं और पुनर्जन्म के लिए उत्तरदायी होते हैं।’’
(3) ‘‘ मनोआत्मिक विज्ञानी (psycho-spiritualists) इन तरंगों (wave patterns) को ‘‘वर्ण’’ (colours) कहते हैं। इनके अनुसार जिस परमसत्ता (cosmic entity) ने यह समस्त ब्रह्माण्ड निर्मित किया है वह ‘‘अवर्ण’’ (colourless) है परन्तु इस ब्रह्माण्ड में अस्तित्व रखने वाली सभी वस्तुओं के द्वारा प्रकाश तरंगों के परावर्तन करने के अनुसार ही वर्ण (colours) होते हैं क्योंकि ये सब उसी ‘‘परमसत्ता की विचार तरंगें’’(thought waves of cosmic entity ) ही हैं। अतः यदि उस परमसत्ता को प्राप्त करना है तो स्वयं को अवर्ण (colourless) बनाना होगा। इसी सिद्धांत का पालन करते हुए अष्टाॅंगयोगी प्रतिदिन अपनी प्रातः, मध्यान्ह और संध्या की साधना के समय इन वर्णो को मनन, चिंतन ,कीर्तन और निदिध्यासन की विधियों द्वारा उस परमसत्ता को सौंपने का कार्य करते हैं जिसे वे ‘‘वर्णार्घ्य दान’’ (offering of colours) कहते हैं। बोलचाल की भाषा में वे इसे ही असली होली खेलना कहते हैं। ’’
आज के होली के स्वरूप को देखिए, काल्पनिक कहानियों के आधार पर कैसी विचित्र परम्पराएँ बन चुकी हैं कि होली के नाम पर एक दूसरे पर कीचड़/रंग फेकते हैं, अकथनीय अपशब्द कहकर मन की भड़ास निकलते हैं और कहते हैं कि ‘‘बुरा न मानो होली हैं, होली के लिए चंदा बटोरकर रोड के बीचोंबीच टनों लकड़ियाँ जलाकर कभी न सुधर पाने वाले रोड खराब तो करते ही हैं वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड मिलाकर प्रदूषण फैलाते हैं, नशीले पदार्थाें का सेवन करते हैं और तथाकथित रंगों/कीचड़ भरे शरीर और कपड़ों को धोने में पानी और समय भी नष्ट करते हैं।
योगियों की होली की अवधारणा से प्रभावित हो उन्हें ‘सारछंद’ में मैंने इस प्रकार बद्ध करने की कोशिश की है, रसास्वादन कीजिए और फिर बताइए कि इस वर्ष की होली आप किस प्रकार मनाएंगे-
वर्णार्घ्य
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बसन्त उत्सव चली मनाने,
प्रकृति की हर डाली,
खिली कहीं पर माॅंग सिंदूरी,
कहीं टहनियाॅं खाली।1।
अब तक वर्णमयी दुनिया के ,
लक्षण मन को भाये,
अर्घ्य वर्ण का देने को द्वय,
नत करतल ललचाये।2।
संचित हैं ये जनम जनम से,
अब मौलिकता भर दो,
ले लो ये सब रंग हमारे,
वर्णहीन मन कर दो।3।
भेदभाव सब झोंक अग्नि में,
‘शुक्लवर्ण’ यह पाया,
तम आच्छादित मेघों ने अब,
नव अमृत बरसाया।4।
(19 मार्च 2019)
डाॅ टी आर शुक्ल, सागर मप्र ।
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