Sunday, 17 March 2019

242 ज्ञानी, कर्मी और भक्त

242 ज्ञानी, कर्मी और भक्त
‘‘ज्ञानी’’, ज्ञानात्मक दृष्टिकोण से उसी को सत्य मानते हैं जो अपरिवर्तित रहता है जिसमें  कोई रूपान्तरण नहीं होता। ‘‘सत्यं ज्ञानम् अनन्तम् ब्रह्म’’ ज्ञानियोें का मूल वक्तव्य है जिसका अर्थ है, ब्रह्म ज्ञानस्वरूप हैं। परन्तु इस भौतिक जगत की विचित्रता और सतत रूपान्तरण देखकर उस एक ही परमसत्ता को इस जगत में कैसे देखें यह उनके सामने सबसे बड़ी समस्या आती है । सिद्धान्त को व्यवहार में कैसे लाएं इस हेतु साधना करने का ही उपाय बचता है पर वह भी कैसे की जाए? तर्क द्वारा ज्ञानी सामयिक सुख पाते हैं परन्तु उससे उनके मन की भूख मिटती नहीं है। ज्ञानस्वरूप ब्रह्म भी दार्शनिक रूप से परा और अपरा दो प्रकारों से समझाया गया है । अपरा की गति जड़ात्मक जगत की ओर है और परा की आत्मजगत की ओर। अपरा ज्ञान वस्तु का आत्मस्थीकरण करना सिखाता है परन्तु जब इंद्रियाॅं इस काम में लगायी जाती हैं तो वे अपनी सीमा के भीतर ही वस्तु के स्वरूप को अनुभव कर पाती हैं। वे एक विशेष तरंग लम्बाई से कम या अधिक को अनुभव नहीं कर पाती अतः यह आत्मस्थीकरण शतप्रतिशत हुआ यह नहीं कहा जा सकता। पराज्ञान में मनुष्य स्थूल से सूक्ष्म का अनुध्यान करते करते सूक्ष्मता की ओर विचार करते हैं जैसे, इंद्रियवृत्ति को चित्त में, चित्त को अहम तत्व में , अहम को महत् अर्थात ‘‘मैंपन’’ और ‘‘मैंपन’’ (आई फीलिंग) को चैतन्य अर्थात् ‘कान्शसनैस’ में समाहित करना चाहिए, परन्तु कैसे? फिर इस गति में जिन स्तरों को पार किया है उनका क्या परिचय है? यह बताने के लिए उन्हें ‘गुणानुध्यान’ करते हैं। गुणानुध्यान के द्वारा परस्पर रूपान्तरण तक तो वे चर्चा कर सकते हैं परन्तु सृष्टि का प्रथम उद्गम कब और कैसे हुआ इस पर वे मौन रह जाते हैं। आज के वैज्ञानिक भी सृष्टि के उद्गम को ‘बिगबेंग’’ के आधार पर समझाते हैं और यह भी कहते हैं कि ‘बिगबेंग’ की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई बल्कि1015  केल्विन (दस के ऊपर पन्द्रह की घात केल्विन ) ताप के विकिरण के साथ ‘ब्रह्माण्ड’ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। परन्तु यह जानकर भी क्या मिला ? अन्तर्मन की भूख इससे नहीं मिटती। ज्ञानी का क्षेत्र यहीं तक है कि ज्ञानात्मक चर्चा से कुछ सीख सकते हैं, परन्तु युगयुगान्तर से जो परमश्रेय को पाने की अभिलाषा है उसकी पूर्ति नहीं हो पाती। जैसे , गुणानुध्यान से पता चलता है कि मनुष्य के भीतर देवत्व सुप्तावस्था में रहता है पर इसे जानने से क्या फायदा जब तक उस देवत्व को पा नहीं लिया जाता। तालाब में कितना पानी है यह जान लेने मात्र से क्या होगा, पानी से प्यास बुझाने का साधन खोजना होगा।
यहीं से ‘‘कर्मी’’ का क्षेत्र प्रारम्भ होता है।
स्पष्ट हुआ कि ज्ञान की मोटी मोटी पुस्तकें पढ़ लेने से कर्म नहीं हो जाता, सोये हुए देवत्व को जाग्रत करने के लिए सतत अभ्यास करना होगा, विशेष प्रयास करना होगा। इसीलिए ऋषि कहते हैं‘चरैवेति, चरैवेति’ रुको नहीं चलते रहो अपने लक्ष्य की ओर। सोये हुए देवत्व को जगाने के लिए जिन विधियों का सहारा लिया जाता है वे सभी ‘‘तन्त्र विज्ञान’’ के अन्तर्गत आती हैं। ‘त’ का अर्थ है जड़ता, आलस्य का बीज, और‘‘त्र’’ का अर्थ है त्राण अर्थात् मुक्त करने वाला। इसलिए तन्त्र का अर्थ हुआ मनुष्य को  जड़ता या आलस्य से छुटकारा दिलाने वाली विधि। जब तक देवत्व सोया हुआ है तब तक मनुष्य में जड़ता है आलस्य है आत्मविश्वास की कमी है, हीनमन्यता है पर तन्त्र विधि से जब मन्त्राघात किया जात है तब व्यक्ति के संस्कार के अनुसार सोया हुआ देवत्व (जिसे तन्त्र की भाषा मेें ‘कुलकुन्डलिनी’ कहा जाता है) धीरे धीरे जाग जाता है। मन्त्राघात और मंत्रचैतन्य से कुलकुन्डलिनी को जाग्रत कर ऊपर की ओर ले जाने का कार्य ही है जीवन की कर्मसाधना, कर्मी का कर्म । ज्ञानियों की ‘थ्योरी’ को व्यावहारिक बनाने का कार्य । कर्मी जब कुलकुंडलिनी को ऊपर उठाएंगे तब भेदात्मक जगत को अभेद की भावना लेते हुए देखेंगे। सभी कुछ परमात्मा है और विश्व कर्मतरंगों सें भरा हुआ है, विभिन्न तरंगों की विभिन्न लम्बाईयों के कारण विभिन्न भेद दिखाई देते हैं इसलिए कर्म साधक उन भेदों को ‘एक ही नियंत्रक सत्ता’ से निकलती हुई अनुभव करते हैं । इसलिए उनका कहना है कि ‘‘कर्म ब्रह्मेति कर्म बहु कुर्वीत’’ अर्थात् मेरे लिए कर्म ही ब्रह्म है अधिक से अधिक कर्म करूं , यही है कर्म साधना। कर्मसाधना से लक्ष्य तक पहॅुंचा जा सकता है परन्तु लक्ष्य में स्थित नहीं हुआ जा सकता। उसे अनुभव करने का क्षेत्र सम्पूर्ण रूपसे भक्त्यात्मक ही है।
इससे आगे का क्षेत्र ‘भक्ति’ का है।
ज्ञानपूर्वक कर्मसाधना के द्वारा भक्ति का जागरण होता है। कैसे? मानलो आपको किसी महानगर जाकर किसी रिश्तेदार से मिलना है तो सबसे पहले उनका पता जानना, फिर वहाॅं तक पहुंचने के लिए किस प्रकार के साधन, समय, आदि की जानकारी लेना यह ‘ज्ञान’ हुआ। अब टिकिट आदि लेकर दिए गए पते पर  पहुंचना ‘कर्म’ हुआ और संबंधित के दरवाजे पर आहट देना, पुकारना और मिलना हुआ ‘भक्ति’ का क्षेत्र। इसलिए भक्त का लक्ष्य होते हैं ‘परमपुरुष’ और उनसे मिलकर आनन्दित होना; इसलिए उनका ध्येय वाक्य होता है ‘‘ भक्तिर्भगवतो सेवा भक्तिः प्रेमस्वरूपिणी, भक्तिरानन्दरूपा च भक्तिः भक्तस्य जीवनम्’’। भक्त जानता कि केवल निस्वार्थ सेवा और समर्पण से ही अपनी आत्मा की आत्मा परमपुरुष से प्रेम किया जा सकता है। ‘‘प्रेम’’ है वह भावधारा जिससे मन कोमल हो जाता है, शुद्ध हो जाता है, जिससे विश्व के हर जीवधारी के प्रति ममता जाग्रत हो जाती है। परमप्रभु की सन्तान को घृणा करने का तो प्रश्न ही नहीं है इसलिए भक्त के मन से संकीर्णता, जातिवाद, सम्प्रदायवाद जैसी हीनताएं कोसों दूर हो जाती हैं। ‘‘ सम्यंमसृणितो स्वान्तो ममत्वातिशयाॅंकितः, भाव सा ऐव सान्द्रात्मा बुधैः प्रेमः निगद्यते’’। उनके लिए भक्ति प्रेम स्वरूप है। आनन्दरूवरूप है। प्रेम से आनन्द मिलेगा और आनन्द है मन की एक साम्यावस्था, इस अवस्था में दुनिया का कोई सुख दुख उन्हें प्रभावित नहीं कर सकता। इसलिए वे कहते हैं भक्ति के कारण ही जीवित हॅूं, जियेंगे  भक्ति के लिए ,मरेंगे भक्ति के लिए, मुझे अन्य किसी की जरूरत नहीं , ‘‘भक्तिः भक्तस्य जीवनम्।’’ यह अवस्था गुणानुध्यान से, ज्ञानार्जन से भी आ सकती है परन्तु खुद को समर्पित करने के लिए केवल गुणानुध्यान या ज्ञान से काम नहीं बनेगा उन गुणों को, अपने ‘मैंपन’ को अर्थात् अपने ‘मन’ को भी प्रभु के चरणों में समर्पित करना पड़ेगा, अन्य कोई दूसरा रास्ता नहीं है। भक्त और ज्ञानी/कर्मी की सूझबूझ में अन्तर यह है कि ज्ञानी और कर्मी अपने तर्क से कहते हैं कि प्रभु तुम्हारे पास तो सभी कुछ है, पूरे ब्रह्माण्ड के मालिक हो, तुम्हें किसी चीज की जरूरत नहीं , तुम्हें क्या दॅूं? पर भक्त कहता है प्रभु तुम्हारे बड़े बड़े भक्तों ने तुम्हारा मन छीन लिया है, तुम मनहीन हो गए हो , मैं उनकी तुलना में बहुत ही छुद्र हूँ  , मेरी पॅूंजी तो केवल यह मेरा मन ही है , मैं तुम्हें यही दक्षिणा में देना चाहता हॅूं कृपाकर इसे स्वीकार करो।

कुछ अन्य उदाहरणों से ज्ञानी, कर्मी और भक्त की स्थिति समझ में आ सकती  है -
ज्ञान, कर्म और भक्ति, आध्यात्मिक विकास के ही क्रमागत स्तर हैं जैसे, रसगुल्ला बनाने के लिए किस सामग्री की कितनी कितनी जरूरत होगी, वह कहाॅं से प्राप्त हो सकेगी, उन्हें बनाने की विधि क्या है आदि की जानकारी ‘ज्ञान’ है, सामग्री एकत्रित कर उचित विधि के अनुसार उन्हें बनाना ‘कर्म’ है और बन चुकने के बाद उनका रसास्वादन करना ‘भक्ति’ है।
कागज की प्लेट और उसमें रखा भोजन ‘ज्ञान’ है, प्लेट से भोजन करना ‘कर्म’ है, और भोजन का स्वाद लेना ‘भक्ति’ है। भोजन का स्वाद ले चुकने के बाद कागज की प्लेट किसी काम की नहीं रहती।
‘ज्ञान’ है बड़ा भाई और ‘भक्ति’ है उसकी छोटी बहिन। ज्ञान, भक्ति का हाथ पकड़कर रास्ते में जा रहा है, रास्ते में मिलने वाले लोग ज्ञान से यह जानकर कि भक्ति उसकी बहिन है कह उठते हैं वाह! कितनी प्यारी गुड़िया है, और फिर केवल उसी से बात करते हैं, कितनी अच्छी फ्राक है, किस कक्षा में पढ़ती हो, कहाॅं जा रही हो आदि आदि, फिर ज्ञान की ओर से उनका ध्यान हट जाता है। तो ज्ञान का इतना ही रोल है, सभी आकर्षण भक्ति में ही है, प्रभावी भक्ति ही है इसीलिये ज्ञान से यह जानकर कि यह उसकी बहिन ही है अन्य लोग सभी बातें ‘भक्ति‘ से ही करते हैं ‘ज्ञान‘ से नहीं।

निष्कर्ष यह है कि ‘ज्ञान’ ‘कर्म’ और ‘भक्ति’ आध्यात्मिक विकास के क्रमागत स्तर हैं। आध्यात्म में लक्ष्य होता है भक्ति को पाना जिससे ‘परमपुरुष’ से मेल हो सके । भक्ति के पा जाने पर फिर ज्ञान और कर्म किसी काम के नहीं रहते।

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