Wednesday, 15 July 2020

326 दस प्राण, श्वास और प्रश्वास


शरीर के किसी भाग में कमजोरी या दोष होने पर  प्राण और अपान वायु में असंतुलन हो जाता है। इसकारण समान वायु इन दोनों  में संतुलन स्थापित नहीं कर पाता है यही कारण है कि नाभी के चारों ओर और गले में इन तीनों में तेज संघर्ष होने लगता है। शरीरविज्ञान में इसे नाभिश्वास  कहते हैं। जब समान वायु अपना नियंत्रण खो देता है तो प्राण अपान और समान मिलकर एक हो जाते हैं और उदान वायु पर आक्रमण करते हैं। जिस क्षण उदान वायु अपना पृथक अस्तित्व खो देता है तो  व्यान वायु भी सभी आन्तरिक वायुओं के सम्मिलित बल के साथ जुड़कर एक हो जाता है। यह सम्मिलित बल भौतिक शरीर में सभी अंगों पर अपना आघात करता है और कमजोर भाग से बाहर चला जाता है। केवल धनन्जय नामक वायु बचा रहता है। धनन्जय वायु नींद का कारक होता है अतः जब तक मृतशरीर जल नहीं जाता या अन्य प्रकार से नष्ट नहीं होता, धनन्जय बना रहता है । शरीर के पूर्णतः नष्ट हो जाने पर धनन्जय अन्तरिक्ष में रहता है और प्रकृति की इच्छा से फिर से नये भौतिक शरीर में प्रवेश करता है। इससे यह स्पष्ट है कि मानसिक और भौतिक तरंगों के बीच साम्य के नष्ट हो जाने पर मृत्यु होना कहलाता है। अर्थात् शरीर की भौतिक मृत्यु के समय धनन्जय को छोड़कर उसमें से नौ प्रणवायु आकाश में चले जाते हैं , मानसिक तरंगें भी संतुलन के अभाव में शरीर को छोड़कर आकाश में चली जाती हैं जिनके साथ इस जीवन के अभुक्त संस्कार बने रहते हैं, इसे ही सूक्ष्म शरीर कहते हैं। अभुक्त संस्कार या रीएक्टिव मूमेंटा भोग करने के लिए प्रकृति के सार्वभौमिक नियम के अनुसार उसका रजोगुण नया शरीर देकर साम्य स्थापित कर देता है। ऐसा वह इस सूक्ष्म मानसिक शरीर को नयी भौतिक संरचना में प्रवेश कराकर संभव बनाता है। इस प्रकार जन्म मृत्यु का क्रम चलता रहता है जब तक कि सभी नये और पुराने संस्कारों का क्षय नहीं हो जाता । जब सभी संस्कार क्षय हो जाते हैं तो इसे अन्तिम मृत्यु कहते हैं क्योंकि फिर किसी भी संस्कार को भोगने के लिए शरीर नहीं लेना पड़ता। संस्कार विहीन शुद्ध इकाई चेतना परमचेतना में मिल जाती है जो मृत्यु की भी मृत्यु कहलाती है क्योंकि वहाॅं मृत्यु भी मृत हो जाती है अर्थात् फिर नया शरीर नहीं लेना पड़ता। मानव मात्र का लक्ष्य इसी अमृतत्व को पाना ही है। यही पुरुषोत्तम अवस्था है, यही परमपुरुष परमसत्ता हैं।

प्रश्वास के बाद प्रत्येक रिक्त अवधि में इकाई जीव की मृत्यु होती है परन्तु अगली श्वास के साथ जीवनी शक्ति पा लेते हैं। परन्तु यदि एक श्वास और प्रश्वास का चक्र पूरा होते ही भौतिक यान्त्रिकता रिक्त अवधि से जीवनी शक्ति नहीं पा पाती है तो अगली श्वास लेना कठिन हो जाता है, सामान्यतः इसे ही मृत्यु होना कहते हैं। इस प्रकार इकाई जीव हर प्रश्वास के साथ रोज हजारों बार मरता है। इसलिए मृत्यु वैसी ही सामान्य घटना है जैसे श्वास लेना और छोड़ना। यह कुछ लोगों को दागदार हो जाती है जब वे एक शरीर से निकली अन्तिम प्रश्वास को दूसरे शरीर की प्रथम श्वास के साथ सम्बंधित नहीं कर पाते।

Saturday, 11 July 2020

325 छोटे बच्चों की आध्यात्मिक शिक्षा

325 छोटे बच्चों की आध्यात्मिक शिक्षा
बच्चों को सृष्टि और इस जगत की उत्पत्ति के संबंध में इस प्रकार समझाया जाना चाहिये कि उनके मन पर अनावश्यक काल्पनिकता का बोझा न लद जाये। जैसे, परमपुरुष ने सृष्टि को क्यों रचा ? इसके उत्तर में उनसे कहा जा सकता है कि परमपुरुष बिलकुल अकेले थे, अन्य कोई नहीं था, स्वभावतः उन्हें किसी साथी की आवश्यकता हुई जिसके साथ वह खेल सकें। सच भी है कौन चाहेगा सदा ही अकेला रहना? हम सभी अपने परिवार और मित्रों को अपने आस पास ही रखना चाहते हैं तभी हमें आनन्द मिलता है। इसी प्रकार परमपुरुष भी किसी को अपने साथ में चाहते थे जिसके साथ वे हॅंस सकें, खेल सकें। परंतु था तो कुछ नहीं इसलिये वह कुछ रचना चाहते थे जिससे वे अकेले न रहें। यदि तुम कोई खिलौना बनाना चाहो तो कुछ पदार्थ चाहिये होगे कि नहीं? जैसे, प्लास्टिक, लकड़ी, कागज, धातु ,रबर आदि जिससे तुम अपने मन पसंद खिलौने को बना सकते हो। परमपुरुष तो अकेले थे निर्माण करने के लिये कोई पदार्थ नहीं था इसलिये उन्होंने अपने मन के ही कुछ भाग का उपयोग करते हुए वाॅंछित पदार्थ पाया और विभिन्न प्रकार की रचना करने लगे जिसे ‘‘संचर’’ कहा जाता है।
जब वह पदार्थ तैयार हो गया तो उन्होंने पौधे और जन्तुओं को बनाया, छोटे बड़े पक्षी ,कुत्ते, बंदर चिंपांजी और अंत में मनुष्य। इस संरचना में उन्होंने सभी को मन दिया कुछ में अधिक उन्नत और किसी किसी का कम उन्नत, परंतु सभी उनके सार्वभौमिक परिवार के अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार उनका अकेलापन दूर हो गया । जड़ पदार्थों से मनुष्य के निर्माण करने की पद्धति ‘‘प्रतिसंचर’’ कहलाती है। इस तरह परमपुरुष ही सबके पिता हैं वे सभी को अपने प्रेम और आकर्षण से अपनी ओर वापस बुला रहे हैं। अपने दिव्य आकर्षण से वह प्रत्येक को खींच रहे हैं। इस ब्रह्माॅंड की यह प्राकृतिक कार्य प्रणाली है।
बच्चे जब इस प्रकार से स्पष्ट रूप से यह जानंेगे कि वे कौन हैं और कहाॅं से आये हैं तो निश्चय ही वे अनुभव करेंगे कि वे सब परमपुरुष की ही संताने हैं, उन्हीं की बेटे बेटियाॅं हैं । इस प्रकार की धारणा उनके मन में बन जाने पर वे अपने जीवन में पूर्ण आत्मविश्वास भर कर कार्य कर सकेंगे। वे अपने लक्ष्य को स्पष्टतः समझेंगे और उसे पाने के लिये यहाॅं वहाॅं नहीं भटकेंगे, वे यह सदा ही अनुभव करते रहेंगे कि परमपुरुष उन्हें लगातार देख रहे हैं। वे इस विश्व को समझ सकेंगे कि यह सब विभिन्न रचनायें, उन्हीं के आकार और प्रकार हैं और वे सब परमपुरुष केन्द्रित विश्व में ही रहते हैं। इस प्रकार वे दूसरों के साथ में अपने संबंधों को भी पसंद करेंगे क्योंकि स्वाभाविक रूपसे वे परमपुरुष को पिता और संसार की छोटी बड़ी सभी रचनाओं और अस्तित्वों को अपने परिवार का हिस्सा मानेंगे। इसलिये वे सभी पेड़ पौधों और प्राणियों के साथ अपना मधुर व्यवहार बनायेंगे। इस प्रकार वे धर्म के रास्ते पर सरलता से बढ़ते जायेंगे तथा एक महत्वपूर्ण बात उनके मन में बस जायेगी वह यह कि ‘हम परमपुरुष से आये हैं और उनके पास ही लौटकर जाना है इसके लिये साधना करना घर वापस लौटने की प्रक्रिया है उसे अवश्य करना चाहिये।’