यह तो सभी जानते हैं कि अर्जुन महाभारत का वह पात्र है जिसे महावीर योद्धा और धनुर्विद्या में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। यद्यपि उसी के समकालीन कर्ण और एकलव्य धनुर्विद्या में तथा घटोत्कच और बर्वरीक राक्षसी युद्ध विद्या में उससे श्रेष्ठ थे परन्तु तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के कारण अर्जुन को एकपक्षीय लाभ प्राप्त होता रहा। यह ठीक वैसा ही कहा जा सकता है जैसे आज के युग में उत्तम योग्यता धारक किसी सवर्ण का चयन रोककर आरक्षित श्रेणी के अपेक्षतया कम योग्यता धारक युवक का चयन किया जाता है। कर्ण को सूत पुत्र कहकर, एकलव्य को शूद्र कुल का कहकर तथा घटोत्कच और बर्वरीक को राक्षस कुल का कहकर अर्जुन के रास्ते से अलग कर दिया गया। यहांॅ यह स्मरणीय है कि महाभारत युद्ध में अर्जुन पर कर्ण द्वारा चलाए गए अमोघ ब्रह्मास्त्र को घटोत्कच ने अपने ऊपर लेकर अर्जुन के प्राण बचाये और अपना उत्सर्ग किया, बर्वरीक को युद्ध में लड़ने से कृष्ण ने अपनी नीति से न रोका होता तो निश्चय ही वह कौरवों की ओर से लड़ा होता और उसके अकेले लड़ने से ही पांडवों की हार निश्चय थी। जो भी हो, सब कुछ काल के आधीन होता है और तदनुसार ही प्रकृति परिस्थितियॉं निर्मित करती जाती है।
इससे कुछ लोग पूछ सकते हैं कि ‘फिर अर्जुन के पास वह क्या था जो उपरोक्त महावीरों से पृथक करता है और उसे कृष्ण का प्रिय बनाता है?’ इसमें कोई शक नहीं कि अर्जुन महावीर महारथी था। कृष्ण ने भी उसका साथ दिया क्योंकि वह धर्मपरायण और निष्पाप था। उपनिषदों में परमपुरुष को अनुभव करने के लिये जिन छः स्थितियों का विवरण मिलता है वे हैं, सामीप्य, सालोक्य, सारूप्य, सायुज्य, सार्ष्ठी और कैवल्य। कहा जाता है कि इनमें से अर्जुन को ‘सालोक्य’ स्थिति की उत्तम अनुभूति थी जबकि दुर्योधन को बिलकुल नहीं। इसका उदाहरण है, जब कृष्ण को युद्ध का आमंत्रण देने दुर्योधन और अर्जुन दोनों उनके घर पहुंचे तब भले ही कृष्ण ने सोते रहने का बहाना बनाया हो और दुर्योधन पहले आया हो, लेकिन वह उनके सिरहाने बैठा जबकि अर्जुन उसके बाद में आया और कृष्ण के पैरों की ओर बैठा। इस प्रकार जब कृष्ण ने अपनी झूठी निद्रा तोड़ी तो सबसे पहले अर्जुन को और बाद में दुर्योधन को देखा। विद्वान इसे सालोक्य अनुभूति का प्रभाव कहते हैं जो अर्जुन को प्राप्त थी दुर्योधन को नहीं। एक अन्य बात यह भी कि जहॉं अर्जुन को सहजनैतिकता के साथ परमपुरुष की भक्ति का उच्च स्तर प्राप्त था वहीं कर्ण, घटोत्कच या बर्वरीक में सहजनैतिकता होने के बाबजूद भक्ति का स्तर अपेक्षतया कम था।
आध्यात्म के मर्मज्ञ विद्वान कहते हैं कि जब भक्त अपने इष्ट की अनुभूति करने करने लगता है तो वह दूसरे भक्तों से अपने को अधिक श्रेष्ठ मानने की सात्विक भूल कर बैठता है। वह सोचता है कि मेरे कार्य से भगवान प्रसन्न होते हैं अतः मुझे अपार प्रसन्नता का अनुभव होता है। दार्शनिक इसे ‘रागानुगा भक्ति ’ कहते हैं। जबकि इससे भी श्रेष्ठ मानी गई है ‘रागात्मिका भक्ति’ जिसमें भक्त की यह भावना होती है कि भले ही मुझे कितना ही कष्ट हो, मेरे हर कार्य से मेरे प्रभु प्रसन्न ही हों, उन्हें कोई कष्ट न हो। युद्ध के समाप्त होने और युधिष्ठर के राजकाज सम्हालने के बाद कुछ समय पश्चात् अर्जुन रागानुगा भक्ति के प्रभाव में अहंकारी हो चले तब कृष्ण ने इस दोष को दूर करने के लिए उपाय सोचा। इसका दृष्टान्त यह है कि एक दिन कृष्ण, अर्जुन को छद्मवेश में नगर से दूर घुमाने पैदल ही ले गए। दूर जाते हुए खेत में एक कृषकाय बृद्ध केवल लंगोट पहने परन्तु कमर में तलवार लटकाए, हाथ में टोकनी लिए खेत की कटाई हो चुकने के बाद वहॉं गिरे हुए बीजों को ढूंड़ रहा था। अर्जुन का ध्यान उस पर गया तो उसने कृष्ण से कहा ‘देखो तो, यह जीर्ण देहधारी जो अन्न वस्त्र से बंचित है फिर भी कमर में तलवार लटकाए फिरता है! कृष्ण बोले, चलो उसी से इसका कारण पूछते हैं। अर्जुन ने उस बृद्ध से पूछा, ‘महोदय! आप शरीर से बहुत कमजोर दिखाई देते हैं फिर भी इस तलवार का बोझ क्यों लादे हैं?’ उसने कहा, भैया! अभी मुझे तीन लोगों से बदला लेना है जिसमें यह तलवार ही काम आएगी।’ वे कौन लोग हैं, अर्जुन ने उत्सुकता से पूछा। बृद्ध ने कहा, ‘सबसे पहले अर्जुन जहॉं भी मिलेगा उसे मारना है, फिर द्रोपदी को और फिर सुदामा को’। ‘लेकिन इन बेचारों ने आपका क्या बिगाड़ा है, अर्जुन ने पूछा। बृद्ध बोला, क्या नहीं बिगाड़ा? अर्जुन ने मेरे प्रभु को सारथी बना कर उनसे घोड़ों की लगाम खिचवाई, उनकी हथेलयों में छाले पड़ गए, मैं यह कैसे सहन कर सकता हॅूं। अच्छा, लेकिन बेचारी द्रोपदी ने तो कुछ नहीं किया, अर्जुन ने फिर पूछा। वह बोला, अरे! उसने तो मेरे प्रभु को उस समय पुकारा जब वह भोजन करने के लिए पहला कौर भी मुंह में नहीं रख पाए, वे भूखे ही उसे मदद करने दौड़ पड़े, क्या उनका कष्ट तुम समझ सकते हो? ठीक है, पर सुदामा तो गरीब ब्राहम्ण भक्त है उसकी क्या गलती है? अर्जुन ने फिर पूछा। बृद्ध बोला, अरे वह मिल जाय तो एक ही बार में उसे दो टुकड़े करना चाहता हॅूं, उसने मेरे प्रभु से अपने पैर धुलवाए, उन्हें नंगे पांव दौड़ते हुए महल के बाहर तक दौड़ाया, उनके पैरों में पड़े छालों का दर्द तुम क्या जानो राहगीर! जाओ मुझे अपना काम करने दो। अर्जुन को उसकी पराभक्ति का आभास हो गया और उच्च स्तर के भक्त होने का दम्भ चूर चूर हो गया। मन ही मन वे कृष्ण को साष्टांग प्रणाम करने लगे।
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