प्रश्न- कुछ विद्वान लोग कहते हैं कि यह संसार मिथ्या है! ये सब कुछ माया है! इसका क्या अर्थ है?
उत्तर- जिन विद्वानों ने जगत को मिथ्या कहा है वे यह तब कह पाये जब उन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया। उन्हांने इस अवस्था में अनुभव किया और यह कहा कि ‘ब्रह्म सत्यम जहद्मिथ्या‘ अर्थात् ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या। इसे दर्शनशास्त्र में मायावाद कहा गया है।
आप तर्क दे सकते हैं कि जो स्पष्ट दिखाई दे रहा है, जिसके अस्तित्व का हम आप और सभी अनुभव करते हैं उसे मिथ्या कैसे कहा जा सकता है?
इसे समझने के पहले हमें ‘सत्य‘ की परिभाषा को अच्छी तरह समझ लेना चाहिये तभी तो असत्य या मिथ्या को समझ सकेंगे।
सत्य माने जो जैसा है वैसा ही और मिथ्या माने जो अपने मूलस्वरूप से भिन्न हो वह। परन्तु ‘सत्य‘ अपरिवर्तनशील होता है, प्रत्येक स्थिति में एक सा एकरस। परंतु ‘असत्य या मिथ्या‘ परिवर्तनशील होता है। जो अपरिर्विर्तत रहता है उसे निर्पेक्ष सत्य और जो परिवर्तित होता है उसे सापेक्षिक सत्य कहते हैं।
यह ब्रह्मॉंड उस एक ही परमसत्ता के परम मन अर्थात् कास्मिक माइंड की विचार तरंगों के अलावा कुछ नहीं है अतः निर्पेक्ष या परमसत्य तो केवल परमपुरुष ही हैं अन्य सब का अस्तित्व उनके सापेक्ष ही है इसलिये यह जगत सापेक्षिक सत्य है परंतु अज्ञानवश हम इसे निर्पेक्ष सत्य मानकर उसके स्वाभाविक परिवर्तनों से प्रभावित होकर सुख दुख का अनुभव करते हैं और मैं मेरा तथा तू तेरा के चक्कर में पड़ जाते हैं।
परंतु अब आप कह सकते हैं कि विद्वानों ने तो इसे स्पष्टतः मिथ्या कहा है और ‘माया‘ अर्थात् इल्यूजन कहकर दूर रहने का संदेश बार बार दिया है।
ठीक है, श्रुति में माया का अर्थ क्या है? ‘ घातना अघातना पतीयसी माया‘ अर्थात् ‘‘जो है, वह न होने और जो नहीं है, उसे होने जैसा अनुभव कराती है‘‘ वह सत्ता माया कहलाती है। इस संसार में सभी कुछ निश्चित समय के लिये ही अस्तित्व में रह पाता है परंतु हमें अनुभव यही होता है कि यह सब हमारे साथ सदा ही रहेगा यही भ्रम माया के नाम से जाना जाता है।
इसीलिये तो निर्पेक्ष अवस्था का अनुभव करने वाले महापुरुष इसे मिथ्या कहने लगते हैं। जगत को दार्शनिकगण ‘सापेक्षिक सत्य‘ कहते हैं जो विद्यामाया और अविद्या माया के द्वारा अपना अस्तित्व बनाये रखता है। यह वैसा ही है जैसे वृत्ताकार गति करने वाले किसी पिंड पर संतुलन बनाये रखने के लिये तुरंत दो बल सक्रिय हो जाते हैं एक केन्द्र की ओर अर्थात् सेन्ट्रीपीटल और दूसरा केन्द्र के बाहर की ओर अर्थात् सेन्ट्रीफ्यूगल। ब्रह्मॉंड के केन्द्र में परमपुरुष की ओर विद्यामाया और बाहर की ओर अविद्यामाया सक्रिय रहती है। हमें यह अष्ट पाशों (भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये अष्ट पाश )और षडरिपुओं ( काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, और मात्सर्य ये षडरिपु)के जाल में उलझाकर अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य इन आठों बंधनों और छहों शत्रुओं से लगातार संघर्ष करते हुए अपने मूल स्वरूप अर्थात् केन्द्र स्थित परमपुरुष की ओर लौट जाना है जहॉं से कभी हम उनकी विचार तरंगों के रूप में अर्थात् ब्रह्म चक्र में आये और सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से सूक्ष्म रूपों में लगातार चक्कर लगा रहे हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। अष्ट पाश का अर्थ है आठ बंधन, बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि जब इतने प्रबल शत्रु और बंधन सब के साथ हैं तो उन से कहॉं तक संघर्ष किया जाये? अपने मूलस्वरूप में वापस हो पाना संभव ही नहीं है?
बात सही है अतः इन से किया जाने वाला यही संघर्ष ही साधना करना या पूजा करना कहलाता है। अविद्या माया, विरोधात्मक बल उपरोक्त प्रकार से लगाती अवश्य है परंतु वह हमारी आध्यात्मिक अग्रगति में सहायता करने के लिये ही यह करती है। जैसे, धरती पर चलते समय घर्षण बल हमारी गति का विरोध करता है परंतु जब हम फिर भी आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यही सहायक बन जाता है, यदि यह विरोध न हो तो हम आगे चल ही नहीं सकते। चिकने तल पर आप नहीं चल पाते क्यों?
तो क्या इससे हमें यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि विद्यामाया का ही सहारा लेना चाहिये और अविद्यामाया से दूर रहना चाहिये?
नहीं, केवल एक किसी के सहारे हमें अपने संघर्ष में सफलता नहीं मिल सकती । हमें सम्यक रूपसे अविद्यामाया की मदद लेते हुए विद्यामाया का साथ देना चाहिये। यदि आप केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन वस्त्र आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये ही अविद्या का सहारा लेना पड़ता है । यदि केवल अविद्या की उपासना करेंगे तो यहीं फंसे रहेंगे । श्रुतियों में कहा गया है ‘‘ अंधं तमः प्रविश्यन्ति ये अविद्यामुपासते, ततो भूय ऐव ते तमो य उ विद्यायांरताः ।‘‘ अर्थात् जो केवल अविद्या की उपासना करते हैं वे अंधे कुए में ही अपने को फेकते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते हैं वे उससे भी अधिक गहरे अंधे कुए में अपने को फेक देते हैं। अतः स्पष्ट है कि सम्यक अविद्या का उपयोग कर विद्या की उपासना करने से ही हम अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं। इसलिये यह जगत मिथ्या नहीं सापेक्षिक सत्य है।
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