ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।
ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाला मन ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।
यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है। यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गरवे नमः।’’ ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।