Tuesday, 28 November 2023

418 ध्यान क्या है? इसका वैज्ञानिक सिद्धान्त क्या है? किसका ध्यान करें ?

 

ध्यान के विषय पर वद्वानों की अनेक व्याख्यायें उपलब्ध हैं परन्तु सभी मन को भ्रमित करती हैं क्योंकि वे सब किताबी ज्ञान पर आधारित होती है। आइए आज ध्यान से संबंधित इन तीन बातों पर चर्चा की जाय।
ध्यान का सामान्य अर्थ है मन को किसी विषय पर स्थिर करना। जैसे गणित के किसी सावल का उत्तर खोजने के लिए, पारिवारिक किसी समस्या का समाधान करने के लिए आदि। परन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में इसका अर्थ होता है मन को अपने इष्ट पर स्थिर करना। दोनां ही स्थितियों में मन ही प्रधान होता है, ध्यान करने वाला मन ध्येता और जिस विषय या वस्तु पर ध्यान करना होता है उसे कहते हैं ध्येय। इस प्रकार मन (ध्याता) अपने विषय (ध्येय) पर पहुंचने के लिए जो भी प्रयास करता है वह ध्यान कहलाता है। परन्तु यहॉ केवल मन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वह तो क्षण भर में अनेक स्थानों पर उछलकूद करने में लगा रहता है। इस प्रकार मन अपनी ऊर्जा को सभी ओर विकीर्णित करता रहता है और वह वहीं जाना चाहता है जहॉं उसे अच्छा लगता है। मन को कहॉं अच्छा लगता है? वहीं जहॉं वह पूर्व में जाता रहा है, क्योंकि वहॉ जाने पर उसे कम शक्ति खर्च करना होती है। जिस बिंदु या विषय पर अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है वहॉ से मन शीघ्र ही भागने लगता है, उसका यही स्वभाव है। इस स्थिति में एक अन्य एजेंट ‘बुद्धि’ की आवश्यकता होती है जो उसे बार बार सचेत करते हुए यह समझाता रहे कि समय बार बार नहीं आएगा, इसका उपयोग कर लो नहीं तो पछताओगे। इस तरह मन और बुद्धि जब पारस्परिक साम्य स्थापित करके किसी विषय पर सक्रिय हो जाते हैं तो यह प्रक्रिया ध्यान कहलाती है और अपने लक्ष्य या इष्ट या समस्या पर समाधान पा लेती है।
यह सब रेजोनेंस (अनुनाद) के सिद्धान्त पर घटित होता है। जैसे, मन सदैव कंपनकारी अवस्था में रहता है अतः उसकी एक फंडामेंटल फ्रीक्वेसी होती है। इसी प्रकार लक्ष्य या समस्या की भी मूलआवृत्ति होती है । अतः यदि मन की आवृत्ति को विषय की आवृत्ति के साथ साम्य (विज्ञान की भाषा में अनुनाद) में लाया जा सके तो समस्या का तत्काल समाधान हो जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में अपने इष्ट के साथ अनुनादित होने के लिये मन को इष्ट की मूल आवृत्ति जिसे इष्टमंत्र कहा जाता है, के साथ अनुनाद स्थापित करना होता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में जो काम इष्टमंत्र का होता है वही कार्य गणित का सवाल हल करने के समय उसका सूत्र (फार्मूला) करता है। इष्टमंत्र व्यक्ति विशेष के पूर्व संस्कारों पर निर्भर करता है जिसे ‘‘कौल गुरु’’ पहचान कर जिज्ञासु को सिखाते हैं और वह बिंदु बताते हैं जहॉं पर मन को बैठाकर इष्टमंत्र का आघात किया जाता है। यह अभ्यास लगातार करते रहना होता है।
अब प्रश्न उठता है कि किसका ध्यान किया जाय ब्रह्म का, बिंदु का, इष्ट का या गुरु का? चूंकि ध्येय तो परमपुरुष अर्थात् परमब्रह्म ही होते हैं जिन्हें किसी ने देखा ही नहीं है, उनका कोई आकार नहीं है और उन्हें आज तक कोई माप भी नहीं सका है। वह कहॉ हैं, धरती पर शरीर में या अन्तरिक्ष में यह भी कोई नहीं जानता । मन तो केवल उसका ध्यान कर पाता है जिसे उसने पहले कभी देखा होता है, तो ब्रह्म का ध्यान कैसे किया जाय? चूंकि गुरु ही इष्ट,श्इष्टमंत्र और ध्यान करने की प्रक्रिया सिखाते हैं अतः कोई भी व्यक्ति केवल गुरु को ही जान पाता है। उसने उन्हें ही देखा होता है अतः वह गुरु द्वारा बताए गए बिंदु पर गुरु को देखते हुए इष्टमंत्र का आघात करता है। यहॉ मन इष्टमंत्र के अनुसार कम्पन करता है अर्थात् बार बार उसे दुहराता है और बुद्धि प्रत्येक क्षण मन को उस इष्टमंत्र का अर्थ याद कराती रहती है। इष्टमंत्र की टार्च लेकर ध्याता का मन और बुद्धि गुरु के द्वारा दिखाए गए रास्ते पर अज्ञान के अंधकार को चीरते हुए आगे बढ़ते जाते है और एक समय आता है जब गुरु की मूल आवृत्ति से ध्याता के मन की मूल आवृत्ति अनुनादित होने लगती है । इस अवस्था में ध्याता, ध्यान, और ध्येय एक ही हो जाते हैं, सब भेद समाप्त हो जाता है केवल आनन्द ही शेष रहता है। विद्वान लोग इसे समाधि का आनन्द कहते हैं। इसलिए कहा गया है कि ‘‘गुरुरेव परम ब्रह्म, तस्मै श्री गरवे नमः।’’ ‘गुरु कृपा ही केवलम्’ अर्थात् केवल गुरु की कृपा ही पर्याप्त है। जिसे सच्चा गुरु मिल गया वही धन्य है, उसी का जीवन धन्य है, उसका परिवार धन्य है, उसी का मानव जीवन पाना सफल है।

Thursday, 9 November 2023

417 हमारी सनातन संस्कृति का लक्ष्य : पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाना है।


जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, वे मनुष्य रूप में पशु ही हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं। इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए, हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपतिनाथ हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
यह विचित्र सा लग सकता है परन्तु यह सत्य है। इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उसे वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में जिस स्तर पर पहुंचती है उसे देवता कहेंगे। ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
स्पष्टीकरण -
एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। श्शयद आप जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता हैं । हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीरभाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।

416 ईश्वर से बात कैसे करें?

 

ईश्वर के संबंध में विभिन्न मतों में विभिन्न अवधारणाओं को बल दिया गया है। आपने किस मत की कौन सी अवधारणा को पालन करना स्वीकार किया है इस पर ही उनसे बात करना या न कर पाना निर्भर करता है।
सच्चाई यह है कि किसी ने भी ईश्वर को उनके निर्गुण स्वरूप में नहीं देखा है और न देख सकता है। इसलिए 90 प्रशित से अधिक भक्त पौराणिक कथाओं के आधार पर अपनी अवधारणाएं दृढ़़ करते हुए आगे बढ़ते हुए देखे जाते हैं। इन कथाओं में ईश्वर के अवतारों और आकार प्रकारों पर बताया गया है परन्तु उनको भी किसी ने साक्षात देखा नहीं है, जो भी पुस्तकों में भक्तों ने अपने अनुभव लिखे हैं उसी प्रकार उनके अनुयायी भी देखने का प्रयास करते हैं। अब समस्या यह है कि कोई भक्त कैसे यह जाने कि उस अद्वितीय अरूप अमाप्य अनन्त और अवर्णनीय को अपने छोटे से मन के द्वारा अनुभव करे, बात करे, अपने सुखदुख को बताकर शिकायत करे, उनका असीम प्रेम अनुभव करे?
इसका समाधान केवल विद्यातंत्र में ही मिलता है कर्मकांड में नहीं। शायद आप को पता होगा कि भगवान कृष्ण ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- तपस्वीभ्योधिको योगी ज्ञानीभ्योपि मतोधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी, तस्माद्योगी भवार्जुन।।
अर्थात् ‘योगी’ कर्मकांडियों, ज्ञानियों और तपस्वियों आदि से सबसे श्रेष्ठ है इसलिए अर्जुन तुम योगी बनो।
आजकल योगी होने का मतलब योगासनें करने और सिखाने वाले को माना जाता है। पर यह सही नहीं है। विद्यातंत्र में मान्य योग की परिभाषा है‘ ‘‘संयागो योगो इत्युक्तो आत्मनो परमात्मना’’ अर्थात् "परम आत्मा" को अपनी जीवात्मा के साथ जोड़ने की प्रक्रिया को योग कहते हैं।
अब यहॉं आपके प्रश्न का उत्तर मिलने की संभावना बनती है। परन्तु फिर प्रतिप्रश्न उठता है कि कैसे?
इसका उत्तर है विद्यातंत्र में विशारद कौल गुरु जो पुरश्चरण की क्रिया में प्रवीण हो उससे अपने इष्ट मंत्र को प्राप्त करना। जब आपको अपने इष्ट और इष्टमंत्र का सही सही ज्ञान कौल गुरु के द्वारा करा दिया जाता है और अपने निर्देशन में साधना का अभ्यास करा कर योग्य बना दिया जाता है तब आपका मन और बुद्धि उस अरूप का रूप अपनी आत्मा के भीतर देख सकती है, अनुभव कर सकती है, उससे बात कर सकती है और उसके साथ एकाकार हो सकती है। वहीं आपको अनुभव होगा कि यही मेरे सर्वस्व हैं। यों तो अनेक लोगों को यह कहते सुना जाता है कि ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव’ पर उन सबके व्यवहार में बहुत भिन्नता देखी जाती है। आप हतोत्साहित न हों, मन में कौल गुरु की अवधारणा को जीवन्त रखें वे आपको स्वयं इष्टमंत्र देने आएंगे और आपकी वार्ता अपने इष्ट से करायेंगे।