Sunday, 13 July 2025

 क्या देवी को बलि देना शास्त्र सम्मत है?

उत्तर- शायद आप जानते हैं कि मनुष्य रूप में आने से पहले यह जीव अन्य पशुओं, अन्य पश्वेतर जीवधारियों और वनस्पतियों से होता हुआ क्रमशः इस स्तर पर आ पाता है कि उसे मनुष्य का शरीर प्राप्त होता है। स्वयंसिद्ध है कि मनुष्य का शरीर पाने के साथ ही उसके अपने अमनुष्येतर जीवनों के संस्कार भी जुड़े रहेंगे।  पशुओं और अन्य जीवधारियों के लिए शास्त्र कहते हैं कि ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ अतः वे यदि अन्य जीव का भक्षण करने के लिए उनका शिकार करते हैं तो  यह स्वाभाविक है। इसे पाश्वाचार कहा गया है। मनुष्य जब अपनी पशु अवस्था को छोड़कर मनुष्य अवस्था में आता है तो इसी पाश्वाचार के संस्कारों के चिपके रहने के कारण ही उसे अन्य पशुओं का शिकार करने और उनका मांस भक्षण करने की प्रवृत्ति होती है।  मनुष्य जब अधिक उन्नत होता जाता है तब उसके मन में अपनी शक्ति के प्रदर्शन का भाव आता है और यदि उसे उचित मार्गदर्शन न मिल पाए तो वह विध्वंसक होकर सभी का विनाश करने लगता है जिसे राक्षसी वृत्तियॉं कहा जाता है, परन्तु उचित मार्गदर्शन मिल जाने के कारण वह उस शक्ति का उपयोग आत्मोत्थान के लिए करता है जिसे दिव्याचार कहते हैं।

अब, तथाकथित देवी के नाम पर पशुओं की बलि देने का कार्य किस स्तर का कहा जाएगा यह आप स्वयं समझ सकते हैं। मनुष्य को पाश्वाचार से दिव्याचार की ओर  बढ़ने का आदेश भगवान सदाशिव ने आज से 7500 वर्ष पहले हमें दिया था और हम यदि पाश्वाचार पर ही टिके रहते हैं तो पहली बात तो यह कि हम शिव के आदेशों का उल्लंघन करते हैं और दूसरी बात यह कि  शास्त्रों के निर्देश की भी अवहेलना करते हैं जो कहते हैं कि ‘‘जिस प्रकार आपको अपनी जीवन प्यारा है उसी प्रकार अन्य जीवों को भी उनका जीवन प्यारा है, केवल  उनके मूक होने के कारण आप उन्हें यातना देने के अधिकारी नहीं बन सकते।’’ 

कुछ विद्वान ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हर्वि ब्रह्माग्नो .... आदि की बात करते तर्क देते हैं तो  वे पूर्वोक्त यथार्थता को भूल कर ही यह कह रहे होते हैं। क्योंकि यह वाक्य भगवान कृष्ण उन महापुरुषों के संदर्भ में कहते हैं जो दिव्याचार में सलग्न रहकर ‘‘अहं ब्रह्मास्मि, या तत्वमसि’’आदि महावाक्यों का अनुभव कर चुके होते है।

इनके संदर्भ में आपको यह भी याद होगा कि भगवान कृष्ण ने तो यह तक कहा है कि ‘‘ नैव किंचित करोमीति युक्तोमन्येत तत्ववित्’’ अथवा ‘‘यस्य नाहंकृतो भावो बुर्द्धियस्य न लिप्यते, हत्वापि स इमांलेकान्न हन्ति न निवद्यते।‘‘

परन्तु दुख है कि हमने अपने सवार्थ और स्वाद के लिए वेदों के तत्वज्ञान को तरल कर दिया है और अब दम्भ भर रहे हैं कि हम ब्राह्मण हैं।

यदि संभव हो तो कृपया उनसे पूछ कर देखिए जो पांडे, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी आदि उपनाम लिखते हैं कि क्या उन्हें अपने पूर्वजों के नाम पर प्राप्त इस सरनेम के अनुसार वेदों का ज्ञान है?  

अनुरोध यह है कि उपनिषदों का आज सही अर्थ समझकर  गंभीरता पूर्वक अनुकरण करने की आवश्यकता है, तभी हमारी संस्कृति बची रह सकती है । केवल हमारे वेद, हमारी उपनिषदें आदि चिल्लाते रहने से कुछ भी होने वाला नहीं है।


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