उपवास एकादशी को ही क्यों?
असंयमित जीवन से शरीर की ही नहीं मानसिक और आध्यात्मिक हानि होती है। सभी को यह याद रखना चाहिए कि जो कुछ हम भोजन करते हैं उसके सार तत्व को संस्कृत में लसिका ( लिंम्फ या वाइटल फ्लुड) कहते हैं। यह लसिका हमारे मस्तिष्क का भोजन है। इसमें विकृति आने पर अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक व्याधियॉं उत्पन्न हो जाती हैं। अपवित्र विचारों से, गंदा साहित्य पढ़ने से और कुसंगति करने से मन में उत्तेजक भावनाएं सदा ही मंडराती हैं जिससे लसिका प्रभावित होकर शुक्र (सेमिनल फ्लुड) में बदलती रहती है जो अधिक समय तक संचित नहीं रह पाता और जाने या अंजाने वह बाहर आ जाता है। इस प्रकार शुक्र के लगातार क्षय होने पर उपरोक्त हानियों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए पवित्र विचारों के पालन के साथ लसिका के संरक्षण करने की सभी को सलाह दी जाती है।
हम जो प्रतिदिन भोजन करते हैं तो उससे उत्पन्न लसिका प्रतिदिन के मस्तिष्क हेतु आवश्यक भोजन से थोड़ा अधिक होती है और वहीं पर संचित होती जाती है। धीरे धीरे एक माह में यह चार दिन के भोजन से उत्पन्न लसिका के बराबर हो जाती है। यदि इसे संरक्षित रखने का उपाय नहीं किया गया तो अवांछित विचार आने पर वह सीमेन में बदलकर बाहर निकल जाती है।
अन्य महत्वपूर्ण बात यह भी है कि 13 या 14 साल की उम्र के आने तक लड़कों के टेस्टीकल्स से हार्मोन्स निकलने लगते हैं जो लिंफ को सेमिनल फ्लुड में बदलने लगते हैं, जिससे भी कामुक विचार उनके मन में आने लगते हैं। यदि हारमोन्स के इस उत्सारण को नियंत्रित न किया जाय तो लड़के मनमानी करने लगते हैं। यदि ये हारमोन्स पवित्र विचारों द्वारा नियंत्रित रहें तो वही लड़के बहुत कुछ समाजहित में उल्लेखनीय कार्य करते हैं।
प्रकृति ने हमारी धरती पर 78 प्रतिशत भाग पानी भर दिया है और अमावश्या तथा पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमते हुए अधिक निकट आ जाता है और अपने गुरुत्वाकर्षण से जलीय भाग को अपनी ओर खींचता है अतः पृथ्वी पर एकादशी से पूर्णिमा या अमावश्या तक ज्वार और भाटे आते आते रहते हैं। चंद्रमा की धरती से निकटता होने से धरती का पानी ही नहीं प्रभावित होता वरन प्रत्येक जीवित वस्तु के जलीय तत्व पर भी प्रभाव डालता है। स्पष्ट है कि मनुष्यों के शरीर का पानी और लसिका पर भी इसके आकर्षण का प्रभाव पड़ता है और वह अपना स्थान छोड़कर बाहर आने लगती है। सभी का अनुभव है कि (और पुलिस का रिकार्ड भी है) अमावश्या और पूर्णिमा के आस पास ही अनैतिक कार्य, चोरियॉं और आत्महत्याएं आदि अधिक होती हैं।
इससे यह स्पष्ट है कि हमें अपने मस्तिष्क के भोजन लसिका को अधिकतम संरक्षित रखना चाहिए परन्तु कैसे? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।
इसके लिए योगविज्ञान में ‘उपवास’ की अवधारणा को मान्यता दी गई है। उपवास का अर्थ केवल भोजन को त्यागना नहीं है वरन् ईश्वर के निकट बैठना है। सन्यासियों और विद्यार्थियों के लिए नैष्ठिक ब्रह्मचर्य (जिसमें अपेक्षा की जाती है कि सीमेन अर्थात् वीर्य की छोटी सी बूंद का भी कभी क्षरण न हो पाए।) और ग्रहस्थों के लिये प्राजापत्य ब्रह्मचर्य (जिसमें माह में केवल चार दिन संतान उत्पत्ति के उद्देश्य से विहित पत्नी के साथ सेक्स करने की अनुमति दी गई है जिसमें एक माह में बना 4 दिन का अतिरिक्त सेमिनल फ्लुड संतानोत्पत्ति के लिए प्रयुक्त हो सकें) का निर्धारण किया गया है। इसलिए लसिका को लसिका के रूप में ही संरक्षित रखने की व्यवस्था बनाई गई है निर्जल उपवास के द्वारा। इस व्यवस्था में एकादशी को निर्जल उपवास रखकर केवल भगवद् भजन और साधना करना होती है और अन्य समय सद्साहित्य से जुड़े रहकर पूरे 24 घंटे के बाद उपवास को समाप्त किया जाता है। उपवास को तोड़ने के लिए भी योग में उचित विधि को बताया गया है जो उपवास का अभिन्न अंग है। 24 घंटे तक साधना और भजन पूजन से जुड़े रहकर एक ओर से हमारा मन ष्शु़द्ध होने लगता है और दूसरी ओर उपवास को तोड़ते समय शरीर की सभी गंदगी को बाहर करके उसे शुद्ध किया जाता है। इसके लिये गुनगुने पानी में (एक लिटर) लगभग 10 ग्राम साधारण नमक और तीन नीबुओं का रस निचोड़कर लगातार पिया जाता है । इससे निर्जल उपवास के समय ष्शरीर से जल की कमी के स्थान पर यह क्षारीय जल शरीर के छोटे से छोटे प्रत्येक छिद्र में घुसकर वहॉं पर पायी जाने वाली गंदगी को अपने में घोल लेता है साथ ही आंतों में सूखा मल भी घुल जाता है। आधे घंटे बाद आधा लिटर सामान्य पानी पीने के बाद कुछ ही देर में टायलेट जाने का प्रेशर बनता है और शरीर का मल मिश्रित गंदगी सबकुछ बाहर आ जाता है। इस प्रकार लगातार तीन चार बार के स्ट्रोक में पिये गए पानी के साथ घुलकर सब गंदगी बाहर हो जाती है। एक स्थिति वह आती है कि यूरिन और एनस से स्वच्छ पानी आने लगता है, इससे पता चलता है कि अब पेट साफ हो चुका है। इसके बाद नहाकर केवल तीन केले खाकर उपवास को तोड़ा जाता है। इसके कुछ देर बाद उस दिन सामान्य खिचड़ी ही खाना होती है और फिर सामान्य भोजन। उपवास की विधि पर मेरे अन्य लेख में विस्तार से पूर्व में समझाया जा चुका है जिससे बहुत से लोग लाभ उठा रहे हैं।
इस प्रकार एक माह में दोनों एकादशियों को इस प्रकार उपवास करने पर चंद्रमा के प्रभाव में लिंफ नहीं आ पाता और अतिरिक्त संचित लिंफ मस्तिष्क के भोजन के रूप में प्रयुक्त हो जाता है। इस वैज्ञानिक विधि को योग मार्ग का सही अनुसरण करने वाले सभी लोग स्वस्थ और उन्नत विचारों के होते हैं। विद्यार्थियों के लिए तो यह सर्वोत्तम है। अतः एकादशियों को उपवास करने का क्या महत्व है यह स्पष्ट हो जाता है।
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