Tuesday, 26 January 2016

45 राधा की डमरू

45 राधा की डमरू
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‘‘क्या बात है, आज तो बहुत ही उदास लग रहे हो, ऐंसा तो कभी नहीं देखा?‘‘

‘‘ हाॅं, पिछले सत्तर वर्षों का लेखा जोखा देख रहा था, कुल उपलब्धियाॅं शून्य  ही आईं हैं।‘‘

‘‘कैसे? मैं कुछ समझी नहीं ।‘‘ 

‘‘देखो न! खूब मेहनत कर अफसर बना, कितने लोग सेल्यूट करने लाइन में लगे रहते, कितना रुतवा था, बच्चों को भी अपने से अधिक अच्छा बनाया, धन भी खूब कमाया, पर आज रिटायर हुए दस वर्ष हो गये अब लगता है कुल उपलब्धियाॅं कुछ नहीं हैं।‘‘ 

‘‘इतना सब क्या कम है?‘‘

‘‘ किसे इतना सब कहती हो? आज भूल से भी कोई नमस्कार नहीं करता, बच्चे सब विदेश  में बस गये, दोस्त भी बिछड़ते जा रहे, नौकर चाकर भी उतने लवलीन नहीं रहे, यह धन भी बीमारियों के कष्ट को तत्काल दूर नहीं कर पाता! क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘ 

‘‘ अच्छा! अब समझी। शिवजी की डमरू यह समझने लगी कि शिवजी को प्रणाम करने वाले लोग उसे प्रणाम कर रहे हैं ।‘‘

‘‘क्या मतलब?‘‘

‘‘ तुम्हारे दुख का कारण है तुम्हारा यह अहंकार , जो बार बार कहता है मैं ऐंसा था, मैंने यह किया, वह किया, मैं, मैं, मैं । यह सबसे बड़ी भूल है उसी डमरू की तरह।‘‘

‘‘ तो क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘

‘‘बिलकुल। सुनो! कक्षा दसवीं में वादविवाद प्रतियोगिता हार जाने पर बड़े दुख पूर्वक विलाप करते हुए मैं, माॅं के सामने यही कह रही थी कि मैं ने कितना पराक्रम किया , कितनी पुस्तकें पढ़ी , दिन रात एक कर दिये, सभी श्रोताओं ने मेरे प्रदर्शन  को कितना सराहा आदि, पर सब कुछ शून्य  में बदल गया। इस पर पिताजी बोले, राधा! जब तक तुम किसी भी अपेक्षा को लेकर कार्य करती रहोगी तुम्हें दुख ही मिलेगा, पर जब तुम नाटक के कलाकार की तरह यह सोचकर कार्य करोगी कि वह तो निर्देशक के निर्देशों  से बंधा है इसलिये अपनी प्रत्येक  भूमिका उसी को प्रसन्न करने के लिये है चाहे उसमें उसे रोना पड़े, हॅंसना पड़े , भीख माॅंगना पड़े , झाड़ू लगाना पड़े या लड़ना भिड़ना पड़े । जिस प्रकार कलाकार को नाटक में जैसी भूमिका दी जाती है उसे वैसा ही प्रदर्शन  करना पड़ता है उसी प्रकार इस स्रष्टि मंच के हम सब कलाकार हैं और स्रजनकर्ता परमात्मा निर्देशक। हमें निर्पेक्ष होकर, उसी की प्रसन्नता के लिये, उसी का कार्य समझकर , जीवन के सभी कार्य करना चाहिये तभी सच्चा आनन्द मिलता है, अन्यथा डमरू की तरह दंभ भरते रहो पर अंत में रह जाता है केवल खड़ खड़ खड़ करना।‘‘

‘‘यह क्या दार्शनिकों  की तरह बात करती हो?‘‘

‘‘ हाॅं ! यही सच्चा जीवन दर्शन  है, मैं ने तो तभी से हर कार्य, ईश्वर  की प्रसन्नता के लिये उन्हीं का कार्य समझते हुये, बिना किसी अपेक्षा के करने का प्रण कर लिया था, चाहे पढ़ना लिखना हो, बालबच्चे पालना हो, घर गृहस्थी सम्हालना हो, या सामाजिक नाते रिश्ते  निभाना हो। बस मैं तो सदा यही सोचती हॅूं कि मेरी प्रत्येक भूमिका से उन्हें लगातार प्रसन्नता मिले भले मुझे कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े।‘‘

‘‘ ओह, राधा! तुम तो सचमुच की राधा निकलीं परंतु मैं ही शायद अपने को श्याम  नहीं बना पाया! ! !‘‘

Sunday, 24 January 2016

44 बाबा की क्लास (मृत्यु के बाद )

44 बाबा की क्लास (मृत्यु के बाद )
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नन्दू-  बाबा! कुछ विद्वानों का मत है कि ‘‘यावज्जीवेत् सुखेनजीवेत, ऋणंकृत्वा घृतं  पिवेत। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः। अर्थात् जब तक जियो सुखपूर्वक जियो भले ही ऋण लेना पड़े परंतु घी पियो , क्योंकि मरने के बाद शरीर के जला दिये जाने पर पुनरागमन कैसे हो सकता है‘‘ ?

बाबा- यह 'चार्वाक' का सिद्धान्त है, इसके अनुयायी सब कुछ शरीर को ही मानते हैं और पुनर्जन्म को नहीं मानते। जबकि तुम लोग तो यह अच्छी तरह जानते हो कि शरीर को मृत तभी घोषित किया जाता है जब उससे इकाई मन अपने संस्कारों को लेकर पृथक हो जाता है। जब तक प्रकृति उसे शेष बचे और नये अर्जित संस्कारों को भोगने योग्य शरीर उपलब्ध नहीं करा देती है वह उपयुक्त शरीर को तलाशने के लिये भटकता रहता है। इसलिये यह कहना कि देह के भस्मीभूत हो जाने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता गलत है। देह तो मन को अपने संस्कारों को भोगने के लिये प्रकृति के द्वारा दिया गया साधन है, इससे इसकी सीमा से अधिक कार्य नहीं लिया जा सकता इसलिये इसे छोड़ना ही पड़ता है। यह पुर्नजन्म तब तक होता रहता है जब तक सभी अच्छे और बुरे संस्कार भोग नहीं लिये जाते। सभी संस्कारों के क्षय हो जाने पर जब इकाई मन (unit mind) अपनी मूल अवस्था अर्थात् भूमा मन (cosmic mind) में मिल जाता है तो फिर पुर्नजन्म नहीं होता है।

रवि- अनेक धर्मों में यह कहा गया है कि मरने के बाद कर्मानुसार स्वर्ग या नर्क में रहना पड़ता है अर्थात् ये स्थान पृथ्वी से भिन्न कहीं अन्यत्र माने गये हैं। परंतु ‘आनन्दसूत्रम् में कहा गया है कि " न स्वर्गो न रसातलः " ?

 बाबा- यदि इसे इस प्रकार कहें कि सब कुछ तो परमपुरुष की ही रचना है तब  स्वर्ग और नर्क दोनोें के स्वामी वही हुए।  उपनिषदों में भी कहा गया है  "उतामृतस्येशानो  = उत + अमृत + ईशान"। उतः का अर्थ है नर्क , अमृतस्य का अर्थ है स्वर्ग का , और ईशानः का अर्थ है स्वामी या नियंत्रण करने वाला । अतः यदि उन परमपुरुष का ही आश्रय लिये रहें तो स्वर्ग हो या नर्क वह भी साथ साथ ही रहेंगे कि नहीं? परंतु क्रूर सच्चाई यह है कि स्वर्ग और नर्क कोई ऐंसी जगहें नहीं हैं जो कि पृथ्वी के ऊपर या नीचे हों । ये, इकाई मन (unit mind) अर्थात् मानव मन की विभिन्न पाॅंच पर्तें हैं दार्शनिक  इन्हें कोश  या लोक कहते हैं। इनके नाम हैं , अन्नमय या काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय। ये पाॅंचों भूलोक और सत्यलोक के बीच मानी गईं हैं, भूलोक अर्थात् पृथ्वी पर मनुष्य और सत्यलोक पर परमपुरुष का आधिपत्य माना गया है परंतु ये सभी एक ही परमपुरुष के मन (cosmic mind)  के भीतर ही हैं क्योंकि उपनिषदों मेें कहा गया है कि ‘‘ सर्वं खल्विदम् ब्रह्म‘‘ अर्थात् यह सबकुछ उन परमब्रह्म की ही विचार तरंगें हैं। निर्पेक्ष रूप से इन्हें क्रमशः  भूः, भुवः, स्वः महः जनः तपः और सत्यम कहा जाता है। पुनः स्पष्ट किया जाता है कि यह सब पृथक पृथक स्थान नहीं हैं वरन् वैज्ञानिक आधार पर परमपुरुष की सगुणावस्था में भूमा मन (cosmic mind)  की विभिन्न विचार तरंगों के समूह (wave patterns) माने जाते हैं। भूलोक में भौतिक जगत और उसमें होने वाली सभी गतिविधियाॅं आती हैं, मनुष्य, पशु , वनस्पति , ठोस, द्रव आदि इसी लोक की वस्तुएं हैं। भुवः लोक में वे सभी निर्माणाधीन अस्तित्व आते हैं जिन्होंने कोई आकार या रूप अब तक धारण नहीं किया है (अर्थात् पदार्थ की चतुर्थ अवस्था जिसे ‘प्लाज्मा स्टेट‘ कहते हैं) को इसके अन्तर्गत माना जाता है। स्वःलोक, सूक्ष्म मन या मानसिक संसार या मनोमय कोश  कहलाता है, यहीं पर सुख या दुख की अनुभूति होती है इसीलिये मनुष्य इसे स्वर्ग लोक कहने लगे  (स्वः + ग = स्वर्ग )। जब किसी मनुष्य को अपने शुभ किये गये कार्य से संतुष्ठि होती है तो उसे जो आनन्दानुभूति होती है वही स्वर्ग है और अनुचित कार्य करने वाले का असंतुष्ठ मन हमेशा  दुख का अनुभव करता है यह उसके लिये नर्क हो जाता है। इसलिये स्वर्ग और नर्क केवल मन की अवस्थायें हैं और वे इसी भौतिक जगत में ही हैं कहीं अन्य स्थान पर नहीं। यह मनोमय कोश  ही है जो आपके साथ ही रहता है अतः स्वर्ग लोक हमेशा  आपके साथ ही है और आप यदि कल्याणकारक कार्य से जुड़े हैं तो आप साधारण व्यक्ति से असाधारण व्यक्ति के रूप में स्वर्ग में ही हैं अन्यथा की स्थिति में नर्क में। इसलिये वे लोग भले ही पंडित कहलाते हों या नहीं, यदि स्वर्ग और नर्क की कहानियाॅं सुनाकर उनके  अलग स्थान पर होने की शिक्षा देते हैं तो वे भ्रामकता की ओर ले ही जाते हैं।

इंदु- परंतु कुछ विद्वानों ने तो नर्क के भी अनेक स्तरों का वर्णन किया है और कहा है कि जघन्य पाप करने वाले ‘रसातल‘ को जाते हैं?

बाबा- मन की अपरिपक्व अवस्था ही नर्क का आधार होती है और इसी अपरिपक्वता के स्तर को उसकी गहनता के आधार पर सात स्तरों में समझाया गया है जिन्हें तल, अतल, वितल, तलातल, पाताल, अतिपाताल, और रसातल नाम दिये गये हैं। अविद्या की उपासना से घोर पाप कर्म (inhuman deeds) से जुड़े व्यक्ति से कहा जाता है कि रसातल के अंधकार में  जाओगे, इसका मतलब यही है मन का स्तर इतना निम्न हो जायेगा  कि वह ज्ञान का प्रकाश  नहीं पा सकेगा अतः अंधकार में रहेगा, मन की निम्नतम (crudest state of mind)  अवस्था में पड़ा रहेगा । इसी तरह उन्नत मन की उच्चतर अवस्थाओं को महः ,जनः ,तपः और सत्यम कहा गया है। सत्यम और हिरण्यमय कोश एक ही हैं । हिरण्यमय का अर्थ है स्वर्णमय , सोने जैसा । योग और विद्यातन्त्र में यह स्वीकार किया गया है कि परमपुरुष हिरण्यमय कोश  के पर्दे के पीछे रहते हैं। यथार्थता यह है कि जब साधना के द्वारा मन को इतना पवित्र और स्वच्छ कर लिया जाता है कि उसमें किसी भी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता हो तो वह स्वर्ण की भाॅंति काॅंतिमान लगता है और परमसत्ता का पूर्णतः  परावर्तन उसमें होने लगता है और फिर इकाई मन और भूमा मन अर्थात् परमपुरुष के मन में कोई अन्तर नहीं रहता यह अवस्था आत्मसाक्षात्कार कहलाती है।  इसलिये कर्मों के अनुसार ही मन की विभिन्न अवस्थायें होती रहतीं हैं इसलिये कोई भी व्यक्ति अपनी मानसिक अवस्थाओं के अनुसार एक ही दिन में अनेक बार स्वर्ग और नर्क की यात्रा करता रह सकता है। इसलिये विद्यातंत्र वह विधि समझाता है जिससे हमेशा  ब्रह्मभाव में मन को बनाये रखने पर वह स्वर्ग और नर्क दोनों से ऊपर रहने लगता और क्रमशः  परमपुरुष के निकट होता जाता है।

चंदु- इस संबंध में आधुनिक मनोविज्ञान में क्या कहा गया है?
बाबा- आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार मनोमय कोश  को अवचेतन मन (subconscious mind) कहते हैं। यह विज्ञान कहता है कि अवचेतन मन में हमारे भूतकाल के अनेक जन्मों और वर्तमान की सभी स्मृतियों का संग्रह होता है। विना अवचेतन मन के हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते क्योंकि सभी ज्ञान और स्मृति इसी में केन्द्रित रहते हैं। मनोविज्ञान में मन के केवल तीन स्तर माने गये हैं चेतन (conscious) अवचेतन (subconscious) और अचेतन (unconscious) जबकि योग विज्ञान में अचेतन को भी तीन और स्तरों में बाॅंटा गया है अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय, जो मन की क्रमानुसार अत्यन्त कम आवृत्तियों की सूचक हैं। अतिमानस पराज्ञान, विज्ञानमय पराशक्तियों  और हिरण्यमय परम उपलव्धियों का क्षेत्र है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्रत्येक अस्तित्व की मूल आवृत्ति (fundamental frequency) होती है और यह जड़ता (crudity)  की ओर अधिक और सूक्ष्मता (subtlety) की ओर कम होती जाती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि मन की आवृत्ति का अत्यधिक बढ़ जाना जड़ता अर्थात् पर्वत या पत्थर हो जाना या नर्क की ओर जाना, और आवृत्ति का लगभग शून्य  हो जाना अर्थात् स्वयं को जान लेना या परमात्मा अर्थात् स्वर्ग को पा लेना ही है। परमात्मा की तरंगदैर्घ्य  (wave length) अनन्त कही गई है अर्थात् आवृत्ति शून्य  अर्थात् हिरण्यमय कोश । योग का व्यावहारिक ज्ञान और विद्यातंत्र की व्यावहारिक विधियाॅं अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय क्षेत्रों की यात्रा कराते हुए अन्त में परमात्मा से एकाकार करा देती हैं जो मानव मात्र के जीवन का लक्ष्य है।

राजू- तो क्या सभी को केवल दिन रात विद्या की साधना और उपासना  ही करते रहना चाहिये?
बाबा- हाॅं! यहाॅं यह भी स्पष्ट समझना लेना उचित होगा कि अकेली अविद्या अथवा अकेली विद्या की उपासना से निर्धारित लक्ष्य कभी भी प्राप्त नहीं होगा क्योंकि दोनों एक दूसरे के सापेक्षिक होती हैं। विद्या के क्षेत्र में प्रगति करने के लिये प्रारंभिक रूप से अविद्या उतनी ही सहायक होती है जितना कि पृथ्वी पर आगे गति करने के लिये घर्षण। इसलिये अविद्या की केवल इतनी ही आवश्यकता पर्याप्त होती है। उपनिषदों का स्पष्ट निर्देश  है कि  
‘‘अंधं तमः प्रविशन्ति ये अविद्यां उपासते, ततो भूय एव ते तमो य उ विद्यायां रताः।‘‘
अर्थात् अकेली  अविद्या की उपासना करने वाले अंधे कुए में जाते हैं और अकेली विद्या की उपासना करने वाले उससे भी अधिक अंधे लोक में जाते हैं। इसका अर्थ भी मन की जड़ोन्मुखी और सूक्ष्मस्तरोन्मुखी गतियाॅं हो जाना ही है।


Sunday, 17 January 2016

43 बाबा की क्लास (संसार में लोग कैसे रहें)

43   बाबा की क्लास
(संसार में लोग कैसे रहें)
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नन्दू- बाबा! आपने तो इतनी गंभीर बातें बताई हैं कि जीवन जीना बड़ा ही कठिन सा लगता है, डर भी लगता है कि क्या हम इसी प्रकार भटकते ही रहेंगे?
बाबा- हमने तो तुम लोगों को तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से वह सब समझाने का प्रयास किया है जो प्रायः अधिकाॅश  लोग नहीं जानते या जो कुछ लोग जानते भी हैं तो वह अपूर्ण होने के कारण वे स्वयं भ्रमित रहते हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते रहते हैं। सभी मनुष्यों को चाहिये कि वे इस ब्रह्म चक्र और प्रकृति की कार्यप्रणाली का उद्देश्य  अच्छी तरह समझ लें फिर अपने विवेक के अनुसार अपने जीवन को जीने के ढंग को स्वयं निर्धारित कर लें।

रवि- परंतु बात यह है कि हम जितना अधिक दार्शनिक  सिद्धान्तों में घुसते जाते हैं उतना ही व्यावहारिक कठिनाई का अनुभव करते हैं?
बाबा- बात सही है, परंतु सगुण ब्रह्म द्वारा निर्मित  इस संसार की रचना का उद्देश्य  यही है कि प्रत्येक इकाई चेतना को वह अपनी तरह मुक्त अवस्था में ले लायें। मनुष्यों में परम चेतना का पूर्णतः परावर्तन होने के कारण वे स्वतंत्र कार्य करने और अच्छे बुरे के भेद को समझने की क्षमता रखते हैं। सृष्टिचक्र के अंतिम पद में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते समय ‘मनुष्य‘ जैसी कुछ इकाइयाॅं ही पूर्णतः परावर्तित चेतना में दिखाई देती हैं। इकाई चेतना जैसे ही सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जाता है ।

इंदु- सगुण ब्रह्म और प्रकृति के बीच यह समझौता स्रष्टि के प्रारंभ में ही हो गया लगता है अन्यथा प्रकृति जो सगुण ब्रह्म को अधिकाधिक गुणों में बांधे रहना चाहती है, उसे अपने प्रभाव से कैसे मुक्त करेगी?
बाबा-  मनुष्यों की इकाई चेतना पशुओं  की इकाई चेतना की तुलना में प्रकृति से कम प्रभावित पाई जाती है। इकाई चेतना पर प्रकृति के प्रभाव का कम होना सगुण ब्रह्म की कृपा पर निर्भर होता है। स्रष्टि के प्रारंभ में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति करते समय प्रकृति अपनी इच्छा से पुरुष अर्थात् सगुण ब्रह्म को अपने बंधन से ढील दे देती है, परंतु इकाई चेतना बंधन में ही रहती है क्योंकि स्रष्टि के स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने का क्रम कभी समाप्त नहीं होता, अतः इस वशीकरण की स्थिति में कोई सचेत अस्तित्व आत्मनिर्भरता से कार्य करने लगता है तो प्रकृति अपने स्वभावानुसार उसे दंडित करती है। यही कारण है कि इकाई चेतना के सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की गति प्रभावित होती है। स्रष्टि में यह देखा जाता है कि जहां चेतना का परावर्तन स्पष्ट है वहां प्रकृति का प्रभाव कम है। अतः यदि इकाई चेतना अपनी चेतना के परार्वतन को विस्तारित करते हुए बढ़ा सके तो उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जायेगा और उसे  शीघ्र ही पूर्ण सूक्ष्मता प्राप्त करना संभव होगा।

रवि- बात फिर वहीं आ पहुंची, आप ने अनेक कठिन सिद्धान्तों को सरल कर समझा तो दिया है परंतु हमें उनको व्यवहार में लाने के लिये वर्तमान समय में अनेक कठिनाइयाॅं आ रही हैं, ज्वलंत समस्या तो यह है कि, हम अपनी इकाई चेतना के परावर्तन को किस प्रकार विस्तारित करें जिससे हमारा आगे का पथ कष्टरहित हो सके?
बाबा- इसके लिये हम पहले भी अनेक बार बता चुके हैं कि हमें अपने शत्रुओं और बंधनों को पहचानकर उनसे मुक्त होने का सबसे पहले प्रयास करना चहिये फिर हमारे रास्ते में कोई बाधा नहीं आ सकेगी। काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, और मात्सर्य येे छः शत्रु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये आठ बंधन है। ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। आठ प्रकार के बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

नन्दू- इन शत्रुओं और बंधनों से बचने के लिये हमें क्या करना चाहिये?
बाबा- हमें इन शत्रुओं और बंधनों से लगातार संघर्ष करते रहना चाहिये इसके लिये सक्षम और पुरश्चरण  की क्रिया में प्रवीण गुरु के पास जाकर अपनी मूल आवृत्ति वाला बीज मंत्र सीखकर उन  शत्रुओं  पर उसका आघात करने से  षत्रुओं पर विजय मिल जाती है और मधुविद्या अर्थात् गुरुमंत्र की सहायता से अष्ट बंधन भी कट जाते हैं और नये बंधन भी नहीं बन पाते। इस प्रकार विद्यामाया का अनुसरण करने वाले अर्थात् चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न करने वाले चार प्रकार के लोग पाये जाते हैं, पहले वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं और अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने में संलग्न रहते हैं ये अच्छी श्रेणी के लोग कहलाते हैं। दूसरे वे जो प्रकृति के नियमों का पालन तो करते हैं पर अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न नहीं करते। तीसरे वे जो न तो प्रकृति के नियमों का पालन करते है और न ही चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का कार्य ही करते हैं। ये निम्न स्तर के लोग कहलाते हैं। चौथे वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते और अपनी चेतना के अवमूल्यन करने के लिये भागीदार होते हैं। ये निम्न से भी निम्न कोटि के मनुष्य कहलाते हैं। सगुण ब्रह्म का मानवों को निर्मित करने का उद्देश्य  यही है कि वे अपनी गति से सूक्ष्मता की ओर बढ़कर उच्चतम स्तर प्राप्त करें। यह मानव का धर्म है। उच्चतम स्तर पर वापस पहुॅंचने के लिये इकाई चेतना का उन्नयन आवश्यक  है अतः उसकी सभी क्रियाएं प्रकृति के नियमों के अनुकूल होना चाहिये जिससे वह प्रगति में रोड़े न अटकाये। अतः प्रथम श्रेणी के व्यक्ति अर्थात् अच्छे व्यक्ति अपने प्राकृत धर्म का पालन करते हुए सूक्ष्मता की ओर बढ़ते जाते हैं, सही अर्थों में ये ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं ।

चंदू- आपने अनेक बार बताया है कि मनुष्येतर प्राणी प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं तो वे मनुष्यों से भिन्न क्यों होते हैं?
बाबा-  पशु और अन्य मनुष्येतर प्राणी  भी प्राकृत धर्म का पालन करते हैं परंतु उनमें चेतना का स्पष्ट परावर्तन न होने के कारण वे अपनी चेतना के उन्नयन का प्रयास नहीं कर पाते । अतः वे जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते पशुओं से भिन्न नहीं हैं। वे अपनी इकाई चेतना में होने वाले पूर्ण परवर्तन का उपयोग नहीं कर पाते अतः वे मानव के रूप में परजीवी ही कहे जावेंगे। पूर्वोक्त  तीसरी और चौथी केटेगरी के लोग तो परजीववियों से भी गये गुजरे कहलाते हैं क्योंकि परजीवी तो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपना उन्नयन इसलिये नहीं कर पाते कि उनमें इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन नहीं होता है। प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए अन्य प्राणी भी समय आने पर अपनें में स्पष्ट परावर्तित चेतना का विकास कर लेते हैं, जबकि तीसरी और चौथी केटेगरी के लोग अपने में इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन होने के वावजूद प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं।

रवि- आप तो हमें अपना वह निष्कर्ष समझा दीजिये जिससे हमारे जीवन जीने का क्रम सरल हो और हम अपने निर्धारित लक्ष्य तक बिना किसी बाधा के पहुॅच सकें?
बाबा- हमने बार बार यह कहा है कि मनुष्य जीवन का मूल लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है , अतः सात्विक भोजन द्वारा यम नियमों का पालन करते हुए, सात्विक कार्योंं से उतना धन अर्जित करना चाहिये जितना स्वयं के जीवनयापन हेतु अनिवार्य है इससे अधिक नहीं और न ही संग्रह करना चाहिये। यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिये कि जिसका भलीभाॅंति, सरलता पूर्वक रक्षण न कर सकें उसका संग्रह कभी न करें , इससे अनावश्यक  चिंतायें नहीं आ सकेंगी और भगवद् ध्यान चिंतन के लिये समय मिलता जायेगा नहीं तो चिंताओं का अंबार लगा रहेगा और उसी की उधेड़बुन में सब कुछ धरा रह जायेगा। मन और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहें इसके लिये नियमित रूप से दोनों समय ईश्वर  प्रणिधान और योगासनों को करते रहना चाहिये। सामान्यतः सर्वांगासन, मत्स्यासन, मत्यमुद्रा, नौकासन, और शशकासन, मत्स्येन्द्रासन, कर्मासन आदि नियमित रूप से करते रहने से शरीर में अनावश्यक  यूरिक एसिड और कैल्सियम आदि का जमाव नहीं हो पाता और शरीर लचीला बना रहता है और किसी भी प्रकार के रोगों से शरीर अपना बचाव स्वयं ही करता रहता है। योगासनों और अष्टाॅंगयोग का नियमित पालन करने वाला शरीर सदैव निरोग रहता है उसे औषधियों की आवश्यकता  नहीं होती। भोजन का सार तत्व लसिका (limph) मस्तिष्क का भोजन है अतः इसे संरक्षित रखना चाहिये। एक माह के भोजन करने में चार दिन के भोजन के बराबर लिंफ अतिरिक्त हो जाता है जिसे शरीर में ही अवशोषित बनाये रखने के लिये दोंनों एकादशियों, अमावश्या  और पूर्णिमा को निर्जल उपवास करना चाहिये। सन्तानोत्पत्ति के लिये ही इस अतिरिक्त लिंफ का उपयोग करना चाहिये अन्यथा नहीं । यह सावधानी रखने पर ही गुणवान और जीवन सार्थक करने वाली संतान पैदा होगी अन्यथा अरबों  की भीड़ में वे भी शामिल होते जावेंगे।

Sunday, 10 January 2016

42 बाबा की क्लास (कर्मफल)

42 बाबा की क्लास (कर्मफल)

राजू- अनेक लोग कहते हैं कि बुरे काम करने वालों को भगवान दंड देते हैं ?

बाबा- भगवान कोई दंडाधिकारी नहीं हैं जो विभिन्न धाराओं के अनुसार केवल दंड देने के लिये ही बैठे हैं, वास्तव में वह अपनी विचार तरंगों के मूर्तरूप इस स्रष्टि चक्र को चलाने के लिये प्रकृति को उत्तरदायित्व देकर अपनी लीला का आनन्द ले रहे हैं । इसलिये प्रत्येक मनुष्य को अपने किये  अच्छे या बुरे कर्मों का फल प्रकृति ही क्रमानुसार उपलब्ध कराती रहती है, और कर्ता को भोगना ही पड़ता है।

चंदू- तो हम यह  कैसे जाने कि कोई कर्म अच्छा है या बुरा?

बाबा-  अच्छे कार्य वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए, चेतना के परावर्तन को विस्तारित करते हैं, यह विद्यामाया के द्वारा प्रेरित होते हैं। बुरे कार्य अविद्यामाया से प्रेरित होते हैं। वे कार्य जो प्रकृति के नियमों के विपरीत होते हैं और चेतना के परावर्तन को फीका कर देते हैं बुरे कार्य हैं।

रवि- लेकिन किसी को भी पहले से यह मालूम नहीं होता कि कौन सा कार्य प्रकृति के अनुकल है या प्रतिकूल फिर भी कर्म तो करते ही जाते हैं तब इस प्रकार के कष्ट से कैसे बचा जा सकता है?

बाबा- प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिये विद्यामाया के सहयोगी विवेक और वैराज्ञ हैं जो इस प्रकार के उत्तम कार्य कराने में सहायता करते हैं। अच्छे और बुरे में भेद करने की क्षमता को विवेक कहते हैं, जैसे अलकोहल का नशे के रूप में उपयोग बुरा और दवा के रूप में उपयोग अच्छा, यह ज्ञान विवेक कहलायेगा। इस तरह एक ही बस्तु के अलग अलग उपयोग करने से वह अच्छी या बुरी मानी जाती है। वैराज्ञ का अर्थ संसार को छोड़ कर एकान्त में अत्यंत सादगी से तपस्वी जीवन जीना नहीं है, यह तो प्रत्येक वस्तु का समुचित उपयोग करते हुए उसे समझने का साधन प्राप्त करने का प्रयास है। इसलिये वैराज्ञ का पालन करने के लिये विवेक का रहना आवश्यक  है। विवेक और वैराज्ञ से विस्तारित चेतना के प्रभाव से प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने के कष्ट का अनुभव नहीं होता।

इंदु- बाबा! इससे पहले आपने बताया था कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होने के कारण कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इससे कोई भी बच नहीं सकता, अपने अपने कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। परंतु अनेक लोग ऐसे भी है जो कर्मफल भोगने से बचने के लिये अन्य तरीके जैसे ग्रहशान्ति , हवन आदि से प्रायश्चित  करना आदि ,अपनाते हैं, उनकी ये विधियाॅं कितनी सार्थक  होती है और क्या वे इस कर्मफल के भोगने से बच पाते हैं ?
बाबा- कुछ लोगों का विश्वास  है कि ग्रहशान्ति  करने और प्रायश्चित करने  में या हवन करने से वे कर्मफल भोगने से बच जावेंगे। उनका यह विश्वास  गलत है क्योंकि प्रकृति के नियमों के अनुसार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना अनिवार्य है, मन अपनी सामान्य अवस्था में तभी आ पायेगा जब वह प्रतिक्रिया प्राप्त कर ले । प्रकृति के इस नियम को कोई नहीं बदल सकता। परंतु कर्मफल भोगने की गति को धीमा या तेज किया जाना संभव है जो मन को वापस सामान्य अवस्था में ले आएगा। जैसे, मानलो किसी कर्मफल को भोगने में एक माह लगता है तो विद्यातंत्र की सहायता से उसे एक दिन में या एक वर्ष में पूरा करना संभव है जो इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे कितना त्वरित किया गया है या मंदित, परंतु उसे पूर्णरूप से समाप्त करना कभी भी संभव नहीं है। किसी को एक माह में वापस करने की शर्त पर एक सौ रुपये दिये गये तो यह संभव है कि कर्ज देने वाला एक माह की जगह एक वर्ष में वापस करने को राजी हो जावे पर उधार लिया गया धन तो वापस करना ही पड़ेगा। ऋण वापस करने की अवधि में परिवर्तन संभव है पर धन वापस करने से माफी नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति के खाते में एक सौ पचास रुपये  इस शर्त पर जमा किये गये हैं कि वह पाॅंच रुपये प्रति दिन की दर से खर्च करेगा तो वह चाहे उन्हें एक दिन में ही खर्च कर दे या शर्त के अनुसार  एक माह में व्यय करे, जमा किया गया धन जमा कर्ता के द्वारा ही उपयोग किया जावेगा अन्य के द्वारा नहीं, वह एक दिन में करे या एक माह में।

नंदू- बाबा! जब कर्मफल भोगना ही पड़ता है तो विद्यातन्त्र ऐंसा क्या करता है कि वह कर्मफल भोगने की गति को तेज या धीमा कर दे?
बाबा- विद्याताॅंत्रिक क्रियायें, विवेक और वैराज्ञ पूर्वक कर्म करने को प्रेरित करती हैं जिससे विस्तारित चेतना के प्रभाव से प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने के कष्ट का अनुभव नहीं होता है। परंतु कर्मफल का भोगना या भाग्य नहीं बदला जा सकता। कर्मफल तो व्यक्ति को भोगना ही पड़ेगा हाॅं भोग करने के समय को लंबा या छोटा किया जा सकता है। जैसे, ऋणकर्ता को एक साथ रुपये लौटाने में अधिक मानसिक कष्ट होगा परंतु किश्तों  में लौटाने पर समय अधिक लगेगा पर मानसिक कष्ट की मात्रा समय के विस्तार में अधिक प्रतीत नहीं होगी। इस प्रकार विद्यातंत्र की सहायता से कष्ट भोगने के समय का विस्तार हो जाने से कष्ट की तीब्रता घट जाने पर लगता है कि कर्मफल नहीं भोगना पड़ा। उदाहरणार्थ, किसी के भविष्य में हाथ टूटने की घटना होना है तो उसे इसके स्तर की मानसिक पीड़ा भोगना पड़ेगी, परंतु विद्यातंत्र साधना से उसके हाथ के टूटने को रोका जाकर उतना ही मानसिक कष्ट भुगतने के लिये छोटी छोटी घटनाओं में बदलकर लम्बे समय तक चलाया जा सकता है परंतु उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। कष्ट लंबे समय तक छोटी छोटी घटनाओं में बदल गया जैसे, हाथ में पहले खरोंच आ जाये फिर बीमार पड़ जाये आदि, उसे कष्ट भले ही किश्तों  में भोगना पड़े पर जब तक हाथ टूटने के कष्ट के बराबर मानसिक कष्ट नहीं भोग लिया जावेगा तब तक कर्मफल समाप्त नहीं होगा। जिस प्रकार कर्मफल भोगने का समय बढ़ाया जाना संभव है उसी प्रकार उसे घटाना भी संभव है। यही कारण है कि वे लोग जो इसी जीवन में मुक्त होने के लिये परम पुरुष की साधना करते हैं वे कष्ट और सुख अतिशीघ्रता से अनुभव करते हैं जिससे वे यथा संभव कम समय में अपने कर्मफल को भोग लें। इस तरह उन्हें आगे भोगने के लिये और प्रकृति के बंधन में फॅंसाने के लिये कुछ भी नहीं बचता।

रवि- कुछलोग सोचते हैं कि बुरे कामों के परिणाम भोगने से बचने के लिये उन्हें अच्छे  कामों द्वारा   संतुलित करना चाहिए अर्थात् यदि अच्छे और बुरे कर्म बराबर बराबर हो जावेंगे तो फिर उनके परिणाम एकदूसरे को उदासीन कर देंगे और फिर भोगने के लिये कुछ न बचेगा। क्या यह सही है?

बाबा- यह न तो होता है और न ही संभव है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि चाहे अच्छे कर्म हों या बुरे वे मन पर अपना प्रभाव डालकर उसमें विरूपण उत्पन्न करते हैं। मन को पूर्वावस्था में आने के लिये अर्थात् इस विरूपण को दूर करने के लिये बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना आवश्यक  है। इसलिये बुरे कार्य को करने से हुआ मन का विरूपण अच्छे कार्य से नहीं दूर किया जा सकता क्योंकि वह मन पर अन्य प्रकार का  विरूपण ही उत्पन्न करेगा। प्रत्येक कार्य की स्वतंत्र बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना चाहिए। स्वतंत्र क्रिया से जब मन का प्रत्येक विरूपण हट जाता है तो व्यक्ति को क्रमागत रूप से अच्छे या बुरे कर्म के अनुसार पृथक पृथक परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिये  कोई भी व्यक्ति बुरे काम के परिणाम अच्छे कामों से उदासीन नहीं कर सकता। अच्छे काम का अच्छा और बुरे काम का बुरा परिणाम अलग अलग अनुभव किया जाता है यह प्रकृति का नियम है। इसप्रकार,  यह सिद्ध हुआ कि कर्मफल का भोगना टाला नहीं जा सकता। भगवान को दोष देना या परिणाम से बचने के लिये उनसे प्रार्थना करना केवल मूर्खता है। जिसने कर्म किया है उसे ही फल भोगना होगा। यदि तुम आग में हाथ डालते हो तो वह जलेगा ही वैसे ही प्रकृति का यह भी नियम है कि कर्म की प्रतिक्रिया होगी ही, भगवान उसके लिये दोषी नहीं हैं उसके लिये कर्म का कर्ता ही उत्तरदायी है।

इंदु- बाबा! भगवान की स्तुति और प्रार्थना से कर्मफल भोगने में कुछ कन्शेसन  तो मिलता होगा?

बाबा- प्रार्थना में कोई वाॅंछित बस्तु की चाह होती है अर्थात् यह एक प्रकार से  परम सत्ता के पास किसी लाभ के लिये भेजे जाने वाली पवित्र याचिका ही है। याचिकाकर्ता सोचता है कि उसे जो चाहिये है वह ईश्वर से  माॅंग ले क्योंकि वह, केवल अपनी इच्छा से ही उसकी पूर्ति कर सकते हैं। प्रार्थना से या माॅंगकर, क्या वह ईश्वर  को यह बताना नहीं चाहता कि उसके पास जो नहीं है वह प्राप्त हो जाये। इसका क्या यह अर्थ नहीं है कि वह ईश्वर  को याद दिला रहा है कि जिन चीजों से उसे वंचित रखा गया है वे दी जावें अन्यथा प्रार्थना की कोई आवश्यकता  नहीं थी। मानलो कोई व्यक्ति इस विश्वास  के साथ कि केवल भगवान ही मुझे धन दे सकते हैं, प्रार्थना करता है तो क्या यह, प्रकट नहीं करता कि ईश्वर  ने उसके साथ भेदभाव किया है क्योंकि जब केवल ईश्वर  ही धन दे सकता है तो उसने अन्य सब को दिया पर उसे वंचित रखा। अतः यह तो ईश्वर  पर आक्षेप लगाना और उसकी गलती बताना ही सिद्ध हुआ। इससे केवल यही अनुमान लगाया जा सकता है कि ईश्वर  ने भेदभाव कर किसी को धनी और किसी को गरीब बनाया है। अतः जब प्रार्थना से यह निष्कर्ष निकलता है तो प्रार्थना करना व्यर्थ है। किये गये कर्म का फल स्वयं को भोगना पड़ता है ईश्वर  पर आरोप लगाना अज्ञानता है। आग में हाथ डालने से वह अवश्य  ही जलेगा प्रार्थना से उसे बचाया नहीं जा सकता, क्योंकि प्रार्थना स्वीकार करने पर या तो ईश्वर  को आग के जलाने के गुण को समाप्त करना पड़ेगा या फिर हाथ की संरचना में परिवर्तन कर ऐंसा बनाना पड़ेगा कि वह न जले, जो कि असंभव है। ईश्वर  की रचना में कोई  त्रुटि नहीं है क्योंकि उसकी छोटी या बड़ी सभी चीजें अपने अपने धर्म का पालन करतीं हैं, अन्यथा प्रत्येक पद पर अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती। इसलिये किसी की प्रार्थना को स्वीकार करने के लिये ईश्वर  अपने नियमों में परिवर्तन नहीं करेंगे। इसलिये प्रार्थना कर कुछ माॅंगने से केवल समय ही नष्ट होगा, वह भाग्य नहीं बदल सकती। स्तुति करना भी ईश्वर  के गुणों की भजन या गीत गाकर प्रशंसा  करना ही है। इसे चापलूसी करने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। जब कोई कुछ देने के योग्य होता है तो याचक उसकी प्रशंसा  कर चापलूसी करता है। इसी प्रकार ईश्वर  से कुछ पानें के लिये उसे याद कराना कि वे अंतर्यामी हैं, सर्वशक्तिमान हैं,  कृपालु हैं, कल्याणकारी हैं क्या चापलूसी नहीं है? इसलिये स्तुति भी प्रार्थना की तरह अप्रभावी होती है और केवल समय नष्ट करती है।

रवि-  जो लोग भक्त कहलाते हैं और ईश्वर  की भक्ति करते हैं वह भी तो प्रार्थना और स्तुति ही करते हैं तो उनका यह कर्म आपके अनुसार व्यर्थ ही हुआ?

बाबा-  भक्ति इनसे भिन्न है। भक्ति शब्द  संस्कृत  के 'भज्' और 'क्तिन' को संयुक्त करने पर बनता है, जिसका अर्थ है ‘‘ प्रेमपूर्वक पुकारना‘‘ यह स्तुति या चापलूसी या प्रार्थना नहीं है। यह ईश्वर  को प्रेम से पुकारना है।आप कह सकते हैं , इस पुकार का क्या औचित्य है? वास्तव में स्रष्टि में इकाई चेतना को सगुण ब्रह्म ने अवसर दिया है कि वह अपने सार्वभौमिक मूल स्तर में वापस आने का प्रयास कर सकती हैं जो उन्हें प्रेम से पुकारने पर ही संभव होता है। परम सत्ता की ओर जाने का एकमात्र रास्ता उन्हें प्रेम पूर्वक पुकारने के अलावा दूसरा नहीं है। मानव मन का स्वभाव यह है कि वह वैसा ही हो जाता है जैसा वह विचार करता है, जैसे कोई सोचता रहे कि वह पागल हो जावे तो वह वास्तव में पागल हो जावेगा क्योंकि उसके मन में वही विचार गूॅंजते रहते है। इसलिये इकाई चेतना जो परम चेतना की ओर तेजी से जाना चाहती है उसे उसके प्रति समर्पित होना होगा, इसे ही भक्ति  या उसे प्रेम से पुकारना कहते हैं। इकाई चेतना बार बार यह दुहराती है कि ‘‘मैं वही हूॅं‘‘ अतः समर्पित भाव से एक दिन वह परम चेतना ही हो जाती है। भक्ति का मतलब प्रार्थना या स्तुति करना नहीं है। पर कुछ लोग यह कहते है कि परम चेतना में मिल जाना या मुक्ति की चाह रखना भी एक प्रकार की प्रार्थना ही है। परंतु यह ऐंसा नहीं है, क्योंकि ईश्वर  ने मनुष्य को इसी उद्देष्य से बनाया है कि वह उसी की तरह परम स्तर पर वापस आये। अतः जब यह ईश्वर  की ही इच्छा है तो जो भक्ति के द्वारा ईश्वर  की इच्छा पूरा करने का प्रयत्न करता है उसे प्रार्थना करने की आवश्यकता  नहीं है। इसलिये भक्ति ही वह तरीका है जिसमें कोई भी परम चेतना में शीघ्र ही पूरी तरह समर्पित होकर परम पद पा सकता है। कर्मफल के भोग से बचने का कोई उपाय है ही नहीं, इसलिये बुरे काम छोड़ कर , जो दुख भोग रहे हैं उन से शिक्षा लेकर अच्छे काम में लग जाओ। जैसे हाथ को आग में डालने पर जलना ही पड़ेगा कोई प्रार्थना उसे नहीं रोक सकती अतः आगसे जलने से बचने का एक ही उपाय है कि हाथ को आग से बाहर खींच लो। इसी प्रकार जब बुरे कर्म होंगे ही नही तो बुरे परिणाम भी नहीं भोगने पड़ेंगे। कर्मफल भोगने संबंधी कठोर नियम प्रकृति ने मानवता की भलाई के लिये ही बनाया है। सगुण ब्रह्म के द्वारा स्रष्टि निर्माण करने का उद्देश्य प्रत्येक इकाई को मुक्त करने का है अतः  इस अर्थ में उन्हें सबसे अधिक लाभदायक माना जाना चाहिये। स्पष्ट है कि मनुष्य अज्ञानता के कारण ही कष्ट पाता है और ईश्वर  को दोष देता है। परंतु ज्ञानी लोग कष्टों से शिक्षा लेकर बुरे कामों से दूर रहते हैं।

Monday, 4 January 2016

41 बाबा की क्लास (कर्मविज्ञान)

41 बाबा की क्लास (कर्मविज्ञान)
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इंदु- बाबा! सभी लोग प्रायः यह कहते अवश्य  पाये जाते हैं कि कर्मफल भोगना ही पड़ता है, क्या कर्म के पीछे          भी कोई विज्ञान कार्य करता है?
बाबा- इस विज्ञान को समझने के लिये पहले उससे संबंधित मनोविज्ञान की इस शब्दावली और उनकी           परिभाषाओं को समझना  होगा जैसे ,
शम्भूलिंग: संसार के निर्माता की अलौकिक इच्छा से यह संसार चल रहा है। दर्शनशास्त्र  में परमपुरुष  की
                 इच्छा को शम्भूलिंग कहा गया है।
प्रत्ययमूलक कर्म: स्वतंत्रता पूर्वक किया गया कार्य, अर्थात् मूल कार्य(original action)
संस्कारमूलक कर्म: परिस्थितियों के दबाव में आभारी होकर किया गया कार्य, अर्थात् मूल कार्य
         की प्रतिक्रिया, (reaction to the original action) । व्यक्ति की परोक्ष इच्छा उसे,  ब्रह्माॅड में मूल क्रिया के
          कारण उत्पन्न असंतुलन को संतुलित करने के लिये, साधन बन जाती है।
अभिलाषा: अविद्या माया के प्रभाव से जब मन पर सांसारिकता की तरंगें प्रभावी होती हैं तो वह
         अपनी जड़ता में सीमित रहता है, इस स्थिति को अभिलाषा कहते हैं।
संकल्प: जब अभिलाषा की जडें गहरी हो जातीं हैं और मानसिक तरंगें द्रढ़तापूर्वक कार्य रूप में
         बदलना चाहतीं हैं, उसे संकल्प कहते हैं।
कृति: जब मन, प्राणेन्द्रिय और कर्मेंद्रिय के साथ जुड़कर कार्य करने लगता है तो उसे कृति कहते हैं।
अवधान: जब मन, प्राणेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय के साथ मिलकर विस्तारित होने लगता है तो उसे अवधान
        (advertence) कहते हैं।
        अभिलाषा, संकल्प, कृति, और अवधान सभी कर्म ही हैं। अवधान को तीन भागों में बाॅंटा गया है। अनवधान(inadvertence), चैत्तिकप्रत्यक्ष (perception), और प्रत्यय (conception)। जब भूतकालीन प्रत्यय स्मरणशक्ति के आधार पर पुनः मन में आ जाता है उसे तत्वज्ञान कहते हैं। तत्वज्ञान कई प्रकार के हो सकते हैं। जब साधना करते हुए जड़ मन (crude mind) सूक्ष्ममन (subtle mind) में  और सूक्ष्म मन, कारण मन (causal mind)  में मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देता है तो इससे उत्पन्न नयापन वस्तुओं को पूर्णतः भिन्न प्रकार से अनुभव कराने लगता है, इस नये प्रकार से अनुभव किये गये चैत्तिक प्रत्यक्ष को तत्वज्ञान या सिद्धज्ञान कहते हैं।
रवि- कर्म से उत्पन्न सुख और दुख की अनुभूति किसे होती है? किसी व्यक्ति का जीवन कैसा होगा यह कैसे निर्धारित होता है?
बाबा- सुख और दुख की अनुभूति केवल मानसिक क्षेत्र में ही होती है क्योंकि वहीं पर मानसिक अनुभवों के कंपन संचित होते हैं। इस सुख और दुख की अनुभूति से ही संस्कार (reactive momenta) उत्पन्न होते हैं। इसी से वासना या इच्छाएं भी जन्म लेती हैं और इन्हीं इच्छाओं के कारण कर्म करना पड़ता है। क्रिया और इच्छा को पृथक नहीं किया जा सकता। यदि मिट्टी का घड़ा, इच्छा को प्रकट करे तो  उसमें भरा पानी, प्रत्ययमूलक कर्म को प्रकट करेगा। पानी घड़े का ही रूप ले लेता है। पानी रूपी कर्म को इच्छा रूपी घड़े से बाहर निकालने की पद्धति साधना कहलाती है, वह क्रिया जिसमें इच्छारूपी घड़े का आकार बनता है कर्माशय ( bundle of reactive momenta) कहलाता है। मनुष्य का जीवन कैसा होगा यह उसके संस्कारों के बंडल की प्रकृति पर निर्भर करता है।
नन्दू- आध्यात्मिक कर्म जैसे साधना और उससे उत्पन्न परिणाम जैसे समाधि आदि से क्या कर्म बंधन होता है?
बाबा- आध्यात्मिक क्रियाएं या प्रतिक्रियायें जैसे समाधि और साधना, सुख और दुख से ऊपर होती हैं अतः उनसे कर्मबंधन नहीं होता। जब कर्मकम्पन इच्छा के क्षेत्र में घुस जाते हैं तो इसे संस्कार अर्थात् reaction in potentiality  कहते हैं। संस्कारों का क्षय, मूल क्रियाओं के कंपनों के समान शक्तिशाली और विपरीत होने पर ही हो सकता हैं। एक जन्म के संस्कार अगले जन्म के संस्कारमूलक कर्म के द्वारा क्षय होते हैं क्योंकि किसी के संस्कार उसके जीवनकाल में परिपक्व तब तक नहीं होते जब तक इंद्रियाॅं , प्राण और मन अलग नहीं हो जाते। यही कारण है कि किसी के संस्कारों का भोग उसी जीवन में  नहीं होता। क्रिया प्रवाह की समाप्ति पर ही प्रतिक्रिया प्रारंभ होती है और क्रिया की समाप्ति वासनाभाॅंड( pot of desires) के संपर्क में आने और प्रतिक्रिया प्रारंभ होने के क्षण होती है, यही कारण है कि वर्तमान जीवन में संस्कार भोगते समय हम यह नहीं पहचान पाते कि यह पिछले किस कार्य का परिणाम हैं।
राजू- कुछ कर्मो का पता नहीं चलता पर उनका परिणाम भोगना पड़ता है और कुछ लोग यह कहते पाये जाते हैं कि अपने कर्मों का दंड भोग रहा है यह क्या है?
बाबा-  इन्हें दो प्रकार से समझाया जाता है-
1. अद्रष्टवेदनीय कर्म:  जब पूर्व जन्म के कर्मों की प्रकृति जाने बिना प्रतिक्रिया अनुभव होती है उसे अद्रष्टवेदनीय कर्म या भाग्य कहते हैं। जैसे कोई सद्गुणी व्यक्ति प्रचंड दुख भोगने लगे या कोई दुष्ट व्यक्ति अत्यंत सुखी जीवन जीने लगे।
2. द्रष्टवेदनीय कर्म:  जब किसी गंभीर बीमारी, छल से  या किसी महापुरुष के संपर्क से कुंडलनी के जागृत होने से मन अस्थिर रूप से ज्ञानेन्द्रियों , कर्मेंन्द्रियों और प्राणेन्द्रिय से अलग हो जाता है तो संस्कारों का बंडल पक जाता है और व्यक्ति इसी जन्म में अपने किये का परिणाम भोगने लगता है इसे द्रष्टवेदनीय कर्म कहते हैं। परंतु यह विरला ही होता है, सामान्यतः हम अपने पूर्व जन्म के संस्कार ही इस जन्म में भोगते हैं।
यदि किसी के पिछले जन्म के और वर्तमान जन्म के संस्कार समान हैं तो वह पिछले और इस जन्म के संस्कार साथ साथ भोगने लगता है पर यदि पिछले जन्म से इस जन्म के संस्कार भिन्न होते हैं तो पहले पिछले जन्म के और फिर इस जन्म के संस्कार भोगना पड़ते हैं। मूल कर्माें की प्रकृति के अनुसार ही प्रतिक्रिया होती है, यदि कोई व्यक्ति किसी बीमार, ईमानदार , किसी के आश्रित या सन्त को कष्ट देता है तो वह उसी तीव्रता की प्रतिक्रिया तत्काल भोगेगा क्योंकि बीमार, सन्त, आश्रित आदि, गलत कर्म करने वाले के मूलकार्यों को कभी भी विरोध नहीं करते। चाहे अच्छे हों या बुरे जबतक सभी संस्कारों का क्षय नहीं हो जाता मुक्ति मिलना संभव नहीं है।
रवि- इस प्रकार तो कर्म लगातार जन्म लेते जायेंगे और क्षय भी होते जायेंगे ? यह क्रम कब रुकेगा? रुकेगा भी या नहीं?
बाबा-जब तक शरीर है तब तक कर्म रहेगा अतः आध्यात्मिक साधक को सावधान रहकर नये संस्कारों को वासनाभांड में प्रवेश  नहीं होने देना चाहिए। उचित और लगातार ब्रह्म चिंतन और साधना से वासनाभाॅंड को विशुद्ध चेतना से भरे रहने पर नये संस्कारों को प्रवेश  करने से रोका जा सकता है। लगातार ईशचिंतन करते रहने से नये संस्कारों का जन्म नहीं होगा और पुराने जल्दी ही क्षय हो जावेंगे। सच्चा साधक सुख और दुख दोनों से अप्रभावित रहता है।
अष्टाॅंगयोग की साधना से अपनी सभी इंद्रियों और इच्छाओं को परमचेतना की ओर प्रेषित करते रहने पर कर्माशय में चेतना का प्राधान्य हो जाता है और आसन, प्राणायाम आदि करने से मन और प्राणों पर उचित नियंत्रण हो जाता है, इस तरह मन शुद्ध हो जाता है। इसे 'अनुभव' कहते हैं। मन के शुद्ध हो जाने पर वह धीरे धीरे अनुभव करने लगता है कि वह शरीर नहीं है, इस सजगता के लिये 'प्रज्ञा' कहा जाता है, प्रज्ञा को सात्विक बनाये हुए जब वासनाभांड में चेतना लबालब भर जाती है तो साधक के पुनः जन्म लेने की संभावना कम हो जाती है वह 'दग्धबीजवत' हो जाता है। कर्माशय के चेतना से भरे होने पर वासनाभाॅड फिर भी रह जाता है जिसे परमपुरुष के चरणों में पूर्णतः समर्पित होकर उन्हें ही सौंपना पड़ता है जो लगातार उन्हीं के चिंतन करते रहने से संभव होता है। उनका इस प्रकार से लगातार चिंतन करते रहना "पुरुषख्याति" कहलाता है। इसप्रकार जब वासनाभाॅंड सहित सबकुछ परम पुरुष को सौप दिया जाता है तो साधक पूर्णरूप से परम पुरुष में ही मिल जाता है। इसे ही मुक्ति, मोक्ष कहते हैं।