Tuesday, 26 January 2016

45 राधा की डमरू

45 राधा की डमरू
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‘‘क्या बात है, आज तो बहुत ही उदास लग रहे हो, ऐंसा तो कभी नहीं देखा?‘‘

‘‘ हाॅं, पिछले सत्तर वर्षों का लेखा जोखा देख रहा था, कुल उपलब्धियाॅं शून्य  ही आईं हैं।‘‘

‘‘कैसे? मैं कुछ समझी नहीं ।‘‘ 

‘‘देखो न! खूब मेहनत कर अफसर बना, कितने लोग सेल्यूट करने लाइन में लगे रहते, कितना रुतवा था, बच्चों को भी अपने से अधिक अच्छा बनाया, धन भी खूब कमाया, पर आज रिटायर हुए दस वर्ष हो गये अब लगता है कुल उपलब्धियाॅं कुछ नहीं हैं।‘‘ 

‘‘इतना सब क्या कम है?‘‘

‘‘ किसे इतना सब कहती हो? आज भूल से भी कोई नमस्कार नहीं करता, बच्चे सब विदेश  में बस गये, दोस्त भी बिछड़ते जा रहे, नौकर चाकर भी उतने लवलीन नहीं रहे, यह धन भी बीमारियों के कष्ट को तत्काल दूर नहीं कर पाता! क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘ 

‘‘ अच्छा! अब समझी। शिवजी की डमरू यह समझने लगी कि शिवजी को प्रणाम करने वाले लोग उसे प्रणाम कर रहे हैं ।‘‘

‘‘क्या मतलब?‘‘

‘‘ तुम्हारे दुख का कारण है तुम्हारा यह अहंकार , जो बार बार कहता है मैं ऐंसा था, मैंने यह किया, वह किया, मैं, मैं, मैं । यह सबसे बड़ी भूल है उसी डमरू की तरह।‘‘

‘‘ तो क्या मैं गलत कहता हॅूं?‘‘

‘‘बिलकुल। सुनो! कक्षा दसवीं में वादविवाद प्रतियोगिता हार जाने पर बड़े दुख पूर्वक विलाप करते हुए मैं, माॅं के सामने यही कह रही थी कि मैं ने कितना पराक्रम किया , कितनी पुस्तकें पढ़ी , दिन रात एक कर दिये, सभी श्रोताओं ने मेरे प्रदर्शन  को कितना सराहा आदि, पर सब कुछ शून्य  में बदल गया। इस पर पिताजी बोले, राधा! जब तक तुम किसी भी अपेक्षा को लेकर कार्य करती रहोगी तुम्हें दुख ही मिलेगा, पर जब तुम नाटक के कलाकार की तरह यह सोचकर कार्य करोगी कि वह तो निर्देशक के निर्देशों  से बंधा है इसलिये अपनी प्रत्येक  भूमिका उसी को प्रसन्न करने के लिये है चाहे उसमें उसे रोना पड़े, हॅंसना पड़े , भीख माॅंगना पड़े , झाड़ू लगाना पड़े या लड़ना भिड़ना पड़े । जिस प्रकार कलाकार को नाटक में जैसी भूमिका दी जाती है उसे वैसा ही प्रदर्शन  करना पड़ता है उसी प्रकार इस स्रष्टि मंच के हम सब कलाकार हैं और स्रजनकर्ता परमात्मा निर्देशक। हमें निर्पेक्ष होकर, उसी की प्रसन्नता के लिये, उसी का कार्य समझकर , जीवन के सभी कार्य करना चाहिये तभी सच्चा आनन्द मिलता है, अन्यथा डमरू की तरह दंभ भरते रहो पर अंत में रह जाता है केवल खड़ खड़ खड़ करना।‘‘

‘‘यह क्या दार्शनिकों  की तरह बात करती हो?‘‘

‘‘ हाॅं ! यही सच्चा जीवन दर्शन  है, मैं ने तो तभी से हर कार्य, ईश्वर  की प्रसन्नता के लिये उन्हीं का कार्य समझते हुये, बिना किसी अपेक्षा के करने का प्रण कर लिया था, चाहे पढ़ना लिखना हो, बालबच्चे पालना हो, घर गृहस्थी सम्हालना हो, या सामाजिक नाते रिश्ते  निभाना हो। बस मैं तो सदा यही सोचती हॅूं कि मेरी प्रत्येक भूमिका से उन्हें लगातार प्रसन्नता मिले भले मुझे कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े।‘‘

‘‘ ओह, राधा! तुम तो सचमुच की राधा निकलीं परंतु मैं ही शायद अपने को श्याम  नहीं बना पाया! ! !‘‘

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