Sunday 10 January 2016

42 बाबा की क्लास (कर्मफल)

42 बाबा की क्लास (कर्मफल)

राजू- अनेक लोग कहते हैं कि बुरे काम करने वालों को भगवान दंड देते हैं ?

बाबा- भगवान कोई दंडाधिकारी नहीं हैं जो विभिन्न धाराओं के अनुसार केवल दंड देने के लिये ही बैठे हैं, वास्तव में वह अपनी विचार तरंगों के मूर्तरूप इस स्रष्टि चक्र को चलाने के लिये प्रकृति को उत्तरदायित्व देकर अपनी लीला का आनन्द ले रहे हैं । इसलिये प्रत्येक मनुष्य को अपने किये  अच्छे या बुरे कर्मों का फल प्रकृति ही क्रमानुसार उपलब्ध कराती रहती है, और कर्ता को भोगना ही पड़ता है।

चंदू- तो हम यह  कैसे जाने कि कोई कर्म अच्छा है या बुरा?

बाबा-  अच्छे कार्य वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए, चेतना के परावर्तन को विस्तारित करते हैं, यह विद्यामाया के द्वारा प्रेरित होते हैं। बुरे कार्य अविद्यामाया से प्रेरित होते हैं। वे कार्य जो प्रकृति के नियमों के विपरीत होते हैं और चेतना के परावर्तन को फीका कर देते हैं बुरे कार्य हैं।

रवि- लेकिन किसी को भी पहले से यह मालूम नहीं होता कि कौन सा कार्य प्रकृति के अनुकल है या प्रतिकूल फिर भी कर्म तो करते ही जाते हैं तब इस प्रकार के कष्ट से कैसे बचा जा सकता है?

बाबा- प्रकृति के नियमों का पालन करने के लिये विद्यामाया के सहयोगी विवेक और वैराज्ञ हैं जो इस प्रकार के उत्तम कार्य कराने में सहायता करते हैं। अच्छे और बुरे में भेद करने की क्षमता को विवेक कहते हैं, जैसे अलकोहल का नशे के रूप में उपयोग बुरा और दवा के रूप में उपयोग अच्छा, यह ज्ञान विवेक कहलायेगा। इस तरह एक ही बस्तु के अलग अलग उपयोग करने से वह अच्छी या बुरी मानी जाती है। वैराज्ञ का अर्थ संसार को छोड़ कर एकान्त में अत्यंत सादगी से तपस्वी जीवन जीना नहीं है, यह तो प्रत्येक वस्तु का समुचित उपयोग करते हुए उसे समझने का साधन प्राप्त करने का प्रयास है। इसलिये वैराज्ञ का पालन करने के लिये विवेक का रहना आवश्यक  है। विवेक और वैराज्ञ से विस्तारित चेतना के प्रभाव से प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने के कष्ट का अनुभव नहीं होता।

इंदु- बाबा! इससे पहले आपने बताया था कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होने के कारण कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इससे कोई भी बच नहीं सकता, अपने अपने कर्मों का फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है। परंतु अनेक लोग ऐसे भी है जो कर्मफल भोगने से बचने के लिये अन्य तरीके जैसे ग्रहशान्ति , हवन आदि से प्रायश्चित  करना आदि ,अपनाते हैं, उनकी ये विधियाॅं कितनी सार्थक  होती है और क्या वे इस कर्मफल के भोगने से बच पाते हैं ?
बाबा- कुछ लोगों का विश्वास  है कि ग्रहशान्ति  करने और प्रायश्चित करने  में या हवन करने से वे कर्मफल भोगने से बच जावेंगे। उनका यह विश्वास  गलत है क्योंकि प्रकृति के नियमों के अनुसार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना अनिवार्य है, मन अपनी सामान्य अवस्था में तभी आ पायेगा जब वह प्रतिक्रिया प्राप्त कर ले । प्रकृति के इस नियम को कोई नहीं बदल सकता। परंतु कर्मफल भोगने की गति को धीमा या तेज किया जाना संभव है जो मन को वापस सामान्य अवस्था में ले आएगा। जैसे, मानलो किसी कर्मफल को भोगने में एक माह लगता है तो विद्यातंत्र की सहायता से उसे एक दिन में या एक वर्ष में पूरा करना संभव है जो इस बात पर निर्भर करेगा कि उसे कितना त्वरित किया गया है या मंदित, परंतु उसे पूर्णरूप से समाप्त करना कभी भी संभव नहीं है। किसी को एक माह में वापस करने की शर्त पर एक सौ रुपये दिये गये तो यह संभव है कि कर्ज देने वाला एक माह की जगह एक वर्ष में वापस करने को राजी हो जावे पर उधार लिया गया धन तो वापस करना ही पड़ेगा। ऋण वापस करने की अवधि में परिवर्तन संभव है पर धन वापस करने से माफी नहीं हो सकती। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति के खाते में एक सौ पचास रुपये  इस शर्त पर जमा किये गये हैं कि वह पाॅंच रुपये प्रति दिन की दर से खर्च करेगा तो वह चाहे उन्हें एक दिन में ही खर्च कर दे या शर्त के अनुसार  एक माह में व्यय करे, जमा किया गया धन जमा कर्ता के द्वारा ही उपयोग किया जावेगा अन्य के द्वारा नहीं, वह एक दिन में करे या एक माह में।

नंदू- बाबा! जब कर्मफल भोगना ही पड़ता है तो विद्यातन्त्र ऐंसा क्या करता है कि वह कर्मफल भोगने की गति को तेज या धीमा कर दे?
बाबा- विद्याताॅंत्रिक क्रियायें, विवेक और वैराज्ञ पूर्वक कर्म करने को प्रेरित करती हैं जिससे विस्तारित चेतना के प्रभाव से प्रकृति का बंधन ढीला हो जाता है अतः कर्मफल के भोगने के कष्ट का अनुभव नहीं होता है। परंतु कर्मफल का भोगना या भाग्य नहीं बदला जा सकता। कर्मफल तो व्यक्ति को भोगना ही पड़ेगा हाॅं भोग करने के समय को लंबा या छोटा किया जा सकता है। जैसे, ऋणकर्ता को एक साथ रुपये लौटाने में अधिक मानसिक कष्ट होगा परंतु किश्तों  में लौटाने पर समय अधिक लगेगा पर मानसिक कष्ट की मात्रा समय के विस्तार में अधिक प्रतीत नहीं होगी। इस प्रकार विद्यातंत्र की सहायता से कष्ट भोगने के समय का विस्तार हो जाने से कष्ट की तीब्रता घट जाने पर लगता है कि कर्मफल नहीं भोगना पड़ा। उदाहरणार्थ, किसी के भविष्य में हाथ टूटने की घटना होना है तो उसे इसके स्तर की मानसिक पीड़ा भोगना पड़ेगी, परंतु विद्यातंत्र साधना से उसके हाथ के टूटने को रोका जाकर उतना ही मानसिक कष्ट भुगतने के लिये छोटी छोटी घटनाओं में बदलकर लम्बे समय तक चलाया जा सकता है परंतु उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। कष्ट लंबे समय तक छोटी छोटी घटनाओं में बदल गया जैसे, हाथ में पहले खरोंच आ जाये फिर बीमार पड़ जाये आदि, उसे कष्ट भले ही किश्तों  में भोगना पड़े पर जब तक हाथ टूटने के कष्ट के बराबर मानसिक कष्ट नहीं भोग लिया जावेगा तब तक कर्मफल समाप्त नहीं होगा। जिस प्रकार कर्मफल भोगने का समय बढ़ाया जाना संभव है उसी प्रकार उसे घटाना भी संभव है। यही कारण है कि वे लोग जो इसी जीवन में मुक्त होने के लिये परम पुरुष की साधना करते हैं वे कष्ट और सुख अतिशीघ्रता से अनुभव करते हैं जिससे वे यथा संभव कम समय में अपने कर्मफल को भोग लें। इस तरह उन्हें आगे भोगने के लिये और प्रकृति के बंधन में फॅंसाने के लिये कुछ भी नहीं बचता।

रवि- कुछलोग सोचते हैं कि बुरे कामों के परिणाम भोगने से बचने के लिये उन्हें अच्छे  कामों द्वारा   संतुलित करना चाहिए अर्थात् यदि अच्छे और बुरे कर्म बराबर बराबर हो जावेंगे तो फिर उनके परिणाम एकदूसरे को उदासीन कर देंगे और फिर भोगने के लिये कुछ न बचेगा। क्या यह सही है?

बाबा- यह न तो होता है और न ही संभव है। यह स्पष्ट किया जा चुका है कि चाहे अच्छे कर्म हों या बुरे वे मन पर अपना प्रभाव डालकर उसमें विरूपण उत्पन्न करते हैं। मन को पूर्वावस्था में आने के लिये अर्थात् इस विरूपण को दूर करने के लिये बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना आवश्यक  है। इसलिये बुरे कार्य को करने से हुआ मन का विरूपण अच्छे कार्य से नहीं दूर किया जा सकता क्योंकि वह मन पर अन्य प्रकार का  विरूपण ही उत्पन्न करेगा। प्रत्येक कार्य की स्वतंत्र बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होना चाहिए। स्वतंत्र क्रिया से जब मन का प्रत्येक विरूपण हट जाता है तो व्यक्ति को क्रमागत रूप से अच्छे या बुरे कर्म के अनुसार पृथक पृथक परिणाम भोगना पड़ता है। इसलिये  कोई भी व्यक्ति बुरे काम के परिणाम अच्छे कामों से उदासीन नहीं कर सकता। अच्छे काम का अच्छा और बुरे काम का बुरा परिणाम अलग अलग अनुभव किया जाता है यह प्रकृति का नियम है। इसप्रकार,  यह सिद्ध हुआ कि कर्मफल का भोगना टाला नहीं जा सकता। भगवान को दोष देना या परिणाम से बचने के लिये उनसे प्रार्थना करना केवल मूर्खता है। जिसने कर्म किया है उसे ही फल भोगना होगा। यदि तुम आग में हाथ डालते हो तो वह जलेगा ही वैसे ही प्रकृति का यह भी नियम है कि कर्म की प्रतिक्रिया होगी ही, भगवान उसके लिये दोषी नहीं हैं उसके लिये कर्म का कर्ता ही उत्तरदायी है।

इंदु- बाबा! भगवान की स्तुति और प्रार्थना से कर्मफल भोगने में कुछ कन्शेसन  तो मिलता होगा?

बाबा- प्रार्थना में कोई वाॅंछित बस्तु की चाह होती है अर्थात् यह एक प्रकार से  परम सत्ता के पास किसी लाभ के लिये भेजे जाने वाली पवित्र याचिका ही है। याचिकाकर्ता सोचता है कि उसे जो चाहिये है वह ईश्वर से  माॅंग ले क्योंकि वह, केवल अपनी इच्छा से ही उसकी पूर्ति कर सकते हैं। प्रार्थना से या माॅंगकर, क्या वह ईश्वर  को यह बताना नहीं चाहता कि उसके पास जो नहीं है वह प्राप्त हो जाये। इसका क्या यह अर्थ नहीं है कि वह ईश्वर  को याद दिला रहा है कि जिन चीजों से उसे वंचित रखा गया है वे दी जावें अन्यथा प्रार्थना की कोई आवश्यकता  नहीं थी। मानलो कोई व्यक्ति इस विश्वास  के साथ कि केवल भगवान ही मुझे धन दे सकते हैं, प्रार्थना करता है तो क्या यह, प्रकट नहीं करता कि ईश्वर  ने उसके साथ भेदभाव किया है क्योंकि जब केवल ईश्वर  ही धन दे सकता है तो उसने अन्य सब को दिया पर उसे वंचित रखा। अतः यह तो ईश्वर  पर आक्षेप लगाना और उसकी गलती बताना ही सिद्ध हुआ। इससे केवल यही अनुमान लगाया जा सकता है कि ईश्वर  ने भेदभाव कर किसी को धनी और किसी को गरीब बनाया है। अतः जब प्रार्थना से यह निष्कर्ष निकलता है तो प्रार्थना करना व्यर्थ है। किये गये कर्म का फल स्वयं को भोगना पड़ता है ईश्वर  पर आरोप लगाना अज्ञानता है। आग में हाथ डालने से वह अवश्य  ही जलेगा प्रार्थना से उसे बचाया नहीं जा सकता, क्योंकि प्रार्थना स्वीकार करने पर या तो ईश्वर  को आग के जलाने के गुण को समाप्त करना पड़ेगा या फिर हाथ की संरचना में परिवर्तन कर ऐंसा बनाना पड़ेगा कि वह न जले, जो कि असंभव है। ईश्वर  की रचना में कोई  त्रुटि नहीं है क्योंकि उसकी छोटी या बड़ी सभी चीजें अपने अपने धर्म का पालन करतीं हैं, अन्यथा प्रत्येक पद पर अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती। इसलिये किसी की प्रार्थना को स्वीकार करने के लिये ईश्वर  अपने नियमों में परिवर्तन नहीं करेंगे। इसलिये प्रार्थना कर कुछ माॅंगने से केवल समय ही नष्ट होगा, वह भाग्य नहीं बदल सकती। स्तुति करना भी ईश्वर  के गुणों की भजन या गीत गाकर प्रशंसा  करना ही है। इसे चापलूसी करने से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता। जब कोई कुछ देने के योग्य होता है तो याचक उसकी प्रशंसा  कर चापलूसी करता है। इसी प्रकार ईश्वर  से कुछ पानें के लिये उसे याद कराना कि वे अंतर्यामी हैं, सर्वशक्तिमान हैं,  कृपालु हैं, कल्याणकारी हैं क्या चापलूसी नहीं है? इसलिये स्तुति भी प्रार्थना की तरह अप्रभावी होती है और केवल समय नष्ट करती है।

रवि-  जो लोग भक्त कहलाते हैं और ईश्वर  की भक्ति करते हैं वह भी तो प्रार्थना और स्तुति ही करते हैं तो उनका यह कर्म आपके अनुसार व्यर्थ ही हुआ?

बाबा-  भक्ति इनसे भिन्न है। भक्ति शब्द  संस्कृत  के 'भज्' और 'क्तिन' को संयुक्त करने पर बनता है, जिसका अर्थ है ‘‘ प्रेमपूर्वक पुकारना‘‘ यह स्तुति या चापलूसी या प्रार्थना नहीं है। यह ईश्वर  को प्रेम से पुकारना है।आप कह सकते हैं , इस पुकार का क्या औचित्य है? वास्तव में स्रष्टि में इकाई चेतना को सगुण ब्रह्म ने अवसर दिया है कि वह अपने सार्वभौमिक मूल स्तर में वापस आने का प्रयास कर सकती हैं जो उन्हें प्रेम से पुकारने पर ही संभव होता है। परम सत्ता की ओर जाने का एकमात्र रास्ता उन्हें प्रेम पूर्वक पुकारने के अलावा दूसरा नहीं है। मानव मन का स्वभाव यह है कि वह वैसा ही हो जाता है जैसा वह विचार करता है, जैसे कोई सोचता रहे कि वह पागल हो जावे तो वह वास्तव में पागल हो जावेगा क्योंकि उसके मन में वही विचार गूॅंजते रहते है। इसलिये इकाई चेतना जो परम चेतना की ओर तेजी से जाना चाहती है उसे उसके प्रति समर्पित होना होगा, इसे ही भक्ति  या उसे प्रेम से पुकारना कहते हैं। इकाई चेतना बार बार यह दुहराती है कि ‘‘मैं वही हूॅं‘‘ अतः समर्पित भाव से एक दिन वह परम चेतना ही हो जाती है। भक्ति का मतलब प्रार्थना या स्तुति करना नहीं है। पर कुछ लोग यह कहते है कि परम चेतना में मिल जाना या मुक्ति की चाह रखना भी एक प्रकार की प्रार्थना ही है। परंतु यह ऐंसा नहीं है, क्योंकि ईश्वर  ने मनुष्य को इसी उद्देष्य से बनाया है कि वह उसी की तरह परम स्तर पर वापस आये। अतः जब यह ईश्वर  की ही इच्छा है तो जो भक्ति के द्वारा ईश्वर  की इच्छा पूरा करने का प्रयत्न करता है उसे प्रार्थना करने की आवश्यकता  नहीं है। इसलिये भक्ति ही वह तरीका है जिसमें कोई भी परम चेतना में शीघ्र ही पूरी तरह समर्पित होकर परम पद पा सकता है। कर्मफल के भोग से बचने का कोई उपाय है ही नहीं, इसलिये बुरे काम छोड़ कर , जो दुख भोग रहे हैं उन से शिक्षा लेकर अच्छे काम में लग जाओ। जैसे हाथ को आग में डालने पर जलना ही पड़ेगा कोई प्रार्थना उसे नहीं रोक सकती अतः आगसे जलने से बचने का एक ही उपाय है कि हाथ को आग से बाहर खींच लो। इसी प्रकार जब बुरे कर्म होंगे ही नही तो बुरे परिणाम भी नहीं भोगने पड़ेंगे। कर्मफल भोगने संबंधी कठोर नियम प्रकृति ने मानवता की भलाई के लिये ही बनाया है। सगुण ब्रह्म के द्वारा स्रष्टि निर्माण करने का उद्देश्य प्रत्येक इकाई को मुक्त करने का है अतः  इस अर्थ में उन्हें सबसे अधिक लाभदायक माना जाना चाहिये। स्पष्ट है कि मनुष्य अज्ञानता के कारण ही कष्ट पाता है और ईश्वर  को दोष देता है। परंतु ज्ञानी लोग कष्टों से शिक्षा लेकर बुरे कामों से दूर रहते हैं।

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