Sunday 17 January 2016

43 बाबा की क्लास (संसार में लोग कैसे रहें)

43   बाबा की क्लास
(संसार में लोग कैसे रहें)
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नन्दू- बाबा! आपने तो इतनी गंभीर बातें बताई हैं कि जीवन जीना बड़ा ही कठिन सा लगता है, डर भी लगता है कि क्या हम इसी प्रकार भटकते ही रहेंगे?
बाबा- हमने तो तुम लोगों को तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से वह सब समझाने का प्रयास किया है जो प्रायः अधिकाॅश  लोग नहीं जानते या जो कुछ लोग जानते भी हैं तो वह अपूर्ण होने के कारण वे स्वयं भ्रमित रहते हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते रहते हैं। सभी मनुष्यों को चाहिये कि वे इस ब्रह्म चक्र और प्रकृति की कार्यप्रणाली का उद्देश्य  अच्छी तरह समझ लें फिर अपने विवेक के अनुसार अपने जीवन को जीने के ढंग को स्वयं निर्धारित कर लें।

रवि- परंतु बात यह है कि हम जितना अधिक दार्शनिक  सिद्धान्तों में घुसते जाते हैं उतना ही व्यावहारिक कठिनाई का अनुभव करते हैं?
बाबा- बात सही है, परंतु सगुण ब्रह्म द्वारा निर्मित  इस संसार की रचना का उद्देश्य  यही है कि प्रत्येक इकाई चेतना को वह अपनी तरह मुक्त अवस्था में ले लायें। मनुष्यों में परम चेतना का पूर्णतः परावर्तन होने के कारण वे स्वतंत्र कार्य करने और अच्छे बुरे के भेद को समझने की क्षमता रखते हैं। सृष्टिचक्र के अंतिम पद में स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते समय ‘मनुष्य‘ जैसी कुछ इकाइयाॅं ही पूर्णतः परावर्तित चेतना में दिखाई देती हैं। इकाई चेतना जैसे ही सूक्ष्मता की ओर बढ़ती जाती है उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जाता है ।

इंदु- सगुण ब्रह्म और प्रकृति के बीच यह समझौता स्रष्टि के प्रारंभ में ही हो गया लगता है अन्यथा प्रकृति जो सगुण ब्रह्म को अधिकाधिक गुणों में बांधे रहना चाहती है, उसे अपने प्रभाव से कैसे मुक्त करेगी?
बाबा-  मनुष्यों की इकाई चेतना पशुओं  की इकाई चेतना की तुलना में प्रकृति से कम प्रभावित पाई जाती है। इकाई चेतना पर प्रकृति के प्रभाव का कम होना सगुण ब्रह्म की कृपा पर निर्भर होता है। स्रष्टि के प्रारंभ में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति करते समय प्रकृति अपनी इच्छा से पुरुष अर्थात् सगुण ब्रह्म को अपने बंधन से ढील दे देती है, परंतु इकाई चेतना बंधन में ही रहती है क्योंकि स्रष्टि के स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने का क्रम कभी समाप्त नहीं होता, अतः इस वशीकरण की स्थिति में कोई सचेत अस्तित्व आत्मनिर्भरता से कार्य करने लगता है तो प्रकृति अपने स्वभावानुसार उसे दंडित करती है। यही कारण है कि इकाई चेतना के सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की गति प्रभावित होती है। स्रष्टि में यह देखा जाता है कि जहां चेतना का परावर्तन स्पष्ट है वहां प्रकृति का प्रभाव कम है। अतः यदि इकाई चेतना अपनी चेतना के परार्वतन को विस्तारित करते हुए बढ़ा सके तो उस पर प्रकृति का प्रभाव कम होता जायेगा और उसे  शीघ्र ही पूर्ण सूक्ष्मता प्राप्त करना संभव होगा।

रवि- बात फिर वहीं आ पहुंची, आप ने अनेक कठिन सिद्धान्तों को सरल कर समझा तो दिया है परंतु हमें उनको व्यवहार में लाने के लिये वर्तमान समय में अनेक कठिनाइयाॅं आ रही हैं, ज्वलंत समस्या तो यह है कि, हम अपनी इकाई चेतना के परावर्तन को किस प्रकार विस्तारित करें जिससे हमारा आगे का पथ कष्टरहित हो सके?
बाबा- इसके लिये हम पहले भी अनेक बार बता चुके हैं कि हमें अपने शत्रुओं और बंधनों को पहचानकर उनसे मुक्त होने का सबसे पहले प्रयास करना चहिये फिर हमारे रास्ते में कोई बाधा नहीं आ सकेगी। काम, क्रोध, लोभ, मद मोह, और मात्सर्य येे छः शत्रु और भय, लज्जा, घृणा, शंका, कुल, शील, मान और जुगुप्सा ये आठ बंधन है। ये इकाई चेतना को सूक्ष्मता की ओर जाने से रोककर स्थूलता में अवशोषित करने का कार्य करते हैं। इकाई चेतना का उच्चतम स्तर सूक्ष्म है अतः उस ओर जाने से रोकने वाला शत्रु हुआ। आठ प्रकार के बंधनों में बंधा हुआ कोई भी व्यक्ति अपनी गति खो देता है। स्रष्टि में हम देखते हैं कि मानव की गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है परंतु अष्ट पाश  जैसे लज्जा घृणा और भय आदि स्थूलता से जकड़े रहने के कारण सूक्ष्मता की ओर जाने से रोके रहते हैं।

नन्दू- इन शत्रुओं और बंधनों से बचने के लिये हमें क्या करना चाहिये?
बाबा- हमें इन शत्रुओं और बंधनों से लगातार संघर्ष करते रहना चाहिये इसके लिये सक्षम और पुरश्चरण  की क्रिया में प्रवीण गुरु के पास जाकर अपनी मूल आवृत्ति वाला बीज मंत्र सीखकर उन  शत्रुओं  पर उसका आघात करने से  षत्रुओं पर विजय मिल जाती है और मधुविद्या अर्थात् गुरुमंत्र की सहायता से अष्ट बंधन भी कट जाते हैं और नये बंधन भी नहीं बन पाते। इस प्रकार विद्यामाया का अनुसरण करने वाले अर्थात् चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न करने वाले चार प्रकार के लोग पाये जाते हैं, पहले वे जो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं और अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने में संलग्न रहते हैं ये अच्छी श्रेणी के लोग कहलाते हैं। दूसरे वे जो प्रकृति के नियमों का पालन तो करते हैं पर अपनी चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का प्रयत्न नहीं करते। तीसरे वे जो न तो प्रकृति के नियमों का पालन करते है और न ही चेतना को सूक्ष्मता की ओर ले जाने का कार्य ही करते हैं। ये निम्न स्तर के लोग कहलाते हैं। चौथे वे हैं जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते और अपनी चेतना के अवमूल्यन करने के लिये भागीदार होते हैं। ये निम्न से भी निम्न कोटि के मनुष्य कहलाते हैं। सगुण ब्रह्म का मानवों को निर्मित करने का उद्देश्य  यही है कि वे अपनी गति से सूक्ष्मता की ओर बढ़कर उच्चतम स्तर प्राप्त करें। यह मानव का धर्म है। उच्चतम स्तर पर वापस पहुॅंचने के लिये इकाई चेतना का उन्नयन आवश्यक  है अतः उसकी सभी क्रियाएं प्रकृति के नियमों के अनुकूल होना चाहिये जिससे वह प्रगति में रोड़े न अटकाये। अतः प्रथम श्रेणी के व्यक्ति अर्थात् अच्छे व्यक्ति अपने प्राकृत धर्म का पालन करते हुए सूक्ष्मता की ओर बढ़ते जाते हैं, सही अर्थों में ये ही मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं ।

चंदू- आपने अनेक बार बताया है कि मनुष्येतर प्राणी प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं तो वे मनुष्यों से भिन्न क्यों होते हैं?
बाबा-  पशु और अन्य मनुष्येतर प्राणी  भी प्राकृत धर्म का पालन करते हैं परंतु उनमें चेतना का स्पष्ट परावर्तन न होने के कारण वे अपनी चेतना के उन्नयन का प्रयास नहीं कर पाते । अतः वे जो प्रकृति के नियमों का पालन नहीं करते पशुओं से भिन्न नहीं हैं। वे अपनी इकाई चेतना में होने वाले पूर्ण परवर्तन का उपयोग नहीं कर पाते अतः वे मानव के रूप में परजीवी ही कहे जावेंगे। पूर्वोक्त  तीसरी और चौथी केटेगरी के लोग तो परजीववियों से भी गये गुजरे कहलाते हैं क्योंकि परजीवी तो प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं पर अपना उन्नयन इसलिये नहीं कर पाते कि उनमें इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन नहीं होता है। प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए अन्य प्राणी भी समय आने पर अपनें में स्पष्ट परावर्तित चेतना का विकास कर लेते हैं, जबकि तीसरी और चौथी केटेगरी के लोग अपने में इकाई चेतना का स्पष्ट परावर्तन होने के वावजूद प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं।

रवि- आप तो हमें अपना वह निष्कर्ष समझा दीजिये जिससे हमारे जीवन जीने का क्रम सरल हो और हम अपने निर्धारित लक्ष्य तक बिना किसी बाधा के पहुॅच सकें?
बाबा- हमने बार बार यह कहा है कि मनुष्य जीवन का मूल लक्ष्य परमपुरुष के साथ साक्षात्कार करना है , अतः सात्विक भोजन द्वारा यम नियमों का पालन करते हुए, सात्विक कार्योंं से उतना धन अर्जित करना चाहिये जितना स्वयं के जीवनयापन हेतु अनिवार्य है इससे अधिक नहीं और न ही संग्रह करना चाहिये। यहाॅं यह ध्यान रखना चाहिये कि जिसका भलीभाॅंति, सरलता पूर्वक रक्षण न कर सकें उसका संग्रह कभी न करें , इससे अनावश्यक  चिंतायें नहीं आ सकेंगी और भगवद् ध्यान चिंतन के लिये समय मिलता जायेगा नहीं तो चिंताओं का अंबार लगा रहेगा और उसी की उधेड़बुन में सब कुछ धरा रह जायेगा। मन और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहें इसके लिये नियमित रूप से दोनों समय ईश्वर  प्रणिधान और योगासनों को करते रहना चाहिये। सामान्यतः सर्वांगासन, मत्स्यासन, मत्यमुद्रा, नौकासन, और शशकासन, मत्स्येन्द्रासन, कर्मासन आदि नियमित रूप से करते रहने से शरीर में अनावश्यक  यूरिक एसिड और कैल्सियम आदि का जमाव नहीं हो पाता और शरीर लचीला बना रहता है और किसी भी प्रकार के रोगों से शरीर अपना बचाव स्वयं ही करता रहता है। योगासनों और अष्टाॅंगयोग का नियमित पालन करने वाला शरीर सदैव निरोग रहता है उसे औषधियों की आवश्यकता  नहीं होती। भोजन का सार तत्व लसिका (limph) मस्तिष्क का भोजन है अतः इसे संरक्षित रखना चाहिये। एक माह के भोजन करने में चार दिन के भोजन के बराबर लिंफ अतिरिक्त हो जाता है जिसे शरीर में ही अवशोषित बनाये रखने के लिये दोंनों एकादशियों, अमावश्या  और पूर्णिमा को निर्जल उपवास करना चाहिये। सन्तानोत्पत्ति के लिये ही इस अतिरिक्त लिंफ का उपयोग करना चाहिये अन्यथा नहीं । यह सावधानी रखने पर ही गुणवान और जीवन सार्थक करने वाली संतान पैदा होगी अन्यथा अरबों  की भीड़ में वे भी शामिल होते जावेंगे।

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