84 बाबा की क्लास (शिव . 9 )
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रवि- ठीक है, जैसा आपने अभी तक बताया है कि शिव की साधुता सरलता और तेजस्विता के कारण उनका अद्वितीय व्यक्तित्व जन सामान्य में इतना रच गया था कि वे उनसे निकटता से जुड़ गये थे, वे ही उनके देवों के देव महादेव थे। परन्तु अनेक देवी देवताओं को भी तो शिव से ही जोड़कर रखा गया है ? इनका उद्गम कहाॅं से हुआ? क्या ये सचमुच शिव से उसी प्रकार संबंधित हैं जैसा अनेक पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि शिव के बाद लंबे समय तक उनकी शिक्षायें आदर्श स्थापित करती रहीं परन्तु कालान्तर में अनेक महापुरुषों ने अपने अपने ढंग से उनकी शिक्षाओं को समाज में स्थापित करना चाहा । इसलिये शिव को आधार बनाये बिना उनका महत्व कुछ भी न रहता इसलिये सब ने अपने को किसी न किसी प्रकार शिव से जोड़े रखा। सबसे अधिक परिवर्तन पिछले 2500 वर्षाें में ही हुआ है।
नन्दू- लेकिन शिव ने तो समसमाज तत्व की स्थापना की थी , फिर बीच के तथाकथित मनीषियों ने अपना अपना मत क्यों श्रेष्ठ बता कर जनसामान्य को भ्रमित किया या करते जा रहे हैं?
बाबा- आध्यत्मिक साधना की ओर झुकाव की मानसिकता दो प्रकार से पायी जाती है, एक आत्मसुखवाद और दूसरी समसमाज तत्व। जब निरी स्वार्थसिद्धि की भावना लोगों के मन में जागती है तो वे सोचते हैं कि केवल वे ही अच्छा पहने ,खायें, और विलासिता के साधनों का उपभोग करें। इन लोगों की दुहरी मानसिकता होती है और वे समाज में किसी न किसी प्रकार का डोग्मा या भावजड़ता का रोपण कर लोगों को उसका गुलाम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। संसार के अधिकाॅंश धर्म यानी मत इसी मानसिकता पर आधारित पाये जाते हैं। यही कारण है कि सामान्य लोग उन तथकथित महापुरुषों द्वारा कल्पित देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते है जिनसे उन्हें भौतिक जगत की उपलब्धियों, धन, नाम, यश , पद आदि, प्राप्त होने का लोभ दिया जाता है । ये, तथाकथित पंडितों की कल्पनायें होती हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनकी दूकानदारी चलती रहती है।
चंदू- पिछले 2500 वर्षों में तो क्रमशः जैन, बौद्ध, क्रिश्चियन, इस्लाम और पौराणिक मतों का ही उद्गम माना जाता है तो शैव दर्शन इनके कारण किस प्रकार प्रभावित हुआ है ?
बाबा- जैन और बौद्ध धर्म के निर्वाणतत्व और अर्हतत्व , सर्वत्याग की बात करते हैं । ये जीवन और भौतिक संसार के प्रति नकारात्मक द्रष्टिकोंण पर आधारित हैं। कर्मसंन्यास और स्थिति संन्यास इसके मार्गदर्शक सिद्धान्त है जो सिखाते हैं कि संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है। इस प्रकार उन्होंने संसार को ही नहीं अपने आप को भी धोखा दिया है क्योंकि जीवन के लयवद्ध विस्तार को त्याग कर मनुष्य सोचनें लगे कि उनके चारों ओर जड़ता के अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। यह उसी प्रकार है जैसे, एक सुद्रढ़ प्रज्वलित हो रहे दीपक को, जो मानवता के अस्तित्व को प्रकाशित और महिमान्वित करता है, बुझा दिया जावे। जीवन का दीपक, एक बार पूर्ण रूप से बुझ जाने के बाद उसे पुनः प्रज्वलित नहीं किया जा सकता चाहे हजार बार प्रयत्न किये जाएँ। यह प्रबल नकारात्मकता है।
राजू- परन्तु जैन और बौद्ध भी तो शिव की तरह मोक्ष और निर्वाण की ओर जाने की बात कहते हैं?
बाबा- मोक्ष और निर्वाण समानार्थी नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष पर आधारित तंत्र तो निर्पेक्ष विस्तार की साधना है जो प्रकाश की चाल से जड़ता के घने अंधकार से दिव्य प्रकाश की ओर ले जाता है जबकि निर्वाण का अनुसरण करना अमूल्य जीवन के प्रकाशित दीपक को जानबूझकर बुझाने की साधना है। यह और कुछ नहीं है बल्कि भीतरी और बाहरी संसार के प्रकाश को धीमा और धीमा करते जाना है। और, अपने आप को रसातल में खो देना ही नहीं गूढ़ अज्ञानता के प्रभाव से अपने अस्तित्व को ही नकार देना है। अपने आप को अंधकार में खो देने की साधना धर्म अथवा मानव की प्रकृति नहीं कहला सकता। जैन और बौद्ध दर्शन ने पूर्व से स्थापित शैव दर्शन को अगणित विकृति पहुंचाई है। पूर्णतः विपरीत सिद्धान्तों अर्थात् निर्वाण पर आधारित निर्ग्रन्थ जैन और विस्तारित शैव, लोगों के हृदय में साथ साथ लंबे समय तक चलते रहे। फिर स्वभावतः परस्पर संयोजन का काल आया जिसमें जैन तंत्र, दिगम्बर अर्थात् निर्ग्रन्थवादी साधना पद्धति ने इन साधकों को आत्म साधना के मार्ग में आन्तरिक रूप से संतुष्ट नहीं कर पाया, क्योंकि वे मूलतः पूर्व से सुस्थापित शैव तंत्र के ही उपासक थे।
इंदु- मैंने कुछ जैन दर्शन के ग्रंथ पढ़े हैं जिनमें भी यम और नियमों का पालन करते हुए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की शिक्षायें दी गयी हैं, तो क्या वे शैव दर्शन से भिन्न हैं?
बाबा- हाॅं, परन्तु पाॅंच यम (अर्थात् अहिंसा ,सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) में से केवल ‘अहिंसा‘ तथा पाॅंच नियम (अर्थात् शौच , संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान ) में से केवल ‘तप‘ का पालन करने पर ही जैन दर्शन जोर देता है अन्य सभी को नगण्य मानकर अपने को विजयी मानता है। शब्द ‘‘जैन‘‘, ‘‘जिन‘‘ क्रियाशब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘ विजयी होना‘ अर्थात् सभी क्षेत्रों में संघर्ष कर विजयी होना । परंतु क्या कछुए की तरह जीवित रहकर विजयी होना संभव है? विजयी होने के लिये द्रढ़ ऊर्ध्वगामी संवेग चाहिये होता है। इसलिये जैन दर्शन व्यक्ति को अंधेरे में ले जाकर अक्रियता की गुफा में फेकता है और पूर्णतः दोषदर्शी बनाता है। यही कारण है कि जैन दर्शन भारत के बाहर कभी नहीं फैल पाया। यह जीवन के प्राकृतिक दर्शन के विपरीत है। भारत के पश्चिमी भाग के कुछ व्यापारियों के बीच ही जैन दर्शन जीवित है। आज, वह वहाॅं से भी उखाड़ फेका गया है जहाॅं कभी उसका जन्म हुआ था।
राजू- अनेक लोग भी यही कहते हैं कि जैन धर्म को कुछ धनी वैश्यों को छोड़कर अन्य लोगों ने इसे नहीं अपनाया इसके क्या कारण हो सकते हैं?
बाबा- यह बात सही है, इसके अनेक कारणों में से कुछ इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं:-
1. जैनवाद संघर्ष का विरोधी है, महावीर स्वामी के द्वारा अहिंसा की जो व्याख्या की गई वह अप्राकृतिक और अव्यावहारिक है, जैसे अहिंसा के अनुसार किसी जीव की हत्या नहीं करना है परंतु खेती करने में प्रति दिन करोड़ों अरबों जीवधारियों का मरना निश्चित होता है अतः जैन धर्म के साधक खेती कैसे करेंगे? नाक से श्वास के साथ अनेक माइक्रोब शरीर में पहुंचकर मर जाते हैं अतः वे विना श्वास के कैसे जीवित रहेंगे और कब कब नाक के ऊपर कपड़ा रखेंगे।
2. निर्ग्रंथवाद में आध्यात्मिक साधना के अंतिम अभ्यास के समय निर्वस्त्र होकर अर्थात् दिगम्बर होकर रहने के निर्देश हैं जो समाज में रहने वालों द्वारा अव्यावहारिक होने के कारण नकार दिया गया।
3. समाज में दीर्घ काल से सुस्थापित शैव दर्शन के उपासकों के लिये नास्तिक जैनदर्शन और आस्तिक शैवदर्शन के बीच बहुत अधिक अंतर प्रतीत हुआ।
इस प्रकार मगध में महावीरस्वामी को जैन धर्म के प्रचार में सफलता न मिलने के कारण वह राढ़ के प्रसिद्ध नगर आस्तिक नगर पहुॅंचे जहाॅं भी उनके इस
अक्रियवाद को लोगों ने नहीं सुना केवल कुछ धनी व्यापारियों को छोड़कर, वह भी धर्म से प्रभावित होकर नहीं वरन् वैष्य घराने के होने के कारण।
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रवि- ठीक है, जैसा आपने अभी तक बताया है कि शिव की साधुता सरलता और तेजस्विता के कारण उनका अद्वितीय व्यक्तित्व जन सामान्य में इतना रच गया था कि वे उनसे निकटता से जुड़ गये थे, वे ही उनके देवों के देव महादेव थे। परन्तु अनेक देवी देवताओं को भी तो शिव से ही जोड़कर रखा गया है ? इनका उद्गम कहाॅं से हुआ? क्या ये सचमुच शिव से उसी प्रकार संबंधित हैं जैसा अनेक पौराणिक ग्रंथों में बताया गया है?
बाबा- तुम लोग जानते हो कि शिव के बाद लंबे समय तक उनकी शिक्षायें आदर्श स्थापित करती रहीं परन्तु कालान्तर में अनेक महापुरुषों ने अपने अपने ढंग से उनकी शिक्षाओं को समाज में स्थापित करना चाहा । इसलिये शिव को आधार बनाये बिना उनका महत्व कुछ भी न रहता इसलिये सब ने अपने को किसी न किसी प्रकार शिव से जोड़े रखा। सबसे अधिक परिवर्तन पिछले 2500 वर्षाें में ही हुआ है।
नन्दू- लेकिन शिव ने तो समसमाज तत्व की स्थापना की थी , फिर बीच के तथाकथित मनीषियों ने अपना अपना मत क्यों श्रेष्ठ बता कर जनसामान्य को भ्रमित किया या करते जा रहे हैं?
बाबा- आध्यत्मिक साधना की ओर झुकाव की मानसिकता दो प्रकार से पायी जाती है, एक आत्मसुखवाद और दूसरी समसमाज तत्व। जब निरी स्वार्थसिद्धि की भावना लोगों के मन में जागती है तो वे सोचते हैं कि केवल वे ही अच्छा पहने ,खायें, और विलासिता के साधनों का उपभोग करें। इन लोगों की दुहरी मानसिकता होती है और वे समाज में किसी न किसी प्रकार का डोग्मा या भावजड़ता का रोपण कर लोगों को उसका गुलाम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहते हैं। संसार के अधिकाॅंश धर्म यानी मत इसी मानसिकता पर आधारित पाये जाते हैं। यही कारण है कि सामान्य लोग उन तथकथित महापुरुषों द्वारा कल्पित देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते है जिनसे उन्हें भौतिक जगत की उपलब्धियों, धन, नाम, यश , पद आदि, प्राप्त होने का लोभ दिया जाता है । ये, तथाकथित पंडितों की कल्पनायें होती हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनकी दूकानदारी चलती रहती है।
चंदू- पिछले 2500 वर्षों में तो क्रमशः जैन, बौद्ध, क्रिश्चियन, इस्लाम और पौराणिक मतों का ही उद्गम माना जाता है तो शैव दर्शन इनके कारण किस प्रकार प्रभावित हुआ है ?
बाबा- जैन और बौद्ध धर्म के निर्वाणतत्व और अर्हतत्व , सर्वत्याग की बात करते हैं । ये जीवन और भौतिक संसार के प्रति नकारात्मक द्रष्टिकोंण पर आधारित हैं। कर्मसंन्यास और स्थिति संन्यास इसके मार्गदर्शक सिद्धान्त है जो सिखाते हैं कि संसार में दुख के अलावा कुछ नहीं है। इस प्रकार उन्होंने संसार को ही नहीं अपने आप को भी धोखा दिया है क्योंकि जीवन के लयवद्ध विस्तार को त्याग कर मनुष्य सोचनें लगे कि उनके चारों ओर जड़ता के अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। यह उसी प्रकार है जैसे, एक सुद्रढ़ प्रज्वलित हो रहे दीपक को, जो मानवता के अस्तित्व को प्रकाशित और महिमान्वित करता है, बुझा दिया जावे। जीवन का दीपक, एक बार पूर्ण रूप से बुझ जाने के बाद उसे पुनः प्रज्वलित नहीं किया जा सकता चाहे हजार बार प्रयत्न किये जाएँ। यह प्रबल नकारात्मकता है।
राजू- परन्तु जैन और बौद्ध भी तो शिव की तरह मोक्ष और निर्वाण की ओर जाने की बात कहते हैं?
बाबा- मोक्ष और निर्वाण समानार्थी नहीं हैं, क्योंकि मोक्ष पर आधारित तंत्र तो निर्पेक्ष विस्तार की साधना है जो प्रकाश की चाल से जड़ता के घने अंधकार से दिव्य प्रकाश की ओर ले जाता है जबकि निर्वाण का अनुसरण करना अमूल्य जीवन के प्रकाशित दीपक को जानबूझकर बुझाने की साधना है। यह और कुछ नहीं है बल्कि भीतरी और बाहरी संसार के प्रकाश को धीमा और धीमा करते जाना है। और, अपने आप को रसातल में खो देना ही नहीं गूढ़ अज्ञानता के प्रभाव से अपने अस्तित्व को ही नकार देना है। अपने आप को अंधकार में खो देने की साधना धर्म अथवा मानव की प्रकृति नहीं कहला सकता। जैन और बौद्ध दर्शन ने पूर्व से स्थापित शैव दर्शन को अगणित विकृति पहुंचाई है। पूर्णतः विपरीत सिद्धान्तों अर्थात् निर्वाण पर आधारित निर्ग्रन्थ जैन और विस्तारित शैव, लोगों के हृदय में साथ साथ लंबे समय तक चलते रहे। फिर स्वभावतः परस्पर संयोजन का काल आया जिसमें जैन तंत्र, दिगम्बर अर्थात् निर्ग्रन्थवादी साधना पद्धति ने इन साधकों को आत्म साधना के मार्ग में आन्तरिक रूप से संतुष्ट नहीं कर पाया, क्योंकि वे मूलतः पूर्व से सुस्थापित शैव तंत्र के ही उपासक थे।
इंदु- मैंने कुछ जैन दर्शन के ग्रंथ पढ़े हैं जिनमें भी यम और नियमों का पालन करते हुए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की शिक्षायें दी गयी हैं, तो क्या वे शैव दर्शन से भिन्न हैं?
बाबा- हाॅं, परन्तु पाॅंच यम (अर्थात् अहिंसा ,सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) में से केवल ‘अहिंसा‘ तथा पाॅंच नियम (अर्थात् शौच , संतोष, स्वाध्याय, तप और ईश्वरप्रणिधान ) में से केवल ‘तप‘ का पालन करने पर ही जैन दर्शन जोर देता है अन्य सभी को नगण्य मानकर अपने को विजयी मानता है। शब्द ‘‘जैन‘‘, ‘‘जिन‘‘ क्रियाशब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ‘ विजयी होना‘ अर्थात् सभी क्षेत्रों में संघर्ष कर विजयी होना । परंतु क्या कछुए की तरह जीवित रहकर विजयी होना संभव है? विजयी होने के लिये द्रढ़ ऊर्ध्वगामी संवेग चाहिये होता है। इसलिये जैन दर्शन व्यक्ति को अंधेरे में ले जाकर अक्रियता की गुफा में फेकता है और पूर्णतः दोषदर्शी बनाता है। यही कारण है कि जैन दर्शन भारत के बाहर कभी नहीं फैल पाया। यह जीवन के प्राकृतिक दर्शन के विपरीत है। भारत के पश्चिमी भाग के कुछ व्यापारियों के बीच ही जैन दर्शन जीवित है। आज, वह वहाॅं से भी उखाड़ फेका गया है जहाॅं कभी उसका जन्म हुआ था।
राजू- अनेक लोग भी यही कहते हैं कि जैन धर्म को कुछ धनी वैश्यों को छोड़कर अन्य लोगों ने इसे नहीं अपनाया इसके क्या कारण हो सकते हैं?
बाबा- यह बात सही है, इसके अनेक कारणों में से कुछ इस प्रकार गिनाये जा सकते हैं:-
1. जैनवाद संघर्ष का विरोधी है, महावीर स्वामी के द्वारा अहिंसा की जो व्याख्या की गई वह अप्राकृतिक और अव्यावहारिक है, जैसे अहिंसा के अनुसार किसी जीव की हत्या नहीं करना है परंतु खेती करने में प्रति दिन करोड़ों अरबों जीवधारियों का मरना निश्चित होता है अतः जैन धर्म के साधक खेती कैसे करेंगे? नाक से श्वास के साथ अनेक माइक्रोब शरीर में पहुंचकर मर जाते हैं अतः वे विना श्वास के कैसे जीवित रहेंगे और कब कब नाक के ऊपर कपड़ा रखेंगे।
2. निर्ग्रंथवाद में आध्यात्मिक साधना के अंतिम अभ्यास के समय निर्वस्त्र होकर अर्थात् दिगम्बर होकर रहने के निर्देश हैं जो समाज में रहने वालों द्वारा अव्यावहारिक होने के कारण नकार दिया गया।
3. समाज में दीर्घ काल से सुस्थापित शैव दर्शन के उपासकों के लिये नास्तिक जैनदर्शन और आस्तिक शैवदर्शन के बीच बहुत अधिक अंतर प्रतीत हुआ।
इस प्रकार मगध में महावीरस्वामी को जैन धर्म के प्रचार में सफलता न मिलने के कारण वह राढ़ के प्रसिद्ध नगर आस्तिक नगर पहुॅंचे जहाॅं भी उनके इस
अक्रियवाद को लोगों ने नहीं सुना केवल कुछ धनी व्यापारियों को छोड़कर, वह भी धर्म से प्रभावित होकर नहीं वरन् वैष्य घराने के होने के कारण।