Monday, 30 January 2017

104 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 14)

104 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 14)

रवि- भक्ति के सम्बन्ध में आपने अनेक प्रकार से समझाया है परन्तु मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आ पाया है कि आखिर भक्ति करने से किस को आनन्द मिलता है खुद को या परमपुरुष को?
बाबा- ध्यान से सुनो। नन्दन का अर्थ है आनन्द देना और लेना। गोप का अर्थ है केवल आनन्द देना। परमपुरुष को आनन्द देना और उसी समय उनसे आनन्द प्राप्त करना ‘रगानुगा‘ भक्ति कहलाता है इसमें भक्त की भावना यह रहती है कि मैं परम पुरुष को इसलिये प्रेम करता हॅूं जिससे उन्हें आनन्द प्राप्त हो चूँकि मेरे इस कार्य से परमपुरुष को आनन्द मिलता है यह जानकार मुझे भी आनन्द मिलता है। सर्वोच्च स्तर की भक्ति ‘रागात्मिका‘ भक्ति कहलाती है जिसमें भक्त की यह भावना रहती है कि मैं परमपुरुष को प्रेम करता रहूँगा क्योंकि मैं उन्हें आनन्द देना चाहता हॅूं चाहे मुझे आनन्द मिले या न मिले, इसके लिये मैं कोई भी कठिनाई या कष्ट उठाने को तैयार हॅूं। गोपगोपियों की भक्ति उत्तम स्तर की थी, रागात्मिका थी।

नन्दू- तो क्या नन्दन विज्ञान का कोई महत्व नहीं है?
बाबा- नन्दन विज्ञान की उत्तमता यह है कि इसमें भक्त परमपुरुष की अनेक अभिव्यक्तियों का आनन्द पाता है।  भक्त की भावना यह होती है कि परमपुरुष मेरी व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं, उनके समान कोई नहीं , मैं उन्हें चाहता हूँ , मैं प्रत्येक वह कार्य करना चाहता हॅूं जिसमें उन्हें आनन्द मिले, इस तरह नन्दन विज्ञान में दोनों  प्रकार की भक्तियाॅं एक साथ मिल जाती हैं क्योंकि भक्त सबमें परम पुरुष का ही प्रसार देखने लगता है चाहे वह पर्वत, नदियाॅं, पेड़, जानवर या कोई भी जीव क्यों न हो। वह कहता है हे परमपुरुष ! मैं तुम्हें अनेक प्रकार से अनगिनत रूपों में युगों युगों में चाहता रहा हूँ , प्रेम करता रहा हॅूं तुम ‘‘अखण्डचिदैकरस‘‘ अर्थात् सतत आनन्दरस प्रवाह  हो, मैं तुममें अपनी पूर्णता को ढूॅड़ रहा हॅूं।

इन्दु- लेकिन परमपुरुष तो अलौकिक हैं, उन्हें प्रसन्नता देना क्या सम्भव है?
बाबा- भले ही जीव, परमपुरुष को उनकी अलौकिकता में न पाये पर उनकी हलकी सी झलक ही उसे  आनन्द से उछाल देती है। संसार की कोई भी वस्तु से निकलने वाले स्पंदन हमारे मन पर सहानुभूतिक कंपन करते हैं तो हमें लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं और हम आनन्दित हो उठते हैं। वे लोग जो संसार के पदार्थों को केवल मनोरंजन का साधन मानते हैं वे कभी परमपुरुष के वास्तविक प्रेम को अपने जीवन में कभी नहीं जान पाते।

चन्दू- नन्दन विज्ञान में बृजगोपाल की स्थिति क्या है?
बाबा-  बृजगोपाल सब को आकर्षित करते हैं, वे प्रेमस्वरूप है ,जो भी थोड़ा सा आगे बढ़कर उन्हें देख लेता है वह उन्हें पाने की इच्छा करता है और उनके साथ प्रेम स्थापित कर लेता है इतना कि उनके बिना नहीं रह सकता। लोग कहते हैं, देखो जिसे तुम चाहते हो वह तो माखन चोर है, अरे वह तो हृदयहीन है वह अपने चाहनेवालों को छोड़कर नदी के उस पर मथुरा चला जाता है, पर भक्तों पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वरन् उत्तर में वे कहते हैं कि बस, एक बार हमने उसे चाहा है तो अब हम आजीवन चाहते ही रहेंगे। परमपुरुष की चाह अपरिवर्तनीय होती है। वेद कहते हैं कि यह पंचतत्वात्मक जगत आनन्द  से उत्पन्न हुआ है, आनन्द में ही प्रतिष्ठित है और अंत में आनन्द में ही मिल जायेगा। यही आनन्द परमपुरुष से प्रेम करने वाले अनुभव करते हैं। भले ही लोग एक सौ वर्ष की उम्र आने पर कहने लगे कि वे मरना चाहते हैं पर आन्तरिक हृदय से वे नहीं मरना चाहते क्यों कि वे  अपने चारों ओर प्यारी प्यारी संग्रहीत वस्तुओं से अलग नहीं होना चाहते। परमपुरुष सबके अन्तिम आश्रय हैं, उनके अलावा जीवों को कहीं आनन्द नहीं मिल सकता। बृजगोपाल कृष्ण आनन्द के सागर हैं। अतः नन्दन विज्ञान के द्रष्टिकोण से वह एकमेवाद्वितीयम हैं। जब कोई व्यक्ति साधना करता है तो वह तन्मात्राओं के द्वारा परम पुरुष का आनन्द पाता है। ये तन्मात्रायें शब्द , स्पर्श , रूप, रस  और गंध हैं। प्रारंभिक अवस्था में वह सुगंध की अनुभूति करता है चाहे वह ज्ञात फूलों की हो या अज्ञात। यह संसार परमपुरुष की रसमय कल्पना है, वे रसिक हैं और आनन्दरस की तरंगों से सभी को अपनी रासलीला में सहभागी बनाते हैं। चाहे लोग चाहें या न चाहें उन्हें इस रासलीला में उनके साथ नाचना ही पड़ता है।

रवि- तो क्या परमपुरुष को केवल गन्ध तन्मात्रा के ही द्वारा अनुभव किया जा सकता है?
बाबा- नहीं, यह संसार परमपुरुष के अनन्त रूपों का सीमित परावर्तन है वे सर्वद्योत्नात्मक हैं अर्थात् सभी का रूप सौंदर्य उन्हीं के प्रकाश  से चमकता है अतः रूप तन्मात्रा के द्वारा वे ही सब में आभास देते हैं। वे ही लुका छिपी का खेल खेलते हैं। भक्त कहते हैं कि उनके रूप को देखने का खूब प्रयास किया पर वे इतने सुदर हैं कि मेरी आॅंखें चैंधिया गयीं और मैंने पहचान ही नहीं पाया। बृजगोपाल अपार कोमलता के श्रोत हैं, स्पर्श  तन्मात्रा के द्वारा भक्तों ने उन्हें  अनुभव किया और पाया कि संसार की सब कोमलता और कृपा उनसे ही अभिव्यक्त होते हैं, उनकी मृदुलता और कोमलता और अदृश्य  मधुरता अमाप्य है। इसी प्रकार शब्द तन्मात्रा के माध्यम से वे अपनी बाँसुरी से ओंकार ध्वनि प्रसारित करते हैं जो कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय से अविराम जारी है इसे भक्तगण प्रणव कहते हैं। यह वह ध्वनि है जिसकी सहायता से इकाई सत्ता उस परमपुरुष से संपर्क स्थापित करती है। जिसने यह समझ लिया उसकी सभी इच्छायें पूरी हो जाती हैं परंतु उसे सच्चा भक्त होना चाहिये, क्यों कि परम पुरुष प्राकाम्य सिद्धि के अधिष्ठाता हैं। यह हो सकता है कि प्रारंभ में भक्त उन्हें न पहचान पायें क्यों कि उनकी अनन्त आनन्द तरंगे कभी इस रूप में तो कभी उस रूप में अनुभव होती हैं पर भक्त कहता है कि यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो वह उनके मार्ग में अवरोध क्यों करे। वास्तव में भक्त ने जिस भी तन्मात्रा के आधार पर उन्हें अनुभव करना चाहा है उसी से वह अनुभव करता है, हमारे बृजगोपाल कभी गंध कभी रस कभी रूप कभी स्पर्श  कभी शब्द तन्मात्राओं के आधार पर अपना आनन्द बरसाते हुए भक्तों को आनन्दित करते रहते हैं ।

चन्दू- पार्थसारथी तो अन्याय और अपराध के विरुद्ध लगातार युद्ध करते रहे हैं फिर नन्दन विज्ञान की द्रष्टि में वे क्या थे ?
बाबा- यह विचार करने से पहले नन्दनविज्ञान के मनोविज्ञान को जानना होगा। मानव मन किसी दिशा  में उसके संस्कारों के अनुसार  क्रियाशील रहता है। जब बाहर से आने वाले स्पंदनों की तरंग लंबाई उसके स्वयं के मन के स्पंदनों की तरंग लंबाई को बढ़ाकर अपने अनुकूल करने लगते हैं तो व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है। पर यदि ये बाहरी स्पंदन उसके मन के स्पन्दनों की तरंग लंबाई को घटाने लगते हैं तो उसे दुख होता है। अनुकूलवेदनीयम सुखम् प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्। नन्दन विज्ञान में दुख का कोई स्थान नहीं है, जब आने वाले स्पंदनों की तरंगों की वकृता में कमी आने लगती है आनन्द प्राप्त होता है जब तरंगों की वकृता में बृद्धि होने लगती है तो दुख प्राप्त होता है। जब यह वकृता बिलकुल शून्य हो जाती है अर्थात् तरंग सीधी रेखा की तरह हो जाती है तो आनन्दम् की अवस्था आ जाती है यह परानन्दन विज्ञान के अंतर्गत आता है। पार्थसारथी दुष्टों और अपराधियों के विरुद्ध लड़ते रहे जिससे जन सामान्य को राहत मिली और उन्हें आनन्द मिला और वे अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से जी सके। अतः जिस प्रकार बृजगोपाल ने शब्द स्पर्श  रूप रस और गंध के माघ्यम से आनन्द बाॅंटा उसी प्रकार पार्थसारथी ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया और सुख बाॅंटा। दोनों के कार्यों के प्रकार अलग थे पर उद्देश्य  एक सा था। पार्थसारथी को नन्दन विज्ञान का निर्माता माना जाना चाहिये क्योंकि नन्दन विज्ञान की आवश्यक  विषयवस्तु समग्र रूपसे पार्थसारथी के कार्यों और जीवन में पायी जाती है। बृजगोपाल ने जो कार्य कोमलता और मृदुलता से किया पार्थसासरथी ने अपनी समग्र ब्रह्माॅंड की भाभुकता के साथ किया। इस प्रकार बृजगोपाल और पार्थसारथी का नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समान महत्व है।

Tuesday, 24 January 2017

103 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 13)

103 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 14 )

रवि- चाहे शिव हो या कृष्ण सभी ने ‘भक्ति‘ को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है यह केवल दार्शनिक आधार पर ही कहा जाता है या इसका कोई मनोवैज्ञानिक आधार है?
बाबा- ‘भक्ति‘ को मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक  दोनों आधारों पर अनेक प्रकार से समझाया जा सकता है। जब हम किसी व्यक्ति में आश्चर्यजनक  रूपसे किन्हीं सदगुणों  जैसे ज्ञान, स्मृति , साहस, आदि की बहुलता देखते हैं तो हम उसके प्रति आदर भाव विकसित कर लेते हैं क्योंकि हमारे गुण उस सत्ता के अपार गुणों में निलम्बित हो जाते हैं। मन का इस प्रकार का द्रष्टिकोण भक्ति कहलाता है।

इन्दु- परन्तु सभी लोग तो किसी न किसी की पूजा करने को ही भक्ति कहते हैं, क्या यह गलत है?
बाबा- प्राचीन समय में यदि किसी में कोई महानता दिखाई देती थी चाहे वह जड़ात्मक हो या सूक्ष्म या कारण, वे उसे देवता कहकर पूजा करना प्रारम्भ कर देते थे। अब यदि मनुष्य बहुत से महान लोगों की पूजा करेगा तो मन भी बहुत ओर जाकर भ्रमित होगा। वास्तव में उसकी पूजा करना चाहिये जो सभी बड़ों में सबसे बड़ा हो। जो पूज्यों के द्वारा भी पूज्यनीय कहे जाते हैं वह हैं परमपुरुष। अतः परमपुरुष की ओर ही सम्पूर्ण मन को केन्द्रित करना चाहिये और उन्हें ही पूजना चाहिए , उन्ही की उपासना करना चाहिए ।

राजू- तो क्या पार्थसारथी कृष्ण को भक्तिभाव से पूजना सार्थक नहीं होगा?
बाबा- चलो पार्थसारथी का इसी परिप्रेक्ष्य में परीक्षण करें। उन्हें सबके रहस्यों के बारे में ज्ञात है। वे केवल यही नहीं लाखों वर्ष पहले और बाद में क्या हुआ और भविष्य में क्या  होगा  यह सब जानते हैं। अतः इस द्रष्टिकोण से वे सबओर से पूजनीय होने की योग्यता रखते हैं। उनमें जीवन्तता और मानवीयता भी बहुत ही उच्चस्तर की थी और वे हमेशा  पाॅंडवों को इस ओर प्रोत्साहित करते थे। उनका ज्ञान, बुद्धि और स्मरण शक्ति की विशालता उन्हें अतुलनीय सद्गुणों से विभूषित करती है अतः उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्‘ कहा गया है। जब किसी में दिव्यता के गुण दिखाई देते है तो लोग उसे ईश्वर  कहते हैं ये ईश्वर कोटि के लोग भी परमपुरुष को महेश्वर  कहते हैं। पार्थसारथी भी सबके लिये महेश्वर  ही हैं, यह उनकी ऐश्वर्यता  प्रकट करने वाली अष्ट सिद्धियों से सिद्ध होता है। उनके पास अनिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ती, ईशित्व , वशित्व , प्राकाम्य और अन्तर्यामित्व ये सभी आठों  ऐश्वर्य  असीम स्तर पर थे।  यही कारण है कि सभी उनके समक्ष अपना सिर झुकाते हैं और भक्तिभाव से पूजते हैं। अतः भक्तितत्व के परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी का वही परीक्षण कर सकता है जिसमें यह आठों ऐश्वर्य  उनकी तुलना में अधिक परिमाण में हों। यह कार्य कोई मनुष्य नहीं कर सकता।

चन्दू- परिप्रश्न  यह है कि क्या पार्थासारथी भगवान थे? और यदि हाॅं तो उनका स्तर क्या है?
बाबा- पहले यह समझ लो कि भगवान का क्या अर्थ है। आध्यामिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाश  और दूसरा है छह गुणों का समाहार। ‘भग‘ के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है भेति भास्यते लोकान, अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाश  से सभी लोक प्रकाशित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद् गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है, इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्। अर्थात् वह सत्ता जिसमें सभी जीव वापस लौट जाते हैं और जिससे सभी का उद्गम  भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘‘ऐश्वर्यम  च समग्रं च वीर्यं च यशासह श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोश्च  शन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ ऐश्वर्य  का अर्थ है  बतायी गयीं आठ सिद्धियाॅं। जिनमें  वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से शत्रु काॅंपने लगें, जो सब पर प्रशासन कर सके। यशासह का अर्थ है यश  और अपयश  दोनों। श्री का अर्थ है सभी भौतिक उपलब्धियों के साथ शक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है पर पार्थसारथी पूर्ण भगवान थे । महाभारत के अनेक उद्धरणों में से इस संबंध में जयद्रथ बध के समय सूर्य अस्त कर फिर प्रकट करना,  पूर्ण भगवान ही कर सकते हैं। उनके शरीर का प्रत्येक भाग अतुलनीय था। वे अंशावतार या खंडावतार नहीं वे पूर्णवतार थे, भगवान ही नहीं साक्षात् भगवान थे । वही कह सकते हैं कि ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम शरणम् बृज अहम त्वाॅंम् सर्व पापेभ्यो माक्षिस्यामी मा शुचः,‘  अर्थात् अपने द्वितीयक सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आजाओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। कोई और दूसरा न यह  कह सकता है और न कहेगा। इस तरह पार्थसारथी साक्षात् भगवान थे उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं।

102 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 13)

रवि- चाहे शिव हो या कृष्ण सभी ने ‘भक्ति‘ को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है यह केवल दार्शनिक आधार पर ही कहा जाता है या इसका कोई मनोवैज्ञानिक आधार है?
बाबा- ‘भक्ति‘ को मनोवैज्ञानिक और दार्षनिक दोनों आधारों पर अनेक प्रकार से समझाया जा सकता है। जब हम किसी व्यक्ति में आष्चर्यजनक रूपसे किन्हीं सद्गुणों जैसे ज्ञान, स्मृति , साहस, आदि की बहुलता देखते हैं तो हम उसके प्रति आदर भाव विकसित कर लेते हैं क्योंकि हमारे गुण उस सत्ता के अपार गुणों में निलम्बित हो जाते हैं। मन का इस प्रकार का द्रष्टिकोण भक्ति कहलाता है।

इन्दु- परन्तु सभी लोग तो किसी न किसी की पूजा करने को ही भक्ति कहते हैं, क्या यह गलत है?
बाबा- प्राचीन समय में यदि किसी में कोई महानता दिखाई देती थी चाहे वह जड़ात्मक हो या सूक्ष्म या कारण, वे उसे देवता कहकर पूजा करना प्रारम्भ कर देते थे। अब यदि मनुष्य बहुत से महान लोगों की पूजा करेगा तो मन भी बहुत ओर जाकर भ्रमित होगा। वास्तव में उसकी पूजा करना चाहिये जो सभी बड़ों में सबसे बड़ा हो। जो पूज्यों के द्वारा भी पूज्यनीय कहे जाते हैं वह हैं परमपुरुष, अतः परमपुरुष की ही ओर सम्पूर्ण मन को केन्द्रित करना चाहिये, उन्हें ही पूजना चाहिये।

राजू- तो क्या पार्थसारथी कृष्ण को भक्तिभाव से पूजना सार्थक नहीं होगा?
बाबा- चलो पार्थसारथी का इसी परिप्रेक्ष्य में परीक्षण करें। उन्हें सबके रहस्यों के बारे में ज्ञात है। वे केवल यही नहीं लाखों वर्ष पहले और बाद में क्या हुआ और होगा सब जानते हैं। अतः इस द्रष्टिकोण से वे सब ओर से पूजनीय होने की योग्यता रखते हैं। उनमें जीवन्तता और मानवीयता भी बहुत ही उच्चस्तर की थी और वे हमेषा पाॅंडवों को इस ओर प्रोत्साहित करते थे। उनका ज्ञान, बुद्धि और स्मरण षक्ति की विषालता उन्हें अतुलनीय सद्गुणों से विभूषित करती है अतः उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्‘ कहा गया है। जब किसी में दिव्यता के गुण दिखाई देते है तो लोग उसे ईष्वर कहते हैं ये ईष्वरकोटि के लोग भी परमपुरुष को महेष्वर कहते हैं। पार्थसारथी भी सबके लिये महेष्वर ही हैं, यह उनकी एष्वर्यता प्रकट करने वाली अष्ट सिद्धियों से सिद्ध होता है। उनके पास अनिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ती, ईषित्व, वषित्व, प्राकाम्य और अन्तर्यामित्व ये सभी आठों  एष्वर्य असीम स्तर पर थे यही कारण है कि सभी उनके समक्ष अपना सिर झुकाते हैं और भक्तिभाव से पूजते हैं। अतः भक्तितत्व के परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी का वही परीक्षण कर सकता है जिसमें यह आठों एष्वर्य उनकी तुलना में अधिक परिमाण में हों। यह कार्य कोई मनुष्य नहीं कर सकता।

चन्दू- परिप्रष्न यह है कि क्या पार्थासारथी भगवान थे? और यदि हाॅं तो उनका स्तर क्या है? बाबा- पहले यह समझ लो कि भगवान का क्या अर्थ है। आध्यामिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाष और दूसरा है छह गुणों का समाहार। ‘भग‘ के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है भेति भास्यते लोकान, अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाष से सभी लोक प्रकाषित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद्गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है, इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्। अर्थात् वह सत्ता जिसमें सभी जीव वापस लौट जाते हैं और जिससे सभी का उद््रगम भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘‘एष्वर्यम् च समग्रं च वीर्यं च यषासह श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोष्च च षन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ एष्वर्य का अर्थ है ऊपर बतायी गयीं आठ सिद्धियाॅं, वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से षत्रु काॅंपने लगें, जो सब पर प्रषासन कर सके। यषासह का अर्थ है यष और अपयष दोनों। श्री का अर्थ है सभी भौतिक उपलब्धियों के साथ षक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है पर पार्थसारथी पूर्ण भगवान थे । महाभारत के अनेक उद्धरणों में से इस संबंध में जयद्रथ बध के समय सूर्य अस्त कर फिर प्रकट करना,  पूर्ण भगवान ही कर सकते हैं। उनके षरीर का प्रत्येक भाग अतुलनीय था। वे अंषावतार या खंडावतार नहीं वे पूर्णवतार थे, भगवान ही नहीं साक्षात् भगवान थे । वही कह सकते हैं कि ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम षरणम् बृज अहम त्वाॅंम् सर्व पापेभ्यो माक्षिस्यामी मा षुचः,‘  अर्थात् अपने द्वितीयक सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी षरण में आजाओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। कोई और दूसरा न कह सकता है और न कहेगा। इस तरह पार्थसारथी साक्षात् भगवान थे उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं।

Monday, 16 January 2017

101 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 12)

101 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 12)

राजू- बाबा! कभी आप बृजकृष्ण कहते हैं कभी बृजगोपाल, इनमें अन्तर है या केवल अलग अलग नाम ?
बाबा- दोनों एक ही हैं। जब आनन्द के साथ आगे की ओर गति की जाती है तो उसे बृज कहते हैं। अनेक प्रकार की तन्मात्राओं के द्वारा हमें बाह्य भौतिक जगत का ज्ञान होता है और इन तन्मात्राओं का नियंत्रण मन के द्वारा होता है। परंतु एक और नियंत्रक होता है जो मन के पीछे छिपा होता है वह दिखाई नहीं देता ठीक कठपुतली के प्रदर्शनकर्ता की तरह। यही कारण है कि लोग कहते हैं वाह! कितना अच्छा वक्ता है, गायक है, नर्तक है पर यह नहीं जानते कि वास्तव में यह सब कराने वाला कौन है। पूरी महत्ता प्रदर्शन  करने वाले को ही प्राप्त होती है। सभी प्रकार की सूचनायें प्राप्त करने के लिये हम ज्ञानेन्द्रियों की सहायता लेते हैं, संस्कृत में गो का अर्थ है इन्द्रियां  और वह सत्ता जो इनका संरक्षण और संवर्धन करता है वह गोपाल। अतः आनन्द पूर्वक लोगों को आगे ले जाने और अनुभूतियाॅं कराने का कार्य करने वाला कहलायेगा बृजगोपाल। बृजगोपाल सभी को अपनी ओर आकर्षित करते , हंसाते , रुलाते , मन में जिज्ञासा जगाते, संदेह निर्मित करते, मन में अनेक रसों का प्रसार करते, हर बार नये नये रसों और प्रकारों से आनन्दित करते सब को आगे बढ़ते जाने का मार्गदर्शन  करते हैं क्यों कि विश्व  अनन्त रसों का सागर है। इस प्रकार वे जीवन के सार तत्व परम आनन्द की अनुभूति कराते हैं क्योंकि  इसके अलावा जीवन में कुछ नहीं है।

रवि - तो क्या बृजगोपाल की तुलना किसी अन्य सत्ता से की जा सकती है?
बाबा- लोगों ने प्रयास किया कि बृजगोपाल की तुलना करने के लिये कौन उचित होगा पर जीवों के प्रति उनका प्रेम, भाव, और अंतर्ज्ञान , दूरदर्शिता  और ज्ञान की गहराई देखकर कोई भी उनके समतुल्य नहीं मिल पाया अतः उन्होंने कहा "तुला वा उपमा कृष्णस्य नास्ति"। उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं ।

चन्दू- बृजगोपाल और भक्ति का क्या सम्बन्ध है?
बाबा- ब्रह्माॅंड की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित करती है ग्रहों को तारे तारों को गेलेक्सी और गेलेक्सियों को ब्रह्माॅंड का केन्द्र और इन सब को परमपुरुष। जब कोई यह सोचता है कि परमपुरुष उसे आकर्षित कर रहे हैं और वह भी परमपुरुष को आकर्षित करता है तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसे भक्ति कहा जाता है। इस तरह कोई छोटा हो या बड़ा, वे परस्पर और इस महान के आकर्षण से मुक्त नहीं है। यह समझ कर परम पुरुष की ओर बढ़ते जाना भक्ति है। बृजगोपाल क्या करते हैं, वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सबको अपने प्रेम और मधुरता के भावों में प्रसन्नता से आगे बढ़ते जाने को प्रोत्साहित करते हैं। अतः बृजगोपाल के अलावा अन्य कोई सत्ता भक्ति की इस उच्च स्थिति को प्राप्त कराने में सक्षम नहीं है।

नन्दू- परिप्रश्न  किसे कहते हैं ?
बाबा- वह जिसका उत्तर पा जाने पर लोग प्रोत्साहित होकर उसी प्रकार कार्य करने लगते हैं और तदानुसार परिणाम भी प्राप्त होने लगता है। अर्थात् हर प्रभाव का कारण खोजते खोजते मूल कारण प्राप्त कर लेना। सबसे पहले जब मनुष्यों ने सोचा कि जगत का मूल कारण क्या है तो जो उत्तर मिला वह आद्या शक्ति कहलाता है। आध्यात्मिक साधकों ने कहा है कि ‘‘ यच्छेदवाॅंग्मनसी प्रज्ञस्तदयच्छेद्ज्ञानात्मनि। ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि।‘‘ अर्थात् साधना के द्वारा इंद्रियों को चित्त में अर्थात् जड़ मन में समाहित करे, इस प्रकार इंद्रियों के चित्त में समाहृत हो जाने पर आप अपनी और अन्यों की इंद्रियों को स्तंभित कर सकते हो अर्थात् उनकी गतिविधियों पर अपने मन से नियंत्रण कर सकते हो। इसके बाद अपने चित्त की क्षमता को अहमतत्व अर्थात् ‘मैं करता हॅूं‘ इस भावना में संयोजित कर दो, जो कि ‘मैं हॅू‘‘ भावना अर्थात् महत्तत्व से जुड़ा है। इस प्रकार वे अंतर्ज्ञान  के क्षेत्र  में प्रवेश  पा लेंगे और उन्हें बिना किसी औपचारिकता के सभी ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। अब ‘मैं हॅूं‘  भावना को परम पुरुष में समर्पित कर दो इससे परम शान्ति प्राप्त होगी। इस प्रकार साधना की प्रगति की दशाओं पर प्रकाश  डाला गया है जो कि वास्तव में परमपुरुष के संबंध में परिप्रश्न  कहलाता है।

रवि- तो परिप्रश्न के परिप्रेक्ष्य में बृजगोपाल का क्या स्तर है?
बाबा- बृजगोपाल क्या करते हैं? वे सभी को बिना भेदभाव के अपनी ओर आकर्षित करते हैं और भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी स्तरों पर प्रगति का रास्ता दिखलाते हैं। इतना ही नहीं जो उनकी आलोचना करते हैं वे भी उनको अपना अंतरंग ही मानते हैं। इस तरह परिप्रश्न  के संदर्भ में बृजगोपाल विश्व  के केन्द्र हैं और मानव हृदय और संवेदनों के सार हैं, वे जीवों के अंतिम आश्रय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में अद्वैत , बाद में द्वैत और अंत में अद्वैत की स्थिति बनती है जो ‘‘एकोहमबहुस्याम‘‘ के द्वारा अभिव्यक्त की गई है। जिसका अर्थ है मैं एक था फिर अनेक हो गया और फिर एक ही रहूँगा । यथार्थतः बृजगोपाल का हृदय सबका आश्रय है।

Monday, 9 January 2017

100 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 11)

100 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 11)

रवि-कुछ विद्वान द्वैताद्वैतवाद की चर्चा करते हैं यह क्या है?
बाबा-  द्वैताद्वैत का अर्थ है प्रारंभ में द्वैत पर अंत में अद्वैत। अर्थात् पहले जीव अपने को परम पुरुष से पृथक मानते हैं पर बाद में साधना करके वे उनके अधिक निकट आ जाते हैं और फिर उन से मिलकर एक हो जाते हैं। अब प्रश्न  है कि यह मिलकर एक हो जाना कैसा है? शक्कर और रेत जैसा या शक्कर और पानी जैसा?  यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि जीव आखिर आते कहाॅं से हैं? जीवों का अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। यह जगत भी सापेक्षिक सत्य है। पर द्वैताद्वैतवादी इस संबंध में बिलकुल मौन हैं कि जीव आते कहाॅं से हैं, पर यह कहते हैं कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। सभी जीव जानते हैं कि उनके पास एक जैविक बल है, उनकी अपेक्षायें और आशायें हैं, सुख दुख हैं, भावनायें और भाभुकतायें हैं। इन सबको भुलाकर छोड़ा नहीं जा सकता। ये सब बोझ भी नहीं हैं बल्कि आनन्ददायी जीवन का आनन्द हैं। अतः स्पष्ट है कि द्वैताद्वैतवाद में मानवता का मूल्य नहीं समझा गया। वह अनन्त सत्ता जिसका प्रवाह सतत रूप से विस्तारित हो रहा है उसका अन्त भी आनन्द स्वरूप अनन्त में ही होगा अतः जीव और शिव का मिलन शक्कर और रेत की तरह नहीं वरन् शक्कर और पानी की तरह ही संभव है । अपनी उन्नत बुद्धि और निस्वार्थ सेवा के बल से साधना और सत्कर्म करते हुए वे साधारण से असाधारण व्यक्तित्व को प्राप्त कर सकते हैं।

इन्दु - तो क्या बृजगोपाल का व्यक्तित्व द्वैताद्वैवाद के अनुकूल माना जा सकता है?
बाबा- वे पैदा ही जेल में हुए, उस रात में भयंकर जलवृष्टि और बिजली की बज्र चमक हो रही थी जिसका मतलब ही था कि कंस की भ्रष्ट नीतियों को नष्ट करने के लिये दूरदर्शी  विधान। जेल के प्रहरी के द्वारा ही दरवाजे के ताले खोले जाना , गोकुल के सभी व्यक्तियों का गहरी नींद में सो जाना, यह सब नवजात कृष्ण को सुरक्षित बचाने का दैवीय विधान था। बृजगोपाल के जीवन की छोटी छोटी घटनाऐं  जैसे पूतना का मारा जाना, बकासुर और अघासुर कर मारा जाना किस प्रकार संभव हुआ। ये सब कंस के जासूस थे । वे तो यह काम अपनी आजीविका के लिये करते थे, उन्हें कृष्ण से व्यक्तिगत रूपसे कुछ भी लेना देना नहीं था। कृष्ण ने भी उन्हें जानबूझकर नहीं मारा ,वे सब उन्हें मारने आये थे अतः अपने बचाव में कृष्ण ने उन्हें मारा और वे स्वभावतः मारे गये । पूतना का वे गला दबाकर या तलवार से बध कर सकते थे पर उन्होंने यह नहीं किया बल्कि दाॅंत से काटा और उसके द्वारा लगाया गया विष उसी के शरीर में प्रवेश  कर गया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। स्पष्ट है कि इन सब में कृष्ण ने अपना मानवीय द्रष्टिकोण नहीं छोड़ा। जीव परमपुरुष से आये हैं और उन्हीं में अंत में चले जायेंगे। पूतना आदि भी परमपुरुष से ही आये थे, वे भी द्वैतवादी थे यदि उन्होंने साधना की होती तो परम पुरुष में मिलकर एक हो गये होते पर उन्होंने नकारात्मक रास्ता चुना और उन्होंने विश्व  के केन्द्र को ही नष्ट करना चाहा । अंततः कृष्ण को उनकी बुरी प्रवृत्तियाॅं नष्ट कर मानवता की रक्षा के लिये मारना पड़ा। कोई यदि आग के पास बिना किसी सुरक्षा के जाता है तो वह उन्हें राख कर देती है, कृष्ण यदि केवल  द्वैतवादी की तरह व्यवहार करते तो वे अपने को उनसे दूर कर लेते पर उन्होंने यह नहीं किया, उन्होंने उन सबको अपने पास ही बुला लिया। गोपियाॅं भी कोई पढ़ी लिखीं नहीं थीं, पर वे अपने द्वैत को अद्वैत में बदलने के लिये लगातार उनके पास जाने के लिये गतिशील बनी रहीं। अब यह मेल कैसा था? पानी और शक्कर की तरह । बृजगोपाल ने सभी ग्वालबालों और गोपियों के साथ अपने को इस प्रकार मिला लिया था कि उन्हें पहचानना संभव नहीं होता था। यहाॅं द्वैत समाप्त था। साॅंसारिक रंग भेद और आकर्षण, द्वैत में फुसला कर भटकाये रहते हैं और परमपुरुष से दूर करते जाते हैं, कृष्ण का कहना था कि ये सब आकर्षण और भेद उन्हें देकर उनके साथ ही एक हो जाओ क्योंकि परम पुरुष से आये हो तो परमपुरुष में ही मिलने का लक्ष्य होना चाहिये, यह अद्वैत है। उन्हीं की वस्तु उनको ही सौपकर भार मुक्त होने में ही बुद्धिमत्ता है। स्पष्ट है कि बृजगोपाल का मिलन शक्कर और रेत के जैसा नहीं बल्कि शक्कर और पानी की तरह है, क्यों कि वे तारक बृह्म हैं।

चन्दू- इस परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी ने क्या किया?
बाबा- उन्होंने सच्चे लोगों को एकत्रित कर मानवता के मूल्यों की रक्षा करने के लिये लगातार संघर्षरत रखा। साधक को परम पुरुष के समीप जाने के लिये साधना के कटीले रास्ते पर चलना ही पड़ता है। जब रास्ते के काॅंटे हटकर दूर हो जाते हैं साधक आगे बढ़कर परमपुरुष की गोद में आश्रय पा ही लेता है। यह भी हो सकता है कि भक्त सच्चाई और ईमानदारी से अपनी सभी ऊर्जा को एक बिंदु पर केन्द्रित कर  एक स्थान पर बैठा अधीरता से पुकार कर कहे कि हे परमपुरुष मेरे ऊपर कृपा करो और मेरे पास आ जाओ। इस प्रकार उसकी सभी मनोवैज्ञानिक ऊर्जा एक बिंदु पर केन्द्रित होकर परम पुरुष से एकीकृत हो जाती है, यह अद्वैत है। इस प्रकार का रास्ता भक्ति मार्ग,  ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग कहलाता है। प्रारंभ में भक्त और परमपुरुष दो, फिर अंत में केवल परमपुरुष एक। पार्थसारथी ने सच्चाई का पालन करने के लिये कुशल रणनीति बनाने का कौशल भी सिखाया। बार बार जरासंध के आक्रमण से नागरिकों को बचाने के लिये अपनी राजधानी को मथुरा से द्वारका में ले जाना इसी रणनीति का हिस्सा था, क्योंकि जरासंध को द्वारका जाने में मरुस्थल को पार करना कठिन था। इस प्रकार व्यक्तिगत जीवन में सच्चाई के साथ रहते हुए दुष्टों के विरुद्ध शस्त्र किस प्रकार उठाये जाते हैं यह भी उन्होंने सिखाया। उन्होंने धर्म के प्रति स्थिर और बुद्धिमान लोगों को एकत्रित कर सत्य और उच्चतर जीवन जीने की ओर प्रेरित किया जिससे लोग उन्हें अपना निकटतम मानने लगे। यही कारण है कि वे आज तक सब के दिलों पर राज्य कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्टतः कहा कि मुझ से ही सभी उत्पन्न हुए हैं मुझ में ही सभी प्रतिष्ठित हैं और अंत में मुझमें ही मिल जायेंगे। द्वैताद्वैतवाद यह नहीं कह पाता कि जीव कहाॅं से आते हैं, केवल यह कहता है कि अंत में वे परमपुरुष में मिल जाते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैताद्वैतवाद के प्रकाश  में परीक्षित करना व्यर्थ है, वह उससे बहुत ऊपर हैं।

Friday, 6 January 2017

99 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

99 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 10)

राजू - सभी जीवधारी अनुभव करते हैं कि उनका अस्तित्व है, यह उन्हें समझाने की आवश्यकता नहीं होती। यदि कोई विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार किसी से कहे कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं है तो वह तत्काल कहेगा कि तुम बात किससे कर रहे हो? इस तरह क्या यह दर्शन की त्रुटियाॅं नहीं हैं?
बाबा- प्रारंभ में लोग दर्शनशास्त्र  के प्रति जागरूक नहीं थे धीरे धीरे यह जागरूकता बढ़ती गयी और वे  अनुभव करने लगे कि संसार है और उसका संचालनकर्ता भी है। भले ही उसके बारे में अधिक जानकारी नहीं है हमें उसकी ओर बढ़ना चाहिये। द्वैतवाद इस प्रकार की विचारधारा में आगे बढ़ा। इस तरह दो का अस्तित्व एक भक्त और दूसरा भगवान माना गया इसके और आगे क्या इस पर चिंतन नहीं किया गया। राधा भाव द्वैतवाद का प्रतिपादन करता है। इसके 'अनुसार जीव भाव को साॅंद्रित कर एक विंदु पर एकत्रित कर दिया जाय तो उसे राधा भाव कहते हैं '। जीव का यही इकाई ‘‘मैं‘‘ कहलाता है इसे परम पुरुष की ओर आगे बढ़ाना होता है।

नन्दू- इस प्रकार का आगे बढ़ते जाना समाप्त कब और कहाॅं होता है?
बाबा- जीवों का अस्तित्व एक बिदु में है यह समझने के लिये बिंदु की परिभाषा को याद रखना होगा कि बिंदु वह है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जब इकाई जीव का ‘मैं बोध‘ बढ़ने लगता है, जैसे, मैंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया, मैं इतना धनवान हॅूं, मैं लोगों पर नियंत्रण कर सकता हॅूं आदि, पर उनका यह सब सोच एक बिंदु के चारों ओर ही होता है जिसकी स्थिति तो होती है पर परिमाण नहीं। जबकि परमपुरुष का परिमाण अमाप्य है, जो हम सोचते हैं वह भी और जो नहीं सोच पाते वह भी परमपुरुष है और ध्यान देने की बात यह है कि सार्वभौमिक केन्द्रक जो परमपुरुष की सार्वत्रिक उपस्थिति को नियंत्रित करता है वह भी एक बिंदु ही है। जीव भाव जब बिंदु के रूप में आ जाता है तो उसे राधा भाव कहते हैं, जो जीवों के अस्तित्व को प्रकट करता है। परम सत्ता का केन्द्रक भी एक बिंदु है और जीव का यह बिंदु इस परम सत्ता के पास अकेले ज्ञान और कर्म से नहीं वरन् भक्ति से आ पाता है । भक्ति को प्राप्त करने के लिये ज्ञानपूर्वक कर्म करना होता है।

इन्दु- लेकिन आपने तो एक बार यह बताया था कि भक्ति के सहारे भक्त परम पुरुष की ओर बढ़ते हैं और जैसे जैसे वे उनके और निकट आते हैं वे अपना अस्तित्व खोकर उनके अस्तित्व मे मिल जाकर वही हो जाते हैं, एक हो जाते हैं तब द्वैत कहाॅं बचता है?
बाबा- बिलकुल सही । देखो ! द्वैतवादी कहते हैं कि मैं हूँ  और मेरा स्वामी । मैं उनमें मिलना नहीं चाहता क्यों कि मैं शक्कर नहीं बनना चाहता, मैं तो शक्कर का स्वाद लेते रहना चाहता हॅूं। परंतु यह एक खतरनाक विचार है क्योंकि जब अधिक समय तक कोई किसी के अधिक निकट रहता है तो वह अपना अस्तित्व खो देता है, जब तक शक्कर  का स्वाद लिया जाता है तब तक दो सत्तायें रहती हैं, एक शक्कर और दूसरा स्वाद, पर ज्योंही शक्कर गले के आगे पेट में चली जाती है तब एक ही सत्ता बचती है दोनों एक ही हो जाते हैं। कोई भी शक्कर को अधिक देर तक स्वाद लेने के लिये जीभ पर रखे नहीं रह सकता। इसी प्रकार जब कोई परमपुरुष को अपनी शक्कर मानकर आगे बढ़कर पास पहुंचता है वह उनसे मिलकर एक ही हो जाता है। पहली अवस्था में  1 +1 =2 ,  दूसरी अवस्था में  1+1=1, और तीसरी अवस्था में 1+1=  क्या? पता नहीं। यही अंतिम अवस्था है।

रवि- परन्तु हम इसे बृजकृष्ण पर कैसे लागू कर सकते हैं?
बाबा- बृजकृष्ण एक केन्द्र हैं वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सभी जाकर उनके पास अपनत्व और महानता का अनुभव करते हैं। साधक जब सहस्रार में पहुंचता है तो वह परमपुरुष से गहरी निकटता का अनुभव करता है और वह अपना पृथक अस्तित्व नहीं रख पाता। अतः बृजकृष्ण और द्वैतवाद में बहुत अंतर है।

चन्दू- तो क्या पार्थसारथी पर द्वैतवाद लागू हो सकता है ?
बाबा- चलो पार्थसारथी को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परखते हैं। किसी भी महापुरुष के व्यक्तित्व को परखने के लिये तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक  होता है, 1.उसने क्या कहा है, 2.उसने क्या किया है (भले कुछ न कहा हो,) और 3.उसके चुप रहने से (भले ही उसने कुछ न कहा हो और कुछ न किया हो)। देखिये, पार्थसारथी ने क्या कहा है, ‘‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम् शरणम् बृज। अहम् त्वाॅम् सर्वपापेभ्यो मोक्षिस्यामी मा शुचः।‘‘ मनुष्य का मूल धर्म है परमपुरुष की ओर आनन्दपूर्वक जाना। जीवन के लिये भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा जैसी अन्य आवश्यकताओं  के लिये जो कर्म हैं वे सब उपधर्म हैं। अतः सर्वप्राथमिक धर्म है परमपुरुष की शरण में जाना फिर अन्य उपधर्मों में जुड़ना। जब जैव तत्व परमपुरुष की अधिक निकटता में आता है तो वह पृथक नहीं रह सकता एक ही हो जाता है, अतः पार्थसारथी का कहना है कि सब द्वितीयक धर्माें को प्राथमिकता न देकर प्राथमिक धर्म परम पुरुष की ओर आनन्दपूर्वक चलने का अभ्यास करो। इसकी चिंता न करो कि पूर्व में पाप हो गये हैं उनका क्या होगा ! मैं उन्हें क्षय कर दूॅंगा। कितनी बड़ी गारन्टी। यह न तो पूर्व काल में किसी महापुरुष ने कहा है और न भविष्य में कहेगा। इसी से प्रकट होता है कि वह क्या थे , वे साक्षात् परमपुरुष ही थे। केवल वह ,एकमेव, अद्वितीय।

राजू - आपने प्राथमिक और द्वितीयक नाम के नये धर्म बताकर थोड़ा कन्फ्यूज सा नहीं कर दिया ?
बाबा- यथार्थतः प्राथमिक धर्म वही परमपुरुष हैं और उन्हें ‘एक‘  और अन्य द्वितीयक धर्म ‘षून्य‘ से प्रकट किये जाते हैं। हम जानते हैं कि यदि एक के बाद षून्य अंकित करते हैं तो उस संख्या का मान दस गुना बढ़ जाता है और यदि एक के पहले षून्य अंकित करते हैं तो संख्या अपरिवर्तित रहती है। अतः पहले प्राथमिक धर्म बाद में द्वितीयक धर्म का पालन करने पर ही जीवन में परमपुरुष की प्राप्ति हो सकेगी। प्राथमिक धर्म की ओर भी आनन्द पूर्वक बढ़ना होगा ‘‘बृज का अर्थ है आनन्द पूर्वक आगे बढ़ना‘‘ इसीलिये इसे बृज परिक्रमा कहते हैं। परम पुरुष का आश्रय प्राप्त करने के लिये उनकी ओर आनन्द पूर्वक बढ़ते जाना ही प्रारंभिक धर्म है अन्य सब द्वितीयक। इस प्रकार प्रारंभिक धर्म ‘परमपुरुष‘ को लक्ष्य रखकर द्वितीयक धर्मों के साथ जो लोग आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें परमपुरुष अपने आपमें एकीकृत कर लेते हैं, यह पार्थसारथी की वचन है जो स्पष्टतः द्वैतवाद से पृथक है ।
धन एक बराबर दो,
बाबा- हाॅं उस प्रकार के अद्वैतवादी हैं जो प्रारंभ में अन्य सब जीवों का सापेक्षिक अस्तित्व मानते हुए अंत में अपनी अनन्त दिव्यता में उन्हें समाहित कर लेते हैं। अतः पार्थसारथी कृष्ण के व्यक्तित्व को द्वैतवाद के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित करना ही निस्सार है।