Tuesday 24 January 2017

102 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 13)

रवि- चाहे शिव हो या कृष्ण सभी ने ‘भक्ति‘ को ही सर्वश्रेष्ठ कहा है यह केवल दार्शनिक आधार पर ही कहा जाता है या इसका कोई मनोवैज्ञानिक आधार है?
बाबा- ‘भक्ति‘ को मनोवैज्ञानिक और दार्षनिक दोनों आधारों पर अनेक प्रकार से समझाया जा सकता है। जब हम किसी व्यक्ति में आष्चर्यजनक रूपसे किन्हीं सद्गुणों जैसे ज्ञान, स्मृति , साहस, आदि की बहुलता देखते हैं तो हम उसके प्रति आदर भाव विकसित कर लेते हैं क्योंकि हमारे गुण उस सत्ता के अपार गुणों में निलम्बित हो जाते हैं। मन का इस प्रकार का द्रष्टिकोण भक्ति कहलाता है।

इन्दु- परन्तु सभी लोग तो किसी न किसी की पूजा करने को ही भक्ति कहते हैं, क्या यह गलत है?
बाबा- प्राचीन समय में यदि किसी में कोई महानता दिखाई देती थी चाहे वह जड़ात्मक हो या सूक्ष्म या कारण, वे उसे देवता कहकर पूजा करना प्रारम्भ कर देते थे। अब यदि मनुष्य बहुत से महान लोगों की पूजा करेगा तो मन भी बहुत ओर जाकर भ्रमित होगा। वास्तव में उसकी पूजा करना चाहिये जो सभी बड़ों में सबसे बड़ा हो। जो पूज्यों के द्वारा भी पूज्यनीय कहे जाते हैं वह हैं परमपुरुष, अतः परमपुरुष की ही ओर सम्पूर्ण मन को केन्द्रित करना चाहिये, उन्हें ही पूजना चाहिये।

राजू- तो क्या पार्थसारथी कृष्ण को भक्तिभाव से पूजना सार्थक नहीं होगा?
बाबा- चलो पार्थसारथी का इसी परिप्रेक्ष्य में परीक्षण करें। उन्हें सबके रहस्यों के बारे में ज्ञात है। वे केवल यही नहीं लाखों वर्ष पहले और बाद में क्या हुआ और होगा सब जानते हैं। अतः इस द्रष्टिकोण से वे सब ओर से पूजनीय होने की योग्यता रखते हैं। उनमें जीवन्तता और मानवीयता भी बहुत ही उच्चस्तर की थी और वे हमेषा पाॅंडवों को इस ओर प्रोत्साहित करते थे। उनका ज्ञान, बुद्धि और स्मरण षक्ति की विषालता उन्हें अतुलनीय सद्गुणों से विभूषित करती है अतः उन्हें ‘एकमेवाद्वितीयम्‘ कहा गया है। जब किसी में दिव्यता के गुण दिखाई देते है तो लोग उसे ईष्वर कहते हैं ये ईष्वरकोटि के लोग भी परमपुरुष को महेष्वर कहते हैं। पार्थसारथी भी सबके लिये महेष्वर ही हैं, यह उनकी एष्वर्यता प्रकट करने वाली अष्ट सिद्धियों से सिद्ध होता है। उनके पास अनिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ती, ईषित्व, वषित्व, प्राकाम्य और अन्तर्यामित्व ये सभी आठों  एष्वर्य असीम स्तर पर थे यही कारण है कि सभी उनके समक्ष अपना सिर झुकाते हैं और भक्तिभाव से पूजते हैं। अतः भक्तितत्व के परिप्रेक्ष्य में पार्थसारथी का वही परीक्षण कर सकता है जिसमें यह आठों एष्वर्य उनकी तुलना में अधिक परिमाण में हों। यह कार्य कोई मनुष्य नहीं कर सकता।

चन्दू- परिप्रष्न यह है कि क्या पार्थासारथी भगवान थे? और यदि हाॅं तो उनका स्तर क्या है? बाबा- पहले यह समझ लो कि भगवान का क्या अर्थ है। आध्यामिक रूप से इसके दो अर्थ है, पहला है आध्यत्मिक प्रकाष और दूसरा है छह गुणों का समाहार। ‘भग‘ के पहले अक्षर ‘भ‘ का अर्थ है भेति भास्यते लोकान, अर्थात् जिसके ज्ञान, जीवन्तता और महानता के प्रकाष से सभी लोक प्रकाषित होते हैं। अत्यधिक उच्च स्तरीय मानवीय सद्गुणों का ध्वन्यात्मिक उद्गम है ‘भ‘। और ‘ग‘ का अर्थ है, इत्यागच्छत्यजस्रम् गच्छति यस्मिन आगच्छति यस्मात्। अर्थात् वह सत्ता जिसमें सभी जीव वापस लौट जाते हैं और जिससे सभी का उद््रगम भी होता है। दूसरे प्रकार से भग का अर्थ है छः गुणों का समाहार, ‘‘एष्वर्यम् च समग्रं च वीर्यं च यषासह श्रियः, ज्ञानवैराग्ययोष्च च षन्नाम भग इति उक्तम्।‘‘ एष्वर्य का अर्थ है ऊपर बतायी गयीं आठ सिद्धियाॅं, वीर्य का अर्थ है जिसकी उपस्थिति से षत्रु काॅंपने लगें, जो सब पर प्रषासन कर सके। यषासह का अर्थ है यष और अपयष दोनों। श्री का अर्थ है सभी भौतिक उपलब्धियों के साथ षक्ति का प्रचुर सामंजस्य। ज्ञान का अर्थ है आघ्यात्मिक ज्ञान, परा और अपरा ज्ञान। वैराग्य का अर्थ है राग रहित होना, किसी भी भौतिक आकर्षण में लिप्त न होना। इस प्रकार जिस किसी में भी यह छः गुण हैं वह भगवान कहला सकता है पर पार्थसारथी पूर्ण भगवान थे । महाभारत के अनेक उद्धरणों में से इस संबंध में जयद्रथ बध के समय सूर्य अस्त कर फिर प्रकट करना,  पूर्ण भगवान ही कर सकते हैं। उनके षरीर का प्रत्येक भाग अतुलनीय था। वे अंषावतार या खंडावतार नहीं वे पूर्णवतार थे, भगवान ही नहीं साक्षात् भगवान थे । वही कह सकते हैं कि ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकम षरणम् बृज अहम त्वाॅंम् सर्व पापेभ्यो माक्षिस्यामी मा षुचः,‘  अर्थात् अपने द्वितीयक सभी धर्मों को त्यागकर केवल मेरी षरण में आजाओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो। कोई और दूसरा न कह सकता है और न कहेगा। इस तरह पार्थसारथी साक्षात् भगवान थे उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं।

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