104 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 14)
रवि- भक्ति के सम्बन्ध में आपने अनेक प्रकार से समझाया है परन्तु मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आ पाया है कि आखिर भक्ति करने से किस को आनन्द मिलता है खुद को या परमपुरुष को?
बाबा- ध्यान से सुनो। नन्दन का अर्थ है आनन्द देना और लेना। गोप का अर्थ है केवल आनन्द देना। परमपुरुष को आनन्द देना और उसी समय उनसे आनन्द प्राप्त करना ‘रगानुगा‘ भक्ति कहलाता है इसमें भक्त की भावना यह रहती है कि मैं परम पुरुष को इसलिये प्रेम करता हॅूं जिससे उन्हें आनन्द प्राप्त हो चूँकि मेरे इस कार्य से परमपुरुष को आनन्द मिलता है यह जानकार मुझे भी आनन्द मिलता है। सर्वोच्च स्तर की भक्ति ‘रागात्मिका‘ भक्ति कहलाती है जिसमें भक्त की यह भावना रहती है कि मैं परमपुरुष को प्रेम करता रहूँगा क्योंकि मैं उन्हें आनन्द देना चाहता हॅूं चाहे मुझे आनन्द मिले या न मिले, इसके लिये मैं कोई भी कठिनाई या कष्ट उठाने को तैयार हॅूं। गोपगोपियों की भक्ति उत्तम स्तर की थी, रागात्मिका थी।
नन्दू- तो क्या नन्दन विज्ञान का कोई महत्व नहीं है?
बाबा- नन्दन विज्ञान की उत्तमता यह है कि इसमें भक्त परमपुरुष की अनेक अभिव्यक्तियों का आनन्द पाता है। भक्त की भावना यह होती है कि परमपुरुष मेरी व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं, उनके समान कोई नहीं , मैं उन्हें चाहता हूँ , मैं प्रत्येक वह कार्य करना चाहता हॅूं जिसमें उन्हें आनन्द मिले, इस तरह नन्दन विज्ञान में दोनों प्रकार की भक्तियाॅं एक साथ मिल जाती हैं क्योंकि भक्त सबमें परम पुरुष का ही प्रसार देखने लगता है चाहे वह पर्वत, नदियाॅं, पेड़, जानवर या कोई भी जीव क्यों न हो। वह कहता है हे परमपुरुष ! मैं तुम्हें अनेक प्रकार से अनगिनत रूपों में युगों युगों में चाहता रहा हूँ , प्रेम करता रहा हॅूं तुम ‘‘अखण्डचिदैकरस‘‘ अर्थात् सतत आनन्दरस प्रवाह हो, मैं तुममें अपनी पूर्णता को ढूॅड़ रहा हॅूं।
इन्दु- लेकिन परमपुरुष तो अलौकिक हैं, उन्हें प्रसन्नता देना क्या सम्भव है?
बाबा- भले ही जीव, परमपुरुष को उनकी अलौकिकता में न पाये पर उनकी हलकी सी झलक ही उसे आनन्द से उछाल देती है। संसार की कोई भी वस्तु से निकलने वाले स्पंदन हमारे मन पर सहानुभूतिक कंपन करते हैं तो हमें लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं और हम आनन्दित हो उठते हैं। वे लोग जो संसार के पदार्थों को केवल मनोरंजन का साधन मानते हैं वे कभी परमपुरुष के वास्तविक प्रेम को अपने जीवन में कभी नहीं जान पाते।
चन्दू- नन्दन विज्ञान में बृजगोपाल की स्थिति क्या है?
बाबा- बृजगोपाल सब को आकर्षित करते हैं, वे प्रेमस्वरूप है ,जो भी थोड़ा सा आगे बढ़कर उन्हें देख लेता है वह उन्हें पाने की इच्छा करता है और उनके साथ प्रेम स्थापित कर लेता है इतना कि उनके बिना नहीं रह सकता। लोग कहते हैं, देखो जिसे तुम चाहते हो वह तो माखन चोर है, अरे वह तो हृदयहीन है वह अपने चाहनेवालों को छोड़कर नदी के उस पर मथुरा चला जाता है, पर भक्तों पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वरन् उत्तर में वे कहते हैं कि बस, एक बार हमने उसे चाहा है तो अब हम आजीवन चाहते ही रहेंगे। परमपुरुष की चाह अपरिवर्तनीय होती है। वेद कहते हैं कि यह पंचतत्वात्मक जगत आनन्द से उत्पन्न हुआ है, आनन्द में ही प्रतिष्ठित है और अंत में आनन्द में ही मिल जायेगा। यही आनन्द परमपुरुष से प्रेम करने वाले अनुभव करते हैं। भले ही लोग एक सौ वर्ष की उम्र आने पर कहने लगे कि वे मरना चाहते हैं पर आन्तरिक हृदय से वे नहीं मरना चाहते क्यों कि वे अपने चारों ओर प्यारी प्यारी संग्रहीत वस्तुओं से अलग नहीं होना चाहते। परमपुरुष सबके अन्तिम आश्रय हैं, उनके अलावा जीवों को कहीं आनन्द नहीं मिल सकता। बृजगोपाल कृष्ण आनन्द के सागर हैं। अतः नन्दन विज्ञान के द्रष्टिकोण से वह एकमेवाद्वितीयम हैं। जब कोई व्यक्ति साधना करता है तो वह तन्मात्राओं के द्वारा परम पुरुष का आनन्द पाता है। ये तन्मात्रायें शब्द , स्पर्श , रूप, रस और गंध हैं। प्रारंभिक अवस्था में वह सुगंध की अनुभूति करता है चाहे वह ज्ञात फूलों की हो या अज्ञात। यह संसार परमपुरुष की रसमय कल्पना है, वे रसिक हैं और आनन्दरस की तरंगों से सभी को अपनी रासलीला में सहभागी बनाते हैं। चाहे लोग चाहें या न चाहें उन्हें इस रासलीला में उनके साथ नाचना ही पड़ता है।
रवि- तो क्या परमपुरुष को केवल गन्ध तन्मात्रा के ही द्वारा अनुभव किया जा सकता है?
बाबा- नहीं, यह संसार परमपुरुष के अनन्त रूपों का सीमित परावर्तन है वे सर्वद्योत्नात्मक हैं अर्थात् सभी का रूप सौंदर्य उन्हीं के प्रकाश से चमकता है अतः रूप तन्मात्रा के द्वारा वे ही सब में आभास देते हैं। वे ही लुका छिपी का खेल खेलते हैं। भक्त कहते हैं कि उनके रूप को देखने का खूब प्रयास किया पर वे इतने सुदर हैं कि मेरी आॅंखें चैंधिया गयीं और मैंने पहचान ही नहीं पाया। बृजगोपाल अपार कोमलता के श्रोत हैं, स्पर्श तन्मात्रा के द्वारा भक्तों ने उन्हें अनुभव किया और पाया कि संसार की सब कोमलता और कृपा उनसे ही अभिव्यक्त होते हैं, उनकी मृदुलता और कोमलता और अदृश्य मधुरता अमाप्य है। इसी प्रकार शब्द तन्मात्रा के माध्यम से वे अपनी बाँसुरी से ओंकार ध्वनि प्रसारित करते हैं जो कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय से अविराम जारी है इसे भक्तगण प्रणव कहते हैं। यह वह ध्वनि है जिसकी सहायता से इकाई सत्ता उस परमपुरुष से संपर्क स्थापित करती है। जिसने यह समझ लिया उसकी सभी इच्छायें पूरी हो जाती हैं परंतु उसे सच्चा भक्त होना चाहिये, क्यों कि परम पुरुष प्राकाम्य सिद्धि के अधिष्ठाता हैं। यह हो सकता है कि प्रारंभ में भक्त उन्हें न पहचान पायें क्यों कि उनकी अनन्त आनन्द तरंगे कभी इस रूप में तो कभी उस रूप में अनुभव होती हैं पर भक्त कहता है कि यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो वह उनके मार्ग में अवरोध क्यों करे। वास्तव में भक्त ने जिस भी तन्मात्रा के आधार पर उन्हें अनुभव करना चाहा है उसी से वह अनुभव करता है, हमारे बृजगोपाल कभी गंध कभी रस कभी रूप कभी स्पर्श कभी शब्द तन्मात्राओं के आधार पर अपना आनन्द बरसाते हुए भक्तों को आनन्दित करते रहते हैं ।
चन्दू- पार्थसारथी तो अन्याय और अपराध के विरुद्ध लगातार युद्ध करते रहे हैं फिर नन्दन विज्ञान की द्रष्टि में वे क्या थे ?
बाबा- यह विचार करने से पहले नन्दनविज्ञान के मनोविज्ञान को जानना होगा। मानव मन किसी दिशा में उसके संस्कारों के अनुसार क्रियाशील रहता है। जब बाहर से आने वाले स्पंदनों की तरंग लंबाई उसके स्वयं के मन के स्पंदनों की तरंग लंबाई को बढ़ाकर अपने अनुकूल करने लगते हैं तो व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है। पर यदि ये बाहरी स्पंदन उसके मन के स्पन्दनों की तरंग लंबाई को घटाने लगते हैं तो उसे दुख होता है। अनुकूलवेदनीयम सुखम् प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्। नन्दन विज्ञान में दुख का कोई स्थान नहीं है, जब आने वाले स्पंदनों की तरंगों की वकृता में कमी आने लगती है आनन्द प्राप्त होता है जब तरंगों की वकृता में बृद्धि होने लगती है तो दुख प्राप्त होता है। जब यह वकृता बिलकुल शून्य हो जाती है अर्थात् तरंग सीधी रेखा की तरह हो जाती है तो आनन्दम् की अवस्था आ जाती है यह परानन्दन विज्ञान के अंतर्गत आता है। पार्थसारथी दुष्टों और अपराधियों के विरुद्ध लड़ते रहे जिससे जन सामान्य को राहत मिली और उन्हें आनन्द मिला और वे अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से जी सके। अतः जिस प्रकार बृजगोपाल ने शब्द स्पर्श रूप रस और गंध के माघ्यम से आनन्द बाॅंटा उसी प्रकार पार्थसारथी ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया और सुख बाॅंटा। दोनों के कार्यों के प्रकार अलग थे पर उद्देश्य एक सा था। पार्थसारथी को नन्दन विज्ञान का निर्माता माना जाना चाहिये क्योंकि नन्दन विज्ञान की आवश्यक विषयवस्तु समग्र रूपसे पार्थसारथी के कार्यों और जीवन में पायी जाती है। बृजगोपाल ने जो कार्य कोमलता और मृदुलता से किया पार्थसासरथी ने अपनी समग्र ब्रह्माॅंड की भाभुकता के साथ किया। इस प्रकार बृजगोपाल और पार्थसारथी का नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समान महत्व है।
रवि- भक्ति के सम्बन्ध में आपने अनेक प्रकार से समझाया है परन्तु मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आ पाया है कि आखिर भक्ति करने से किस को आनन्द मिलता है खुद को या परमपुरुष को?
बाबा- ध्यान से सुनो। नन्दन का अर्थ है आनन्द देना और लेना। गोप का अर्थ है केवल आनन्द देना। परमपुरुष को आनन्द देना और उसी समय उनसे आनन्द प्राप्त करना ‘रगानुगा‘ भक्ति कहलाता है इसमें भक्त की भावना यह रहती है कि मैं परम पुरुष को इसलिये प्रेम करता हॅूं जिससे उन्हें आनन्द प्राप्त हो चूँकि मेरे इस कार्य से परमपुरुष को आनन्द मिलता है यह जानकार मुझे भी आनन्द मिलता है। सर्वोच्च स्तर की भक्ति ‘रागात्मिका‘ भक्ति कहलाती है जिसमें भक्त की यह भावना रहती है कि मैं परमपुरुष को प्रेम करता रहूँगा क्योंकि मैं उन्हें आनन्द देना चाहता हॅूं चाहे मुझे आनन्द मिले या न मिले, इसके लिये मैं कोई भी कठिनाई या कष्ट उठाने को तैयार हॅूं। गोपगोपियों की भक्ति उत्तम स्तर की थी, रागात्मिका थी।
नन्दू- तो क्या नन्दन विज्ञान का कोई महत्व नहीं है?
बाबा- नन्दन विज्ञान की उत्तमता यह है कि इसमें भक्त परमपुरुष की अनेक अभिव्यक्तियों का आनन्द पाता है। भक्त की भावना यह होती है कि परमपुरुष मेरी व्यक्तिगत सम्पत्ति हैं, उनके समान कोई नहीं , मैं उन्हें चाहता हूँ , मैं प्रत्येक वह कार्य करना चाहता हॅूं जिसमें उन्हें आनन्द मिले, इस तरह नन्दन विज्ञान में दोनों प्रकार की भक्तियाॅं एक साथ मिल जाती हैं क्योंकि भक्त सबमें परम पुरुष का ही प्रसार देखने लगता है चाहे वह पर्वत, नदियाॅं, पेड़, जानवर या कोई भी जीव क्यों न हो। वह कहता है हे परमपुरुष ! मैं तुम्हें अनेक प्रकार से अनगिनत रूपों में युगों युगों में चाहता रहा हूँ , प्रेम करता रहा हॅूं तुम ‘‘अखण्डचिदैकरस‘‘ अर्थात् सतत आनन्दरस प्रवाह हो, मैं तुममें अपनी पूर्णता को ढूॅड़ रहा हॅूं।
इन्दु- लेकिन परमपुरुष तो अलौकिक हैं, उन्हें प्रसन्नता देना क्या सम्भव है?
बाबा- भले ही जीव, परमपुरुष को उनकी अलौकिकता में न पाये पर उनकी हलकी सी झलक ही उसे आनन्द से उछाल देती है। संसार की कोई भी वस्तु से निकलने वाले स्पंदन हमारे मन पर सहानुभूतिक कंपन करते हैं तो हमें लगता है कि ये तो हमारे अपने हैं और हम आनन्दित हो उठते हैं। वे लोग जो संसार के पदार्थों को केवल मनोरंजन का साधन मानते हैं वे कभी परमपुरुष के वास्तविक प्रेम को अपने जीवन में कभी नहीं जान पाते।
चन्दू- नन्दन विज्ञान में बृजगोपाल की स्थिति क्या है?
बाबा- बृजगोपाल सब को आकर्षित करते हैं, वे प्रेमस्वरूप है ,जो भी थोड़ा सा आगे बढ़कर उन्हें देख लेता है वह उन्हें पाने की इच्छा करता है और उनके साथ प्रेम स्थापित कर लेता है इतना कि उनके बिना नहीं रह सकता। लोग कहते हैं, देखो जिसे तुम चाहते हो वह तो माखन चोर है, अरे वह तो हृदयहीन है वह अपने चाहनेवालों को छोड़कर नदी के उस पर मथुरा चला जाता है, पर भक्तों पर उनकी बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वरन् उत्तर में वे कहते हैं कि बस, एक बार हमने उसे चाहा है तो अब हम आजीवन चाहते ही रहेंगे। परमपुरुष की चाह अपरिवर्तनीय होती है। वेद कहते हैं कि यह पंचतत्वात्मक जगत आनन्द से उत्पन्न हुआ है, आनन्द में ही प्रतिष्ठित है और अंत में आनन्द में ही मिल जायेगा। यही आनन्द परमपुरुष से प्रेम करने वाले अनुभव करते हैं। भले ही लोग एक सौ वर्ष की उम्र आने पर कहने लगे कि वे मरना चाहते हैं पर आन्तरिक हृदय से वे नहीं मरना चाहते क्यों कि वे अपने चारों ओर प्यारी प्यारी संग्रहीत वस्तुओं से अलग नहीं होना चाहते। परमपुरुष सबके अन्तिम आश्रय हैं, उनके अलावा जीवों को कहीं आनन्द नहीं मिल सकता। बृजगोपाल कृष्ण आनन्द के सागर हैं। अतः नन्दन विज्ञान के द्रष्टिकोण से वह एकमेवाद्वितीयम हैं। जब कोई व्यक्ति साधना करता है तो वह तन्मात्राओं के द्वारा परम पुरुष का आनन्द पाता है। ये तन्मात्रायें शब्द , स्पर्श , रूप, रस और गंध हैं। प्रारंभिक अवस्था में वह सुगंध की अनुभूति करता है चाहे वह ज्ञात फूलों की हो या अज्ञात। यह संसार परमपुरुष की रसमय कल्पना है, वे रसिक हैं और आनन्दरस की तरंगों से सभी को अपनी रासलीला में सहभागी बनाते हैं। चाहे लोग चाहें या न चाहें उन्हें इस रासलीला में उनके साथ नाचना ही पड़ता है।
रवि- तो क्या परमपुरुष को केवल गन्ध तन्मात्रा के ही द्वारा अनुभव किया जा सकता है?
बाबा- नहीं, यह संसार परमपुरुष के अनन्त रूपों का सीमित परावर्तन है वे सर्वद्योत्नात्मक हैं अर्थात् सभी का रूप सौंदर्य उन्हीं के प्रकाश से चमकता है अतः रूप तन्मात्रा के द्वारा वे ही सब में आभास देते हैं। वे ही लुका छिपी का खेल खेलते हैं। भक्त कहते हैं कि उनके रूप को देखने का खूब प्रयास किया पर वे इतने सुदर हैं कि मेरी आॅंखें चैंधिया गयीं और मैंने पहचान ही नहीं पाया। बृजगोपाल अपार कोमलता के श्रोत हैं, स्पर्श तन्मात्रा के द्वारा भक्तों ने उन्हें अनुभव किया और पाया कि संसार की सब कोमलता और कृपा उनसे ही अभिव्यक्त होते हैं, उनकी मृदुलता और कोमलता और अदृश्य मधुरता अमाप्य है। इसी प्रकार शब्द तन्मात्रा के माध्यम से वे अपनी बाँसुरी से ओंकार ध्वनि प्रसारित करते हैं जो कि ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के समय से अविराम जारी है इसे भक्तगण प्रणव कहते हैं। यह वह ध्वनि है जिसकी सहायता से इकाई सत्ता उस परमपुरुष से संपर्क स्थापित करती है। जिसने यह समझ लिया उसकी सभी इच्छायें पूरी हो जाती हैं परंतु उसे सच्चा भक्त होना चाहिये, क्यों कि परम पुरुष प्राकाम्य सिद्धि के अधिष्ठाता हैं। यह हो सकता है कि प्रारंभ में भक्त उन्हें न पहचान पायें क्यों कि उनकी अनन्त आनन्द तरंगे कभी इस रूप में तो कभी उस रूप में अनुभव होती हैं पर भक्त कहता है कि यदि उन्हें यह अच्छा लगता है तो वह उनके मार्ग में अवरोध क्यों करे। वास्तव में भक्त ने जिस भी तन्मात्रा के आधार पर उन्हें अनुभव करना चाहा है उसी से वह अनुभव करता है, हमारे बृजगोपाल कभी गंध कभी रस कभी रूप कभी स्पर्श कभी शब्द तन्मात्राओं के आधार पर अपना आनन्द बरसाते हुए भक्तों को आनन्दित करते रहते हैं ।
चन्दू- पार्थसारथी तो अन्याय और अपराध के विरुद्ध लगातार युद्ध करते रहे हैं फिर नन्दन विज्ञान की द्रष्टि में वे क्या थे ?
बाबा- यह विचार करने से पहले नन्दनविज्ञान के मनोविज्ञान को जानना होगा। मानव मन किसी दिशा में उसके संस्कारों के अनुसार क्रियाशील रहता है। जब बाहर से आने वाले स्पंदनों की तरंग लंबाई उसके स्वयं के मन के स्पंदनों की तरंग लंबाई को बढ़ाकर अपने अनुकूल करने लगते हैं तो व्यक्ति को सुख प्राप्त होता है। पर यदि ये बाहरी स्पंदन उसके मन के स्पन्दनों की तरंग लंबाई को घटाने लगते हैं तो उसे दुख होता है। अनुकूलवेदनीयम सुखम् प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्। नन्दन विज्ञान में दुख का कोई स्थान नहीं है, जब आने वाले स्पंदनों की तरंगों की वकृता में कमी आने लगती है आनन्द प्राप्त होता है जब तरंगों की वकृता में बृद्धि होने लगती है तो दुख प्राप्त होता है। जब यह वकृता बिलकुल शून्य हो जाती है अर्थात् तरंग सीधी रेखा की तरह हो जाती है तो आनन्दम् की अवस्था आ जाती है यह परानन्दन विज्ञान के अंतर्गत आता है। पार्थसारथी दुष्टों और अपराधियों के विरुद्ध लड़ते रहे जिससे जन सामान्य को राहत मिली और उन्हें आनन्द मिला और वे अपने जीवन को स्वाभाविक रूप से जी सके। अतः जिस प्रकार बृजगोपाल ने शब्द स्पर्श रूप रस और गंध के माघ्यम से आनन्द बाॅंटा उसी प्रकार पार्थसारथी ने भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया और सुख बाॅंटा। दोनों के कार्यों के प्रकार अलग थे पर उद्देश्य एक सा था। पार्थसारथी को नन्दन विज्ञान का निर्माता माना जाना चाहिये क्योंकि नन्दन विज्ञान की आवश्यक विषयवस्तु समग्र रूपसे पार्थसारथी के कार्यों और जीवन में पायी जाती है। बृजगोपाल ने जो कार्य कोमलता और मृदुलता से किया पार्थसासरथी ने अपनी समग्र ब्रह्माॅंड की भाभुकता के साथ किया। इस प्रकार बृजगोपाल और पार्थसारथी का नन्दन विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समान महत्व है।
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