Monday, 16 January 2017

101 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 12)

101 बाबा की क्लास ( महासम्भूति श्रीकृष्ण- 12)

राजू- बाबा! कभी आप बृजकृष्ण कहते हैं कभी बृजगोपाल, इनमें अन्तर है या केवल अलग अलग नाम ?
बाबा- दोनों एक ही हैं। जब आनन्द के साथ आगे की ओर गति की जाती है तो उसे बृज कहते हैं। अनेक प्रकार की तन्मात्राओं के द्वारा हमें बाह्य भौतिक जगत का ज्ञान होता है और इन तन्मात्राओं का नियंत्रण मन के द्वारा होता है। परंतु एक और नियंत्रक होता है जो मन के पीछे छिपा होता है वह दिखाई नहीं देता ठीक कठपुतली के प्रदर्शनकर्ता की तरह। यही कारण है कि लोग कहते हैं वाह! कितना अच्छा वक्ता है, गायक है, नर्तक है पर यह नहीं जानते कि वास्तव में यह सब कराने वाला कौन है। पूरी महत्ता प्रदर्शन  करने वाले को ही प्राप्त होती है। सभी प्रकार की सूचनायें प्राप्त करने के लिये हम ज्ञानेन्द्रियों की सहायता लेते हैं, संस्कृत में गो का अर्थ है इन्द्रियां  और वह सत्ता जो इनका संरक्षण और संवर्धन करता है वह गोपाल। अतः आनन्द पूर्वक लोगों को आगे ले जाने और अनुभूतियाॅं कराने का कार्य करने वाला कहलायेगा बृजगोपाल। बृजगोपाल सभी को अपनी ओर आकर्षित करते , हंसाते , रुलाते , मन में जिज्ञासा जगाते, संदेह निर्मित करते, मन में अनेक रसों का प्रसार करते, हर बार नये नये रसों और प्रकारों से आनन्दित करते सब को आगे बढ़ते जाने का मार्गदर्शन  करते हैं क्यों कि विश्व  अनन्त रसों का सागर है। इस प्रकार वे जीवन के सार तत्व परम आनन्द की अनुभूति कराते हैं क्योंकि  इसके अलावा जीवन में कुछ नहीं है।

रवि - तो क्या बृजगोपाल की तुलना किसी अन्य सत्ता से की जा सकती है?
बाबा- लोगों ने प्रयास किया कि बृजगोपाल की तुलना करने के लिये कौन उचित होगा पर जीवों के प्रति उनका प्रेम, भाव, और अंतर्ज्ञान , दूरदर्शिता  और ज्ञान की गहराई देखकर कोई भी उनके समतुल्य नहीं मिल पाया अतः उन्होंने कहा "तुला वा उपमा कृष्णस्य नास्ति"। उनकी तुलना उन्हीं से की जा सकती है अन्य किसी से नहीं ।

चन्दू- बृजगोपाल और भक्ति का क्या सम्बन्ध है?
बाबा- ब्रह्माॅंड की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित करती है ग्रहों को तारे तारों को गेलेक्सी और गेलेक्सियों को ब्रह्माॅंड का केन्द्र और इन सब को परमपुरुष। जब कोई यह सोचता है कि परमपुरुष उसे आकर्षित कर रहे हैं और वह भी परमपुरुष को आकर्षित करता है तो मनोविज्ञान के क्षेत्र में इसे भक्ति कहा जाता है। इस तरह कोई छोटा हो या बड़ा, वे परस्पर और इस महान के आकर्षण से मुक्त नहीं है। यह समझ कर परम पुरुष की ओर बढ़ते जाना भक्ति है। बृजगोपाल क्या करते हैं, वह सब को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और सबको अपने प्रेम और मधुरता के भावों में प्रसन्नता से आगे बढ़ते जाने को प्रोत्साहित करते हैं। अतः बृजगोपाल के अलावा अन्य कोई सत्ता भक्ति की इस उच्च स्थिति को प्राप्त कराने में सक्षम नहीं है।

नन्दू- परिप्रश्न  किसे कहते हैं ?
बाबा- वह जिसका उत्तर पा जाने पर लोग प्रोत्साहित होकर उसी प्रकार कार्य करने लगते हैं और तदानुसार परिणाम भी प्राप्त होने लगता है। अर्थात् हर प्रभाव का कारण खोजते खोजते मूल कारण प्राप्त कर लेना। सबसे पहले जब मनुष्यों ने सोचा कि जगत का मूल कारण क्या है तो जो उत्तर मिला वह आद्या शक्ति कहलाता है। आध्यात्मिक साधकों ने कहा है कि ‘‘ यच्छेदवाॅंग्मनसी प्रज्ञस्तदयच्छेद्ज्ञानात्मनि। ज्ञानात्मनि महतो नियच्छेद तदयच्छेच्छान्तात्मनि।‘‘ अर्थात् साधना के द्वारा इंद्रियों को चित्त में अर्थात् जड़ मन में समाहित करे, इस प्रकार इंद्रियों के चित्त में समाहृत हो जाने पर आप अपनी और अन्यों की इंद्रियों को स्तंभित कर सकते हो अर्थात् उनकी गतिविधियों पर अपने मन से नियंत्रण कर सकते हो। इसके बाद अपने चित्त की क्षमता को अहमतत्व अर्थात् ‘मैं करता हॅूं‘ इस भावना में संयोजित कर दो, जो कि ‘मैं हॅू‘‘ भावना अर्थात् महत्तत्व से जुड़ा है। इस प्रकार वे अंतर्ज्ञान  के क्षेत्र  में प्रवेश  पा लेंगे और उन्हें बिना किसी औपचारिकता के सभी ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। अब ‘मैं हॅूं‘  भावना को परम पुरुष में समर्पित कर दो इससे परम शान्ति प्राप्त होगी। इस प्रकार साधना की प्रगति की दशाओं पर प्रकाश  डाला गया है जो कि वास्तव में परमपुरुष के संबंध में परिप्रश्न  कहलाता है।

रवि- तो परिप्रश्न के परिप्रेक्ष्य में बृजगोपाल का क्या स्तर है?
बाबा- बृजगोपाल क्या करते हैं? वे सभी को बिना भेदभाव के अपनी ओर आकर्षित करते हैं और भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी स्तरों पर प्रगति का रास्ता दिखलाते हैं। इतना ही नहीं जो उनकी आलोचना करते हैं वे भी उनको अपना अंतरंग ही मानते हैं। इस तरह परिप्रश्न  के संदर्भ में बृजगोपाल विश्व  के केन्द्र हैं और मानव हृदय और संवेदनों के सार हैं, वे जीवों के अंतिम आश्रय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में अद्वैत , बाद में द्वैत और अंत में अद्वैत की स्थिति बनती है जो ‘‘एकोहमबहुस्याम‘‘ के द्वारा अभिव्यक्त की गई है। जिसका अर्थ है मैं एक था फिर अनेक हो गया और फिर एक ही रहूँगा । यथार्थतः बृजगोपाल का हृदय सबका आश्रय है।

No comments:

Post a Comment