Sunday, 30 April 2017

121 बाबा की क्लास ( ब्रह्मचर्य )

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 बाबा की क्लास ( ब्रह्मचर्य ) 
रवि- बाबा ! यह बात नहीं समझ में आती कि सभी मतवाद प्रार्थना करना ही क्यों सिखाते हैं और वह भी धन सम्पन्नता, अच्छी नौकरी, स्वास्थ्य आदि भौतिक जगत की वस्तुओं को पाने के लिए ? कोई भी भक्ति पाने की सलाह नहीं देता?
राजू- हाॅं, और यह भी देखा गया है कि कोई  रविवार को , कोई शुक्रवार या शनिवार को और कोई सोमवार या मंगलवार को ही प्रार्थना करने के लिए श्रेष्ठ मानता है अन्य दिनों में भौतिक जगत की बातों और पदार्थों की प्राप्तियों में लगे रहने की सलाह देते हैं?
बाबा- सच्चे आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए सभी पराक्रम और प्रयास अपने इष्ट को पाने के लिए होते हैं जो उनकी सेवा कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं, भौतिक उपलब्धियाॅं मांगने के लिए नहीं। सांसारिक काम उन्हें ही स्मरण करते हुए व्यावहारिक संतुलन बनाकर किए जाते हैं। इस प्रकार इस रास्ते पर चलने वाले का प्रत्येक कार्य ब्रह्म साधना का ही भाग हो जाता है। जो केवल भौतिक सुख सम्पन्नता पाने के लिए ही प्रार्थनाएं करने को जीवन का उद्देश्य मानते हैं वे अपने जीवन को व्यर्थ ही नष्ट करते हैं।

इन्दु- क्या आपका आशय यह है कि मानव जीवन में दिन रात ,सुवह शाम , हर क्षण आध्यात्म चिंतन में ही डूबे रहना चाहिए?
बाबा- सच्चा मानव जीवन तो वही है जो आध्यात्मिकता के अमृत में डूबा रहता हो, मानव जीवन की रीढ़ ही है आध्यात्मिकता। इसके लिए इस जगत की हर इकाई वस्तु को ब्रह्ममय ही देखना होता है। यह सोचना होता है कि संसार का प्रत्येक अस्तित्व उसी परमसत्ता का अभिव्यक्तिकरण है। धरती आकाश, घर , नदी, पर्वत, आदर, अनादर , दिन, रात और सभी भौतिक वस्तुएं  ये सभी हमारे लिए उसके द्वारा दिए गए उपहार हैं। इसलिए उचित रूप से उसका ही भाव आरोपित करते हुए प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति से व्यवहार करना होता है। यह सोच रखना होता है कि वस्तुओं का उपभोग तुम अपने आनन्द के लिए नहीं उस परमसत्ता को आनन्दित करने के लिए करते हो इसलिए इकाई से आकर्षित न होकर उस पूर्ण के साथ संबंध बनाने का अभ्यास करना पड़ता है। जब इसप्रकार का अभ्यास हो जाता है तो किसी की कोई भी वस्तु को पाने या चुराने का विचार ही नहीं आता।

चन्दु- क्या इस प्रक्रिया के कुछ सरल उदाहरण नहीं दिए जा सकते?
बाबा-  इकाई अस्तित्व की भावना को भूलकर उनमें दिव्य अनन्त सत्ता की भावना लेना चाहिए जैसे, क्या पुत्र को भोजन कराते हो? नहीं नहीं , पुत्र रूप में ब्रह्म को भोजन कराते हो । क्या खेत में हल चलाते हो? नहीं नहीं,  उस परमब्रह्म की अपने हल के द्वारा सेवा करते हो। सच्चाई यह है कि वस्तुओं में दिव्यभाव भरने से भौतिक सुख और आनन्द पाने का निवारण हो जाता है क्योंकि वे वस्तुएं उस भाव के साथ अमूर्तसत्ता परमब्रह्म में मिल जाती हैं।

रवि- इस प्रकार हमारा सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन एक समान होता है या अन्य कुछ?
बाबा- सच यह है कि हमारा आध्यात्मिक जीवन सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं है वरन् सामाजिक जीवन हमारे आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा है। आध्यात्मिक जीवन के छत्ते के नीचे सभी कुछ आ जाता है उसके बाहर कुछ नहीं रह पाता। परन्तु दुख है कि सभी मतों में इससे उल्टा ही समझाया गया है, यही कारण है कि सभी लोग भौतिकवाद की ओर जाने को अपना लक्ष्य मानते हैं उसी में आनन्द पाते हैं और उसी में रम जाते हैं।

चन्दू- इस प्रकार तो सांसारिक जीवन बचेगा ही नहीं, जबकि रहना तो संसार में ही पड़ता है? क्या यह बिरोधाभास नहीं है?
बाबा- मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है परमसत्ता को पाना। इसके लिए सूत्र यह है कि ‘‘ सब्जेक्टिव एप्रोच थ्रो आव्जेक्तिटव एडजस्टमेंट अर्थात् व्यावहारिक समायोजन करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना‘‘ । इसका अर्थ यह है कि हम समग्र रूपसे परम सत्ता की ओर बढ़ते जाएं परन्तु सामाजिक , आर्थिक और सांसारिक अन्य कर्तव्यों को करने का सुसंतुलन भी बनाए रखें। मतलब यह कि हमारा मन तो परमसत्ता की ओर हो और हाथ सांसारिक कर्तव्य में लगे रहें। इस प्रकार सदा ही ब्रह्म का विचार मन में बनाए रखने को ही ब्रह्मचर्य साधना कहते हैं।

राजू- संसार में रहते हुए ब्रह्म का विचार चिन्तन बनाए रखना ब्रह्मचर्य है तो इंद्रिय निग्रह करना क्या है?
बाबा- ब्रह्मचर्य साधना का अर्थ यह है कि जिस भी भौतिक वस्तु या व्यक्ति से संपर्क हो उसे जड़ पदार्थ या जीवधारी न मानकर उन्हें ब्रह्म की विभिन्न अभिव्यक्तियाॅं ही मानना चाहिए। इससे मन यदि इधर उधर भटकता है तो ब्राह्मिक भावना के कारण वह परमसत्ता से अलग नहीं हो पाता। इससे एक लाभ यह भी होता है कि प्रेय साधना अर्थात् वाह्य चेष्टाएं श्रेयसाधना अर्थात् आन्तरिक चेष्टाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। इसलिए दिनरात हर क्षण ब्रह्म चिन्तन करना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। इंद्रिय निग्रह अर्थात् संयम भी इस कार्य में सहयोगी होता है परन्तु ऊपर से निग्रह और भीतर ही भीतर विषयों का चिंतन मिथ्याचार कहलाता है ब्रह्मचर्य नहीं।

रवि- परन्तु सभी शास्त्रों और विद्वानों ने इंद्रिय निग्रह करने को ही ब्रह्मचर्य का पालन करना कहा है, तो क्या इस शब्द का वे सही सही उपयोग नहीं करते ?
बाबा- सामान्यतः लोग वीर्य रक्षण को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं जो दो प्रकार का होता है, एक होता है नैष्ठिक जिसे पूर्णतः सन्यासी पालन करते हैं, और दूसरा होता है प्राजापत्य जिसे ग्रहस्थों को पालन करने के निर्देश  हैं। पहले की क्लासों में ही बताया जा चुका है कि ब्रह्मचर्य अष्टांगयोग के  ‘यम‘ के अन्तर्गत पांचवाॅं भाग है । यह भी बताया  जा चुका है कि मानव जीवन का उद्देश्य अपने आप को जानना है और यह तभी संभव होता है जब हमारा हर कार्य और विचार उस परमसत्ता को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। ब्रह्मचारी कहने का अर्थ ही है जो अपने आचार विचार और व्यवहार में ब्रह्म को देखता है, अनुभव करता है । संस्कृत में ‘चलने‘ के अर्थ में अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं, जैसे, चल् अर्थात् समान्य गति से चलना, चर् अर्थात् खाते हुए चलना, ब्रज अर्थात् आनन्दपूर्वक चलना, पर्यट् अर्थात् अध्ययन करते हुए चलना आदि आदि । ब्रह्मचर्य शब्द में चर् क्रिया का उपयोग हुआ है जिसका अर्थ है खाते हुए चलना। इसलिए ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ हुआ ब्रह्म को खाते हुए चलना, यह कैसे हो सकता है? यह तभी हो सकता है जब हम अभी बतायी गई विधियों के द्वारा जीवन के हर कार्य, आचार और व्यवहार में दिन रात श्वास प्रश्वास के साथ ब्राह्मिक भाव का प्रयोग करते रहें। इससे नये संस्कारों का निर्माण नहीं हो पाता और इष्ट मंत्र पूर्व जन्मों के संस्कारों को नष्ट करता जाता है । इस प्रकार धीरे धीरे सभी प्रकार के संस्कार क्षय होते जाते हैं तो मन और बुद्धि के शुद्ध हो जाने पर आत्मसाक्षात्कार होता है।

नन्दु- अनेक विशेषज्ञों का यह कहना कितना सार्थक है कि आध्यात्मिक साधना करने के लिये नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है, इसलिए  यह बहुत कठिन है ?
बाबा- जो लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते, उन्हें समझना चाहिये कि मन को बाहरी जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से ही सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है ‘‘ ब्रह्म का चिंतन करना‘‘ जो प्रकृति का मन पर प्रभाव कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा  ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश  और षडरिपु मन को बाहरी ओर के संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘  केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने मात्र से ब्रह्मचर्य का पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है कि उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जब तक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता  नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।

Sunday, 23 April 2017

120 बाबा की क्लास ( तारक ब्रह्म )

120
 बाबा की क्लास ( तारक ब्रह्म ) 
इन्दु- वह निर्पेक्षसत्ता, जिसकी मानसिक तरंगें स्पेस टाइम में बंधकर बह्माॅंड कहलाती हैं, क्या कभी इस ब्रह्माॅंड की सीमाओं में आता है? यदि हाॅं तो उसके आने का क्या कारण होता है?
बाबा- हाॅं। उसके दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि मानव की बुद्धि तो भावनात्मक अमूर्त सत्ता के मानसिक संपर्क में आकर संतुष्ठ हो सकती है परन्तु मानव का हृदय संतुष्ठ नहीं होता। उसका हृदय चाहता है किसी सत्ता को कुछ अधिक पास, कुछ अधिक भावप्रधान, कुछ अधिक आनन्ददायक। इसलिए अपने वंशजों को संतुष्ठ करने और उन्हें अधिक आनन्दित करने के उद्देश्य से वह इन पंचभौतिक सापेक्षिक तत्वों में बंध जाते हैं । इस अवस्था में वे तारक ब्रह्म कहलाते हैं। दूसरा कारण है कि इस ब्रह्माॅंड में जो कुछ भी प्रगति होती है वह परस्पर संघर्ष और खिचाव या टकराव से होती है। इसलिए मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है ताकि वह इस प्रकार की बाधाओं से संघर्ष कर सके। परन्तु जब मनुष्य अपनी बुद्धि से समाज को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नया करने में असफल हो जाता है तो वह परमसत्ता स्वयं को इन पंचभूतों में बाॅंधकर विकृत और अपभृष्ट मानव समाज को मार्गदर्शन करने के लिए आ जाते हैं।

चन्दु- इस बंधन में बंधकर वे क्या कार्य करते हैं?
बाबा- वास्तव में वह अपने चाहने वाले भक्तों को जो उनसे व्यक्तिगत संबंध बनाने की इच्छा रखते हैं, के हृदय को संतुष्ट करने की कृपा करते हैं। उनके माध्यम से वह सभी प्रकार की भावजड़ता और अपसंस्कृति को दूर कर उन्नत मानव समाज का निर्माण करते हैं। वह मानव रूप में ही आते हैं और वही सिखाते हैं कि कोई उनके पास कैसे आ सकता है, वही साधना करना सिखाते हैं, वही सब शास्त्रों का उचित अर्थ समझाते हैं। वही बतलाते हैं कि किस प्रकार ध्यान के द्वारा रूप से अरूप के बीच संपर्क बनाया जाता है और किस प्रकार मन को अरूप के साथ एकसमान किया जाता है।

रवि- यह तो वे लोग भी करते हैं जो पंडित या गुरु कहलाते हैं?
बाबा- पंडित और गुरु तो बहुत हैं परन्तु वे सब वित्तहर्ता (अर्थात् दक्षिणा के रूप में धन  के लोभी) होते हैं, चित्तहर्ता ( अर्थात् मन पर स्थायी प्रभाव डालकर अपना बना लेने वाले ) नहीं। चित्तहर्ता गुरु केवल तारक ब्रह्म ही होते हैं वही ब्रह्म विद्या का ज्ञान सुपात्रों को देते हैं।

बिन्दु - तो तारक ब्रह्म का केवल यही कार्य होता है?
बाबा- यह तो उनके निर्धारित कार्यक्रम का एक भाग होता है, वह तात्कालिक समाज को व्यवस्था देने , धर्म की संस्थापना (अर्थात् जिसे जहाॅं जैसा होना चाहिए उसे वहाॅं व्यवस्थित करना), विकास और अनुसंधान के क्षेत्रों में नयी दिशा देने और कुपथगामियों को सही रास्ते पर चलाने के लिए विस्त्रित रूपरेखा बनाकर ही आते हैं। जैसे, आज से सात हजार वर्ष पहले तरक ब्रह्म ‘सदाशिव‘ ने तात्कालिक अव्यवस्थित आर्य, द्रविड़ और मंगोल समाज को एक सूत्र में बाॅंधने के लिए विवाह नामक संस्था की स्थापना, विभिन्न लोगों को उनकी रुचि के अनुसार विशेष कार्यों में प्रशिक्षण देकर समाज को भवन निर्माण कला , विद्यातन्त्र, वैद्यक शास्त्र, स्वरविज्ञान, संगीत अर्थात् गीत वाद्य और नृत्य , कृषि और पशुपालन आदि में शिक्षित कराना जैसे तात्कालिक आवश्यकताओं के कार्य को स्थापित करने के लिए अपना उद्देश्य बनाया। उनके बाद आज से तीन हजार वर्ष पूर्व धरती पर आए तारक ब्रह्म ‘कृष्ण ‘ ने छोटे छोटे राज्यों के रूप में अपना आपना वर्चस्व बनाए हुए अनेक धार्मिक और अधार्मिक राजाओं को ध्रुवीकृत कर एक महाभारत का निर्माण करने, सात्विक और सदाचारियों का संरक्षण कर दुष्टों और दुराचारियों को दण्ड देने , धर्म को उसका सही स्तर और स्थान दिलाने, युद्ध कौशल और कूटनीति का संयोग करने, योग और कर्मयोग का महत्व स्थापित करने तथा आडम्बर को समाज से हटाने का लक्ष्य रखा था।

राजू- जब वह स्पेस और टाइम में अपने को बाॅंधकर अपनी ही विचार तरंगों अर्थात् इस ब्रह्माॅंड में आते हैं तो निश्चय ही निर्धारित समय में अपने मूल स्वरूप में वापस भी चले जाते हैं, उनकी भौतिक अनुपस्थिति में मनुष्य क्या करें?
बाबा- हम सभी एक असीम विशाल रसमय महासागर के निवासी हैं। हमारे भीतर और बाहर से कभी समाप्त न होने वाली उन्नत तरंगें  दसों दिशाओं में अभिव्यक्त हो रही हैं। यह अवर्णनीय स्पंदन छोटे, बड़े, उच्चारित होने वाली और उच्चारित न हो सकने वाली अलौकिक विचार तरंगों के रूप में विकीर्णित हो रहे हैं। इसलिए उस परमसत्ता के प्रत्येक प्रदर्श के साथ , प्रत्येक अभिव्यक्तिकरण के साथ, उचित और विवेकपूर्ण ढंग से व्यवहार करना चाहिए। अपने मन को कुमुदनी के आदर्श के अनुसार प्रशिक्षित करना चाहिए जो कीचड़ में खिलकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिये दिन रात लगातार स्फूर्त रहकर कीचड़ भरे तूफानों, झंझावातों और भाग्य के दिनों के उलटफेर से जूझते हुए अपने लक्ष्य चन्द्रमा की ओर ही देखती रहती है उसे नहीं भूलती। वह चंद्रमा के साथ अपने प्रेम को कभी नहीं भूलती। यह एक साधारण सा फूल है परन्तु उसने अपना आनन्ददायी सम्बंध महान चन्द्रमा से बनाकर सभी इच्छाओं को उसी की ओर केन्द्रित कर रखा है इसी प्रकार हम भी साधारण प्राणी हैं और सांसारिक परिस्थतियों के अनुसार सुख दुख का अनुभव करते हैं, संघर्ष करते हैं परन्तु हमें उस परमसत्ता को नहीं भूलना चाहिए। सभी इच्छाएं और विचार उसी की ओर ही संचारित करते रहना चाहिए। उसके प्रेम में गहराई से डूबे रहने पर सांसारिक गतिविधियाॅं आगे बढ़ने में कोई अड़ंगा नहीं लगा सकेंगी।

रवि- यदि सांसारिकता के प्रभाव से कभी उस परमसत्ता से तारतम्य नहीं रह पाया तो क्या होगा?
बाबा- जीवन में कैसी भी विकट परिस्थितियाॅं क्यों न आ जाएं उस अनन्त सत्ता पर से विचार नहीं हटना चाहिए। जिन्होंने उस परमसत्ता को अपने जीवन का आदर्श मान लिया है उनका पतन संभव नहीं है परन्तु कभी तुच्छ विचारों में फंसकर चित्त में निम्न स्तरीय स्पंदन आ जाते हैं तो उनके अनुकूल उस स्तर के प्राणियों में उस संस्कार को भोगने तक उनका शरीर लेना पड़ेगा। इसलिए अपने चित्त में सदैव उच्च स्तरीय स्पंदनों को ही स्थान देना चाहिए। राजा भरत जैसे उन्नत स्तर के व्यक्ति को भी चित्त में  निम्न विचार आ जाने के कारण उन्हें हिरण के शरीर में पुनः जन्म लेना पड़ा था क्योेंकि मृत्यु के समय वह उसी का चिन्तन कर रहे थे। इसलिए इस पर विचार न करते हुए कि आज हमारी स्थिति क्या है और भविष्य में क्या रहेगी, उस महान के आदर्श से किसी भी स्थिति में भटकना नहीं चाहिए। उस परम आनन्द के अनुभव कराने वाले रास्ते से एक पद भी विचलित नहीं होना चाहिए।

चन्दू- इसका अर्थ क्या यह हुआ कि मानव जीवन में भावनाओं अर्थात् इमोशन्स का कोई स्थान ही नहीं है?
बाबा- भावनाएं यदि विवेक के द्वारा नियंत्रित और संचालित नहीं हों तो वे समस्याएं ही उत्पन्न करती हैं। इसके प्रभाव में ज्ञानी लोग भी आ जाते हैं और किसी भी स्थिति से निपटने के पहले ही उससे सांवेदिक साम्य जोड़ते देखे जाते हैं जो अन्ततः डोग्मा अर्थात् भावजड़ता के शिकार हो जाते हैं । इनमें बहकर जनसामान्य वह सब करने लगते हैं जो नहीं करना चाहिए और जो करना चाहिए वह नहीं , इसलिए ये धोखा देनेवाले बल कहलातीं हैं। उदाहरणार्थ, कोई बाजार में भोजन सामग्री खरीदने गया परन्तु पास में ही जूतों की दूकान में रखे जूतों के आकर्षण से आवश्यक न होते हुए भी जूते खरीद लाया, यहाॅं व्यक्ति ने भावना के प्रवाह में विवेक का उपयोग नहीं कर पाया। इसलिए सदा ही यह सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि हम भावना के व्यावहारिक पथ पर चल पा रहे हैं या नहीं।

इन्दु- जिसे आपने भक्ति कहा है वह भी तो एक प्रकार का भावावेग अर्थात् इमोशन ही है, कि नहीं?
बाबा- जब मन किसी निर्धारित पथ पर उचित विधि और अनुशासन का पालन करते हुए चलता है तब इसे ‘भक्ति‘ अर्थात् डिवोशन कहा जाता है परन्तु जब वह किसी निर्धारित विधि और अनुशासन का पालन किये बिना ही अस्त व्यस्त होकर चलने लगता है तो उसे ‘भावना‘ अर्थात् इमोशन कहते हैं। भक्ति और भावना में यही स्पष्ट अन्तर है जिसे सभी को याद रखना चाहिए। ‘भक्ति‘ को तत्व से जानने वाले जानते हैं कि उन्नति के मार्ग में बौद्धिक सह अन्तर्बोध एवं क्रियात्मक ज्ञान तथा भक्ति सह भावनात्मक ज्ञान का उचित सम्मिश्रण होना चाहिए। इन सभी का बराबर महत्व है और इन सभी का परिणामी बल ‘भक्ति‘ अर्थात् डिवोशन कहलाता है ‘भावावेग‘ अर्थात् इमोशन नहीं। जब हम अपनी व्यक्तिगत मधुरता को मधुरतम सत्ता के साथ प्रेमपूर्ण हृदय, मधुर बुद्धि और आध्यात्म से भरे स्वतंत्र प्रवाहित भावावेग के साथ मिला देते हैं तभी उस परमसत्ता में डूबने का आनन्द पाते हैं।

Sunday, 16 April 2017

119 बाबा की क्लास ( मन ,आत्मा, परमात्मा )

119 बाबा की क्लास ( मन ,आत्मा, परमात्मा ) 
रवि- आपने जो भी कहा है वह तो विज्ञान और तर्क दोनों से मान्य है परन्तु हम लोगों ही की नहीं सबकी यह समस्या है कि ‘मन‘ और ‘आत्मा‘ या इनसे जुडे़ समानार्थी अन्य शब्द, बड़ा ही कन्फ्युजन पैदा करते हैं । कभी कभी वे एक ही लगते हैं, यह क्या हैं, इनमें परस्पर क्या संबंध है? जब तक आप हमें यह नहीं बताते हैं हम किस प्रकार से व्यावहारिक अभ्यास  करें?
इन्दु- हाॅं बाबा! ‘मन और आत्मा‘ हमें दिखाई तो देते नहीं हैं इससे कभी कभी लगता है हम यह सब जानने और आत्म विद्या सीखने के उपाय बेकार ही कर रहे हैं?
बाबा- मैं ने अनेक बार यह स्पष्ट किया है कि ‘आत्मा‘ साक्षी सत्ता है ‘मन‘ का। इसलिए इकाई मन जो कुछ भी करता है उसका साक्ष्य देता है इकाई आत्मा । इसका अर्थ यह है कि मन के द्वारा किया गया हर अच्छा बुरा कार्य आत्मा के द्वारा केवल देखा जाता है वह उसकी क्रियाओं में सहभागी नहीं होता। मन के साथ इसका उल्टा होता है , वह अपने हर कार्य और क्रियाओं के साथ पूर्ण रूप से प्रभावित रहता है। इसीलिए कहा गया है कि मानव का मन ही बंधन और मुक्ति दोनों के लिए उत्तरदायी होता है। इकाई आत्मा, मन के साथ अपना दृष्टि संबंध बनाये रखता है परन्तु अपने को निर्लिप्त रखकर सदैव शुद्ध भी बनाये रखता है। इन सभी इकाई आत्माओं का साक्ष्य देने वाला परमात्मा कहलाता है। मन से लिंक बनाए रखने और साक्ष्य देने वाला होने के कारण यह आभास होता है कि आत्मा मन के कार्य में भी सम्बद्ध है परन्तु यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति किसी स्थान पर चोरी होते केवल देख रहा हो तो दूर से इस घटना को देखने वाला अन्य व्यक्ति यह सोचेगा कि यह भी चोरों के साथ उनके  कार्य में संलग्न है जबकि वह एक अक्रिय दृष्टा मात्र ही है।

राजू- क्या यह विचित्र नहीं लगता कि आत्मा का लिंक मन से होते हुए भी वह मन के कार्यों से प्रभावित नहीं होता? यदि यह सही है तो उसे साक्ष्य देना भी कैसे सम्भव होता है?
बाबा- तुम आत्मा से कुछ भी नहीं छिपा सकते । जैसे, यदि किसी स्टेज पर ड्रामा हो रहा है तो उसे साक्ष्य देता है प्रकाश। सब कहते हैं कि हाॅं नाटक खेला जा रहा है। जब नाटक बंद हो जाता है तब भी प्रकाश के साक्ष्य के आधार पर ही कहा जाता है कि अब नाटक समाप्त हो गया। इस प्रकार प्रकाश नाटक को चलते हुए और समाप्त होते हुए साक्ष्य ही देता है नाटक में सहभागिता नहीं देता। या जैसे कोई लाल फूल दर्पण के सामने रखा जाता है तो पूरा दर्पण भी लाल ही दिखाई देता है पर वास्तव में दर्पण अपने मूल रूप में ही रहता है क्योंकि फूल के हटा लिए जाने पर वह फिर अपने मूल रूप में आ जाता है। इस संसार में अनेक सदगुणी  और दुर्गुणी लोग हैं परन्तु सभी के भीतर उनका इकाई आत्मा निष्कलंक रहता है क्योंकि उनका इकाई मन ही क्रिया से प्रभावित होता है आत्मा नहीं। क्रिया की प्रकृति के अनुसार मन ही उसके शुभ या अशुभ प्रभाव से बंधता है इकाई आत्मा नहीं। परन्तु जब यही मन परमात्मा में मिल जाता है तब वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है।

चन्दू- तो शुभ या अशुभ परिणामों के लिये उत्तरदायी कौन होता है? और उनका परिणाम कौन भोगता है?
बाबा- मन ही कार्य करता है , उसमें लिप्त रहता है और उसी से प्रभावित होता है इसलिए परिणाम भी मन के द्वारा ही भोगा जाता है। मन में आने वाले विचार और क्रियाओं के अनुसार ही मन का उत्थान और पतन होता रहता है। वह मन ही है जो साधना करता है और सन्मार्ग का अनुसरण करता है और वह भी मन ही है जो कुसंगति में पड़कर अपना पतन कर डालता है। जब उसे यह समझ में आ जाता है कि वह ब्रह्म है तब इस प्रकार सोचते सोचते वह शुद्ध होता जाता है और पूर्ण रूपसे शुद्ध हो जाने पर वह इकाई आत्मा में ही मिलकर अपना रूपान्तरण कर लेता है जबकि इकाई आत्मा में इस प्रकार का कोई रूपान्तरण नहीं होता, वह हमेशा एकसमान रहता है। परमात्मा की ओर जाने वाले रास्ते पर चलने की सम्पूर्ण प्रक्रिया मन के द्वारा ही अनुभव की जाती है। मन आज गन्दा है तो वह कल स्वच्छ भी हो सकता है। विभिन्न मन ब्रह्म में मिल कर स्वयं भी ब्रह्म ही हो जाते हैं।

नन्दू- तो इकाई मन के कार्यों को देखते रहने के अलावा इकाई आत्मा का और कोई कार्य है ही नहीं?
बाबा- आत्मा, मन को शान्ति पाने के लिए प्रेरित भी करता है। केवल यही काम है जो वह मन के हित में कर सकता है और अच्छे काम करने की ओर लगाने का विचार उत्पन्न करता है। यह उत्प्रेरण तभी समझ में आता है जब मन का झुकाव आध्यात्मिकता की ओर होता है , यदि वह भौतिकता की ओर खिंच कर उसी में रम जाता है तो उस मन को यह आत्मप्रेरण समझ में नहीं आता । जैसे चुंबक लोहे की वस्तुओं को खीच लेता है परन्तु यदि उन वस्तुओं में गंदगी लगी हो , कीचड़ से सनी हों तो चुंबक की ओर वे वस्तुए नहीं खिंच पाती जबकि चुंबक उन्हें खींचता ही रहता है।

रवि- मेरे मन में फिर नई भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है वह यह कि संस्कारों के प्रभाव में प्रत्येक अस्तित्व का अलग अलग इकाई मन होना तो समझ में आता है परन्तु सभी दर्शन और ऋषिगण आत्मा को तो अखंड ही मानते हैं फिर यह आपने ‘‘इकाई आत्मा ‘‘ कहाॅं से खोज ली? यह उस अखंड परमात्मा से किस प्रकार भिन्न है?
बाबा- आत्मा तो अखंड ही है रवि ! वह सभी इकाई अस्तित्वों में उनकी परावर्तन क्षमता के अनुसार परावर्तित होकर कम या अधिक परिमाण में आभास देता है इसीलिए उसे किसी इकाई अस्तित्व का साक्ष्य देते समय इकाई आत्मा कहा जाता है। जैसे दर्पण के अनेक छोटे छोटे टुकड़े कर देने पर उनके सामने रखी एक ही वस्तु अलग अलग दिखाई देने लगती है। मन की तरह वह बाह्य प्रभावों से प्रभावित नहीं होता ।

इन्दु- परन्तु शास्त्रों में तो दुरात्मा, पापात्मा, महात्मा , पुण्यात्मा आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है और विद्वानों को भी अपने व्याख्यानों में इन्हें प्रयुक्त करते देखा जाता है?
बाबा- ‘ब्रह्म ‘ जिसकी कल्पना यह ब्रह्मांड है वही मात्र ‘महात्मा‘ या ‘परमात्मा‘ कहलाने के पात्र हैं अन्य कोई नहीं। जिन्हें जीवात्मा या इकाई आत्मा कहा गया है वह तो इकाई अस्तित्वों के मानसिक पटल पर उसी परमचेतना या परमात्मा का परावर्तन है इसलिये उन्हें महात्मा कहना उचित नहीं है। चूंकि आत्मा पाप या पुण्य से प्रभावित नहीं होता वह सदा ही शुद्ध और बोधमय होता है अतः इन शब्दों को उसके साथ जोड़कर दुरात्मा, पापात्मा और पुण्यात्मा कहना तर्कसंगत नहीं है। कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए चापलूसी करने के उद्देश्य से किसी को महात्मा कहने लगते हैं उनसे सावधान रहना चाहिए क्योंकि अत्यधिक प्रशंसा के पीछे धोखे का संकेत ही छिपा रहता है। इसलिये कहा जा सकता है कि इन शब्दों का निर्माण और उपयोग अज्ञानता के कारण ही किया जाता है। किसी सदगुणी  व्यक्ति, पापी या चीटी के आत्मा में कोई अन्तर नहीं होता अन्तर होता है केवल मन के अवनत या उन्नत होने में जिसके कारण ही कोई पापी, कोई पुण्यवान कहलाते हैं।

चन्दू- यदि कोई आपके अनुसार पुण्यवान की कोटि में आता है तो उसे सम्मान देने के लिए किस प्रकार संबोधित किया जाये?
बाबा- उन्हें महापुरुष या महान महिला कहा जा सकता है।

राजू- अच्छा, तो मैं अपने इकाई आत्मा को कैसे पहचानूं और मन को इससे किस प्रकार भिन्न समझूं ?
बाबा- जब कोई तुमसे यह पूछता है कि, क्या तुम्हारा अस्तित्व है या नहीं? तो क्या कहते हो, यही कि हाॅं मेरा अस्तित्व है। यह आस्तित्विक भावना ही इकाई मन है ‘मैं हॅूं‘ इस भावना का ‘मैं‘ इकाई मन है। जब कोई पूछता है कि, क्या तुम जानते हो कि तुम हो? तो क्या उत्तर होता है यही कि, हाॅं मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, यह ‘‘मेरे होने का ज्ञान‘‘ जिस सत्ता के कारण होता है वह है तुम्हारा इकाई आत्मा। मैं जानता हॅूं का ‘‘मैं‘‘ ही इकाई आत्मा, इकाई चेतना या ज्ञातृ सत्ता कहलाता है और मैं हूॅं का ‘‘मैं‘‘ इकाई मन है। हर जीवित सत्ता के भीतर उसके होने की भावना रहती है। जो तुम्हारे भीतर मैं हॅूं का बोध कराता है वही सूक्ष्म मन कहलाता है।  तुम्हारे भीतर, तुम्हारे होने की भावना के सत्य  को जो ‘‘मैं‘‘ कहता है कि मैं जानता हॅूं कि मैं हॅूं, वह ‘मैं‘ जीवात्मा, या इकाई आत्मा है।

Sunday, 9 April 2017

118 बाबा की क्लास ( पशुत्व से देवत्व की ओर )

118 बाबा की क्लास ( पशुत्व से देवत्व की ओर ) 

रवि- आपने बुद्धि को शुद्ध करने के लिए प्रार्थना कैसे की जाती है यह बताया परन्तु मन तो अपने जन्मजात संस्कारों के कारण पाश्विक वृत्तियों की ओर ही दौड़ता रहता है?
बाबा- सही कहा, प्रारम्भ में तो सभी लोग पशु ही होते हैं परन्तु आध्यात्मिक चाह के जाग जाने पर वे वीर हो जाते हैं और जब यह वीरभाव अच्छी तरह स्थापित हो जाता है तो वही लोग देवता हो जाते हैं । पशुत्व से देवत्व की ओर जाने का कार्य ही साधना करना कहलाता है।

इन्दु- तो यह शूद्र, विप्र, क्षत्रिय की अवधारणा व्यर्थ ही है?
बाबा- शास्त्र कहते हैं कि जन्म से तो सभी ‘शूद्र‘ ही हैं संस्कार मिलने पर वे ‘द्विज‘ हो जाते हैं, वेदशास्त्रों को पढ़कर उचित आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वही ‘विप्र‘ कहलाते हैं और तान्त्रिकी दीक्षा पाकर ‘ब्राह्मण‘ कहलाने योग्य बनते हैं । इस संबंध में ऋषियों का कहना है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रा संस्कारात् द्विज उच्यते, वेदपाठे भवेत् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ।‘‘

नन्दू- यह कैसे सम्भव हो सकता है?
बाबा- शूद्र से यहाॅं तात्पर्य है जिसमें सभी लक्षण पशुओं की तरह हों, इसके बाद उचित समय पर जब उन्हें वैदिकी दीक्षा संस्कार देकर यह सिखाया जाता है कि प्रार्थना कैसे की जाती है, किसकी की जाती है, मनुष्य होने के लिये कैसे अपनी इच्छाओं को प्रकट किया जाता है तब उनका दूसरा जन्म होना कहा जाता है । दूसरा जन्म लेना संस्कृत में द्विज कहलाता है। इस अवस्था में वह व्यक्ति पाश्विक वृत्तियों से दूर हो जाता है और उचित आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए सत्साहित्य का अध्ययन मनन और चिंतन करने लगता है अतः अब वही विप्र कहलाता है। इसके बाद तीब्र जिज्ञासा होने पर मनोआत्मिक दीक्षा अर्थात् तान्त्रिकी दीक्षा पाकर तदनुसार आचरण करने पर ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकार पाता है।

राजू- तो जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, जिन्हें आप मनुष्य रूप में पशु कहते हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है?
बाबा- निश्चय ही है, क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं । इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए , हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपति हैं  हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।

चन्दू- क्या यह विचित्र सा नहीं लगता?
बाबा- नहीं ! इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उन्हें  वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।

इन्दु- तो यह आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में किस स्तर पर पहुंचती है?
बाबा- ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।

रवि- क्या यह स्पष्टीकरण किसी अन्य प्रकार से या सरलता से समझने योग्य नहीं दिया जा सकता?
बाबा- एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। पिछली क्लासों में अनेक बार यह बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता है। हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीर भाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।

राजू- अच्छा ! आप यह बतायें कि उस असीमित परमसत्ता से हम सभी सीमित अस्तित्वों के बीच उचित संपर्क बनाने के लिए अत्यावश्यक पूर्वापेक्षा क्या है?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि ‘कढ़ी‘ कितने ही अच्छे तरीके और सभी प्रकार की सावधानी से क्यों न बनायी जाय परन्तु यदि उसमें ‘नमक‘ की कमी रह जाय तो उसे स्वादिष्ट नहीं कह सकते। इसी प्रकार उस ‘अनन्त‘ और हम ‘सान्त‘ के बीच प्रेम की कमी हो तो किसी भी प्रकार उनसे संपर्क नहीं हो सकता।इस प्रेम को ही ऋषिगण भक्ति कहते हैं।

इन्दु- यह तो ठीक कहा, परन्तु कुछ और उदाहरण देकर समझाइये?
बाबा- मानलो कोई केवल कर्म करता है पर उनसे  प्रेम न  हो तो उसके सभी कर्म असफल हो जाऐंगे। उसके कर्म, सुयश तभी पा सकते हैं जब उनके साथ परमपुरुष की भक्ति जुड़ी हो अन्यथा उसके कर्म केवल यांत्रिक रह जाऐंगे और प्रारंभ में जो थोड़ी सी अन्तर्मुखता आएगी वह शीघ्र ही वहिर्मुखी होकर अपने लक्ष्य से दूर कर देगी। अब मानलो काई व्यक्ति तपस्या करता है, तपस्या माने कम समय में लक्ष्य को पाने के लिए अपने को कठिनाई में डालना। इस प्रकार की तपस्या में यदि उस परमपुरुष के प्रति प्रेम नहीं हो तब क्या होगा? केवल समय की बरबादी और मानसिक तथा शारीरिक रूप से बुरा प्रभाव। यदि कोई योगी अपनी चित्तवृत्तियों को नियंत्रित कर लेता है और उसी अवधि में उसे ईश्वर से प्रेम रहता है तो वह परमसत्ता से जुड़ा रहता है परन्तु यदि नहीं , तो  भले ही  वह बहुत बड़ा योगी क्यों न हो उसकी नियंत्रित वृत्तियाॅं जड़ पदार्थ में बदल जाऐंगी। यही योगी का पतन होना कहलाता है । इस विशेष प्रकार के योग में जिसमें योगी को परमपुरुष से कोई प्रेम नहीं रहता हठयोग कहलाता है। यह मानव उत्थान के लिए खतरनाक है।

रवि- हठ योग खतरनाक क्यों है?
बाबा-  अक्षर  ‘ह‘, सूर्य या इडा नाड़ी , जो भौतिक बल को प्रकट करती है, का ध्वन्यात्मक बीज है और ‘ठ‘ चंद्र या पिंगला नाडी, जो मन के ध्वन्यात्मक बीज को प्रकट करती है , इसलिये हठ का अर्थ हुआ भौतिक बल से मन को जबरदस्ती नियंत्रित करना। जब कोई घटना या कार्य आकस्मिक या अचानक हो जाता है तो सामान्यतः कहा जाता है कि हठात् यह हो गया। स्पष्ट है इससे मुक्ति नहीं मिल सकती इसलिए यह नुकसानदायक है।

नन्दू- और ज्ञानी?
बाबा- यदि किसी के पास बहुत बौद्धिक क्षमता और ज्ञान है और अन्य लोग भी उसे मान्यता देते हैं परन्तु उसे परमसत्ता के साथ कोई प्रेम नहीं है तो वह केले के छिलके जैसा है, उससे केले का स्वाद नहीं मिल सकता। यह ‘अपरा विद्या‘ कहलाती है जो पदार्थवाद की ओर ले जाती है । इस पदार्थवाद ने ही पिछली शताब्दियों से मानव समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है और समाज को गुमराह कर मनुष्यों को पशुओं में परिवर्तित करने का काम किया है। इतना ही नहीं पदार्थवादियों ने पशुओं को भी बड़ा नुकसान पहुंचाया है।

इंदु- तो ‘अपरा ज्ञान‘ बिलकुल व्यर्थ ही है?
बाबा- ‘परा‘ और ‘अपरा‘ ज्ञान दूध के महासागर की तरह हैं जब उन्हें मथा जाता है तो मक्खन और छाछ दोनों ही प्राप्त होते हैं। परमात्मा से प्रेम करने वाले भक्त मक्खन का आनन्द लेने लगते हैं और ज्ञानी छाछ को अपना अपना कहते हुए झगड़ने लगते हैं जब तक कि वह खराब नहीं हो जाता । अन्त में उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। इसीलिए सात्विक भक्ति को अपना कर अपने लक्ष्य परमपुरुष को पाया जा सकता है , यही पशुत्व से देवत्व की ओर जाने का रास्ता है अन्य कोई नहीं।

Sunday, 2 April 2017

117 बाबा की क्लास ( गायत्री )

117 बाबा की क्लास ( गायत्री ) 

नन्दू- बाबा! गायत्री क्या है, क्या गायत्री मन्त्र ही दीक्षा में सिखाया जाता है ?
बाबा - वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परमपुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक, गायत्री छंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि को शुद्ध करने की एक प्रार्थना है। मन्त्र तो एक या दो अक्षरों का होता है, जिसके मनन से मुक्ति मिले उसे ही मंत्र कहते हैं। ‘‘मननात  तारयेत् यस्तु  सः मन्त्रः परिकीर्तितः। ‘‘

इन्दु- यह सावित्र ऋक क्या है ?
बाबा- संसार का सबसे पुराना ग्रंथ ‘ऋग्वेद‘ अनेक खंडों में विभक्त है, प्रत्येक खंड को ‘मंडल‘ कहते हैं। प्रत्येक मंडल अनेक ‘सूक्तों‘ में विभक्त है और प्रत्येक सूक्त अनेक ‘ऋकों‘ में विभक्त किया गया है। इसका अर्थ है कि ऋग्वेद का प्रत्येक श्लोक ‘ऋक‘ कहलाता है। यही कारण है कि इस वेद का नाम ही ‘ऋग्वेद‘ हो गया। जिसे सामान्यतः गायत्री मन्त्र कहा जाता है वह तीसरे मंडल के बासठवें सूक्त का दसवाॅं ऋक है। ऋग्वेद में ‘ऋक‘ शब्द के द्वारा परमसत्ता को सम्बोधित किया गया है और इस ऋक में उसी परमसत्ता को ‘सविता‘ के नाम से सम्बोधित किया गया है। इसीलिए उसे ‘सावित्र ऋक‘ भी कहा जाता है।

राजू- ‘गायत्री छंद‘ को किस प्रकार पारिभाषित किया गया है?
बाबा- गायत्री छंद में आठ आठ अक्षरों की तीन लाइनें होती हैं। जो इस छंद में रचना करता था  वह उसी मंत्र का ऋषि कहलाता था और जिस लय में उसे गाया जाता था वह उस मंत्र का लय। इस प्रकार मूल मंत्र में केवल तीन लाइनें ही थीं परन्तु अथर्ववेद में इस गायत्री में एक लाइन और प्रारम्भ में जोड़ दी गई।
मूल तीन लाइनें  यह हैं-
1. तत्सवितुर्वरेण्यम। 2. भर्गो देवस्य धीमही । 3. धियो यो नः प्रचोदयात ओंम ।
व्याकरण और लय के अनुसार यदि किसी छंद की किसी लाइन में अक्षरों की संख्याएं घट बढ़ जाती थी तो लय के अनुसार ही उन्हें माना जाता था। अथर्व वेद में  इसमें पहली लाइन के पहले ही ‘‘ओंम भूर्भुवः स्वः ‘‘ जोड़ दिया गया है।

रवि- लेकिन इस गायत्री छंद द्वारा प्रार्थना करते समय अनेक विद्वानों को एक सुसज्जित महिला का चित्र सामने रखते हुए भी देखा गया है वे कहते हैं कि यह गायत्री माता हैं, क्या यह सही है ?
बाबा- इस गायत्री का अर्थ समझ लो फिर आप लोग ही निर्णय करना कि उस  चित्र का औचित्य क्या है।
इस छंद का अर्थ और भावार्थ भी  विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। शाब्दिक व्युत्पत्तियों के अनुसार इसका भावार्थ यह है, ‘‘उत्पत्ति, पालन और संहार  की तरंगों में ओतप्रोत, निर्मित , निर्माणोन्मुख  और निर्माण योजनान्तर्गत सभी लोकों को लपेटे उस परम दिव्यसत्ता के सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का  हम ध्यान/वरण  करते हैं, जिससे  सभी प्रकाशित होते, आनंदित होते, आते हैं और वहीं वापस चले जाते हैं ,वह हमारी बुद्धि को शुद्ध करें ।‘‘
चन्दू- यदि इसके प्रत्येक शव्द की व्याख्या की जा सके तो समझने में सरलता होगी ?
बाबा- ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात। संक्षेप में इसके प्रत्येक शब्द को इस प्रकार समझाया जा सकता  हैः-
(१) अ, उ और म का संयुक्ताक्षर ‘ऊँ ‘ है और अपने आप में 50 प्रकार की आवृत्तियों की ध्वनियों को समेटे हुए है जो कि वर्णमाला के  सभी स्वरों और व्यंजनों का मिश्रण है ,  अतः इसे किसी भी प्रकार से मनुष्य अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता है। इसे ओंकार ध्वनि कहते हैं , ऊँ ,ऊँ चिल्लाने से कुछ नहीं होता इसे तो मन, बुद्धि  और हृदय  से अनुभव करना होता है क्योंकि यह कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन कहलाती है। इसे  थोड़े से अभ्यास करने से अनुभव किया  जा सकता  है।  यही ‘अ‘ उत्पत्ति , ‘उ‘ पालन और ‘म‘ संहार का द्योतक और उनके कार्यकारी प्रतिनिधि क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, महेश को प्रकट करता   है। यह सब एक ही सत्ता के तीन प्रकार के कार्यों के अनुसार नाम विशेष हैं ये अलग अलग सत्ताएं नहीं हैं।
(२) ‘भूः‘  ‘भुवः‘  और ‘स्वः‘  - भारतीय दर्शन में  माना  गया है कि   ब्रह्माण्ड के सात लोकों में कुछ निर्मित हो चुके हैं , कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ की निर्माण योजना है यही क्रमश ‘भूः‘  ‘भुवः‘  और  ‘स्वः‘ हैं, आगे सूक्ष्म लोक  तपः , जनः , महः और सत्यम हैं। आधुनिक  वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में तारे और गेलेक्सियां उत्पन्न  होते , जीवित रहते और नष्ट होते रहते हैं। यही सात लोक मानव शरीर में मन के कोशों के नाम से स्वीकृत हैं जिन्हें अन्नमय, काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय नाम दिए गए हैं, चूंकि हिरण्यमय कोश इकाई मानव मन और कास्मिक माइंड के लिए उभयनिष्ठ होता है अतः सत्य लोक भी उभयनिष्ठ होता है जहाॅं विशुद्ध चेतना अर्थात् परमपुरुष ही रहते है । इन सप्त लोकों को तीन परतों ( "भौतिक" "मानसिक" और "आध्यात्मिक") में निर्माण करने वाली सत्ता  को वेदों में ‘सविता‘ कहा गया है जिसका अर्थ है पिता।
(३)  ‘‘ तत्सवितुर्वरेण्यं‘‘ का अर्थ है ‘‘ उस सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का ध्यान/ वरण  ‘‘
(४) ‘भर्गः‘  का अर्थ इस प्रकार है - ‘ भ ‘ = भेति भास्यते लोकान अर्थात जो इन सभी लोकों को प्रकाशित करता है, ‘ र ‘ = रेति रञ्जयति प्रजा अर्थात जिससे प्रजा आनंद प्राप्त करती है, और  ‘ ग ‘ = गच्छति यास्मिन  आगच्छति  यस्मात् अर्थात जिससे आते हैं वहीँ चले  जाते हैं ,
(५) ‘ देवस्य धीमहि ‘ अर्थात परमदिव्य सत्ता ,
(६) ‘ धियोयो नः ‘ अर्थात हमारी बुद्धि को,
(७)  ‘ प्रचोदयात ‘ अर्थात  शुद्ध करें। अर्थात् सही रास्ते पर ले चलें।

नन्दू- तो वैदिकी दीक्षा में इसे ही सर्वश्रेष्ठ मंत्र कहा गया है?
बाबा- यह वैदिकी दीक्षा का सबसे अच्छा छंद है जो परमपुरुष से बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना करना सिखाता है इसके परिपक्व होने पर ‘उनकी‘ कृपा स्वरुप तांत्रिकी दीक्षा का अवसर मिलता है चाहे इसी जन्म में हो या आगे के।

रवि - बाबा ! इसका अर्थ  हुआ कि पहले वैदिकी और फिर तांत्रिकी दीक्षा लेना चाहिए ?
बाबा- हाँ , तांत्रिकी दीक्षा ‘सद्गुरु/महाकौलगुरु‘ स्वयं बीज मंत्र देकर साधना की विधि को अपने सामने अभ्यास कराकर सिखाते हैं जो परम कल्याण का साधन है और सभी को करने योग्य है। जिसे बीज मंत्र प्राप्त हो गया उसे फिर गायत्री की आवश्यकता नहीं रहती।

चन्दू- वेद और तन्त्र में क्या अन्तर है?
बाबा- वेद में नब्बे प्रतिशत सिद्धान्त है और दस प्रतिशत प्रायोगिक कार्य जबकि विद्यातन्त्र में नब्बे प्रतिशत प्रायोगिक कार्य है और दस प्रतिशत सिद्धान्त ।

इन्दु- तान्त्रिकी दीक्षा में कौन सा प्रायोगिक कार्य करना पड़ता है?
बाबा-तांत्रिकी दीक्षा में महाकौल गुरु या उनके द्वारा अधिकृत कौलगुरु सम्बंधित शिष्य की मूल आवृति अर्थात (fundamental frequency / existential rhythm) को पहिचान कर उसे नियंत्रित करने वाला बीजमंत्र देकर  अभ्यास कराते  हैं। श्वास के साथ बीजमन्त्र का समन्जयस्य हो जाने पर incantative rhythm बनता है जो existential rhythm के साथ अनुनादित  (resonance) होने  पर मन को स्थिर कर देता है।  इसके बाद गुरु द्वारा बताई गई बिधि से इस स्थिर मन के rhythm  का cosmic rhythm (अर्थात औंकार ध्वनि) के साथ resonance   कराना होता है    इसके लगातार अभ्यास और औंकार ध्वनि से अनुनाद होते रहने  पर आत्मसाक्षात्कार (self realization) होता है जिसे विभिन्न स्तरों पर  समाधियों के रूप में अनुभव किया जाता है परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि आत्मसाक्षात्कार के पहले समाधि  का अनुभव हो ही।  जिनके संस्कार क्षय हो चुकते हैं वे आत्मसाक्षात्कार करने के बाद इस  मानव शरीर में रहना ही नहीं चाहते , पर जिनके संस्कार भोगने के लिए शेष रहते हैं और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तो वे समाज के भले के लिए मानव शरीर को बनाये रखते हैं और  अपने अनुभवों और  ब्रह्मविद्या को सबको  सिखा कर अपने संस्कार क्षय करके मुक्त हो जाते हैं जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।  इसलिए सच्चे  जिज्ञासु को उचित अवसर अवश्य मिलता है , ईमानदारी से सत्य जानने का  प्रयत्न करते रहना चाहिए।