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बाबा की क्लास ( ब्रह्मचर्य )
रवि- बाबा ! यह बात नहीं समझ में आती कि सभी मतवाद प्रार्थना करना ही क्यों सिखाते हैं और वह भी धन सम्पन्नता, अच्छी नौकरी, स्वास्थ्य आदि भौतिक जगत की वस्तुओं को पाने के लिए ? कोई भी भक्ति पाने की सलाह नहीं देता?
राजू- हाॅं, और यह भी देखा गया है कि कोई रविवार को , कोई शुक्रवार या शनिवार को और कोई सोमवार या मंगलवार को ही प्रार्थना करने के लिए श्रेष्ठ मानता है अन्य दिनों में भौतिक जगत की बातों और पदार्थों की प्राप्तियों में लगे रहने की सलाह देते हैं?
बाबा- सच्चे आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए सभी पराक्रम और प्रयास अपने इष्ट को पाने के लिए होते हैं जो उनकी सेवा कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं, भौतिक उपलब्धियाॅं मांगने के लिए नहीं। सांसारिक काम उन्हें ही स्मरण करते हुए व्यावहारिक संतुलन बनाकर किए जाते हैं। इस प्रकार इस रास्ते पर चलने वाले का प्रत्येक कार्य ब्रह्म साधना का ही भाग हो जाता है। जो केवल भौतिक सुख सम्पन्नता पाने के लिए ही प्रार्थनाएं करने को जीवन का उद्देश्य मानते हैं वे अपने जीवन को व्यर्थ ही नष्ट करते हैं।
इन्दु- क्या आपका आशय यह है कि मानव जीवन में दिन रात ,सुवह शाम , हर क्षण आध्यात्म चिंतन में ही डूबे रहना चाहिए?
बाबा- सच्चा मानव जीवन तो वही है जो आध्यात्मिकता के अमृत में डूबा रहता हो, मानव जीवन की रीढ़ ही है आध्यात्मिकता। इसके लिए इस जगत की हर इकाई वस्तु को ब्रह्ममय ही देखना होता है। यह सोचना होता है कि संसार का प्रत्येक अस्तित्व उसी परमसत्ता का अभिव्यक्तिकरण है। धरती आकाश, घर , नदी, पर्वत, आदर, अनादर , दिन, रात और सभी भौतिक वस्तुएं ये सभी हमारे लिए उसके द्वारा दिए गए उपहार हैं। इसलिए उचित रूप से उसका ही भाव आरोपित करते हुए प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति से व्यवहार करना होता है। यह सोच रखना होता है कि वस्तुओं का उपभोग तुम अपने आनन्द के लिए नहीं उस परमसत्ता को आनन्दित करने के लिए करते हो इसलिए इकाई से आकर्षित न होकर उस पूर्ण के साथ संबंध बनाने का अभ्यास करना पड़ता है। जब इसप्रकार का अभ्यास हो जाता है तो किसी की कोई भी वस्तु को पाने या चुराने का विचार ही नहीं आता।
चन्दु- क्या इस प्रक्रिया के कुछ सरल उदाहरण नहीं दिए जा सकते?
बाबा- इकाई अस्तित्व की भावना को भूलकर उनमें दिव्य अनन्त सत्ता की भावना लेना चाहिए जैसे, क्या पुत्र को भोजन कराते हो? नहीं नहीं , पुत्र रूप में ब्रह्म को भोजन कराते हो । क्या खेत में हल चलाते हो? नहीं नहीं, उस परमब्रह्म की अपने हल के द्वारा सेवा करते हो। सच्चाई यह है कि वस्तुओं में दिव्यभाव भरने से भौतिक सुख और आनन्द पाने का निवारण हो जाता है क्योंकि वे वस्तुएं उस भाव के साथ अमूर्तसत्ता परमब्रह्म में मिल जाती हैं।
रवि- इस प्रकार हमारा सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन एक समान होता है या अन्य कुछ?
बाबा- सच यह है कि हमारा आध्यात्मिक जीवन सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं है वरन् सामाजिक जीवन हमारे आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा है। आध्यात्मिक जीवन के छत्ते के नीचे सभी कुछ आ जाता है उसके बाहर कुछ नहीं रह पाता। परन्तु दुख है कि सभी मतों में इससे उल्टा ही समझाया गया है, यही कारण है कि सभी लोग भौतिकवाद की ओर जाने को अपना लक्ष्य मानते हैं उसी में आनन्द पाते हैं और उसी में रम जाते हैं।
चन्दू- इस प्रकार तो सांसारिक जीवन बचेगा ही नहीं, जबकि रहना तो संसार में ही पड़ता है? क्या यह बिरोधाभास नहीं है?
बाबा- मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है परमसत्ता को पाना। इसके लिए सूत्र यह है कि ‘‘ सब्जेक्टिव एप्रोच थ्रो आव्जेक्तिटव एडजस्टमेंट अर्थात् व्यावहारिक समायोजन करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना‘‘ । इसका अर्थ यह है कि हम समग्र रूपसे परम सत्ता की ओर बढ़ते जाएं परन्तु सामाजिक , आर्थिक और सांसारिक अन्य कर्तव्यों को करने का सुसंतुलन भी बनाए रखें। मतलब यह कि हमारा मन तो परमसत्ता की ओर हो और हाथ सांसारिक कर्तव्य में लगे रहें। इस प्रकार सदा ही ब्रह्म का विचार मन में बनाए रखने को ही ब्रह्मचर्य साधना कहते हैं।
राजू- संसार में रहते हुए ब्रह्म का विचार चिन्तन बनाए रखना ब्रह्मचर्य है तो इंद्रिय निग्रह करना क्या है?
बाबा- ब्रह्मचर्य साधना का अर्थ यह है कि जिस भी भौतिक वस्तु या व्यक्ति से संपर्क हो उसे जड़ पदार्थ या जीवधारी न मानकर उन्हें ब्रह्म की विभिन्न अभिव्यक्तियाॅं ही मानना चाहिए। इससे मन यदि इधर उधर भटकता है तो ब्राह्मिक भावना के कारण वह परमसत्ता से अलग नहीं हो पाता। इससे एक लाभ यह भी होता है कि प्रेय साधना अर्थात् वाह्य चेष्टाएं श्रेयसाधना अर्थात् आन्तरिक चेष्टाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। इसलिए दिनरात हर क्षण ब्रह्म चिन्तन करना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। इंद्रिय निग्रह अर्थात् संयम भी इस कार्य में सहयोगी होता है परन्तु ऊपर से निग्रह और भीतर ही भीतर विषयों का चिंतन मिथ्याचार कहलाता है ब्रह्मचर्य नहीं।
रवि- परन्तु सभी शास्त्रों और विद्वानों ने इंद्रिय निग्रह करने को ही ब्रह्मचर्य का पालन करना कहा है, तो क्या इस शब्द का वे सही सही उपयोग नहीं करते ?
बाबा- सामान्यतः लोग वीर्य रक्षण को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं जो दो प्रकार का होता है, एक होता है नैष्ठिक जिसे पूर्णतः सन्यासी पालन करते हैं, और दूसरा होता है प्राजापत्य जिसे ग्रहस्थों को पालन करने के निर्देश हैं। पहले की क्लासों में ही बताया जा चुका है कि ब्रह्मचर्य अष्टांगयोग के ‘यम‘ के अन्तर्गत पांचवाॅं भाग है । यह भी बताया जा चुका है कि मानव जीवन का उद्देश्य अपने आप को जानना है और यह तभी संभव होता है जब हमारा हर कार्य और विचार उस परमसत्ता को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। ब्रह्मचारी कहने का अर्थ ही है जो अपने आचार विचार और व्यवहार में ब्रह्म को देखता है, अनुभव करता है । संस्कृत में ‘चलने‘ के अर्थ में अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं, जैसे, चल् अर्थात् समान्य गति से चलना, चर् अर्थात् खाते हुए चलना, ब्रज अर्थात् आनन्दपूर्वक चलना, पर्यट् अर्थात् अध्ययन करते हुए चलना आदि आदि । ब्रह्मचर्य शब्द में चर् क्रिया का उपयोग हुआ है जिसका अर्थ है खाते हुए चलना। इसलिए ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ हुआ ब्रह्म को खाते हुए चलना, यह कैसे हो सकता है? यह तभी हो सकता है जब हम अभी बतायी गई विधियों के द्वारा जीवन के हर कार्य, आचार और व्यवहार में दिन रात श्वास प्रश्वास के साथ ब्राह्मिक भाव का प्रयोग करते रहें। इससे नये संस्कारों का निर्माण नहीं हो पाता और इष्ट मंत्र पूर्व जन्मों के संस्कारों को नष्ट करता जाता है । इस प्रकार धीरे धीरे सभी प्रकार के संस्कार क्षय होते जाते हैं तो मन और बुद्धि के शुद्ध हो जाने पर आत्मसाक्षात्कार होता है।
नन्दु- अनेक विशेषज्ञों का यह कहना कितना सार्थक है कि आध्यात्मिक साधना करने के लिये नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है, इसलिए यह बहुत कठिन है ?
बाबा- जो लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते, उन्हें समझना चाहिये कि मन को बाहरी जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से ही सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है ‘‘ ब्रह्म का चिंतन करना‘‘ जो प्रकृति का मन पर प्रभाव कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश और षडरिपु मन को बाहरी ओर के संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘ केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने मात्र से ब्रह्मचर्य का पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है कि उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जब तक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।
बाबा की क्लास ( ब्रह्मचर्य )
रवि- बाबा ! यह बात नहीं समझ में आती कि सभी मतवाद प्रार्थना करना ही क्यों सिखाते हैं और वह भी धन सम्पन्नता, अच्छी नौकरी, स्वास्थ्य आदि भौतिक जगत की वस्तुओं को पाने के लिए ? कोई भी भक्ति पाने की सलाह नहीं देता?
राजू- हाॅं, और यह भी देखा गया है कि कोई रविवार को , कोई शुक्रवार या शनिवार को और कोई सोमवार या मंगलवार को ही प्रार्थना करने के लिए श्रेष्ठ मानता है अन्य दिनों में भौतिक जगत की बातों और पदार्थों की प्राप्तियों में लगे रहने की सलाह देते हैं?
बाबा- सच्चे आध्यात्मिक रास्ते पर चलने के लिए सभी पराक्रम और प्रयास अपने इष्ट को पाने के लिए होते हैं जो उनकी सेवा कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं, भौतिक उपलब्धियाॅं मांगने के लिए नहीं। सांसारिक काम उन्हें ही स्मरण करते हुए व्यावहारिक संतुलन बनाकर किए जाते हैं। इस प्रकार इस रास्ते पर चलने वाले का प्रत्येक कार्य ब्रह्म साधना का ही भाग हो जाता है। जो केवल भौतिक सुख सम्पन्नता पाने के लिए ही प्रार्थनाएं करने को जीवन का उद्देश्य मानते हैं वे अपने जीवन को व्यर्थ ही नष्ट करते हैं।
इन्दु- क्या आपका आशय यह है कि मानव जीवन में दिन रात ,सुवह शाम , हर क्षण आध्यात्म चिंतन में ही डूबे रहना चाहिए?
बाबा- सच्चा मानव जीवन तो वही है जो आध्यात्मिकता के अमृत में डूबा रहता हो, मानव जीवन की रीढ़ ही है आध्यात्मिकता। इसके लिए इस जगत की हर इकाई वस्तु को ब्रह्ममय ही देखना होता है। यह सोचना होता है कि संसार का प्रत्येक अस्तित्व उसी परमसत्ता का अभिव्यक्तिकरण है। धरती आकाश, घर , नदी, पर्वत, आदर, अनादर , दिन, रात और सभी भौतिक वस्तुएं ये सभी हमारे लिए उसके द्वारा दिए गए उपहार हैं। इसलिए उचित रूप से उसका ही भाव आरोपित करते हुए प्रत्येक वस्तु या व्यक्ति से व्यवहार करना होता है। यह सोच रखना होता है कि वस्तुओं का उपभोग तुम अपने आनन्द के लिए नहीं उस परमसत्ता को आनन्दित करने के लिए करते हो इसलिए इकाई से आकर्षित न होकर उस पूर्ण के साथ संबंध बनाने का अभ्यास करना पड़ता है। जब इसप्रकार का अभ्यास हो जाता है तो किसी की कोई भी वस्तु को पाने या चुराने का विचार ही नहीं आता।
चन्दु- क्या इस प्रक्रिया के कुछ सरल उदाहरण नहीं दिए जा सकते?
बाबा- इकाई अस्तित्व की भावना को भूलकर उनमें दिव्य अनन्त सत्ता की भावना लेना चाहिए जैसे, क्या पुत्र को भोजन कराते हो? नहीं नहीं , पुत्र रूप में ब्रह्म को भोजन कराते हो । क्या खेत में हल चलाते हो? नहीं नहीं, उस परमब्रह्म की अपने हल के द्वारा सेवा करते हो। सच्चाई यह है कि वस्तुओं में दिव्यभाव भरने से भौतिक सुख और आनन्द पाने का निवारण हो जाता है क्योंकि वे वस्तुएं उस भाव के साथ अमूर्तसत्ता परमब्रह्म में मिल जाती हैं।
रवि- इस प्रकार हमारा सामाजिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन एक समान होता है या अन्य कुछ?
बाबा- सच यह है कि हमारा आध्यात्मिक जीवन सामाजिक जीवन का हिस्सा नहीं है वरन् सामाजिक जीवन हमारे आध्यात्मिक जीवन का हिस्सा है। आध्यात्मिक जीवन के छत्ते के नीचे सभी कुछ आ जाता है उसके बाहर कुछ नहीं रह पाता। परन्तु दुख है कि सभी मतों में इससे उल्टा ही समझाया गया है, यही कारण है कि सभी लोग भौतिकवाद की ओर जाने को अपना लक्ष्य मानते हैं उसी में आनन्द पाते हैं और उसी में रम जाते हैं।
चन्दू- इस प्रकार तो सांसारिक जीवन बचेगा ही नहीं, जबकि रहना तो संसार में ही पड़ता है? क्या यह बिरोधाभास नहीं है?
बाबा- मानव जीवन का एकमात्र लक्ष्य है परमसत्ता को पाना। इसके लिए सूत्र यह है कि ‘‘ सब्जेक्टिव एप्रोच थ्रो आव्जेक्तिटव एडजस्टमेंट अर्थात् व्यावहारिक समायोजन करते हुए लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना‘‘ । इसका अर्थ यह है कि हम समग्र रूपसे परम सत्ता की ओर बढ़ते जाएं परन्तु सामाजिक , आर्थिक और सांसारिक अन्य कर्तव्यों को करने का सुसंतुलन भी बनाए रखें। मतलब यह कि हमारा मन तो परमसत्ता की ओर हो और हाथ सांसारिक कर्तव्य में लगे रहें। इस प्रकार सदा ही ब्रह्म का विचार मन में बनाए रखने को ही ब्रह्मचर्य साधना कहते हैं।
राजू- संसार में रहते हुए ब्रह्म का विचार चिन्तन बनाए रखना ब्रह्मचर्य है तो इंद्रिय निग्रह करना क्या है?
बाबा- ब्रह्मचर्य साधना का अर्थ यह है कि जिस भी भौतिक वस्तु या व्यक्ति से संपर्क हो उसे जड़ पदार्थ या जीवधारी न मानकर उन्हें ब्रह्म की विभिन्न अभिव्यक्तियाॅं ही मानना चाहिए। इससे मन यदि इधर उधर भटकता है तो ब्राह्मिक भावना के कारण वह परमसत्ता से अलग नहीं हो पाता। इससे एक लाभ यह भी होता है कि प्रेय साधना अर्थात् वाह्य चेष्टाएं श्रेयसाधना अर्थात् आन्तरिक चेष्टाओं में परिवर्तित हो जाती हैं। इसलिए दिनरात हर क्षण ब्रह्म चिन्तन करना ही ब्रह्मचर्य कहलाता है। इंद्रिय निग्रह अर्थात् संयम भी इस कार्य में सहयोगी होता है परन्तु ऊपर से निग्रह और भीतर ही भीतर विषयों का चिंतन मिथ्याचार कहलाता है ब्रह्मचर्य नहीं।
रवि- परन्तु सभी शास्त्रों और विद्वानों ने इंद्रिय निग्रह करने को ही ब्रह्मचर्य का पालन करना कहा है, तो क्या इस शब्द का वे सही सही उपयोग नहीं करते ?
बाबा- सामान्यतः लोग वीर्य रक्षण को ही ब्रह्मचर्य मानते हैं जो दो प्रकार का होता है, एक होता है नैष्ठिक जिसे पूर्णतः सन्यासी पालन करते हैं, और दूसरा होता है प्राजापत्य जिसे ग्रहस्थों को पालन करने के निर्देश हैं। पहले की क्लासों में ही बताया जा चुका है कि ब्रह्मचर्य अष्टांगयोग के ‘यम‘ के अन्तर्गत पांचवाॅं भाग है । यह भी बताया जा चुका है कि मानव जीवन का उद्देश्य अपने आप को जानना है और यह तभी संभव होता है जब हमारा हर कार्य और विचार उस परमसत्ता को प्रसन्न करने के लिए ही किया जाता है। ब्रह्मचारी कहने का अर्थ ही है जो अपने आचार विचार और व्यवहार में ब्रह्म को देखता है, अनुभव करता है । संस्कृत में ‘चलने‘ के अर्थ में अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं, जैसे, चल् अर्थात् समान्य गति से चलना, चर् अर्थात् खाते हुए चलना, ब्रज अर्थात् आनन्दपूर्वक चलना, पर्यट् अर्थात् अध्ययन करते हुए चलना आदि आदि । ब्रह्मचर्य शब्द में चर् क्रिया का उपयोग हुआ है जिसका अर्थ है खाते हुए चलना। इसलिए ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ हुआ ब्रह्म को खाते हुए चलना, यह कैसे हो सकता है? यह तभी हो सकता है जब हम अभी बतायी गई विधियों के द्वारा जीवन के हर कार्य, आचार और व्यवहार में दिन रात श्वास प्रश्वास के साथ ब्राह्मिक भाव का प्रयोग करते रहें। इससे नये संस्कारों का निर्माण नहीं हो पाता और इष्ट मंत्र पूर्व जन्मों के संस्कारों को नष्ट करता जाता है । इस प्रकार धीरे धीरे सभी प्रकार के संस्कार क्षय होते जाते हैं तो मन और बुद्धि के शुद्ध हो जाने पर आत्मसाक्षात्कार होता है।
नन्दु- अनेक विशेषज्ञों का यह कहना कितना सार्थक है कि आध्यात्मिक साधना करने के लिये नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करना अनिवार्य है, इसलिए यह बहुत कठिन है ?
बाबा- जो लोग ब्रह्मचर्य पालन करने के भय से साधना नहीं करते, उन्हें समझना चाहिये कि मन को बाहरी जड़ात्मक चिंतन से आन्तरिक सूक्ष्म चिंतन की ओर ले जाने का प्रयास करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है। प्रकृति के प्रभाव से ही मन जड़ता की ओर जाता है और उसके प्रभाव को कम करने से वह सूक्ष्मता की ओर जाता है। मुक्ति का अर्थ है प्रकृति के प्रभाव को कम करके जड़ता से सूक्ष्मता की ओर जाना। ब्रह्म स्वभाव से ही सूक्ष्म हैं अतः यदि मन जड़ता की ओर होगा तो वह ब्रह्म को नहीं पा सकता इसलिये मन को साॅंसारिक जड़ पदार्थो से दूर करने का उपाय है ‘‘ ब्रह्म का चिंतन करना‘‘ जो प्रकृति का मन पर प्रभाव कम करते हुए ही किया जा सकता है क्योंकि प्रकृति ही उसे चारों ओर के जड़ पदार्थों की ओर खींचती रहती है। इसलिये ब्रह्मचर्य वह कार्य है जो प्रकृति के प्रभावों से मन को ब्रह्म की ओर ले जाने का प्रयत्न करे और ब्रह्मचारी वह है जो हमेशा ब्रह्म चिंतन में डूॅबा रहे। यह कार्य साधना का अभ्यास करने पर ही संभव है। साधारणरतः वीर्य संरक्षण को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है पर वास्तव में अष्ट पाश और षडरिपु मन को बाहरी ओर के संसार में ही बाॅंधते हैं, इन चौदह में से ‘काम‘ केवल एक है अतः जब तक यह सभी चौदह नियंत्रण में नहीं आते केवल ‘काम‘ को नियंत्रित करने मात्र से ब्रह्मचर्य का पालन करना नहीं कहला सकता। अविद्यामाया इन चौदह प्रकारों से मन को इतना जकड़े रहती है कि उससे तब तक नहीं छूटा जा सकता जब तक साधना न की जावे। इस साधना के सहारे धीरे धीरे मन अविद्या के प्रभाव से दूर होता जाता है और वही ब्रह्मचारी कहलाता है जो अविद्या के प्रभाव से मुक्त हो गया। जो साधना का अभ्यास किये बिना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं वे केवल समय को ही नष्ट करते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य पालन करने के लिये पारिवारिक जीवन को त्यागने की आवश्यकता नहीं हैं। साधना का बल प्रकृति के बल से अधिक होता है अतः इसकी सहायता से कोई भी ब्रह्मचारी हो सकता है, वीर्य का रक्षण कर सकता है और बुद्धि को तीक्ष्ण बना सकता है।