Sunday, 2 April 2017

117 बाबा की क्लास ( गायत्री )

117 बाबा की क्लास ( गायत्री ) 

नन्दू- बाबा! गायत्री क्या है, क्या गायत्री मन्त्र ही दीक्षा में सिखाया जाता है ?
बाबा - वैदिक युग में सात प्रकार के छंदों में वार्ता और आराधना करने की पृथा थी वे गायत्री, उष्निक, त्रिष्टुप, अनुष्टुप, जगति, ब्रहति और पंक्ति के नाम से जाने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल के दसवें सूक्त में परमपुरुष के लिये लिखित सावित्र ऋक, गायत्री छंद में लिखा गया है। लोग गलती से उसे गायत्री मंत्र कहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि को शुद्ध करने की एक प्रार्थना है। मन्त्र तो एक या दो अक्षरों का होता है, जिसके मनन से मुक्ति मिले उसे ही मंत्र कहते हैं। ‘‘मननात  तारयेत् यस्तु  सः मन्त्रः परिकीर्तितः। ‘‘

इन्दु- यह सावित्र ऋक क्या है ?
बाबा- संसार का सबसे पुराना ग्रंथ ‘ऋग्वेद‘ अनेक खंडों में विभक्त है, प्रत्येक खंड को ‘मंडल‘ कहते हैं। प्रत्येक मंडल अनेक ‘सूक्तों‘ में विभक्त है और प्रत्येक सूक्त अनेक ‘ऋकों‘ में विभक्त किया गया है। इसका अर्थ है कि ऋग्वेद का प्रत्येक श्लोक ‘ऋक‘ कहलाता है। यही कारण है कि इस वेद का नाम ही ‘ऋग्वेद‘ हो गया। जिसे सामान्यतः गायत्री मन्त्र कहा जाता है वह तीसरे मंडल के बासठवें सूक्त का दसवाॅं ऋक है। ऋग्वेद में ‘ऋक‘ शब्द के द्वारा परमसत्ता को सम्बोधित किया गया है और इस ऋक में उसी परमसत्ता को ‘सविता‘ के नाम से सम्बोधित किया गया है। इसीलिए उसे ‘सावित्र ऋक‘ भी कहा जाता है।

राजू- ‘गायत्री छंद‘ को किस प्रकार पारिभाषित किया गया है?
बाबा- गायत्री छंद में आठ आठ अक्षरों की तीन लाइनें होती हैं। जो इस छंद में रचना करता था  वह उसी मंत्र का ऋषि कहलाता था और जिस लय में उसे गाया जाता था वह उस मंत्र का लय। इस प्रकार मूल मंत्र में केवल तीन लाइनें ही थीं परन्तु अथर्ववेद में इस गायत्री में एक लाइन और प्रारम्भ में जोड़ दी गई।
मूल तीन लाइनें  यह हैं-
1. तत्सवितुर्वरेण्यम। 2. भर्गो देवस्य धीमही । 3. धियो यो नः प्रचोदयात ओंम ।
व्याकरण और लय के अनुसार यदि किसी छंद की किसी लाइन में अक्षरों की संख्याएं घट बढ़ जाती थी तो लय के अनुसार ही उन्हें माना जाता था। अथर्व वेद में  इसमें पहली लाइन के पहले ही ‘‘ओंम भूर्भुवः स्वः ‘‘ जोड़ दिया गया है।

रवि- लेकिन इस गायत्री छंद द्वारा प्रार्थना करते समय अनेक विद्वानों को एक सुसज्जित महिला का चित्र सामने रखते हुए भी देखा गया है वे कहते हैं कि यह गायत्री माता हैं, क्या यह सही है ?
बाबा- इस गायत्री का अर्थ समझ लो फिर आप लोग ही निर्णय करना कि उस  चित्र का औचित्य क्या है।
इस छंद का अर्थ और भावार्थ भी  विद्वानों ने अपने अपने ढंग से किया है। शाब्दिक व्युत्पत्तियों के अनुसार इसका भावार्थ यह है, ‘‘उत्पत्ति, पालन और संहार  की तरंगों में ओतप्रोत, निर्मित , निर्माणोन्मुख  और निर्माण योजनान्तर्गत सभी लोकों को लपेटे उस परम दिव्यसत्ता के सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का  हम ध्यान/वरण  करते हैं, जिससे  सभी प्रकाशित होते, आनंदित होते, आते हैं और वहीं वापस चले जाते हैं ,वह हमारी बुद्धि को शुद्ध करें ।‘‘
चन्दू- यदि इसके प्रत्येक शव्द की व्याख्या की जा सके तो समझने में सरलता होगी ?
बाबा- ऊँ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियोयोनः प्रचोदयात। संक्षेप में इसके प्रत्येक शब्द को इस प्रकार समझाया जा सकता  हैः-
(१) अ, उ और म का संयुक्ताक्षर ‘ऊँ ‘ है और अपने आप में 50 प्रकार की आवृत्तियों की ध्वनियों को समेटे हुए है जो कि वर्णमाला के  सभी स्वरों और व्यंजनों का मिश्रण है ,  अतः इसे किसी भी प्रकार से मनुष्य अपने गले से उच्चारित नहीं कर सकता है। इसे ओंकार ध्वनि कहते हैं , ऊँ ,ऊँ चिल्लाने से कुछ नहीं होता इसे तो मन, बुद्धि  और हृदय  से अनुभव करना होता है क्योंकि यह कास्मिक साउंड आफ क्रिएशन कहलाती है। इसे  थोड़े से अभ्यास करने से अनुभव किया  जा सकता  है।  यही ‘अ‘ उत्पत्ति , ‘उ‘ पालन और ‘म‘ संहार का द्योतक और उनके कार्यकारी प्रतिनिधि क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, महेश को प्रकट करता   है। यह सब एक ही सत्ता के तीन प्रकार के कार्यों के अनुसार नाम विशेष हैं ये अलग अलग सत्ताएं नहीं हैं।
(२) ‘भूः‘  ‘भुवः‘  और ‘स्वः‘  - भारतीय दर्शन में  माना  गया है कि   ब्रह्माण्ड के सात लोकों में कुछ निर्मित हो चुके हैं , कुछ निर्माणाधीन हैं और कुछ की निर्माण योजना है यही क्रमश ‘भूः‘  ‘भुवः‘  और  ‘स्वः‘ हैं, आगे सूक्ष्म लोक  तपः , जनः , महः और सत्यम हैं। आधुनिक  वैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि ब्रह्माण्ड में तारे और गेलेक्सियां उत्पन्न  होते , जीवित रहते और नष्ट होते रहते हैं। यही सात लोक मानव शरीर में मन के कोशों के नाम से स्वीकृत हैं जिन्हें अन्नमय, काममय, मनोमय, अतिमानस, विज्ञानमय और हिरण्यमय नाम दिए गए हैं, चूंकि हिरण्यमय कोश इकाई मानव मन और कास्मिक माइंड के लिए उभयनिष्ठ होता है अतः सत्य लोक भी उभयनिष्ठ होता है जहाॅं विशुद्ध चेतना अर्थात् परमपुरुष ही रहते है । इन सप्त लोकों को तीन परतों ( "भौतिक" "मानसिक" और "आध्यात्मिक") में निर्माण करने वाली सत्ता  को वेदों में ‘सविता‘ कहा गया है जिसका अर्थ है पिता।
(३)  ‘‘ तत्सवितुर्वरेण्यं‘‘ का अर्थ है ‘‘ उस सूर्य जैसे तेजस्वी स्वरुप का ध्यान/ वरण  ‘‘
(४) ‘भर्गः‘  का अर्थ इस प्रकार है - ‘ भ ‘ = भेति भास्यते लोकान अर्थात जो इन सभी लोकों को प्रकाशित करता है, ‘ र ‘ = रेति रञ्जयति प्रजा अर्थात जिससे प्रजा आनंद प्राप्त करती है, और  ‘ ग ‘ = गच्छति यास्मिन  आगच्छति  यस्मात् अर्थात जिससे आते हैं वहीँ चले  जाते हैं ,
(५) ‘ देवस्य धीमहि ‘ अर्थात परमदिव्य सत्ता ,
(६) ‘ धियोयो नः ‘ अर्थात हमारी बुद्धि को,
(७)  ‘ प्रचोदयात ‘ अर्थात  शुद्ध करें। अर्थात् सही रास्ते पर ले चलें।

नन्दू- तो वैदिकी दीक्षा में इसे ही सर्वश्रेष्ठ मंत्र कहा गया है?
बाबा- यह वैदिकी दीक्षा का सबसे अच्छा छंद है जो परमपुरुष से बुद्धि को शुद्ध करने की प्रार्थना करना सिखाता है इसके परिपक्व होने पर ‘उनकी‘ कृपा स्वरुप तांत्रिकी दीक्षा का अवसर मिलता है चाहे इसी जन्म में हो या आगे के।

रवि - बाबा ! इसका अर्थ  हुआ कि पहले वैदिकी और फिर तांत्रिकी दीक्षा लेना चाहिए ?
बाबा- हाँ , तांत्रिकी दीक्षा ‘सद्गुरु/महाकौलगुरु‘ स्वयं बीज मंत्र देकर साधना की विधि को अपने सामने अभ्यास कराकर सिखाते हैं जो परम कल्याण का साधन है और सभी को करने योग्य है। जिसे बीज मंत्र प्राप्त हो गया उसे फिर गायत्री की आवश्यकता नहीं रहती।

चन्दू- वेद और तन्त्र में क्या अन्तर है?
बाबा- वेद में नब्बे प्रतिशत सिद्धान्त है और दस प्रतिशत प्रायोगिक कार्य जबकि विद्यातन्त्र में नब्बे प्रतिशत प्रायोगिक कार्य है और दस प्रतिशत सिद्धान्त ।

इन्दु- तान्त्रिकी दीक्षा में कौन सा प्रायोगिक कार्य करना पड़ता है?
बाबा-तांत्रिकी दीक्षा में महाकौल गुरु या उनके द्वारा अधिकृत कौलगुरु सम्बंधित शिष्य की मूल आवृति अर्थात (fundamental frequency / existential rhythm) को पहिचान कर उसे नियंत्रित करने वाला बीजमंत्र देकर  अभ्यास कराते  हैं। श्वास के साथ बीजमन्त्र का समन्जयस्य हो जाने पर incantative rhythm बनता है जो existential rhythm के साथ अनुनादित  (resonance) होने  पर मन को स्थिर कर देता है।  इसके बाद गुरु द्वारा बताई गई बिधि से इस स्थिर मन के rhythm  का cosmic rhythm (अर्थात औंकार ध्वनि) के साथ resonance   कराना होता है    इसके लगातार अभ्यास और औंकार ध्वनि से अनुनाद होते रहने  पर आत्मसाक्षात्कार (self realization) होता है जिसे विभिन्न स्तरों पर  समाधियों के रूप में अनुभव किया जाता है परन्तु यह अनिवार्य नहीं है कि आत्मसाक्षात्कार के पहले समाधि  का अनुभव हो ही।  जिनके संस्कार क्षय हो चुकते हैं वे आत्मसाक्षात्कार करने के बाद इस  मानव शरीर में रहना ही नहीं चाहते , पर जिनके संस्कार भोगने के लिए शेष रहते हैं और आत्मसाक्षात्कार हो जाता है तो वे समाज के भले के लिए मानव शरीर को बनाये रखते हैं और  अपने अनुभवों और  ब्रह्मविद्या को सबको  सिखा कर अपने संस्कार क्षय करके मुक्त हो जाते हैं जो कि मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।  इसलिए सच्चे  जिज्ञासु को उचित अवसर अवश्य मिलता है , ईमानदारी से सत्य जानने का  प्रयत्न करते रहना चाहिए।

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