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बाबा की क्लास ( तारक ब्रह्म )
इन्दु- वह निर्पेक्षसत्ता, जिसकी मानसिक तरंगें स्पेस टाइम में बंधकर बह्माॅंड कहलाती हैं, क्या कभी इस ब्रह्माॅंड की सीमाओं में आता है? यदि हाॅं तो उसके आने का क्या कारण होता है?
बाबा- हाॅं। उसके दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि मानव की बुद्धि तो भावनात्मक अमूर्त सत्ता के मानसिक संपर्क में आकर संतुष्ठ हो सकती है परन्तु मानव का हृदय संतुष्ठ नहीं होता। उसका हृदय चाहता है किसी सत्ता को कुछ अधिक पास, कुछ अधिक भावप्रधान, कुछ अधिक आनन्ददायक। इसलिए अपने वंशजों को संतुष्ठ करने और उन्हें अधिक आनन्दित करने के उद्देश्य से वह इन पंचभौतिक सापेक्षिक तत्वों में बंध जाते हैं । इस अवस्था में वे तारक ब्रह्म कहलाते हैं। दूसरा कारण है कि इस ब्रह्माॅंड में जो कुछ भी प्रगति होती है वह परस्पर संघर्ष और खिचाव या टकराव से होती है। इसलिए मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है ताकि वह इस प्रकार की बाधाओं से संघर्ष कर सके। परन्तु जब मनुष्य अपनी बुद्धि से समाज को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नया करने में असफल हो जाता है तो वह परमसत्ता स्वयं को इन पंचभूतों में बाॅंधकर विकृत और अपभृष्ट मानव समाज को मार्गदर्शन करने के लिए आ जाते हैं।
चन्दु- इस बंधन में बंधकर वे क्या कार्य करते हैं?
बाबा- वास्तव में वह अपने चाहने वाले भक्तों को जो उनसे व्यक्तिगत संबंध बनाने की इच्छा रखते हैं, के हृदय को संतुष्ट करने की कृपा करते हैं। उनके माध्यम से वह सभी प्रकार की भावजड़ता और अपसंस्कृति को दूर कर उन्नत मानव समाज का निर्माण करते हैं। वह मानव रूप में ही आते हैं और वही सिखाते हैं कि कोई उनके पास कैसे आ सकता है, वही साधना करना सिखाते हैं, वही सब शास्त्रों का उचित अर्थ समझाते हैं। वही बतलाते हैं कि किस प्रकार ध्यान के द्वारा रूप से अरूप के बीच संपर्क बनाया जाता है और किस प्रकार मन को अरूप के साथ एकसमान किया जाता है।
रवि- यह तो वे लोग भी करते हैं जो पंडित या गुरु कहलाते हैं?
बाबा- पंडित और गुरु तो बहुत हैं परन्तु वे सब वित्तहर्ता (अर्थात् दक्षिणा के रूप में धन के लोभी) होते हैं, चित्तहर्ता ( अर्थात् मन पर स्थायी प्रभाव डालकर अपना बना लेने वाले ) नहीं। चित्तहर्ता गुरु केवल तारक ब्रह्म ही होते हैं वही ब्रह्म विद्या का ज्ञान सुपात्रों को देते हैं।
बिन्दु - तो तारक ब्रह्म का केवल यही कार्य होता है?
बाबा- यह तो उनके निर्धारित कार्यक्रम का एक भाग होता है, वह तात्कालिक समाज को व्यवस्था देने , धर्म की संस्थापना (अर्थात् जिसे जहाॅं जैसा होना चाहिए उसे वहाॅं व्यवस्थित करना), विकास और अनुसंधान के क्षेत्रों में नयी दिशा देने और कुपथगामियों को सही रास्ते पर चलाने के लिए विस्त्रित रूपरेखा बनाकर ही आते हैं। जैसे, आज से सात हजार वर्ष पहले तरक ब्रह्म ‘सदाशिव‘ ने तात्कालिक अव्यवस्थित आर्य, द्रविड़ और मंगोल समाज को एक सूत्र में बाॅंधने के लिए विवाह नामक संस्था की स्थापना, विभिन्न लोगों को उनकी रुचि के अनुसार विशेष कार्यों में प्रशिक्षण देकर समाज को भवन निर्माण कला , विद्यातन्त्र, वैद्यक शास्त्र, स्वरविज्ञान, संगीत अर्थात् गीत वाद्य और नृत्य , कृषि और पशुपालन आदि में शिक्षित कराना जैसे तात्कालिक आवश्यकताओं के कार्य को स्थापित करने के लिए अपना उद्देश्य बनाया। उनके बाद आज से तीन हजार वर्ष पूर्व धरती पर आए तारक ब्रह्म ‘कृष्ण ‘ ने छोटे छोटे राज्यों के रूप में अपना आपना वर्चस्व बनाए हुए अनेक धार्मिक और अधार्मिक राजाओं को ध्रुवीकृत कर एक महाभारत का निर्माण करने, सात्विक और सदाचारियों का संरक्षण कर दुष्टों और दुराचारियों को दण्ड देने , धर्म को उसका सही स्तर और स्थान दिलाने, युद्ध कौशल और कूटनीति का संयोग करने, योग और कर्मयोग का महत्व स्थापित करने तथा आडम्बर को समाज से हटाने का लक्ष्य रखा था।
राजू- जब वह स्पेस और टाइम में अपने को बाॅंधकर अपनी ही विचार तरंगों अर्थात् इस ब्रह्माॅंड में आते हैं तो निश्चय ही निर्धारित समय में अपने मूल स्वरूप में वापस भी चले जाते हैं, उनकी भौतिक अनुपस्थिति में मनुष्य क्या करें?
बाबा- हम सभी एक असीम विशाल रसमय महासागर के निवासी हैं। हमारे भीतर और बाहर से कभी समाप्त न होने वाली उन्नत तरंगें दसों दिशाओं में अभिव्यक्त हो रही हैं। यह अवर्णनीय स्पंदन छोटे, बड़े, उच्चारित होने वाली और उच्चारित न हो सकने वाली अलौकिक विचार तरंगों के रूप में विकीर्णित हो रहे हैं। इसलिए उस परमसत्ता के प्रत्येक प्रदर्श के साथ , प्रत्येक अभिव्यक्तिकरण के साथ, उचित और विवेकपूर्ण ढंग से व्यवहार करना चाहिए। अपने मन को कुमुदनी के आदर्श के अनुसार प्रशिक्षित करना चाहिए जो कीचड़ में खिलकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिये दिन रात लगातार स्फूर्त रहकर कीचड़ भरे तूफानों, झंझावातों और भाग्य के दिनों के उलटफेर से जूझते हुए अपने लक्ष्य चन्द्रमा की ओर ही देखती रहती है उसे नहीं भूलती। वह चंद्रमा के साथ अपने प्रेम को कभी नहीं भूलती। यह एक साधारण सा फूल है परन्तु उसने अपना आनन्ददायी सम्बंध महान चन्द्रमा से बनाकर सभी इच्छाओं को उसी की ओर केन्द्रित कर रखा है इसी प्रकार हम भी साधारण प्राणी हैं और सांसारिक परिस्थतियों के अनुसार सुख दुख का अनुभव करते हैं, संघर्ष करते हैं परन्तु हमें उस परमसत्ता को नहीं भूलना चाहिए। सभी इच्छाएं और विचार उसी की ओर ही संचारित करते रहना चाहिए। उसके प्रेम में गहराई से डूबे रहने पर सांसारिक गतिविधियाॅं आगे बढ़ने में कोई अड़ंगा नहीं लगा सकेंगी।
रवि- यदि सांसारिकता के प्रभाव से कभी उस परमसत्ता से तारतम्य नहीं रह पाया तो क्या होगा?
बाबा- जीवन में कैसी भी विकट परिस्थितियाॅं क्यों न आ जाएं उस अनन्त सत्ता पर से विचार नहीं हटना चाहिए। जिन्होंने उस परमसत्ता को अपने जीवन का आदर्श मान लिया है उनका पतन संभव नहीं है परन्तु कभी तुच्छ विचारों में फंसकर चित्त में निम्न स्तरीय स्पंदन आ जाते हैं तो उनके अनुकूल उस स्तर के प्राणियों में उस संस्कार को भोगने तक उनका शरीर लेना पड़ेगा। इसलिए अपने चित्त में सदैव उच्च स्तरीय स्पंदनों को ही स्थान देना चाहिए। राजा भरत जैसे उन्नत स्तर के व्यक्ति को भी चित्त में निम्न विचार आ जाने के कारण उन्हें हिरण के शरीर में पुनः जन्म लेना पड़ा था क्योेंकि मृत्यु के समय वह उसी का चिन्तन कर रहे थे। इसलिए इस पर विचार न करते हुए कि आज हमारी स्थिति क्या है और भविष्य में क्या रहेगी, उस महान के आदर्श से किसी भी स्थिति में भटकना नहीं चाहिए। उस परम आनन्द के अनुभव कराने वाले रास्ते से एक पद भी विचलित नहीं होना चाहिए।
चन्दू- इसका अर्थ क्या यह हुआ कि मानव जीवन में भावनाओं अर्थात् इमोशन्स का कोई स्थान ही नहीं है?
बाबा- भावनाएं यदि विवेक के द्वारा नियंत्रित और संचालित नहीं हों तो वे समस्याएं ही उत्पन्न करती हैं। इसके प्रभाव में ज्ञानी लोग भी आ जाते हैं और किसी भी स्थिति से निपटने के पहले ही उससे सांवेदिक साम्य जोड़ते देखे जाते हैं जो अन्ततः डोग्मा अर्थात् भावजड़ता के शिकार हो जाते हैं । इनमें बहकर जनसामान्य वह सब करने लगते हैं जो नहीं करना चाहिए और जो करना चाहिए वह नहीं , इसलिए ये धोखा देनेवाले बल कहलातीं हैं। उदाहरणार्थ, कोई बाजार में भोजन सामग्री खरीदने गया परन्तु पास में ही जूतों की दूकान में रखे जूतों के आकर्षण से आवश्यक न होते हुए भी जूते खरीद लाया, यहाॅं व्यक्ति ने भावना के प्रवाह में विवेक का उपयोग नहीं कर पाया। इसलिए सदा ही यह सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि हम भावना के व्यावहारिक पथ पर चल पा रहे हैं या नहीं।
इन्दु- जिसे आपने भक्ति कहा है वह भी तो एक प्रकार का भावावेग अर्थात् इमोशन ही है, कि नहीं?
बाबा- जब मन किसी निर्धारित पथ पर उचित विधि और अनुशासन का पालन करते हुए चलता है तब इसे ‘भक्ति‘ अर्थात् डिवोशन कहा जाता है परन्तु जब वह किसी निर्धारित विधि और अनुशासन का पालन किये बिना ही अस्त व्यस्त होकर चलने लगता है तो उसे ‘भावना‘ अर्थात् इमोशन कहते हैं। भक्ति और भावना में यही स्पष्ट अन्तर है जिसे सभी को याद रखना चाहिए। ‘भक्ति‘ को तत्व से जानने वाले जानते हैं कि उन्नति के मार्ग में बौद्धिक सह अन्तर्बोध एवं क्रियात्मक ज्ञान तथा भक्ति सह भावनात्मक ज्ञान का उचित सम्मिश्रण होना चाहिए। इन सभी का बराबर महत्व है और इन सभी का परिणामी बल ‘भक्ति‘ अर्थात् डिवोशन कहलाता है ‘भावावेग‘ अर्थात् इमोशन नहीं। जब हम अपनी व्यक्तिगत मधुरता को मधुरतम सत्ता के साथ प्रेमपूर्ण हृदय, मधुर बुद्धि और आध्यात्म से भरे स्वतंत्र प्रवाहित भावावेग के साथ मिला देते हैं तभी उस परमसत्ता में डूबने का आनन्द पाते हैं।
बाबा की क्लास ( तारक ब्रह्म )
इन्दु- वह निर्पेक्षसत्ता, जिसकी मानसिक तरंगें स्पेस टाइम में बंधकर बह्माॅंड कहलाती हैं, क्या कभी इस ब्रह्माॅंड की सीमाओं में आता है? यदि हाॅं तो उसके आने का क्या कारण होता है?
बाबा- हाॅं। उसके दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि मानव की बुद्धि तो भावनात्मक अमूर्त सत्ता के मानसिक संपर्क में आकर संतुष्ठ हो सकती है परन्तु मानव का हृदय संतुष्ठ नहीं होता। उसका हृदय चाहता है किसी सत्ता को कुछ अधिक पास, कुछ अधिक भावप्रधान, कुछ अधिक आनन्ददायक। इसलिए अपने वंशजों को संतुष्ठ करने और उन्हें अधिक आनन्दित करने के उद्देश्य से वह इन पंचभौतिक सापेक्षिक तत्वों में बंध जाते हैं । इस अवस्था में वे तारक ब्रह्म कहलाते हैं। दूसरा कारण है कि इस ब्रह्माॅंड में जो कुछ भी प्रगति होती है वह परस्पर संघर्ष और खिचाव या टकराव से होती है। इसलिए मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त बौद्धिक क्षमता की आवश्यकता होती है ताकि वह इस प्रकार की बाधाओं से संघर्ष कर सके। परन्तु जब मनुष्य अपनी बुद्धि से समाज को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नया करने में असफल हो जाता है तो वह परमसत्ता स्वयं को इन पंचभूतों में बाॅंधकर विकृत और अपभृष्ट मानव समाज को मार्गदर्शन करने के लिए आ जाते हैं।
चन्दु- इस बंधन में बंधकर वे क्या कार्य करते हैं?
बाबा- वास्तव में वह अपने चाहने वाले भक्तों को जो उनसे व्यक्तिगत संबंध बनाने की इच्छा रखते हैं, के हृदय को संतुष्ट करने की कृपा करते हैं। उनके माध्यम से वह सभी प्रकार की भावजड़ता और अपसंस्कृति को दूर कर उन्नत मानव समाज का निर्माण करते हैं। वह मानव रूप में ही आते हैं और वही सिखाते हैं कि कोई उनके पास कैसे आ सकता है, वही साधना करना सिखाते हैं, वही सब शास्त्रों का उचित अर्थ समझाते हैं। वही बतलाते हैं कि किस प्रकार ध्यान के द्वारा रूप से अरूप के बीच संपर्क बनाया जाता है और किस प्रकार मन को अरूप के साथ एकसमान किया जाता है।
रवि- यह तो वे लोग भी करते हैं जो पंडित या गुरु कहलाते हैं?
बाबा- पंडित और गुरु तो बहुत हैं परन्तु वे सब वित्तहर्ता (अर्थात् दक्षिणा के रूप में धन के लोभी) होते हैं, चित्तहर्ता ( अर्थात् मन पर स्थायी प्रभाव डालकर अपना बना लेने वाले ) नहीं। चित्तहर्ता गुरु केवल तारक ब्रह्म ही होते हैं वही ब्रह्म विद्या का ज्ञान सुपात्रों को देते हैं।
बिन्दु - तो तारक ब्रह्म का केवल यही कार्य होता है?
बाबा- यह तो उनके निर्धारित कार्यक्रम का एक भाग होता है, वह तात्कालिक समाज को व्यवस्था देने , धर्म की संस्थापना (अर्थात् जिसे जहाॅं जैसा होना चाहिए उसे वहाॅं व्यवस्थित करना), विकास और अनुसंधान के क्षेत्रों में नयी दिशा देने और कुपथगामियों को सही रास्ते पर चलाने के लिए विस्त्रित रूपरेखा बनाकर ही आते हैं। जैसे, आज से सात हजार वर्ष पहले तरक ब्रह्म ‘सदाशिव‘ ने तात्कालिक अव्यवस्थित आर्य, द्रविड़ और मंगोल समाज को एक सूत्र में बाॅंधने के लिए विवाह नामक संस्था की स्थापना, विभिन्न लोगों को उनकी रुचि के अनुसार विशेष कार्यों में प्रशिक्षण देकर समाज को भवन निर्माण कला , विद्यातन्त्र, वैद्यक शास्त्र, स्वरविज्ञान, संगीत अर्थात् गीत वाद्य और नृत्य , कृषि और पशुपालन आदि में शिक्षित कराना जैसे तात्कालिक आवश्यकताओं के कार्य को स्थापित करने के लिए अपना उद्देश्य बनाया। उनके बाद आज से तीन हजार वर्ष पूर्व धरती पर आए तारक ब्रह्म ‘कृष्ण ‘ ने छोटे छोटे राज्यों के रूप में अपना आपना वर्चस्व बनाए हुए अनेक धार्मिक और अधार्मिक राजाओं को ध्रुवीकृत कर एक महाभारत का निर्माण करने, सात्विक और सदाचारियों का संरक्षण कर दुष्टों और दुराचारियों को दण्ड देने , धर्म को उसका सही स्तर और स्थान दिलाने, युद्ध कौशल और कूटनीति का संयोग करने, योग और कर्मयोग का महत्व स्थापित करने तथा आडम्बर को समाज से हटाने का लक्ष्य रखा था।
राजू- जब वह स्पेस और टाइम में अपने को बाॅंधकर अपनी ही विचार तरंगों अर्थात् इस ब्रह्माॅंड में आते हैं तो निश्चय ही निर्धारित समय में अपने मूल स्वरूप में वापस भी चले जाते हैं, उनकी भौतिक अनुपस्थिति में मनुष्य क्या करें?
बाबा- हम सभी एक असीम विशाल रसमय महासागर के निवासी हैं। हमारे भीतर और बाहर से कभी समाप्त न होने वाली उन्नत तरंगें दसों दिशाओं में अभिव्यक्त हो रही हैं। यह अवर्णनीय स्पंदन छोटे, बड़े, उच्चारित होने वाली और उच्चारित न हो सकने वाली अलौकिक विचार तरंगों के रूप में विकीर्णित हो रहे हैं। इसलिए उस परमसत्ता के प्रत्येक प्रदर्श के साथ , प्रत्येक अभिव्यक्तिकरण के साथ, उचित और विवेकपूर्ण ढंग से व्यवहार करना चाहिए। अपने मन को कुमुदनी के आदर्श के अनुसार प्रशिक्षित करना चाहिए जो कीचड़ में खिलकर अपने अस्तित्व को बचाने के लिये दिन रात लगातार स्फूर्त रहकर कीचड़ भरे तूफानों, झंझावातों और भाग्य के दिनों के उलटफेर से जूझते हुए अपने लक्ष्य चन्द्रमा की ओर ही देखती रहती है उसे नहीं भूलती। वह चंद्रमा के साथ अपने प्रेम को कभी नहीं भूलती। यह एक साधारण सा फूल है परन्तु उसने अपना आनन्ददायी सम्बंध महान चन्द्रमा से बनाकर सभी इच्छाओं को उसी की ओर केन्द्रित कर रखा है इसी प्रकार हम भी साधारण प्राणी हैं और सांसारिक परिस्थतियों के अनुसार सुख दुख का अनुभव करते हैं, संघर्ष करते हैं परन्तु हमें उस परमसत्ता को नहीं भूलना चाहिए। सभी इच्छाएं और विचार उसी की ओर ही संचारित करते रहना चाहिए। उसके प्रेम में गहराई से डूबे रहने पर सांसारिक गतिविधियाॅं आगे बढ़ने में कोई अड़ंगा नहीं लगा सकेंगी।
रवि- यदि सांसारिकता के प्रभाव से कभी उस परमसत्ता से तारतम्य नहीं रह पाया तो क्या होगा?
बाबा- जीवन में कैसी भी विकट परिस्थितियाॅं क्यों न आ जाएं उस अनन्त सत्ता पर से विचार नहीं हटना चाहिए। जिन्होंने उस परमसत्ता को अपने जीवन का आदर्श मान लिया है उनका पतन संभव नहीं है परन्तु कभी तुच्छ विचारों में फंसकर चित्त में निम्न स्तरीय स्पंदन आ जाते हैं तो उनके अनुकूल उस स्तर के प्राणियों में उस संस्कार को भोगने तक उनका शरीर लेना पड़ेगा। इसलिए अपने चित्त में सदैव उच्च स्तरीय स्पंदनों को ही स्थान देना चाहिए। राजा भरत जैसे उन्नत स्तर के व्यक्ति को भी चित्त में निम्न विचार आ जाने के कारण उन्हें हिरण के शरीर में पुनः जन्म लेना पड़ा था क्योेंकि मृत्यु के समय वह उसी का चिन्तन कर रहे थे। इसलिए इस पर विचार न करते हुए कि आज हमारी स्थिति क्या है और भविष्य में क्या रहेगी, उस महान के आदर्श से किसी भी स्थिति में भटकना नहीं चाहिए। उस परम आनन्द के अनुभव कराने वाले रास्ते से एक पद भी विचलित नहीं होना चाहिए।
चन्दू- इसका अर्थ क्या यह हुआ कि मानव जीवन में भावनाओं अर्थात् इमोशन्स का कोई स्थान ही नहीं है?
बाबा- भावनाएं यदि विवेक के द्वारा नियंत्रित और संचालित नहीं हों तो वे समस्याएं ही उत्पन्न करती हैं। इसके प्रभाव में ज्ञानी लोग भी आ जाते हैं और किसी भी स्थिति से निपटने के पहले ही उससे सांवेदिक साम्य जोड़ते देखे जाते हैं जो अन्ततः डोग्मा अर्थात् भावजड़ता के शिकार हो जाते हैं । इनमें बहकर जनसामान्य वह सब करने लगते हैं जो नहीं करना चाहिए और जो करना चाहिए वह नहीं , इसलिए ये धोखा देनेवाले बल कहलातीं हैं। उदाहरणार्थ, कोई बाजार में भोजन सामग्री खरीदने गया परन्तु पास में ही जूतों की दूकान में रखे जूतों के आकर्षण से आवश्यक न होते हुए भी जूते खरीद लाया, यहाॅं व्यक्ति ने भावना के प्रवाह में विवेक का उपयोग नहीं कर पाया। इसलिए सदा ही यह सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि हम भावना के व्यावहारिक पथ पर चल पा रहे हैं या नहीं।
इन्दु- जिसे आपने भक्ति कहा है वह भी तो एक प्रकार का भावावेग अर्थात् इमोशन ही है, कि नहीं?
बाबा- जब मन किसी निर्धारित पथ पर उचित विधि और अनुशासन का पालन करते हुए चलता है तब इसे ‘भक्ति‘ अर्थात् डिवोशन कहा जाता है परन्तु जब वह किसी निर्धारित विधि और अनुशासन का पालन किये बिना ही अस्त व्यस्त होकर चलने लगता है तो उसे ‘भावना‘ अर्थात् इमोशन कहते हैं। भक्ति और भावना में यही स्पष्ट अन्तर है जिसे सभी को याद रखना चाहिए। ‘भक्ति‘ को तत्व से जानने वाले जानते हैं कि उन्नति के मार्ग में बौद्धिक सह अन्तर्बोध एवं क्रियात्मक ज्ञान तथा भक्ति सह भावनात्मक ज्ञान का उचित सम्मिश्रण होना चाहिए। इन सभी का बराबर महत्व है और इन सभी का परिणामी बल ‘भक्ति‘ अर्थात् डिवोशन कहलाता है ‘भावावेग‘ अर्थात् इमोशन नहीं। जब हम अपनी व्यक्तिगत मधुरता को मधुरतम सत्ता के साथ प्रेमपूर्ण हृदय, मधुर बुद्धि और आध्यात्म से भरे स्वतंत्र प्रवाहित भावावेग के साथ मिला देते हैं तभी उस परमसत्ता में डूबने का आनन्द पाते हैं।
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