118 बाबा की क्लास ( पशुत्व से देवत्व की ओर )
रवि- आपने बुद्धि को शुद्ध करने के लिए प्रार्थना कैसे की जाती है यह बताया परन्तु मन तो अपने जन्मजात संस्कारों के कारण पाश्विक वृत्तियों की ओर ही दौड़ता रहता है?
बाबा- सही कहा, प्रारम्भ में तो सभी लोग पशु ही होते हैं परन्तु आध्यात्मिक चाह के जाग जाने पर वे वीर हो जाते हैं और जब यह वीरभाव अच्छी तरह स्थापित हो जाता है तो वही लोग देवता हो जाते हैं । पशुत्व से देवत्व की ओर जाने का कार्य ही साधना करना कहलाता है।
इन्दु- तो यह शूद्र, विप्र, क्षत्रिय की अवधारणा व्यर्थ ही है?
बाबा- शास्त्र कहते हैं कि जन्म से तो सभी ‘शूद्र‘ ही हैं संस्कार मिलने पर वे ‘द्विज‘ हो जाते हैं, वेदशास्त्रों को पढ़कर उचित आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वही ‘विप्र‘ कहलाते हैं और तान्त्रिकी दीक्षा पाकर ‘ब्राह्मण‘ कहलाने योग्य बनते हैं । इस संबंध में ऋषियों का कहना है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रा संस्कारात् द्विज उच्यते, वेदपाठे भवेत् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ।‘‘
नन्दू- यह कैसे सम्भव हो सकता है?
बाबा- शूद्र से यहाॅं तात्पर्य है जिसमें सभी लक्षण पशुओं की तरह हों, इसके बाद उचित समय पर जब उन्हें वैदिकी दीक्षा संस्कार देकर यह सिखाया जाता है कि प्रार्थना कैसे की जाती है, किसकी की जाती है, मनुष्य होने के लिये कैसे अपनी इच्छाओं को प्रकट किया जाता है तब उनका दूसरा जन्म होना कहा जाता है । दूसरा जन्म लेना संस्कृत में द्विज कहलाता है। इस अवस्था में वह व्यक्ति पाश्विक वृत्तियों से दूर हो जाता है और उचित आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए सत्साहित्य का अध्ययन मनन और चिंतन करने लगता है अतः अब वही विप्र कहलाता है। इसके बाद तीब्र जिज्ञासा होने पर मनोआत्मिक दीक्षा अर्थात् तान्त्रिकी दीक्षा पाकर तदनुसार आचरण करने पर ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकार पाता है।
राजू- तो जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, जिन्हें आप मनुष्य रूप में पशु कहते हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है?
बाबा- निश्चय ही है, क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं । इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए , हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपति हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
चन्दू- क्या यह विचित्र सा नहीं लगता?
बाबा- नहीं ! इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उन्हें वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इन्दु- तो यह आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में किस स्तर पर पहुंचती है?
बाबा- ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
रवि- क्या यह स्पष्टीकरण किसी अन्य प्रकार से या सरलता से समझने योग्य नहीं दिया जा सकता?
बाबा- एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। पिछली क्लासों में अनेक बार यह बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता है। हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीर भाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।
राजू- अच्छा ! आप यह बतायें कि उस असीमित परमसत्ता से हम सभी सीमित अस्तित्वों के बीच उचित संपर्क बनाने के लिए अत्यावश्यक पूर्वापेक्षा क्या है?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि ‘कढ़ी‘ कितने ही अच्छे तरीके और सभी प्रकार की सावधानी से क्यों न बनायी जाय परन्तु यदि उसमें ‘नमक‘ की कमी रह जाय तो उसे स्वादिष्ट नहीं कह सकते। इसी प्रकार उस ‘अनन्त‘ और हम ‘सान्त‘ के बीच प्रेम की कमी हो तो किसी भी प्रकार उनसे संपर्क नहीं हो सकता।इस प्रेम को ही ऋषिगण भक्ति कहते हैं।
इन्दु- यह तो ठीक कहा, परन्तु कुछ और उदाहरण देकर समझाइये?
बाबा- मानलो कोई केवल कर्म करता है पर उनसे प्रेम न हो तो उसके सभी कर्म असफल हो जाऐंगे। उसके कर्म, सुयश तभी पा सकते हैं जब उनके साथ परमपुरुष की भक्ति जुड़ी हो अन्यथा उसके कर्म केवल यांत्रिक रह जाऐंगे और प्रारंभ में जो थोड़ी सी अन्तर्मुखता आएगी वह शीघ्र ही वहिर्मुखी होकर अपने लक्ष्य से दूर कर देगी। अब मानलो काई व्यक्ति तपस्या करता है, तपस्या माने कम समय में लक्ष्य को पाने के लिए अपने को कठिनाई में डालना। इस प्रकार की तपस्या में यदि उस परमपुरुष के प्रति प्रेम नहीं हो तब क्या होगा? केवल समय की बरबादी और मानसिक तथा शारीरिक रूप से बुरा प्रभाव। यदि कोई योगी अपनी चित्तवृत्तियों को नियंत्रित कर लेता है और उसी अवधि में उसे ईश्वर से प्रेम रहता है तो वह परमसत्ता से जुड़ा रहता है परन्तु यदि नहीं , तो भले ही वह बहुत बड़ा योगी क्यों न हो उसकी नियंत्रित वृत्तियाॅं जड़ पदार्थ में बदल जाऐंगी। यही योगी का पतन होना कहलाता है । इस विशेष प्रकार के योग में जिसमें योगी को परमपुरुष से कोई प्रेम नहीं रहता हठयोग कहलाता है। यह मानव उत्थान के लिए खतरनाक है।
रवि- हठ योग खतरनाक क्यों है?
बाबा- अक्षर ‘ह‘, सूर्य या इडा नाड़ी , जो भौतिक बल को प्रकट करती है, का ध्वन्यात्मक बीज है और ‘ठ‘ चंद्र या पिंगला नाडी, जो मन के ध्वन्यात्मक बीज को प्रकट करती है , इसलिये हठ का अर्थ हुआ भौतिक बल से मन को जबरदस्ती नियंत्रित करना। जब कोई घटना या कार्य आकस्मिक या अचानक हो जाता है तो सामान्यतः कहा जाता है कि हठात् यह हो गया। स्पष्ट है इससे मुक्ति नहीं मिल सकती इसलिए यह नुकसानदायक है।
नन्दू- और ज्ञानी?
बाबा- यदि किसी के पास बहुत बौद्धिक क्षमता और ज्ञान है और अन्य लोग भी उसे मान्यता देते हैं परन्तु उसे परमसत्ता के साथ कोई प्रेम नहीं है तो वह केले के छिलके जैसा है, उससे केले का स्वाद नहीं मिल सकता। यह ‘अपरा विद्या‘ कहलाती है जो पदार्थवाद की ओर ले जाती है । इस पदार्थवाद ने ही पिछली शताब्दियों से मानव समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है और समाज को गुमराह कर मनुष्यों को पशुओं में परिवर्तित करने का काम किया है। इतना ही नहीं पदार्थवादियों ने पशुओं को भी बड़ा नुकसान पहुंचाया है।
इंदु- तो ‘अपरा ज्ञान‘ बिलकुल व्यर्थ ही है?
बाबा- ‘परा‘ और ‘अपरा‘ ज्ञान दूध के महासागर की तरह हैं जब उन्हें मथा जाता है तो मक्खन और छाछ दोनों ही प्राप्त होते हैं। परमात्मा से प्रेम करने वाले भक्त मक्खन का आनन्द लेने लगते हैं और ज्ञानी छाछ को अपना अपना कहते हुए झगड़ने लगते हैं जब तक कि वह खराब नहीं हो जाता । अन्त में उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। इसीलिए सात्विक भक्ति को अपना कर अपने लक्ष्य परमपुरुष को पाया जा सकता है , यही पशुत्व से देवत्व की ओर जाने का रास्ता है अन्य कोई नहीं।
रवि- आपने बुद्धि को शुद्ध करने के लिए प्रार्थना कैसे की जाती है यह बताया परन्तु मन तो अपने जन्मजात संस्कारों के कारण पाश्विक वृत्तियों की ओर ही दौड़ता रहता है?
बाबा- सही कहा, प्रारम्भ में तो सभी लोग पशु ही होते हैं परन्तु आध्यात्मिक चाह के जाग जाने पर वे वीर हो जाते हैं और जब यह वीरभाव अच्छी तरह स्थापित हो जाता है तो वही लोग देवता हो जाते हैं । पशुत्व से देवत्व की ओर जाने का कार्य ही साधना करना कहलाता है।
इन्दु- तो यह शूद्र, विप्र, क्षत्रिय की अवधारणा व्यर्थ ही है?
बाबा- शास्त्र कहते हैं कि जन्म से तो सभी ‘शूद्र‘ ही हैं संस्कार मिलने पर वे ‘द्विज‘ हो जाते हैं, वेदशास्त्रों को पढ़कर उचित आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वही ‘विप्र‘ कहलाते हैं और तान्त्रिकी दीक्षा पाकर ‘ब्राह्मण‘ कहलाने योग्य बनते हैं । इस संबंध में ऋषियों का कहना है ‘‘ जन्मना जायते शूद्रा संस्कारात् द्विज उच्यते, वेदपाठे भवेत् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः ।‘‘
नन्दू- यह कैसे सम्भव हो सकता है?
बाबा- शूद्र से यहाॅं तात्पर्य है जिसमें सभी लक्षण पशुओं की तरह हों, इसके बाद उचित समय पर जब उन्हें वैदिकी दीक्षा संस्कार देकर यह सिखाया जाता है कि प्रार्थना कैसे की जाती है, किसकी की जाती है, मनुष्य होने के लिये कैसे अपनी इच्छाओं को प्रकट किया जाता है तब उनका दूसरा जन्म होना कहा जाता है । दूसरा जन्म लेना संस्कृत में द्विज कहलाता है। इस अवस्था में वह व्यक्ति पाश्विक वृत्तियों से दूर हो जाता है और उचित आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए सत्साहित्य का अध्ययन मनन और चिंतन करने लगता है अतः अब वही विप्र कहलाता है। इसके बाद तीब्र जिज्ञासा होने पर मनोआत्मिक दीक्षा अर्थात् तान्त्रिकी दीक्षा पाकर तदनुसार आचरण करने पर ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकार पाता है।
राजू- तो जिन्हें दीक्षा संस्कार नहीं मिल पाता, जिन्हें आप मनुष्य रूप में पशु कहते हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है?
बाबा- निश्चय ही है, क्योंकि वह परमसत्ता तो सबके जनक हैं अतः वे इनके लिए पशुपति हैं । इसलिए जब उनका लक्ष्य परमपुरुष को पाने की ओर होगा तब वे उन्हें ‘पशुपति‘ कह कर कहेंगे कि हमें उचित संस्कार नहीं मिल पाए , हम पशु ही रह गए, आप हमारे संरक्षक और नियंत्रक हैं आप पशुपति हैं हमारे भीतर सोयी हुई मानवता को जागृत कर दो।
चन्दू- क्या यह विचित्र सा नहीं लगता?
बाबा- नहीं ! इस प्रकार प्रार्थना करते करते वे अनुभव करेंगे कि उन्हें इस जीवन में क्या करना चाहिए और क्या नहीं तब वे वीर हो जाएंगे। वीर क्यों ? इसलिए कि उन्हें अपने भीतर की कुप्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ेगा। इस संघर्ष का परिणाम उन्हें वीरभाव में स्थापित कर देगा और उसका लक्ष्य पशुपति से वीरेश्वर की ओर हो जायेगा, यही कारण है कि परमपुरुष का एक नाम वीरेश्वर भी है।
इन्दु- तो यह आध्यात्मिक प्रगति विभिन्न स्तरों से होती हुई अन्त में किस स्तर पर पहुंचती है?
बाबा- ‘क्रमेण देवता भवेत‘ अर्थात् वह महिला हो या पुरुष जब इस प्रकार अभ्यास करते हुए स्थायी वीरभाव प्राप्त कर लेते हैं तो निडर हो जाते हैं । निर्भय हो जाने पर दिव्यभाव में स्थापित हो जाते हैं और मानव शरीर में ही देवता कहलाते हैं। इस अवस्था में उनकी पूरी आराधना वीरेश्वर के स्थान पर देवों के देव महादेव की ओर हो जाती है।
रवि- क्या यह स्पष्टीकरण किसी अन्य प्रकार से या सरलता से समझने योग्य नहीं दिया जा सकता?
बाबा- एक ही सत्ता को अपनी मनोआध्यात्मिक भावनाओं के अनुसार व्यक्ति कभी पशुपति, कभी वीरेश्वर और कभी महादेव सम्बोधित करता है। पिछली क्लासों में अनेक बार यह बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति (महिला हो या पुरुष) के तीन प्रकार के अभिव्यक्तिकरण होते हैं। पहला सोचना, दूसरा बोलना और तीसरा कार्यरूप में बदलना। पहले स्तर पर पशुरूपी मनुष्य की विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं, ओंठ दूसरे प्रकार से कहते हैं और शरीर अन्य प्रकार से उन्हें कार्य रूप में बदलता है अर्थात् उन तीनों में सामंजस्य नहीं होता। इसीलिये मनुष्य होते हुए भी उसे पशु कहा जाता है। हम देखते हैं कि समाज में इस प्रकार के लोगों की संख्या अधिक और अन्य लोगों की संख्या भी निराशाजनक है, कम है। दूसरे स्तर पर अर्थात् वीर स्तर पर विचार तरंगे एक प्रकार की होती हैं परन्तु शब्द और कार्य एक समान होते हैं। अर्थात् विचारों में कुछ भिन्नता होती है परन्तु कथनी और करनी में समानता होती है। समाज में इस प्रकार के लोग महापुरुष के नाम से आदर पाते हैं । ये देश और समाज का नेतृत्व करते हैं परन्तु चूंकि उनके विचारों में भिन्नता होती है इसलिए वे केवल वीर भाव तक ही सीमित रह जाते हैं। तीसरे और अन्तिम स्तर पर उसकी विचार तरंगों, ओंठों से उच्चारित किए गए शब्दों और शरीर से सम्पन्न किए गए कार्य में एकसमानता होती है इसलिए यह स्तर मानव शरीर में ही देवत्व की संज्ञा देता है। हम सभी को इस देवता स्तर को पाने के लिए चेष्टारत रहना चाहिए।
राजू- अच्छा ! आप यह बतायें कि उस असीमित परमसत्ता से हम सभी सीमित अस्तित्वों के बीच उचित संपर्क बनाने के लिए अत्यावश्यक पूर्वापेक्षा क्या है?
बाबा- तुम लोग यह जानते हो कि ‘कढ़ी‘ कितने ही अच्छे तरीके और सभी प्रकार की सावधानी से क्यों न बनायी जाय परन्तु यदि उसमें ‘नमक‘ की कमी रह जाय तो उसे स्वादिष्ट नहीं कह सकते। इसी प्रकार उस ‘अनन्त‘ और हम ‘सान्त‘ के बीच प्रेम की कमी हो तो किसी भी प्रकार उनसे संपर्क नहीं हो सकता।इस प्रेम को ही ऋषिगण भक्ति कहते हैं।
इन्दु- यह तो ठीक कहा, परन्तु कुछ और उदाहरण देकर समझाइये?
बाबा- मानलो कोई केवल कर्म करता है पर उनसे प्रेम न हो तो उसके सभी कर्म असफल हो जाऐंगे। उसके कर्म, सुयश तभी पा सकते हैं जब उनके साथ परमपुरुष की भक्ति जुड़ी हो अन्यथा उसके कर्म केवल यांत्रिक रह जाऐंगे और प्रारंभ में जो थोड़ी सी अन्तर्मुखता आएगी वह शीघ्र ही वहिर्मुखी होकर अपने लक्ष्य से दूर कर देगी। अब मानलो काई व्यक्ति तपस्या करता है, तपस्या माने कम समय में लक्ष्य को पाने के लिए अपने को कठिनाई में डालना। इस प्रकार की तपस्या में यदि उस परमपुरुष के प्रति प्रेम नहीं हो तब क्या होगा? केवल समय की बरबादी और मानसिक तथा शारीरिक रूप से बुरा प्रभाव। यदि कोई योगी अपनी चित्तवृत्तियों को नियंत्रित कर लेता है और उसी अवधि में उसे ईश्वर से प्रेम रहता है तो वह परमसत्ता से जुड़ा रहता है परन्तु यदि नहीं , तो भले ही वह बहुत बड़ा योगी क्यों न हो उसकी नियंत्रित वृत्तियाॅं जड़ पदार्थ में बदल जाऐंगी। यही योगी का पतन होना कहलाता है । इस विशेष प्रकार के योग में जिसमें योगी को परमपुरुष से कोई प्रेम नहीं रहता हठयोग कहलाता है। यह मानव उत्थान के लिए खतरनाक है।
रवि- हठ योग खतरनाक क्यों है?
बाबा- अक्षर ‘ह‘, सूर्य या इडा नाड़ी , जो भौतिक बल को प्रकट करती है, का ध्वन्यात्मक बीज है और ‘ठ‘ चंद्र या पिंगला नाडी, जो मन के ध्वन्यात्मक बीज को प्रकट करती है , इसलिये हठ का अर्थ हुआ भौतिक बल से मन को जबरदस्ती नियंत्रित करना। जब कोई घटना या कार्य आकस्मिक या अचानक हो जाता है तो सामान्यतः कहा जाता है कि हठात् यह हो गया। स्पष्ट है इससे मुक्ति नहीं मिल सकती इसलिए यह नुकसानदायक है।
नन्दू- और ज्ञानी?
बाबा- यदि किसी के पास बहुत बौद्धिक क्षमता और ज्ञान है और अन्य लोग भी उसे मान्यता देते हैं परन्तु उसे परमसत्ता के साथ कोई प्रेम नहीं है तो वह केले के छिलके जैसा है, उससे केले का स्वाद नहीं मिल सकता। यह ‘अपरा विद्या‘ कहलाती है जो पदार्थवाद की ओर ले जाती है । इस पदार्थवाद ने ही पिछली शताब्दियों से मानव समाज को बहुत नुकसान पहुंचाया है और समाज को गुमराह कर मनुष्यों को पशुओं में परिवर्तित करने का काम किया है। इतना ही नहीं पदार्थवादियों ने पशुओं को भी बड़ा नुकसान पहुंचाया है।
इंदु- तो ‘अपरा ज्ञान‘ बिलकुल व्यर्थ ही है?
बाबा- ‘परा‘ और ‘अपरा‘ ज्ञान दूध के महासागर की तरह हैं जब उन्हें मथा जाता है तो मक्खन और छाछ दोनों ही प्राप्त होते हैं। परमात्मा से प्रेम करने वाले भक्त मक्खन का आनन्द लेने लगते हैं और ज्ञानी छाछ को अपना अपना कहते हुए झगड़ने लगते हैं जब तक कि वह खराब नहीं हो जाता । अन्त में उन्हें कुछ भी नहीं मिलता। इसीलिए सात्विक भक्ति को अपना कर अपने लक्ष्य परमपुरुष को पाया जा सकता है , यही पशुत्व से देवत्व की ओर जाने का रास्ता है अन्य कोई नहीं।
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