Friday, 22 February 2019

239 मृत्यु के समय क्या होता है

239 मृत्यु के समय क्या होता है
जब मनुष्य के द्वारा इस शरीर में भोग पाने योग्य संस्कार क्षय हो जाते हैं तो वह अपना शरीर छोड़ देता है ताकि उसे पिछले जन्मों के सभी बचे हुए संस्कार और इस जन्म के नए अर्जित संस्कार भोगने योग्य दूसरा शरीर मिल सके। इस अवस्था में लोग कहने लगते हैं कि वह मर गया।
देह रहित अवस्था में अब केवल बीज रूप में मन अपने चारों ओर संचित और अर्जित संस्कारों को लपेटे रहता है। अब उसके पास ब्रेन सैल्स और नर्व सैल्स नहीं रहते अतः वह किसी भी प्रकार की क्रियाएं नहीं कर सकता। उसे भोजन की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि भोजन शरीर को चलाने के लिए ही होता है और ,जब शरीर बचा ही नहीं तो भोजन की भी आवश्यकता समाप्त । 
न तो वह कुछ सोच सकता है, न पाप कर सकता है और न पुण्य। मानसिक कार्य और विवेक आदि तो उसकी क्षमता में रहते ही नहीं हैं । उसका इस अवस्था में रहना अर्थहीन माना जाता है क्योंकि उसके भाग्य में अपने संस्कारों के बोझ को ढोते रहना ही होता है। उसे करने के लिए कुछ नहीं होता वह शरीर के बिना असमर्थ होता है। उसके भीतर यह विचार भी नहीं आता कि उसे धार्मिक कार्य करना चाहिए क्योंकि वह नर्व सैल्स के अभाव में सोच ही नहीं सकता। जब पूरे अन्तरिक्ष में भटकते हुए जहाॅं पर उसे पिछले जन्मों में संचित संस्कारों को भोगने के अनुकूल वातावरण मिल जाता है तब प्रकृति उसे तदनुकूल शरीर उपलब्ध करा देती है। इसलिए पुनः शरीर प्राप्त होने में कितना समय लगेगा यह निर्धारित नहीं होता। यह तो केवल संस्कारों की प्रकृति पर आधारित होता है कि उसे अगले ही क्षण नया शरीर प्राप्त हो सकता है या हजारों वर्ष के बाद।
इसलिए यह स्पष्ट होता है कि मृत्यु के बाद मृतक से संबंधित और उसके नाम से किए जाने वाले कर्मकाॅंड या भोज या अन्य दान पुण्य कर्मों से उसे कुछ नहीं मिलता । वह कार्य केवल मृतक  के संबंधियों को अपने मन की शाॅंति के लिये ही हो सकता है या सामाजिक रीति रिवाज को जारी रखने के लिए बस । मृत्यु और कुछ नहीं, एक शरीर से दूसरे में जाने का रूपान्तरण है।

Monday, 18 February 2019

238 बिग बेंग सिद्धान्त और आनन्दमार्ग दर्शन ( सृष्टि का उद्गम और अन्त )

238 बिग बेंग सिद्धान्त और आनन्दमार्ग दर्शन ( सृष्टि का उद्गम और अन्त )

 आनन्दमार्ग आध्यात्मिक दर्शन, के अनुसार, अपनी चिदानन्दघन अवस्था में रहते रहते अचानक परमसत्ता अर्थात (cosmic consciousness) के मन(cosmic mind )  मेें विचार आया कि एकमेव हूँ अनेक होकर देखूँ क्या होता है। इतना सोचते ही उनकी क्रियात्मक शक्ति (operative power ) जिसे प्रकृति कहा जाता है ,ने उनके मन(cosmic mind ) के ही  एक छोटे से भाग में , स्पेस-टाइम में बाँधकर इस सगुण सृष्टि को वर्तमान रूप में असीमित आकार देकर रच डाले गुरुत्वाकर्षण, ब्लेकहोल, गेलेक्सियाॅं और असंख्य सौर परिवार। इतना ही नहीं वनस्पति सहित असंख्य जीवधारियों की रचना कर, संचर और प्रतिसंचर (expansion and contraction phase) में इन्हें गतिशील करके ब्रह्मचक्र को पूरा कर दिया। उनकी अपेक्षा यह थी कि ये सभी छोटी बड़ी मानसिक तरंगें अपनी क्रमागत यात्रा करते हुए यथा समय वापस उन्हीं के पास ही आ जाएंगी परन्तु इस चक्र का पचहत्तर प्रतिशत भाग तय करने के बाद भी पृथ्वीवासी इन मनुष्यों ने तो उन्हें बड़े ही असमंजस में डाल दिया है। वे वापस आनेवाले रास्ते को भूलकर धूल के कण से भी छुद्र इस धरती को ही सर्वसुखकारक और आनन्ददायक मानकर अपने को बना बैठे हैं स्वयंभू पृथक सम्राट। नाभिकीय शक्तियों से एक दूसरे को नष्ट करने की धमकी देते, अपने गन्तव्य  को बिसारे ये लोग अहंकार, लोभ, मान अपमान, छोटे बड़े, ऊँचनीच, धनी गरीब, प्रबल निर्बल, जैसे न जाने कितने द्वन्द्वात्मक दुर्ग बनाकर ढहाने तुले हैं मानवता के पवित्र मन्दिर को। अपने को उनसे पृथक मानकर रच डाली हैं भिन्नता और असमानता। उनकी एक कल्पना के भीतर ही अनेक कल्पनाओं में डूबे, उनके ही इन स्वरूपों को उनका स्वप्न में भी बिचार नहीं आता। वह दुखी होकर कभी कभी सोचते हैं कि अपना विचार समाप्त कर दूँ लेकिन ‘‘कार्य कारण प्रभाव और क्रिया प्रतिक्रिया नियम‘‘ से बँधी जब तक सभी विचार तरंगें अपनी सगुणता के सूक्ष्मतम भाग को भी उसके कर्मफल का भोग करा कर स्वच्छ नहीं हो जातीं उन्हें विवश होकर इनका साक्षी बने रहना होगा और यह संसार इसी प्रकार चलता जाएगा। (1)

आधुनिक वैज्ञानिक ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति के संबंध में बिग बेंग (big bang ) सिद्धान्त को मानते हैं पर यह नहीं बता पाते कि यह बिगबेंग किसने किया। इसके अनुसार ब्रह्माॅड(cosmos), 13.8 बिलियन वर्ष पहले बिग बेंग के साथ 10-37  सेकेंड ( दस के ऊपर माइनस सेंतीस की घात, सेकेंड ) में उत्पन्न हुआ जिसका वर्तमान में दृश्य  व्यास 93 बिलियन प्रकाश  वर्ष है। पूरे ब्रह्माॅंड में पदार्थ के परिमाण की गणना करने पर पाया जाता है कि वह  3 से  100x1022 तारों की संख्या ( दस के ऊपर बाइस की घात ) के  बराबर है जो 80 बिलियन गेलेक्सियों में वितरित है। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि बिग बेंग की घटना किसी विस्फोट की तरह नहीं हुई  बल्कि 1015 केल्विन (दस के ऊपर पन्द्रह की घात केल्विन ) ताप के विकिरण के साथ स्पेस टाइम में फैलता हुआ अचानक ही अस्तित्व में आया। इसके तत्काल बाद10&29 सेकेंड ( दस के ऊपर माइनस उनतीस की घात ) में स्पेस का एक्पोनेशियल विस्तार 1027  (दस के ऊपर सत्ताइस की घात ) अथवा अधिक के गुणांक में हुआ। जो कि कास्मिक इन्फ्लेशन कहलाता है । ब्रह्माॅड का ताप 10,000 केल्विन से अधिक सैकड़ों हजार साल रहा जिसे रेसेड्युअल कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड कहते हैं। यूनीवर्स का कुल घनत्व अर्थात् डार्क एनर्जी, वर्ष 2013 में की गयी गणना के अनुसार 68.3 प्रतिशत पाया गया है और डार्कमैटर घटक , द्रव्यमान ऊर्जा घनत्व का 26.8 प्रतिशत। शेष 4.9 प्रतिशत में सभी सामान्य पदार्थ, दिखाई देने वाले परमाणु, रासायनिक तत्व गैस और प्लाज्मा , दृष्य ग्रह, तारे और गेलेक्सियाॅं हैं। इस ऊर्जा घनत्व में बहुत कम परिमाण लगभग 0.01 प्रतिशत कास्मिक माइक्रोवेव बेकग्राऊंड रेडियेशन भी होता है और 0.5 प्रतिशत से भी कम रेलिक न्यूट्रिनो होते हैं। अभी इनकी मात्रा भले ही कम हो पर बहुत पिछले काल में ये पदार्थ 3200 से भी अधिक रेड शिफ्ट में अपना अधिकार जमाये थे।
इस प्रकार वैज्ञानिकों द्वारा की गयी व्याख्या के अनुसार  अत्यन्त अकल्पनीय समय में ब्रह्माॅंड की उत्पत्ति होना पूर्वोक्त दर्शन के अनुसार परमपुरुष के मन की कल्पना से साम्य होने को प्रकट करता है।

  ब्रह्माॅंड की स्थानिक वक्रता शून्य के निकट है। हमारे मस्तिष्क में पाये जाने वाले न्यूरानों की संख्या ब्रह्मांड के सभी तारों की संख्या से अधिक है। जीवन की उत्पत्ति के संबंध में वैज्ञानिक मानते हैं कि जल के भीतर जीव उत्पन्न हुए पहले एक कोषीय और क्रमागत रूपसे बहुकोषीय जीव। डारविन के सिद्धान्त के अनुसार इसी क्रम में अति उन्नत जीव मनुष्य हुए हैं। पृथ्वी के अलावा अन्य गेलेक्सियों के किन्हीं सौर मंडल के ग्रहों में जीवन की संभावनायें भी बताई गयीं हैं।यह भी कहा गया है कि  ये जीव मनुष्य की तरह या मनुष्य से अधिक उन्नत  या अन्य प्रकार के भी हो सकते हैं। तारे और गेलेक्सियाॅं मरते हुए ब्लेक होल में लय हो जाते हैं और अंततः ब्लेक होल भी समाप्त हो जाता है, इसी प्रकार जीव भी मनुष्य होकर अंततः मर जाता है, इसके आगे क्या होता है विज्ञान को इसकी कोई जानकारी नहीं है। वैज्ञानिकों का कहना है कि1040 ( दस के ऊपर चालीस की घात, ) वर्ष बाद पूरे ब्रह्मांड में केवल ब्लेक होल ही होंगे। वे हाकिंग रेडिएशन के अनुसार धीरे धीरे वाष्पीकृत हो जावेंगे। अपने सूर्य के बराबर द्रव्यमान वाला एक ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066  वर्ष  ( दस के ऊपर छियासठ की घात वर्ष ) लेता है, परंतु इनमें से अधिकांश  अपनी गेलेक्सी के केेन्द्र में स्थित अपनी तुलना में अत्यधिक द्रव्यमान के ब्लेक होल में सम्मिलित हो जाते हैं। चूंकि ब्लेक होल का जीवनकाल अपने द्रव्यमान पर तीन की घात के समानुपाती होता है इसलिये अधिक द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में बहुत समय लेता है। 100 बिलियन सोलर द्रव्यमान का ब्लेक होल नष्ट होने में 2x1066 वर्ष ( दस के ऊपर निन्यान्वे की घात, वर्ष ) लेगा । ब्रह्मांड, गेलेक्सियों को समेटे ऐंसा गोला है जो लगातार फैलता जा रहा है। सबसे दूरस्थ गेलेक्सी सबसे तेज चलती है अतः उसकी लंबाई की दिशा  में संकुचन हो जाने के कारण केन्द्र में खडे़ अवलोकनकर्ता के लिये वह छोटी दिखाई देती है। (2)

इस प्रकार वैज्ञानिक गणनाएं भी सिद्ध  करती हैं कि ब्रह्मांड में पाये जाने वाले आकाशीय पिंडों अर्थात् ग्रहों, सूर्यों, गेलेक्सियों, ब्लेकहोलों या ऊर्जा अर्थात् प्रकाश , बिजली , रेडियो, और ब्लेकएनर्जी और पृथ्वी जैसे ग्रहों के जीवधारी आदि सभी स्पेस और समय के अत्यंत विस्तारित क्षेत्रों में अपना साम्राज्य जमाये हुए हैं परंतु फिर भी वे अनन्त नहीं हैं अमर नहीं हैं। अतः पूर्वोक्त आध्यात्मिक दर्शन के अनुसार परमपुरुष का विवश होकर अनन्त काल तक सबका  साक्षित्व बनाए रखना विज्ञान के सिद्वान्तों से मेल करता है और परमसत्ता के अस्तित्व का प्रमाण देता है।

Saturday, 9 February 2019

237 भजन और कीर्तन

237 भजन और कीर्तन
भजन का अर्थ है परमपुरुष से अपने मन की बात करना। अपने सुखदुख की बातें करना। उन्हेें अपने निकट बनाए रखने का निवेदन करते रहना। इसलिए भजन तत्वतः व्यक्तिगत होता है और मन ही मन में या धीमें धीमें गुनगुनाने की सलाह दी जाती है। जो सबसे अधिक प्रिय होता है उससे ही निकटता बनाई जाती है इसलिए अपने इष्ट परमपुरुष से सर्वाधिक प्रेम करते हुए व्यक्तिगत संबंध बनाने के लिए उनसे कोई न कोई निकटता भरा संबंध बनाना पड़ता है तभी हम उनसे अपने मन की बात कह सकते हैं। यह संबंध पिता, पुत्र, पति, मित्र आदि का हो सकता है। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, कबीरदास के भजन आत्मनिवेदन से भरे हुए हैं जिनमें वे अपने इष्ट से दूर रहने का दुख और विरहवेदना व्यक्त करते देखे गए हैं। यह अलग बात है कि उनसे अन्य सभी को प्रेरणा मिलती रही है।
कीर्तन में अपने इष्ट का कीर्तिगान करते हुए उन्हें बार बार स्मरण किया जाता है और यह अकेले या समूह दोनों में किया जा सकता है। इसे जोर से उच्चारित करने की परम्परा है जिसका उद्देश्य स्वयं के साथ साथ अन्य सभी को भी परमपुरुष के भाव से लाभान्वित करना होता है। परन्तु इतना जोर से भी नहीं होना चाहिए कि सुनने वालों को लाभ के स्थान पर कष्ट ही होने लगे। इसमें पूरा शरीर गतिशील रहता है, जीभ गाती है, कान सुनते हैं हाथ वाद्ययंत्र बजाते हैं और पैर नाचते हैं। कीर्तन से आध्यात्मिक तरंगों का वातावरण बनता है जिससे परमपुरुष की उपस्थिति का रसास्वादन किया जाता है। इस प्रकार के रस प्रवाह का परिचय सबसे पहले श्रीकृष्ण ने गोपगोपियों को कराया था जिसके प्रभाव में वे अपने घर का कामकाज छोड़कर उनकी ओर दौड़ पड़ते थे। उनमें से प्रत्येक गोप और गोपी अनुभव करता था कि उनके इष्ट ‘‘कृष्ण’’ केवल उसके ही साथ हैं। लोग इसे रासलीला कहते हैं। चैतन्यमहाप्रभु (1486-1534) ने भी इसी प्रकार के भक्ति रस का प्रवाह किया था जिसके प्रभाव में भक्तगण उनके पीछे पीछे सबकुछ भूलकर दौड़ पड़ते थे। उन्होंने अपने अपने इष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण करने के लिए अलग अलग कीर्तन मंत्र दिये जैसेे; जिनका इष्ट ‘‘राम’’ था उन्हें ‘‘ हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे’’, और जिनका इष्ट ‘‘कृष्ण’’ था उन्हें ‘‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।’’ उन्होंने इन कीर्तन मंत्रों को केवल 500 वर्ष के लिए ही ऊर्जावान किया था जो अब समाप्ति की ओर है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के अनेक इष्ट नहीं हो सकते क्योंकि व्यक्तिविशेष के संस्कार किसी विशेष इष्टमंत्र के साथ ही अनुनादित होकर शुभ फल दे सकते हैं। इसके अलावा सही सही उच्चारण करने का ही प्रभाव होता है उच्चारण में परिवर्तन हो जाने पर मंत्र प्रभावहीन हो जाता है। इस जानकारी के अभाव में लोग राम और कृष्ण के कीर्तनमंत्र को साथ साथ ही गाते हेैं और उच्चारण भी गलत करते हैं,  राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा कहते हैं जिससे लाभ कुछ नहीं होता केवल समय ही नष्ट होता है। 
वर्तमान में पूर्व से प्रचलित सभी सार्वजनिक कीर्तन मंत्र प्रभावहीन हो चुके हैं या होने की कगार पर हैं। भक्त कवि संतों ने अपने अपने ढंग से जो कुछ कहा है वह उनके संस्कारों के अनुकूल उन्हें ही लाभदायी रहा है यह अलग बात हैं कि उनसे सभी को प्रेरणा मिलती रही है । इस वैज्ञानिक युग में वही तथ्य स्वीकार्य होते हैं जो वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित होते हैं अतः युग के अनुकूल महाकौलगुरु श्रीश्री आनन्दमूर्त्ति  जी ने परमपुरुष के साथ व्यक्तिगत निकटता और प्रेमपूर्ण सम्बंध स्थापित करने वाले शब्दों को शक्तिसम्पन्न कर अष्टाक्षरी सिद्धमंत्र दिया है जो सर्व कल्याणकारी है। वह कीर्तनमंत्र है-     ‘‘ बाबा नाम केवलम्’’ ।  ‘‘बाबा’’ का अर्थ गेरुए वस्त्र धारक, या दाढ़ी मूछ बढ़ाए चंदन लगाए व्यक्ति से संबंधित बिलकुल नहीं है; इसका अर्थ है जो सबसे निकटतम और प्रियतम हो, और वह हैं ‘‘बाबा’’ अर्थात् ‘परमपुरुष’। इसलिए ‘‘बाबा नाम केवलम्’’ का अर्थ हुआ जो सबसे निकट और प्रिय है केवल उनका नाम। केवल सर्वाधिक प्रिय परमपुरुष का नाम। यह मंत्र अपनी ऊर्जा हजारों वर्ष तक एक समान बनाए रखेगा क्योंकि इसे पुरश्चरण की प्रक्रिया में पारंगत महाकौलगुरु के द्वारा शक्तिसम्पन्न किया गया है।
मंत्र के संबंध में भी यह जानना आवश्यक है कि ‘‘ जिसके मनन करने से समस्या का समाधान मिले , कष्ट से मुक्ति मिले, उसे मंत्र कहा जाता है, (मननात् तारयेत यस्तु सः मन्त्रः परिकीर्तितः)। प्रत्येक अक्षर मंत्र है परन्तु कौन सा अक्षर या अक्षरों का समूह किसका मंत्र है इसे पुरश्चरण क्रिया में पारंगत सद्गुरु ही जानते हैं अतः जब ऐसे गुरु उस अक्षर या शब्द या शब्द समूह की सोई शक्ति जागृत कर देेते हैं तो वह प्रभावी होकर अपना कार्य करने लगता है। इसीलिए इष्टमंत्र का चिन्तन, मनन, और निदिध्यासन करने की सलाह गुरुगण दिया करते हैं। अतः मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि जितने जल्दी हो सके अपना बीज मंत्र सद्गुरु से पाकर उसके मनन चिन्तन में लग जाए, भजन करे , कीर्तन करे।

Tuesday, 5 February 2019

236 नासिका और श्वसन का जीवन में महत्व

236 नासिका और श्वसन का जीवन में महत्व
श्वसन विज्ञान हमारे भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक उत्थान में जीवन्त भूमिका निभाता है । पाचन क्रिया से लेकर सूक्ष्म आध्यात्मिक अभ्यासों में भी श्वास के नियंत्रण का बहुत महत्व  है। जन सामान्य इस विज्ञान को समझे बिना ही सभी कार्य करते हैं अतः वे शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ ही बने रहते हैं, भले ही वे इसे मानें या नहीं।
तुरंत समझने के दृष्टिकोण से यह आधारभूत नियम जान लेना चाहिए कि जब हमें कोई भौतिक रूप से कार्य करना हो जैसे दौड़ना, चलना आदि तो उस समय श्वास को दायीं नासिका से चलना चाहिए। इसमें भोजन का कार्य भी सम्मिलित है। उचित पाचन क्रिया के लिये भोजन प्रारंभ करने के आधा घंटे पहले और समाप्त होने के एक घंटे बाद तक दायीं नासिका से श्वसन क्रिया चलते रहना चाहिए। इसके विपरीत मानसिक और बौद्धिक कार्य जैसे पढ़ना, याद करना, योगासन करना, ध्यान करना, साधना पूजा आदि करने के समय बाॅयां स्वर चलना चाहिए। इसमें द्रव पदार्थों जैसे पानी पीना आदि भी सम्मिलित है।
ईश्वर प्रणिधान, ध्यान और योग साधना के लिये सर्वोत्तम अवसर वह होता है जब दोनों नासिकाओं से श्वसन क्रिया जारी हो परन्तु यह पाना सरल नहीं हो पाता। बात यह है कि यह श्वसन क्रिया स्वाभाविक रूप से नियमित अन्तराल पर अपने आप बदलती रहती है। इसे समझने के लिये इसके पीछे छिपी हुई विज्ञान इस प्रकार है। मनुष्यों के शरीर में तीन सूक्ष्म नाड़ियाॅं इडा, पिंगला और सुषुम्ना रीढ़ के भीतर एक छोर से दूसरे छोर तक कार्य करती हैं और सभी प्रकार के संवेदनों को मस्तिष्क को प्रेषित करती रहती हैं। जिन स्थानों पर ये तीनों आपस में मिलती हैं वहाॅं पर ऊर्जा केन्द्र निर्मित करती हैं जिन्हें योग की भाषा में चक्र कहते हैं। ये नाड़ियाॅं हमारे मन और आध्यात्मिक स्तर को श्वसन के द्वारा ही सूक्ष्मता से नियंत्रित करती हैं क्योंकि प्रत्येक नाड़ी से श्वसन का कार्य अलग अलग जुड़ा रहता है। जैसे, जब इडा सक्रिय रहती है तो स्वर बाॅंयी नासिका से और जब पिंगला सक्रिय होती है तब स्वर दाॅंयी नासिका से चलता है। तथा सुषुुम्ना के सक्रिय रहने के समय दोनों नासिकाओं से श्वास चलती है।
इस प्रकार स्वर विज्ञान के अनुसार कार्य करने की जानकारी और सतर्कता रखने से जीवन के बहुत से कार्य सुव्यवस्थित होने लगते हैं। परन्तु यदि बीमारी, या दिनचर्या के बदलने या अन्य कारणों से उचित कार्य करने के समय उचित श्वसन क्रिया प्राप्त नहीं होती है तो समस्यायें उत्पन्न होती हैं, जैसे , भोजन करते समय दाॅंयां स्वर न चले तो पाचन क्रिया सही नहीं होगी और एसीडिटी, डिस्पेप्सिया आदि घेर लेंगे। इसी प्रकार यदि अध्ययन करने या ध्यान करने के समय वाॅंयां स्वर न चले तो ठीक ढंग से याद नहीं होगा और ईश्वर चिंतन भी आनन्ददायी नहीं हो सकेगा। सोने के लिये भी बाॅंयी करवट से सोना सबसे अच्छा होता है क्योंकि इससे स्वर दाॅंयी नासिका से चलता रहता है इसलिए पाचन क्रिया सुचारु बनी रहती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से पींठ के बल सोना बुरा होता है, उससे बुरा होता है दायीं करवट से सोना और सबसे बुरा होता है पेट के बल सोना।
स्वर विज्ञान के संबंध में भगवान शिव ने ही सबसे पहले यह रहस्योद्घाटन किया था कि इसकी जानकारी रखने से भौतिक और आध्यात्मिक जगत की अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। मानलो कोई भारी वजन लेकर ऊंचाई पर चढ़ना चाहता है और स्वर विज्ञान के नियमों का पालन नहीं करता है तो हाॅंथों में दर्द  होने लगेगा और हड्डियां भी प्रभावित हो सकती हैं। यदि ऊंचाई चढ़ते समय फेंफड़े वायु से रिक्त हों तो बड़ी भारी समस्या हो सकती है परन्तु यही कार्य गहरी साॅंस लेकर फेंफड़ों में वायु को भरे रहकर सरलता से किया जा सकता है। ठोस भोजन करते समय दांया और तरल भेजन करते समय बाॅंयां स्वर चलना चाहिए। निर्जल उपवासों के दिनों में प्रायः नवाभ्यासी शीघ्र ही भूख से कष्ट पाने लगते हैं, स्वरविज्ञान की सहायता से वे इसे दूर करने के लिये भूख लगने के समय दांयीं करवट से लेट जाएं जिससे स्वर बाॅंयां चलने लगेगा अतः भूख का आभास समाप्त हो जाएगा। बार बार भूख लगने पर हर बार दांयीं करवट लेटकर उस पर नियंत्रण किया जा सकता है। बड़ी आंत में दर्द होने पर दर्द होने के समय जिस नासिका से स्वर चल रहा हो उसे तत्काल बदलकर दूसरी नासिका से सक्रिय कर लेना चाहिए इससे दर्द दूर हो जाएगा। भूख लगने पर पित्त को एकत्रित नहीं होने देना चाहिए अन्यथा वह एसीडिटी का कारण बनेगा।
स्वर विज्ञान की क्रियाएं बड़ी ही सूक्ष्म होती हैं और स्वाभाविक रूप से चलती रहती हैं अतः जब शरीर स्वस्थ और संतुलित रहता है श्वसन क्रिया अपने आप सही चलती रहती है। परन्तु कभी किसी कार्य विशेष के समय यदि उचित नासिका स्वर नहीं चलता पाया जाए तब उसे किस प्रकार बदला जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि जिस नासिका स्वर की आवश्यकता है उसके विपरीत करवट से पाॅंच छः मिनट तक लेट जाना चाहिए। जैसे भोजन करते समय दायाॅं स्वर लाने के लिए बाॅंयी करवट से पाॅंच या सात मिनट तक लेट जाने पर दाॅंया स्वर चलने लगेगा, इसके बाद भोजन किया जा सकता है।