Saturday, 9 February 2019

237 भजन और कीर्तन

237 भजन और कीर्तन
भजन का अर्थ है परमपुरुष से अपने मन की बात करना। अपने सुखदुख की बातें करना। उन्हेें अपने निकट बनाए रखने का निवेदन करते रहना। इसलिए भजन तत्वतः व्यक्तिगत होता है और मन ही मन में या धीमें धीमें गुनगुनाने की सलाह दी जाती है। जो सबसे अधिक प्रिय होता है उससे ही निकटता बनाई जाती है इसलिए अपने इष्ट परमपुरुष से सर्वाधिक प्रेम करते हुए व्यक्तिगत संबंध बनाने के लिए उनसे कोई न कोई निकटता भरा संबंध बनाना पड़ता है तभी हम उनसे अपने मन की बात कह सकते हैं। यह संबंध पिता, पुत्र, पति, मित्र आदि का हो सकता है। सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, कबीरदास के भजन आत्मनिवेदन से भरे हुए हैं जिनमें वे अपने इष्ट से दूर रहने का दुख और विरहवेदना व्यक्त करते देखे गए हैं। यह अलग बात है कि उनसे अन्य सभी को प्रेरणा मिलती रही है।
कीर्तन में अपने इष्ट का कीर्तिगान करते हुए उन्हें बार बार स्मरण किया जाता है और यह अकेले या समूह दोनों में किया जा सकता है। इसे जोर से उच्चारित करने की परम्परा है जिसका उद्देश्य स्वयं के साथ साथ अन्य सभी को भी परमपुरुष के भाव से लाभान्वित करना होता है। परन्तु इतना जोर से भी नहीं होना चाहिए कि सुनने वालों को लाभ के स्थान पर कष्ट ही होने लगे। इसमें पूरा शरीर गतिशील रहता है, जीभ गाती है, कान सुनते हैं हाथ वाद्ययंत्र बजाते हैं और पैर नाचते हैं। कीर्तन से आध्यात्मिक तरंगों का वातावरण बनता है जिससे परमपुरुष की उपस्थिति का रसास्वादन किया जाता है। इस प्रकार के रस प्रवाह का परिचय सबसे पहले श्रीकृष्ण ने गोपगोपियों को कराया था जिसके प्रभाव में वे अपने घर का कामकाज छोड़कर उनकी ओर दौड़ पड़ते थे। उनमें से प्रत्येक गोप और गोपी अनुभव करता था कि उनके इष्ट ‘‘कृष्ण’’ केवल उसके ही साथ हैं। लोग इसे रासलीला कहते हैं। चैतन्यमहाप्रभु (1486-1534) ने भी इसी प्रकार के भक्ति रस का प्रवाह किया था जिसके प्रभाव में भक्तगण उनके पीछे पीछे सबकुछ भूलकर दौड़ पड़ते थे। उन्होंने अपने अपने इष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण करने के लिए अलग अलग कीर्तन मंत्र दिये जैसेे; जिनका इष्ट ‘‘राम’’ था उन्हें ‘‘ हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे’’, और जिनका इष्ट ‘‘कृष्ण’’ था उन्हें ‘‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।’’ उन्होंने इन कीर्तन मंत्रों को केवल 500 वर्ष के लिए ही ऊर्जावान किया था जो अब समाप्ति की ओर है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के अनेक इष्ट नहीं हो सकते क्योंकि व्यक्तिविशेष के संस्कार किसी विशेष इष्टमंत्र के साथ ही अनुनादित होकर शुभ फल दे सकते हैं। इसके अलावा सही सही उच्चारण करने का ही प्रभाव होता है उच्चारण में परिवर्तन हो जाने पर मंत्र प्रभावहीन हो जाता है। इस जानकारी के अभाव में लोग राम और कृष्ण के कीर्तनमंत्र को साथ साथ ही गाते हेैं और उच्चारण भी गलत करते हैं,  राम को रामा और कृष्ण को कृष्णा कहते हैं जिससे लाभ कुछ नहीं होता केवल समय ही नष्ट होता है। 
वर्तमान में पूर्व से प्रचलित सभी सार्वजनिक कीर्तन मंत्र प्रभावहीन हो चुके हैं या होने की कगार पर हैं। भक्त कवि संतों ने अपने अपने ढंग से जो कुछ कहा है वह उनके संस्कारों के अनुकूल उन्हें ही लाभदायी रहा है यह अलग बात हैं कि उनसे सभी को प्रेरणा मिलती रही है । इस वैज्ञानिक युग में वही तथ्य स्वीकार्य होते हैं जो वैज्ञानिक आधार पर प्रमाणित होते हैं अतः युग के अनुकूल महाकौलगुरु श्रीश्री आनन्दमूर्त्ति  जी ने परमपुरुष के साथ व्यक्तिगत निकटता और प्रेमपूर्ण सम्बंध स्थापित करने वाले शब्दों को शक्तिसम्पन्न कर अष्टाक्षरी सिद्धमंत्र दिया है जो सर्व कल्याणकारी है। वह कीर्तनमंत्र है-     ‘‘ बाबा नाम केवलम्’’ ।  ‘‘बाबा’’ का अर्थ गेरुए वस्त्र धारक, या दाढ़ी मूछ बढ़ाए चंदन लगाए व्यक्ति से संबंधित बिलकुल नहीं है; इसका अर्थ है जो सबसे निकटतम और प्रियतम हो, और वह हैं ‘‘बाबा’’ अर्थात् ‘परमपुरुष’। इसलिए ‘‘बाबा नाम केवलम्’’ का अर्थ हुआ जो सबसे निकट और प्रिय है केवल उनका नाम। केवल सर्वाधिक प्रिय परमपुरुष का नाम। यह मंत्र अपनी ऊर्जा हजारों वर्ष तक एक समान बनाए रखेगा क्योंकि इसे पुरश्चरण की प्रक्रिया में पारंगत महाकौलगुरु के द्वारा शक्तिसम्पन्न किया गया है।
मंत्र के संबंध में भी यह जानना आवश्यक है कि ‘‘ जिसके मनन करने से समस्या का समाधान मिले , कष्ट से मुक्ति मिले, उसे मंत्र कहा जाता है, (मननात् तारयेत यस्तु सः मन्त्रः परिकीर्तितः)। प्रत्येक अक्षर मंत्र है परन्तु कौन सा अक्षर या अक्षरों का समूह किसका मंत्र है इसे पुरश्चरण क्रिया में पारंगत सद्गुरु ही जानते हैं अतः जब ऐसे गुरु उस अक्षर या शब्द या शब्द समूह की सोई शक्ति जागृत कर देेते हैं तो वह प्रभावी होकर अपना कार्य करने लगता है। इसीलिए इष्टमंत्र का चिन्तन, मनन, और निदिध्यासन करने की सलाह गुरुगण दिया करते हैं। अतः मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि जितने जल्दी हो सके अपना बीज मंत्र सद्गुरु से पाकर उसके मनन चिन्तन में लग जाए, भजन करे , कीर्तन करे।

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