एक ही प्रकार का जीवन जीते जीते होने वाली स्वाभाविक ऊब को दूर करने के लिए मनुष्यों ने समय समय पर उत्सवों और समारोहों का आयोजन करना सीखा। पर, ये सभी एक सीमा तक ही सन्तुष्ठी देते हैं अतः इस पर विचार किया गया कि मनुष्य के जीवन का ध्येय क्या होना चाहिए जिससे अनन्त सुख की प्राप्ति हो सके। सभी विद्वान ऋषियों ने प्रत्येक सम्भावित तथ्य पर तार्किक विश्लेषण किया जिसे बिन्दुवार निम्नाॅंकित पदों में स्पष्ट किया जाकर अन्तिम परिणाम निर्धारित किया गया है।
246 ध्येय
जीव यदि गतिशील न हों तो उन्हें मृत कहा जाता है। गति जीवन को प्रमाणित करती है परन्तु यदि जीवन में गति हो पर लक्ष्य न हो तो वह जीवन भी व्यर्थ ही हो जाता है। हमारे पूर्वज ऋषियों ने मानव जीवन का ध्येय अथवा लक्ष्य क्या हो इस पर तर्क, विज्ञान और विवेक का सहारा लेकर निर्णय लिया कि हमारे जीवन का लक्ष्य वही हो सकते हैं जिनसे हमारी उत्पत्ति हुई अर्थात् जो हमाारे जैसा मनुष्य बना सकते हैं और अपने में लय कर सकते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि इस विश्वब्रह्माॅंड में वह कौन है जो सर्वश्रेष्ठ है, सबका सार है और सब गतियों की परागति है जिसे हम ध्येय बना सकते हैं? पहले हम एक एक मूल तत्व को लेकर इस विषय के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करते हैं फिर निर्णय करेंगे कि ध्येय क्या होना चाहिए।
काल- कुछ विद्वानों का मानना है कि काल अर्थात् ‘टाइम’ अनादि है, शास्वत है अतः सभी की उत्पत्ति महाकाल से ही हुई है। तो क्या ‘काल’ जीवन का लक्ष्य हो सकता है? नहीं, क्योंकि काल की उत्पत्ति तो हमारे मन के भीतर ही हुई है, काल है क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप। अतः काल एक सापेक्षिक तत्व हुआ क्योंकि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है इसी के अनुसार हम तिथि , अहोरात्र, मास, संवत्सर आदि बना लेते हैं यदि ये सूर्य, पृथ्वी न हो होते तो समय अर्थात् काल भी न रहता। तो काल मनुष्य का मानसिक भावगत एक सापेक्षिक तत्व है जिसका अस्तित्व अन्य सत्ताओं पर निर्भर है इसलिए वह चरम तथा परम नहीं है। अतः ‘‘काल’’ हमारा ध्येय नहीं हो सकता।
स्वभाव- कुछ विद्वानों का मत है कि नेचर अर्थात् प्रकृति ही ध्येय है क्योंकि प्रकृति ही सभी प्रकार का निर्माण करती है, ‘प्र करोति यः सा प्रकृति’। परन्तु ‘प्रकृति’ हमारा ध्येय नहीं हो सकती, इसके दो कारण हैं। पहला, यह कि यह अजन्मा होते हुए भी ‘पुरुष’ के ऊपर आश्रित होती है। शास्त्रों में प्रकृति को ‘नार’ कहा गया है और संस्कृत में नार के तीन अर्थ हैं पानी, भक्ति और परमाप्रकृति। परमाप्रकृति सभी चीजों का निर्माण करती है परन्तु यह परमपुरुष की आश्रिता ही है इसीलिए परमपुरुष का एक नाम है ‘नारायण’ (नार + अयन)। अतः जो स्वयं दूसरों पर आश्रित हो वह किसी का ध्येय कैसे बन सकती है? दूसरा कारण यह है कि प्रकृति है नित्यनिवृत्ता। अर्थात् हर क्षण वह परिवर्तित हो रही है, पुूरुष पर आश्रित होने के कारण उसका ध्येय है परमपुरुष, इसलिए प्रकृति का आधार तत्व धीरे धीरे पुरुष में रूपान्तरित होता जा रहा है। परन्तु उसका विस्तार अत्यधिक होने से लगातार क्षय होते जाने पर भी वह ज्यों की त्यों बनी रहती सी लगती है। इसलिए नेचर या स्वभाव या प्रकृति कोई वैयक्तिक सत्ता नहीं है उसके कार्य करने की अपनी स्टाइल है अनेक प्रकार की वस्तुएं बना रही है नष्ट भी कर रही है। "नेचर इज ए स्टाइल आफ फंक्शनिंग"। यह एक गुणात्मक अभिव्यक्ति है यह ध्येय नहीं हो सकती।
नियति- ‘भाग्य, किस्मत, फेट’ क्या है? हमारे द्वारा किया गया कर्म जिसका फल अभी तक नहीं प्राप्त हुआ है वही है नियति। कर्मबीज हमें नियंत्रित करता है पर कर्मबीज हमारे कर्म से ही तो उत्पन्न हुआ है अतः वह हमारा ध्येय नही हो सकती। संस्कृत में इसे ‘अदृष्ट’ शब्द का उपयोग किया गया है क्योंकि जब तक हम अपने द्वारा किए गए मूलकर्म का फल भोगते हैं तब तक उसे भूल जाते हैं अतः फल भोगते समय उसका कारण अदृष्ट रहता है अर्थात् दिखाई नहीं देता। इसलिए भाग्य जैसी कोई चीज नही होती जो जैसा करता है वैसा ही उसका भाग्य बनता है। भाग्यवादी बनने से काम नही चलेगा, हाथ पैर हैं मस्तिष्क है, बुद्धि है मेहनत और चिन्तन मनन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ।
यदृच्छा- कुछ विद्वान इसे ही चरम या परम मानकर ध्येय समझते हैं परन्तु "यदृच्छा" का अर्थ क्या है? जब किसी घटना का कारण समझ में नहीं आए, कोई युक्तिसंगत तथ्य सामने न आए उसे लोग कह देते हैं "ऐक्सीडेंट " अर्थात् यदृच्छा, या हठात् घटित हो जाना। मनुष्य अपनी अज्ञता छुपाने के लिए ऐक्सीडेंट का नाम लेते हैं जबकि हर घटना एक इंसीडेंट है। विश्व ब्रह्मांड की उत्पत्ति ऐक्सीडेंटली नहीं हुई। हम यहाॅं अचानक उत्पन्न नहीं हो गए और न ही अचानक परमपुरुष में मिल जाएंगे जैसा कि ऋषिगण कह चुके हैं कि जिनसे हमारी उत्पत्ति हुई है और जो हमें अपने में मिला लेने की शक्ति रखते हैं वही हमारा ध्येय हैं, इसलिए यदृच्छा हमारा ध्येय नहीं हो सकती।
पंचभूत- कुछ लोगों का मत है कि यह पंचभूतात्मक जड़ जगत जीवन का ध्येय है। परन्तु यह ध्येय नहीं हो सकता क्योंकि जड़ पदार्थ की उत्पत्ति ‘भाव’ अर्थात् एब्सट्रेक्ट से हुई है और एब्सट्रेक्ट की उत्पत्ति होती है आत्मा ‘स्पिरिट’ से। परमपुरुष से भावलोक की उत्पत्ति हुई जो घनीभूत होकर जड़ में बदल गया। इसी क्रम में जब जड़ चूर्णीकृत होता है तब दुबारा एब्सट्रेक्ट अर्थात् भाव बनता है जिसे जीव मन कहा जाता है, मानव मन कहा जाता है। स्पष्ट है कि जड़ आपातः कारण है मूल कारण नहीं । जो जड़वादी हैं, जड़ को ही सर्वस्व मानते हैं वे प्रमाणित करते हैं कि जड़ में विद्या बुद्धि का अभाव होता है अतः पंचभूत जगत का कारण नहीं है, इसलिये चरम लक्ष्य भी नहीं हो सकता। मनुष्य को जड़वादी नहीं बनना चाहिए जड़ की उपासना जड़ की ओर ही ले जाती है और अन्त में जड़ ही बना देती है क्योंकि ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी’ ।
इन सभी का संयोग- जब ये सभी तत्व पृथक पृथक ध्येय नहीं हो सकते तब क्या इन सभी का एक दूसरे के साथ संयोग करने पर जो सत्ता बनेगी वही ध्येय हो सकता है? नहीं, क्योंकि अलग अलग इन सभी में अपूर्णता पायी जाती है अतः उनमें से जिस किसी को भी श्रोत कहें या अभीष्ट सभी अपूर्णता से ग्रस्त होंगे अतः सभी को मिलाने पर मिश्रण भी अपूर्णता से भरा होगा अतः यह ध्येय नहीं हो सकता।
जीवात्मा- हमारे चित्त अर्थात् मेन्टल प्लेट पर परमपुरुष का जो प्रतिबिम्बन है उसे जीवात्मा कहते हैं। मानलो परमपुरुष एक फूल हैं और हर जीव का मन है दर्पण । फूल के चारों ओर रखे दर्पण में फूल के प्रतिबिम्ब दिखाई देगे। तो दर्पण में दिखने वाला फूल हुआ जीवात्मा। हर जीव में जीवात्मा है, यदि अपने मन को परमात्मा में मिला दिया तो मनरूपी दर्पण नहीं रहा तब जीवात्मा भी नही रहेगी। मुंह एक है दर्पण अनेक, सभी दर्पणों में मुंह दिखाई देते हैं, यदि दर्पणों को हटा दिया जाए तो केवल मूल मुंह ही रह जाएगा। मनुष्य का जो मैपन है, मैं हॅूं बोध है, ‘आई एक्जिस्ट’ , यह बोध मन में होता है जब मन और बुद्धि को परमात्मा में मिला दिया तो मन रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित जीवात्मा खत्म हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि जीवात्मा कोई मूल सत्ता नहीं है यह प्रतिबिम्बित सत्ता है इसलिए यह किसी अन्य सत्ता को उत्पन्न नहीं कर सकती फिर उसमें मिल जाने का तो प्रश्न ही नहीं है। इसलिए जीवात्मा ध्येय नहीं हो सकती।
तब ध्येय कौन है?
इस विश्वब्रह्माॅंड में दो प्रकार की चीजें हैं। एक परिवर्तनशील अर्थात् क्षर और दूसरी अपरिवर्तनशील अर्थात् अक्षर। मूल सत्ता अर्थात् प्रज्ञा सत्ता या चितिशक्ति जो प्रधान अर्थात् प्रकृति की सहायता से रूपान्तरित हो गई उसे कहते हैं क्षर या अपरब्रह्म। और, जहाॅं प्रकृति की सहायता से मूल सत्ता रूपान्तरित नहीं हुई उसे कहते हैं अक्षर या परब्रह्म। यह जो परिदृश्यमान जगत है परिवर्तनशील है अतः हमारा ध्येय नहीं बन सकता। जो परब्रह्म हैं वे अक्षर हैं अमृत हैं।अमृत माने अपरिवर्तनीय। अक्षर आते हैं साक्षीसत्ता के रूप में। एक तीसरी सत्ता है जो क्षर और अक्षर को सगुण को तथा वस्तु के रूपान्तरित तत्वों को, अपरब्रह्म और परब्रह्म को निरीक्षण करते हैं वह एक ही हैं। वह संख्याओं में सीमित नहीं हैं अतः हमें अपने मन को उन्हीं एक की ओर प्रचालित कर कुशाग्र बनाना होगा। संस्कृत में इस प्रकार के मन को अग्रयाबुद्धि कहते हैं। इसलिए वह जो क्षर और अक्षर के विभेदक बिन्दु पर हैं वही पुरुषोत्तम हैं वही नियंत्रक हैं, वही ध्येय हैं। संसार की हर वस्तु उन्हीं की अभिव्यक्ति है उनमें किसी की अवहेलना नहीं होना चाहिए परन्तु मन को पुरुषोत्तम में ही लगाए रखना चाहिए, यह तभी हो सकता है जब मन की जितनी भी भावनाएं हैं उन सबको अन्य वस्तुओं से प्रत्याहार करके उन ‘एक’ की ओर चला दिया जाय। सीमित वस्तुओं से सम्बंधित अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं को उस भूमा चेतना की ओर संचालित करना होगा, इसे ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। यही है मानव जीवन का ध्येय।
श्वेताश्वर उपनिषद में इस तथ्य को इन दो श्लोकों में समझाया गया है-
‘‘कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुख दुख हेतोः।’’1/2
‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानात् योजनात् तत्वभावात् भूयचान्ते विश्वमायानिवृत्तिः।’’1/10