Monday, 27 May 2019

249 परमपुरुष की निकटता
परमपुरुष को धनात्मक और ऋणात्मक दोनों पद्धतियों से पाया जा सकता है। धनात्मक पद्धति में उनके साथ अपना निकटतम संबंध या मित्र बना लिया जाता है जबकि ऋणात्मक पद्धति में उनके साथ शत्रुता स्थापित की जाती है। जब हम उनके साथ अपना निकटतम संबंध बनाते हैं तब हम उनके प्रति समर्पित होकर प्रत्येक कार्य (चाहे वह छोटा हो या बड़ा, अच्छा हो या बुरा) उन्हीं की प्रसन्नता के लिए करते हैं। परन्तु, जब शत्रुता का संबंध होता है तब हम अपने अहंकार के वशीभूत होकर उन्हें तुच्छ समझते हैं, अपने सामने उन्हें अस्तित्वहीन मानते हैं और जो भी कार्य करते हैं अपने और केवल अपने हित के लिए ही करते हैं। इतिहास के पृष्ठों में हमें धनात्मक पद्धति का पालन करने वालों में ऋषियों और मुनियों के अलावा सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ आदि अनेक भक्तों के नाम मिलते हैं और ऋणात्मक पद्धति का पालन करने वाले तथाकथित राक्षसगणों के अलावा रावण तथा कंस आदि दुष्टों  के नाम मिलते हैं।
परमपुरुष की एक विशेषता यह है कि वह किसी से घृणा नहीं करते अतः वे दुष्ट,पापी, और भक्त तथा धर्मात्मा सभी को चाहते हैं। उनका वचन है कि "यदि कोई महान दुराचारी भी अनन्यभावना से उनकी शरण में आ जाता है तो वह भी भवबंधन से मुक्त हो जाता है"। स्पष्ट है कि शरणागत हुए बिना न तो धर्मात्मा को और न ही दुष्टात्मा को उनकी निकटता मिल पाती है। इसलिए यह भी स्पष्ट ही है कि धनात्मक पद्धति का पालन करने  ही बुद्धिमत्ता है क्योंकि ऋणात्मक पथगामी पापाचारी दुष्ट को अन्त में अपार कष्ट भोगना पड़ता है और कालान्तर में हजारों वर्ष तक लोग उसे निन्दा के फंदे पर झुलाते रहते हैं। मानव समाज इस प्रकार के लोगों को कभी क्षमा नहीं करता।

Tuesday, 21 May 2019

248 सुख, दुख और सत्य

248 सुख, दुख और सत्य
संसार में प्रचलित अनेक मतों में ‘दुखवाद’ वह मत है जिसके अनुसार मनुष्य जीवन के प्रारंभ, मध्य और अन्त में दुख ही दुख भरा हुआ माना गया है, पर यह पूर्ण सत्य नहीं है। चॅूंकि जन्म के क्षण ही मृत्यु का बीज भी साथ आ जाता है इसलिए बुढ़ापा, कष्ट, रोग आदि स्वाभाविक हैं। ‘स्पेस टाइम’ में बंधा हर अस्तित्व धनात्मक और ऋणात्मक स्पंदनों के साथ दोलन करता हुआ रात के बाद दिन का होना देखता ही है उसी प्रकार दुख के बाद सुख का उदय होना भी स्वाभाविक ही है। सदा ही दुख या सदैव सुख कभी नहीं रह सकते । मनुष्य के गतिमान जीवन का दूसरा और माधुर्यपूर्ण पक्ष है उसका लक्ष्य। उद्देश्यविहीन परिभ्रमण व्यर्थ होता है और अन्त में तथाकथित दुख देता है।
शास्त्र कहते हैं ‘‘ अनुकूलवेदनीयम सुखम्, प्रतिकूलवेदनीयम दुखम्’’। मनुष्य की शारीरिक संरचना के अलावा मानसिक संरचना भी होती हैं जिसमें मनुष्य के संस्कारों की रचना होती रहती है। मनुष्य जो कर्म करता है उसके उचित फल मिलने तक वह संस्कार के रूप में संचित बना रहता है। इस प्रकार पृथ्वी पर असंख्य काल्पनिक अभिव्यक्तियों में से जिस अभिव्यक्ति के साथ किसी का मानसिक संस्कार साम्य बना लेता है तब वह अनुकूलता का अनुभव कर सुख की अनुभूति करता है और यदि असाम्य की स्थिति में प्रतिकूलता का अनुभव करता है तो कहने लगता है बहुत दुखी हॅूं। इससे स्पष्ट होता है कि एक ही चीज सभी के लिए दुखकर नहीं भी हो सकती है। एक कुत्ता सूखी हड्डी चबाकर मुंह में खरोंच लगने से निकले खून के स्वाद से सुख पाता है पर मनुष्य के लिए तो यह सुख नहीं कहा जा सकता। शुद्धोधन ने चाहे कितनी ही चेष्टा क्यों न की हो प्रकाश और छाया की तरह बुद्ध के जीवन में सुख और दुख आए ही ।
दुखवादी दर्शन कहता है कि कभी कल्याण नहीं होता, जिसका अर्थ है दुखवाद को जकड़े रहकर सदा अकल्याण को ढोए जाना। प्रगतिशील रहने के लिए मनुष्य परिवर्तन चाहता है और ‘चक्र’ गतिशील जीवन का प्रतीक है इसीलिए कहा गया है ‘चक्रवत् परिवर्तन्ते दुखानि सुखानि च’। यदि चक्र का ऊपरी भाग अभी ‘दुख’ प्रदर्शित करे तो निश्चय ही अगले कुछ क्षणों में निचला ‘सुख’ प्रदर्शित करने वाला भाग ऊपर आ जाएगा। ‘सत्य’ वह है जो सदा अपरिवर्तित रहे। ‘‘स्पेस, टाइम और पर्सन’’ में सीमाबद्ध यह जगत परिवर्तनशील है क्योंकि इन तीन में से किसी एक के बदल जाने से सब कुछ बदल जाता है। परन्तु मानव जीवन का लक्ष्य, ‘‘निर्पेक्ष सत्य’’ इस सबसे प्रभावित नहीं होता वह सदा अपरिवर्तित रहता है । परन्तु सभी सीमाबद्ध अस्तित्व सापेक्षिक हैं, इसलिए सत्य का स्थान अभिन्न रूप से इन सबसे जुड़ा हुआ है अतः उसे खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, घरबार छोड़ने की तो बिल्कुल नहीं।
‘‘बुद्ध’’ सत्य की खोज में घर छोड़कर निकले और वेदविरोधी मगध की ओर आए। वे वहाॅं आकर ऐसी शिक्षा देना चाहते थे जो वेद को चुनौती दे सके अतः उन्होंने संजय नामक पंडित के पास आकर ‘‘कपिल दर्शन’’ सीखा। अब प्रश्न है कि कपिल दर्शन सीखने के लिए इतनी दूर जाने की आवश्यकता क्या थी? सिद्धार्थ को किसी ऐसे पंडित की शिक्षा नहीं मिली जो उन्हें गृहत्याग और उससे संबंधित कर्म से विरत करता; इसका कुप्रभाव परिवर्ती काल में समाज पर यह हुआ कि अनेक युवकों को बौद्धों ने जबरदस्ती सन्नयासी बना दिया जिसका फल अच्छा नहीं हुआ।
फिर भी, राजा का पुत्र होते हुए भी उन्होंने भिक्षापात्र हाथ में लिया, व्यक्तिगत जीवन में यह त्याग अवश्य ही प्रशंसनीय है।

Monday, 13 May 2019

247 वर्तुलगति, राधिका और रासलीला

247 वर्तुलगति, राधिका और रासलीला
सभी  जीव घूम रहे हैं, सभी आकाशीय पिंड घूम रहे हैं ब्रह्मचक्र में। इनमें से कोई नहीं जानता कि वे परमपुरुष के चारों ओर घूम रहे हैं। वे अपनी अपनी आजीविका के लिए घूम रहे हैं। मनुष्य अपनी तीन प्रकार की आजीविका को लेकर घूमते हैं, भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। जागतिक या भौतिक आजीविका वह है जिसमें अपने शरीर की रक्षा करने के लिए कोई न कोई काम करना पड़ता है जैसे कोई किसान है, कोई नौकरी करता है, कोई व्यापारी है। मानसिक आजीव के अन्तर्गत आता है रुपए पैसे, नाम, यश और प्रतिष्ठा के पीछे भागना। चाहे सही रास्ता मालूम हो या नहीं, जानकर या अनजाने में भी,  हर व्यक्ति परमात्मा की ओर जाना चाहता है।  सही ज्ञान के अभाव में उसकी शक्ति का अपव्यय होता है परन्तु उसके आन्तरिक मन में यह जिज्ञासा बनी रहती है कि ईश्वर क्या है, कहाॅं है? इसे कहते हैं आध्यात्मिक आजीव। ब्रह्मचक्र में इस प्रकार का घूमना सृष्टि के लिए एक स्वाभाविक गति है। गति के लिए परमपुरुष का विधान है कि वह स्पन्दनात्मक अर्थात् ‘स्पीड एन्ड पाॅज’ या ‘सिस्टेल्टिक’ होगी और वृत्ताकार राह पर अग्रसर रहेगी। इसलिए चाहे परमाणुओं के भीतर की गति हो या अन्तरिक्ष के विशाल पिंडों की, वह वृत्तीय गति ही होती है। सभी जानते हैं कि वृत्तीय गति करने वाले कणों या पिंडों पर सदा दो प्रकार के बल कार्य करते हैं, एक केन्द्र की ओर अर्थात् ‘सेन्ट्रीपीटल’ और दूसरा केन्द्र से बाहर की ओर अर्थात् ‘सेन्ट्रीफ्यूगल’। स्पष्ट है कि यदि केन्द्र से बाहर की ओर लगने वाला बल बढ़ जाता है तो घूमने वाला केन्द्र से बहुत दूर चला जाता है और यदि केन्द्र की ओर लगने वाला बल बढ़ जाता है तो वह केन्द्र की ओर अधिक निकट चला जाता है। परमाण्विक अर्थात् ‘एटामिक’ गति से लेकर ‘सोलर सिस्टम’ या ‘गेलेक्सियों’ की गति और ‘कास्मोलाजीकल आर्डर’ अर्थात् ब्रह्मचक्र की गति सभी के लिए यही नियम लागू होते हैं।

इस गति में कोई केन्द्र के पास और कोई दूर चक्कर लगा रहे हैं और इन सक्रिय बलों के प्रभाव में वे या तो केन्द्र के और पास में या उससे बहुत दूर चले जाते हैं। ब्रह्मचक्र में इन दोनों बलों को क्रमशः विद्या और अविद्या शक्ति कहा जाता है। केन्द्रानुगा शक्ति अर्थात् विद्याशक्ति जीव को केन्द्र में स्थित परमपुरुष की ओर तथा केन्द्रातिगा अर्थात् अविद्याशक्ति, परमपुरुष से दूर हटा देती है। अविद्या अर्थात् जड़ की उपासना से जीव ब्रह्मचक्र में बहुत दूर चला जाता है पर उससे बाहर नहीं जा सकता क्योंकि बाहर कुछ है ही नहीं सभी कुछ ब्रह्मचक्र के भीतर ही है। शास्त्रों में, विद्या के रास्ते चलकर साधना करना ‘श्रेय’ और अविद्या के रास्ते चलकर जड़ोपासना करने को ‘प्रेय ’ कहते हैं। जड़ की उपासना करते समय अविद्या शक्ति का प्रभाव दो प्रकार से पड़ता है एक कहलाता है ‘विक्षेप’ और दूसरा ‘आवरण’। ‘‘विक्षेप’’ के प्रभाव में परमपुरुष से मन हटकर पाप कर्म में लगता है और सदाचार से दूर भागता रहता है पर वह भाग कर कहाॅं जाएगा उसे कोल्हु के बैल की तरह एक ही स्थान पर चक्कर लगाना ही पड़ेगा प्रगति कुछ नहीं होगी चाहे वह रोज सैकड़ों किलोमीटर चले। ‘‘आवरण’’ के प्रभाव में जीव की आँखों  के सामने परदा पड़ जाता है, वह सोचने लगता है कि जब परमात्मा दिखाई नहीं देते हैं तो वे हैं ही नहीं, इसलिए वे मुझे कैसे देख सकते हैं और, मनमाने ढंग से गलत कार्य करने में लग जाता है। इस प्रकार जड़ोपासक इन दोनो बलों के प्रभाव में परमात्मा से बहुत दूर होता जाता है। विद्या की उपासना से जीव परमात्मा के बिलकुल समीप जा पहुॅंचता है। विद्याशक्ति भी साधक पर दो प्रकार से अपना प्रभाव डालती है पहला, ‘सम्वित’ और दूसरा ‘ह्लादिनी’। सम्वित शक्ति के प्रभाव में मनुष्य सोचता है, इतनी उम्र हो गई, पता नहीं कितने दिन और बचे हैं, कोई उपलब्धि नहीं, शरीर कमजोर हो गया साधना या भजन करना भी नहीं जान पाया। बुद्धिमान वे हैं जो बचपन से ही साधना करते हैं और खेलते कूदते हैं, उसके बाद पढ़ते लिखते हैं और साधना करते हैं, फिर पारिवारिक काम और साधना करते हैं फिर बुढ़ापे में केवल साधना करते हैं। साधना करने के लिए के लिए बुढ़ापे का इन्तजार नहीं करना चाहिए क्योंकि जीवन में बुढ़ापा नहीं भी आ सकता। मनुष्य जब आनन्द पाने के लिए, परमात्मा को पाने के लिए जिस शक्ति से साधना करते हैं वह भी विद्याशक्ति है परन्तु यह कहलाती है ह्लादिनी शक्ति या राधिका शक्ति। साधक इस शक्ति से जिनकी ओर चलते हैं वह हैं कृष्ण, वही सबको आकर्षित करते हैं। इस राधिका शक्ति से कृष्ण के पास जाकर उनमें मिल जाना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है, यही राधाकृष्ण का मिलन कहलाता है। इसलिए राधा कोई महिला नहीं है, वह शक्ति जो हमसे आराधना कराती है वही है राधिका।
चक्कर लगाते लगाते जीव जहाॅं पहुॅंच रहे हैं वह है परमपुरुष का रसात्मक विकास, रससमुद्र, उनका अक्षर विकास। रससमुद्र में ब्रह्मचक्र का जो प्राणकेन्द्र हैं, न्युक्लियस हैं वही हैं कृष्ण और तरंगों के साथ जीवों का उनके समीप जाना है उनकी रासलीला। धनी गरीब, पंडित मूर्ख, पुण्यवान पापी, पढ़े लिखे अपढ़, सुन्दर कुरूप, सभीको इन तरंगों के अनुसार ही नाचना पड़ेगा; चाहे वे चाहें या न चाहें पुरुषोत्तम के चारों ओर रससमुद्र में घूमना ही पड़ेगा। परमपुरुष के लिए सभी समान हैं, वे किसी से घृणा नहीं कर सकते। प्रश्न उठता है कि यह घूमना कब तक चलेगा? कभी समाप्त भी होगा या नहीं? इसका उत्तर है, जब तक जीव सोचेंगे कि मैं और मेरा इष्ट अलग अलग हैं, जिनके चारों ओर मैं घूम रहा हॅूं वे मुझसे पृथक सत्ता हैं तब तक घूमते रहना पड़ेगा। जब यह सोचने लगेंगे कि परमात्मा मेरे प्राणों के प्राण हैं मुझसे पृथक नहीं हैं; मेरे लिए मेरा मैं ‘छोटा मैं’ और परमात्मा ‘बड़ा मैं’ हैं, मैं अपने ‘‘छोटे मैं’’ को अपने ‘‘बड़े मैं’’ में मिला दूॅंगा। पृथकता का भाव समाप्त होते ही उनके साथ एक हो जाते हैं। पृथकता का भाव कैसे समाप्त होगा? इसका उत्तर है, निष्काम कर्म से, नारायण मानकर जनसेवा करने से, सेव्य में नारायण भाव का अध्यारोपण कर सेवा करने से यह बोध जागता है। मनुष्य को मनुष्य समझकर सेवा करने से कुछ नहीं मिलेगा यह तो समाज सेवा हुई, मनुष्य को नारायण समझकर सेवा करने से ही साधना सार्थक होती है। श्वेताश्वर उपनिषद में यही बात इस श्लोक में समझाई गई है।

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे वृहन्ते तस्मिन हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ,
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति। (1/7)

Monday, 6 May 2019

246 ध्येय

एक ही प्रकार का जीवन जीते जीते होने वाली स्वाभाविक ऊब को दूर करने के लिए मनुष्यों ने समय समय पर उत्सवों और समारोहों का आयोजन करना सीखा। पर, ये सभी एक सीमा तक ही सन्तुष्ठी देते हैं अतः इस पर विचार किया गया कि मनुष्य के जीवन का ध्येय क्या होना चाहिए जिससे अनन्त सुख की प्राप्ति हो सके। सभी विद्वान ऋषियों ने प्रत्येक सम्भावित तथ्य पर तार्किक विश्लेषण किया  जिसे बिन्दुवार निम्नाॅंकित पदों में स्पष्ट किया जाकर अन्तिम परिणाम निर्धारित किया गया है।

246 ध्येय
जीव यदि गतिशील न हों तो उन्हें मृत कहा जाता है। गति जीवन को प्रमाणित करती है परन्तु यदि जीवन में गति हो पर लक्ष्य न हो तो वह जीवन भी व्यर्थ ही हो जाता है। हमारे पूर्वज ऋषियों ने मानव जीवन का ध्येय अथवा लक्ष्य क्या हो इस पर तर्क, विज्ञान और विवेक का सहारा लेकर निर्णय लिया कि हमारे जीवन का लक्ष्य वही हो सकते हैं जिनसे हमारी उत्पत्ति हुई अर्थात् जो हमाारे जैसा मनुष्य बना सकते हैं और अपने में लय कर सकते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि इस विश्वब्रह्माॅंड में वह कौन है जो सर्वश्रेष्ठ है, सबका सार है और सब गतियों की परागति है जिसे हम ध्येय बना सकते हैं? पहले हम एक एक मूल तत्व को लेकर इस विषय के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करते हैं फिर निर्णय करेंगे कि ध्येय क्या होना चाहिए।

काल- कुछ विद्वानों का मानना है कि काल अर्थात् ‘टाइम’ अनादि है, शास्वत  है अतः सभी की उत्पत्ति महाकाल से ही हुई है। तो क्या ‘काल’ जीवन का लक्ष्य हो सकता है? नहीं, क्योंकि काल की उत्पत्ति तो हमारे मन के भीतर ही हुई है, काल है क्रिया की गतिशीलता का मानसिक परिमाप। अतः काल एक सापेक्षिक तत्व हुआ क्योंकि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है इसी के अनुसार हम तिथि , अहोरात्र, मास, संवत्सर आदि बना लेते हैं यदि ये सूर्य, पृथ्वी न हो होते तो समय अर्थात् काल भी न रहता। तो काल मनुष्य का मानसिक भावगत एक सापेक्षिक तत्व है जिसका अस्तित्व अन्य सत्ताओं पर निर्भर है इसलिए वह चरम तथा परम नहीं है। अतः ‘‘काल’’ हमारा ध्येय नहीं हो सकता।

स्वभाव- कुछ विद्वानों का मत है कि नेचर अर्थात् प्रकृति ही ध्येय है क्योंकि प्रकृति ही सभी प्रकार का निर्माण करती है, ‘प्र करोति यः सा प्रकृति’। परन्तु ‘प्रकृति’ हमारा ध्येय नहीं  हो सकती, इसके दो कारण हैं। पहला, यह कि यह अजन्मा होते हुए भी ‘पुरुष’ के ऊपर आश्रित होती है। शास्त्रों में प्रकृति को ‘नार’ कहा गया है और संस्कृत में नार के तीन अर्थ हैं पानी, भक्ति और परमाप्रकृति। परमाप्रकृति सभी चीजों का निर्माण करती है परन्तु यह परमपुरुष की आश्रिता ही है इसीलिए परमपुरुष का एक नाम है ‘नारायण’ (नार + अयन)। अतः जो स्वयं दूसरों पर आश्रित हो वह किसी का ध्येय कैसे बन सकती है?  दूसरा कारण यह है कि प्रकृति है नित्यनिवृत्ता। अर्थात् हर क्षण वह परिवर्तित हो रही है, पुूरुष पर आश्रित होने के कारण उसका ध्येय है परमपुरुष, इसलिए प्रकृति का आधार तत्व धीरे धीरे पुरुष में रूपान्तरित होता जा रहा है। परन्तु उसका विस्तार अत्यधिक होने से लगातार क्षय होते जाने पर भी वह ज्यों की त्यों बनी रहती सी लगती है। इसलिए नेचर या स्वभाव या प्रकृति कोई वैयक्तिक सत्ता नहीं है उसके कार्य करने की अपनी स्टाइल है अनेक प्रकार की वस्तुएं बना रही है नष्ट भी कर रही है। "नेचर इज ए स्टाइल आफ फंक्शनिंग"। यह एक गुणात्मक अभिव्यक्ति है यह ध्येय नहीं हो सकती।

नियति- ‘भाग्य, किस्मत, फेट’  क्या है? हमारे द्वारा किया गया कर्म जिसका फल अभी तक नहीं प्राप्त हुआ है वही है नियति। कर्मबीज हमें नियंत्रित करता है पर कर्मबीज हमारे कर्म से ही तो उत्पन्न हुआ है अतः वह हमारा ध्येय नही हो सकती। संस्कृत में इसे ‘अदृष्ट’ शब्द का उपयोग किया गया है क्योंकि जब तक हम अपने द्वारा किए गए मूलकर्म का फल भोगते हैं तब तक उसे भूल जाते हैं अतः फल भोगते समय उसका कारण अदृष्ट रहता है अर्थात् दिखाई नहीं देता। इसलिए भाग्य जैसी कोई चीज नही होती जो जैसा करता है वैसा ही उसका भाग्य बनता है। भाग्यवादी बनने से काम नही चलेगा, हाथ पैर हैं मस्तिष्क है, बुद्धि है मेहनत और चिन्तन मनन करते हुए आगे बढ़ना चाहिए ।

यदृच्छा- कुछ विद्वान इसे ही चरम या परम मानकर ध्येय समझते हैं परन्तु "यदृच्छा" का अर्थ क्या है? जब किसी घटना का कारण समझ में नहीं आए, कोई युक्तिसंगत तथ्य सामने न आए उसे लोग कह देते हैं "ऐक्सीडेंट " अर्थात् यदृच्छा, या हठात् घटित हो जाना। मनुष्य अपनी अज्ञता छुपाने के लिए ऐक्सीडेंट का नाम लेते हैं जबकि हर घटना एक इंसीडेंट है। विश्व ब्रह्मांड की उत्पत्ति ऐक्सीडेंटली नहीं हुई। हम यहाॅं अचानक उत्पन्न नहीं हो गए और न ही अचानक परमपुरुष में मिल जाएंगे जैसा कि ऋषिगण कह चुके हैं कि जिनसे हमारी उत्पत्ति हुई है और जो हमें अपने में मिला लेने की शक्ति रखते हैं वही हमारा ध्येय हैं, इसलिए यदृच्छा हमारा ध्येय नहीं हो सकती।

पंचभूत- कुछ लोगों का मत है कि यह पंचभूतात्मक जड़ जगत जीवन का ध्येय है। परन्तु यह ध्येय नहीं हो सकता क्योंकि जड़ पदार्थ की उत्पत्ति ‘भाव’ अर्थात् एब्सट्रेक्ट से हुई है और एब्सट्रेक्ट की उत्पत्ति होती है आत्मा ‘स्पिरिट’ से। परमपुरुष से भावलोक की उत्पत्ति हुई जो घनीभूत होकर जड़ में बदल गया। इसी क्रम में जब जड़ चूर्णीकृत होता है तब दुबारा एब्सट्रेक्ट अर्थात् भाव बनता है जिसे जीव मन कहा जाता है, मानव मन कहा जाता है। स्पष्ट है कि जड़ आपातः कारण है मूल कारण नहीं । जो जड़वादी हैं, जड़ को ही सर्वस्व मानते हैं वे प्रमाणित करते हैं कि जड़ में विद्या बुद्धि का अभाव होता है अतः पंचभूत जगत का कारण नहीं है, इसलिये चरम लक्ष्य भी नहीं हो सकता। मनुष्य को जड़वादी नहीं बनना चाहिए जड़ की उपासना जड़ की ओर ही ले जाती है और अन्त में जड़ ही बना देती है क्योंकि ‘यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी’ ।

इन सभी का संयोग- जब ये सभी तत्व पृथक पृथक ध्येय नहीं हो सकते तब क्या इन सभी का एक दूसरे के साथ संयोग करने पर जो सत्ता बनेगी वही ध्येय हो सकता है? नहीं, क्योंकि अलग अलग इन सभी में अपूर्णता पायी जाती है अतः उनमें से जिस किसी को भी श्रोत कहें या अभीष्ट सभी अपूर्णता से ग्रस्त होंगे अतः सभी को मिलाने पर मिश्रण भी अपूर्णता से भरा होगा अतः यह ध्येय नहीं हो सकता।

जीवात्मा- हमारे चित्त अर्थात् मेन्टल प्लेट पर परमपुरुष का जो प्रतिबिम्बन है उसे जीवात्मा कहते हैं। मानलो परमपुरुष एक फूल हैं और हर जीव का मन है दर्पण । फूल के चारों ओर रखे दर्पण में फूल के प्रतिबिम्ब दिखाई देगे। तो दर्पण में दिखने वाला फूल हुआ जीवात्मा। हर जीव में जीवात्मा है, यदि अपने मन को परमात्मा में मिला दिया तो मनरूपी दर्पण नहीं रहा तब जीवात्मा भी नही रहेगी। मुंह एक है दर्पण अनेक, सभी दर्पणों में मुंह दिखाई देते हैं, यदि दर्पणों को हटा दिया जाए तो केवल मूल  मुंह ही रह जाएगा। मनुष्य का जो मैपन है, मैं हॅूं बोध है, ‘आई एक्जिस्ट’ , यह बोध मन में होता है जब मन और बुद्धि को परमात्मा में मिला दिया तो मन रूपी दर्पण में प्रतिबिम्बित जीवात्मा खत्म हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि जीवात्मा कोई मूल सत्ता नहीं है यह प्रतिबिम्बित सत्ता है  इसलिए यह किसी अन्य सत्ता को उत्पन्न नहीं कर सकती फिर उसमें मिल जाने का तो प्रश्न ही नहीं है। इसलिए जीवात्मा ध्येय नहीं हो सकती।

तब ध्येय कौन है?
इस विश्वब्रह्माॅंड में दो प्रकार की चीजें हैं। एक परिवर्तनशील अर्थात् क्षर और दूसरी अपरिवर्तनशील अर्थात् अक्षर। मूल सत्ता अर्थात् प्रज्ञा सत्ता या चितिशक्ति जो प्रधान अर्थात् प्रकृति की सहायता से रूपान्तरित हो गई उसे कहते हैं क्षर या अपरब्रह्म। और, जहाॅं प्रकृति की सहायता से मूल सत्ता रूपान्तरित नहीं हुई उसे कहते हैं अक्षर या परब्रह्म। यह जो परिदृश्यमान जगत है परिवर्तनशील है अतः हमारा ध्येय नहीं बन सकता। जो परब्रह्म हैं वे अक्षर हैं अमृत हैं।अमृत माने अपरिवर्तनीय। अक्षर आते हैं साक्षीसत्ता के रूप में। एक तीसरी सत्ता है जो क्षर और अक्षर को सगुण को तथा वस्तु के रूपान्तरित तत्वों को, अपरब्रह्म और परब्रह्म को निरीक्षण करते हैं वह एक ही हैं। वह संख्याओं में सीमित नहीं  हैं अतः हमें  अपने मन को उन्हीं एक की ओर प्रचालित कर कुशाग्र बनाना होगा। संस्कृत में इस प्रकार के मन को अग्रयाबुद्धि कहते हैं। इसलिए वह जो क्षर और अक्षर के विभेदक बिन्दु पर हैं वही पुरुषोत्तम हैं वही नियंत्रक हैं, वही ध्येय हैं। संसार की हर वस्तु उन्हीं की अभिव्यक्ति है उनमें किसी की अवहेलना नहीं होना चाहिए परन्तु मन को पुरुषोत्तम में ही लगाए रखना चाहिए, यह तभी हो सकता है जब मन की जितनी भी भावनाएं हैं उन सबको अन्य वस्तुओं से प्रत्याहार करके उन ‘एक’ की ओर चला दिया जाय। सीमित वस्तुओं से सम्बंधित अपनी सम्पूर्ण इच्छाओं को उस भूमा चेतना की ओर संचालित करना होगा, इसे ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। यही है मानव जीवन का ध्येय।
श्वेताश्वर उपनिषद में इस तथ्य को इन  दो श्लोकों  में  समझाया गया है-
‘‘कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्या।
संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुख दुख हेतोः।’’1/2
‘‘क्षरं प्रधानं अमृताक्षरं हरः क्षरात्मनावीशते देव एकः।
तस्याभिध्यानात् योजनात् तत्वभावात् भूयचान्ते विश्वमायानिवृत्तिः।’’1/10