253 साधना
संस्कृत शब्द ‘साधना’, एक उदासीन पद है। इसका अर्थ है अभ्यास। जैसे, कला साधना, साहित्य साधना, संगीत साधना, धर्म साधना, योग साधना आदि।
मानव सभ्यता के उद्गम के प्रारंभिक काल में लोगों को प्रकृति की सभी घटनाएं जैसे, उषाकाल, संध्याकाल, दिवस, रात्रि, बादल, वर्षा, विद्युतीय चमक आदि ने बहुत प्रभावित और रोमांचित किया। पर्वत नदियाॅं, वन, समुद्र और सरोवरों ने उन्हें अकर्षित किया और वे इन सबको आदर देते हुए प्रकृति को ही सब कुछ मानने लगे। प्रकृति पर अपनी निर्भरता जानकर इन सभी घटनाओं या स्थानों को अपना पोषक मानकर उन्हें देवताओं का नाम दे उनके प्रति समर्पित होते गए।
पन्द्रह हजार वर्ष पहले ऋग्वैदिक काल के प्रारंभिक काल के लोगों की परिस्थितियों की आज कल्पना कीजिए, बिजली नहीं थी, सुरक्षा के साधन नहीं थे, रोज रोज नयी विपत्तियाॅं आती, समूहों में बंटा समाज था। खाद्यान्न के लिए हो या आपात्काल में सुरक्षा के लिए वे वज्र, वरुण, इन्द्र आदि को देवता मानकर अपनी समस्याओं के समाधान और सुरक्षा के लिए उनसे प्रार्थनाएं किया करते थे। सूखा, बाढ़ या भूकम्प आने पर वे कहा करते, प्रकृति हमसे कुपित है इसके क्रोध को प्रार्थनाओं से कम किया जा सकता है आदि। समय के साथ क्रमागत रूप से प्रार्थनाओं को अनेक छन्दों में प्रकट किया जाने लगा जिनमें ‘गायत्री मंत्र’ को सबसे श्रेष्ठ प्रार्थना का स्तर प्राप्त है। इस छंद में प्रकृति से परे, परमसत्ता से अपनी ‘‘बुद्धि को शुद्ध’’ करने का निवेदन किया गया है। इस समय तक आध्यात्म साधना की कोई पद्धति लोगों को ज्ञात नहीं थी। तत्कालीन मान्यता प्राप्त देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वे अपने पास उपलब्ध उत्तम खाद्य जैसे, चावल, घी, फल आदि भेंट करते थे। चॅूंकि उनका न तो स्वरूप था और न दिखाई देते थे अतः वे इस सामग्री को अग्नि में उनके नाम से प्रार्थना पूर्वक भेंट किया करते थे।
ऋग्वैदिक काल की समाप्ति और यजुर्वैदिक काल के प्रारम्भ होने तक ‘वेद’ का ज्ञान तो बहुत अधिक हो चला था परन्तु उसे व्यावहारिक रूप कैसे दिया जाय यह संभव नहीं था। अतः इस संधिकाल में एक महान व्यक्तित्व ‘सदाशिव’ का आविर्भाव हुआ जिन्होंने सभी को ‘आध्यात्म साधना’ की व्यावाहारिक पद्धति सिखाई। शास्त्रों ने स्वीकार किया है कि जिस किसी व्यक्ति का जीवनदर्शन और व्यक्तित्व एकीकृत हो जाता है वह देवता बन जाता है। सदाशिव का व्यक्तित्व और दर्शन एकीकृत थे इतना ही नहीं उनकी साधुता, सरलता और तेजस्विता से वे मनुष्यों ही नहीं, जीव जंतुओं, पशु पक्षियों और वनस्पति को भी प्रभावित करने लगे। यह सभी उनके संरक्षण में निष्कंटक रहकर आनन्दित होते थे । उनके इस प्रभाव से उनके पूर्व श्रेष्ठ माने जाने वाले देवता अग्नि , इन्द्र, वरुण, आदि तेजहीन हो गए और सभी लोग सदाशिव को देवता ही नहीं देवताओं के देव ‘महादेव’ कहने लगे।
मानव समाज के निर्माण में सदाशिव का योगदान अमूल्य है, उन्होंने समाज को एकीकृत बनाए रखने के लिए सबसे पहले ‘विवाह’ नामक संकल्पना को साकार कर स्थापित किया, ऋषि ‘नन्दी’ को कृषि और पशुपालन, ‘विश्वकर्मा’ को भवन निर्माणकला, ‘धनवन्तरी’ को चिकित्सा और वैद्यकशास्त्र, ‘भरत’ को संगीत अर्थात् नृत्य, गीत और वाद्य, पुत्र ‘भैरव’ और पुत्री ‘भैरवी’ को योग और विद्यातन्त्र तथा पुत्र ‘कार्तिकेय’ को सैन्य प्रबंधन सिखा कर सारे विश्व में इन विद्याओं के प्रचार प्रसार का उत्तरदायित्व दिया। परन्तु दुख है कि आज ‘‘भगवान सदाशिव’’ के इस अद्वितीय और अतुलनीय योगदान को भुलाकर, साधना करने के स्थान पर उन्हें, मूर्तियों में बाॅंधकर, जलधार से प्रसन्न हो जाने के उपक्रम तक ही सीमित कर दिया गया है !!!