Friday, 16 October 2020

347 शास्त्र

 

यह सार्वभौमिक रूप से सभी युगों में, सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाता रहा है कि धर्म ही मनुष्य जीवन की मुख्य धारा है। जीवधारियों की वही जीवनी शक्ति है, यही नहीं वह उनकी जीवन यात्रा का मार्गदर्शक और धन का स्रोत है। शब्द के व्यापक अर्थ में सभी सजीव या निर्जीव पदार्थों, सबका  अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म उस पदार्थ के अस्तित्व को प्रकट करता है। उसके संकीर्ण अर्थ में निर्जीव पदार्थों में धर्म का प्राकट्य कम और सजीवों में अधिक होता है। मनुष्यों में मानवेतर प्राणियों के धर्म का जन्मजात समावेश रहता है परंतु मानवों का धर्म इससे बहुत अधिक होता है वह जीवन के प्रत्येक पहलु में प्रविष्ठ रहता है। इसलिये धर्म वास्तव में नियंत्रक और सच्चा मार्गदर्शक होता है, प्रेरक बल और मनुष्यों का रक्षक होता है, वह एक उत्तम और व्यापक आदर्श होता है जो मानव जीवन के हर पहलु का निश्चित, साहसी और स्पष्ट दिशा निर्देश देता हैं, न केवल व्यक्तिगत दिनचर्या का वरन् उसकी समग्र क्रियाओं और प्रेरकों के संबंध में आध्यात्मिक प्रेरणा भी देता है जो उसे ईश्वर के निकटतर लाने में सहायक होता है। सच्चे धर्म शास्त्र वही हैं जिनमें इन सभी शर्तों का समावेश होता है और ‘‘शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः’’ की परिभाषा से पारिभाषित होते है। अन्य धर्मग्रंथ जो इन शर्तों के अनुरूप नहीं हों  और इस परिभाषा का पालन नहीं करते उन्हें सत्य का पथप्रदर्शक नहीं माना जा सकता। यहाॅं यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि सच्चे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट दिशानिर्देश होना चाहिये जिनका पालन सभी लोग अपने जीवन में तो करें ही दूसरों को भी मार्गदर्शन कर सकें।

हम सभी रस के अनन्त महासागर में रहते हैं, इसमें कभी समाप्त न होने वाले सृजन का विकिरण, अर्थात् सभी छोटी और बड़ी अवर्णनीय अभिव्यक्तियों का स्पंदन, उच्चारित और अनुच्चारित अलौकिक विचार तरंगों के रूप में, भीतर और बाहर सभी दसों दिशाओं में, हिलोरें ले रहा है। इसलिये परम सत्ता की प्रत्येक संरचना के साथ उचित और विवेकपूर्ण व्यवहार करते हुए उसका ध्यान रखना चाहिये जो कि इन विभिन्न रचनाओं का सारतत्व है। अपने आपको कुमुदिनी के आदर्श पर ढालने का प्रयत्न करना चाहिये जो कीचड़ में खिलती है और अपने अस्तित्व के रक्षण में दिन रात कीचड़ भरे पानी, झंझटों तथा भाग्य के थेपेड़ों और तूफानों के आघात सहती है फिर भी अपने ऊपर दिखने वाले चंद्रमा को नहीं भूलती वह अपना प्रेम उसके साथ स्थायी रूप से जीवित रखती है । वह एक साधारण फूल ही है उसमें असाधारण कुछ नहीं है फिर भी वह अपनी सभी इच्छायें चंद्रमा पर केन्द्रित रखकर अपना रोमान्स महान चंद्रमा के साथ बाॅंधे रहती है। हो सकता है हम बहुत ही साधारण व्यक्ति हों और साॅंसारिक जीवन में अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये  उतार चढ़ाव से अपने दिन काट रहे हों  परंतु हमें उस परम सत्ता को नहीं भूलना चाहिये, हमारी सभी इच्छायें उसी की ओर झुकी रहना चाहिये, सदा ही उसी के विचारों में डूबे रहना चाहिये, उसके अनन्त प्रेम में डूब जाने पर साॅंसारिक गतिविधियाॅं प्रभावित नहीं होंगी। परिस्थतियां चाहे जैसी भी क्यों न रहें परम सत्ता से अपनी निगाहें नहीं हटना चाहिये। जिन्हांेने अपने जीवन का आदर्श और लक्ष्य उस परम सत्ता को बना लिया है उसका पतन नहीं हो सकता। चित्त में जड़ और तुच्छ विचारों के आ जाने पर उन्हीं के अनुसार निम्न स्तरों पर ही अगला जन्म पाना होगा यह प्रकृति का नियम है। जैसे भरत मुनि, उत्कृष्ट साधक होते हुए भी अंत में हिरण पर चिंतन करने के कारण अगले जन्म में हिरण के जीवन को पाकर उन्हें वह संस्कार भोगना पड़ा। इसलिये सतर्क रहकर परमपुरुष पर ही अपना समग्र चिंतन जमाये रखना ही सभी मनुष्यों का कर्तव्य है, ताकि वे सभी आनन्द के पथ पर चलते हुए अपने लक्ष्य को पा सकें। धर्मशास्त्र और सद साहित्य इस कार्य में संजीवनी का काम करते है।


Monday, 12 October 2020

346 सप्तलोक क्या है ?

ये सभी एक साथ ही है,इनकी कोई अलग-अलग दुनिया नहीं है। सप्त लोकों में निम्नतर लोक है " भूर्लोक"(physical world)। ऊर्ध्वतम लोक है "सत्य लोक" जो परमपुरुष में स्थित है। और, इन दोनों के बीच जो पञ्च लोक हैं, वही है पञ्चकोष । मानव मन के पाँच कोष, पाँच स्तर । भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः । भुवः है स्थूल मन, जो प्रत्यक्षरूपेण शारीरिक कर्म के साथ सम्पर्कित रहता है। स्वः लोक है सूक्ष्म मन । मनोमय कोष, मानसिक जगत् । मुख्यतः सुख-दुःख की अनुभूति होती है कहाँ ? स्वर्लोक में, मनोमय कोष में । तो, यह जो स्वर्लोक है, इसी को लोग स्वर्ग कहते हैं , स्वः युक्त “ग”। सुख-दुःख की अनुभूति यहीं होती है । मनुष्य को अच्छा कर्म करने के बाद मन में जो तृप्ति होती है, वह मन के स्वर्लोक में अर्थात् मनोमय कोष में होती है । इसलिए ये स्वर्लोक हमेशा तुम्हारे साथ है । तुम सत्कर्म करते हो, तुम मानव से अतिमानव बनते हो तो, स्वर्लोक खुशी से भर जाता है और जब तुम मनुष्य के तन में, मनुष्य की शक्ल में अधम कर्म करते हो, तो स्वर्लोक दुःख में भर जाता है, मन में ग्लानि होती है,आत्मग्लानि होती है ।

  स्वर्ग-नरक अलग नहीं, इसी दुनिया में हैं और तुम्हारे मन के अन्दर ही स्वर्ग छिपा हुआ है। इसलिए जो पण्डित हो चाहे अपण्डित हो, स्वर्ग-नरक की कहानी, किस्सा-कहानी सुनाते हैं, वे सही काम नहीं करते हैं। वे मनुष्य को misguide करते हैं , विपद में परिचालित करते हैं, उनसे दूर रहना चाहिए वे dogma के प्रचारक हैं ।

Monday, 5 October 2020

345 अन्धविश्वासों की प्रवृत्ति और उनका संरक्षण

भारत के सभी कोनों में व्याप्त ‘अन्धविश्वास‘ एक ऐसी विचित्र विधा है जो काल्पनिक देवी देवताओं की रचना करने में लगाई जाती है। जब जन सामान्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होता है तो वह अन्धविश्वास की ओर प्रवृत्त हो जाता है। जब अन्धविश्वास उगता है तब काल्पनिक देवी देवताओं की रचना कर ली जाती है और उन्हें उन लोगों की समस्याओं के समाधान करने के लिये प्रयुक्त किया जाता है। यही श्रेष्ठ सूत्र है। दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश, काली, सूर्य, जगन्नाथ और न जाने कितने देवता इसी प्रकार बनाए गए हैं।

अनेक प्रकरणों में लोगों को उपदेवताओं के प्रति भय के कारण भक्ति करने या कभी कभी कुछ पाने के लिए पूजा करते देखा गया है। जंगल में जाने से शेर का डर लगता है इसलिए ‘‘वनदेवी’’ की कल्पना शेर के भय से मुक्त करने के लिये की गई। हैजा से बचने के लिये ‘‘ओलाइ चंडी’’ बड़ी माता से बचने के लिए ‘‘शीतला देवी’’ साॅंपों सें बचने के लिए ‘‘मनसा देवी’’ की कल्पना की गई। इन्हें उपदेवता भी कहा जाने लगा। घर में पूरे वर्ष सुख समृद्धि बनी रहे इसलिए गृहणियाॅं ‘लक्ष्मी’ देवी की पूजा करती है। शाॅंति अनुष्ठान के सम्पन्न होने के लिए ‘सेतेरा और सुवाचनी देवी’ की पूजा की जाती है। बच्चों की भलाई के लिए ‘सष्ठी और नील देवी’ की तथा बीमारी से बचने के लिए ‘श्मशानकाली और रक्षकाली’ की पूजा की जाती है। संस्कृत में इन्हें उपदेवता कहा गया है क्योंकि वे परमपुरुष नहीं हैं। अर्थात् आध्यात्मिक संसार में उन्हें ध्यान करने के लिए लक्ष्य नहीं माना गया है। इसी प्रकार मंगला चंडी, आशानबीबी, सत्यपीर आदि भी हैं। उपदेवताओं को लौकिक देवी देवता भी कहा जाता है जिनमें से किन्हीं किन्हीं का लौकिक भाषा में ही ध्यानमन्त्र भी बना लिया गया है। अनेक मामलों में जैनोत्तर और बुद्धोत्तर काल में इन धर्मों के देवी देवताओं ने भी उपदेवताओं का स्थान पा लिया।

कुछ लोग भूतों को भी भय के कारण उपदेवता कहते पाए जाते हैं अर्थात् वे उन्हें छोटे देवी या देवता की तरह पूजने लगते हैं अन्यथा वे नाराज हो कर अहित कर देंगे। परन्तु संस्कृत में उपदेवता का अर्थ भूत नहीं है, भूत के लिए अपदेवता शब्द उच्चारित किया गया है। ‘उप’ का अर्थ होता है ‘निकट’ जबकि ‘अप’ का अर्थ होता है ‘बिलकुल उल्टा’ । इसलिए अपदेवता का अर्थ हुआ ‘जिसकी प्रकृति देवता के बिलकुल विपरीत है।’

वे आध्यात्मिक साधक जो ज्ञान, कर्म और भक्ति का रास्ता पकड़ कर आगे बढ़ते हैं वे किसी भी काल्पनिक देवता या उपदेवता की शरण में नहीं जाते वे तो केवल एकमेव परमपुरुष की ही साधना और उपासना करते हैं।


344 संस्कार का सिद्धान्त

 कर्म अच्छा हो या बुरा उसके कारण मन पर विरूपण उत्पन्न होता है और जब वह अपनी मूल अवस्था में लौटता है तो प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अच्छे कामों का अच्छा और बुरे कामों का बुरा परिणाम भोगता है। मुत्यु के बाद मन इकाई चेतना का आश्रय लेता है जहाॅं पर प्रतिक्रियात्मक यह विरूपण अपने पोटेंशियल रूप में अर्थात् सुप्तावस्था में रहता है, इन्हें ही संस्कार कहते हैं। इकाई चेतना को इन संस्कारों को प्रकट करने अर्थात् भोग करने के लिए ही दूसरा शरीर ग्रहण करना होता है। मानलो मिस्टर ‘ए’ के मरने के बाद उनकी इकाई चेतना में कर्मफल के रूपमें सुप्त संस्कार के अनुसार आठ साल की आयु में हाथ टूूटने के  बराबर कष्ट भोगना है और दस वर्ष की आयु में भाग्योदय का सुख भोगना है और ग्यारह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु का कष्ट भोगना है तो उन्हें यह सब अपने मन के विरूपण को समाप्त करते करते मूल अवस्था में लाते हुए अनुभव करना होगा।

 यह भी महत्वपूर्ण है कि किसी कष्ट के वास्तविक रूप को पहले से नहीं बताया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि किसी विशेष क्रिया की वास्तव में क्या प्रतिक्रिया होगी। जैसे , यह पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता कि किसी ने चोरी की है तो प्रतिक्रिया के कारण उतने ही मूल्य की उसकी चोरी होगी। वास्तव में प्रतिक्रिया में होने वाला कष्ट मानसिक कष्ट के अनुसार घटित होता है, जैसे किसी की चोरी करने से उसको जितना मानसिक कष्ट हुआ है उतना ही मानसिक कष्ट चोरी करने वाले को प्रतिक्रिया में भोगना पड़ता है। इसलिए कर्मफल को ‘‘मानसिक कष्ट या सुख’’ के अनुसार भोगना पड़ता है और अनुभव का वास्तविक स्वरूप अपेक्षतया महत्वहीन होता है।  

इसलिये मिस्टर ‘ए‘ को प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मानसिक कष्ट या सुख अनुभव कराने के लिए उनकी इकाई चेतना उन परिस्थितियों को खोजकर वहाॅं ही उन्हें नया जन्म देकर नया शरीर दिलाएगी जहाॅं पर पिता के संस्कारों के अनुसार उसके पुत्र की ग्यारह वर्ष आयु होने पर मृत्यु हो जाएगी, आठ साल की आयु में पुत्र का हाथ टूटेगा आदि,  और उन्हें इसका मानसिक कष्ट भोगना पड़ेगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वे अपना कर्मफल नहीं भोग पाऐंगे। अतः स्पष्ट है कि इकाई चेतना और कर्मफल बिना सोचेसमझे किसी भी शरीर में पुनर्जन्म नहीं ले लेते। उसे संस्कार भोगने के लिए पुनर्जन्म, उचित शरीर और कर्मफल भोगने के लिये उचित क्षेत्र तलाशना होता है।


343 व्यसन दूर करने का उपाय

नकारात्मक बातों या दुव्र्यसनों को हटाने के लिये इस प्रकार के लोगों के मन को धनात्मक दिशा में मोड़कर सात्विक कार्यों में लगा देना चाहिए। जो दुव्र्यनों के आदी हो चुके हैं उनके साथ वह व्यवहार करना चाहिए जिससे वे लम्बे समय तक उन वस्तुओं या उस प्रकार के लोगों से दूर रहें। उनसे यह कहना कि, ये मत करो, वह मत पियो, यह बुरा है आदि, तो  व्यर्थ होगा क्योंकि यह तो नकारात्मक साधन होगा। यदि कहा जाय कि ‘‘शराब नहीं पियो’’, तो यह तो उस शराबी के मन में ‘‘शराब की संकल्पना ’’ को भर देना ही हुआ अतः वह शराब पीने की आदत को छोड़ पायेगा यह असंभव है। इस प्रकार तो शराब को नकारात्मक प्रचार देकर हम उसके मन के चिन्तन का विषय बना रहे होते हैं। अतः जब भी मौका मिलेगा वह फिर से पीने लगेगा। इसलिये नकारात्मक पहल करने से शराबी को प्रोत्साहन ही मिलता है और वह शराब पीने का अधिक अभ्यस्त हो जाता है। 

 आजकल जगह जगह पर ‘‘ धूम्रपान करना वर्जित है’’ के नोटिस लगे पाए जाते हैं, परन्तु इससे धूम्रपान करने वालों की संख्या में कमी नहीं आती। यदि समाज चाहता है कि वे लोग धूम्रपान करना छोड़ दें तो उनका मन किसी दूसरे रचनात्मक कार्यों जैसे, नृत्य, गीत, संगीत, कला और संस्कृति की ओर मोड़ देना चाहिए। इस प्रकार जब उसका मन इन कामों में उलझा रहेगा तो उसे धूम्रपान की याद ही नहीं आ पाएगी। लेकिन वह व्यक्ति जो कहता है कि वह परसों से शराब पीना छोड़ देगा या कहे कि कल से छोड़ दूंगा तो वह कभी नहीं छोड़ सकता क्योंकि शराब उसके मन में मानसिक विषय के रूप में बनी रहती है। मन वही कार्य करता है जिसके बारे में वह बाहरी संसार में सोचता है, प्रकृति का यही नियम है। यदि कोई व्यक्ति साधना नियमित रूपसे करता है तो उसे धनात्मक परिणाम अपेक्षतया शीघ्र प्राप्त होने लगते हैं। साधना और योगासनों का वह प्रभाव होता है कि जन्मजात अपराधी का मन भी रूपान्तरित होकर सात्विक हो जाता है।


Thursday, 1 October 2020

342 ईश्वरप्रणिधान

 जप क्रिया में केवल ध्वन्यात्मक लय होता है जैसे, राम राम, राम राम.... परन्तु ईश्वरप्रणिधान में इष्ट मंत्र का ध्वन्यात्मक लय मानसिक लय के साथ समानान्तरता बनाए रखता है। इसका अर्थ है कि मानसिक रूप से राम, राम राम तो कहते ही हैं परन्तु साथ ही साथ राम के बारे में सोचते भी हैं अन्यथा जप क्रिया में समानान्तरता नहीं रह पाएगी। समानान्तरता न रहने से शब्द राम अर्थात् परमपुरुष का उच्चारण करने पर ज्योंही ‘रा’ का उच्चारण किया जाता है तत्काल ‘म’ और इसके तत्काल बाद फिर से ‘रा’ उच्चारण करते समय द्वितीय स्तर पर वह ‘मरा ’ हो जाता है अतः इष्ट मंत्र परमपुरुष के स्थान पर ‘मरा अर्थात् मृत्यु’ का जाप बन जाता है। इसलिए इस प्रकार की जप क्रिया व्यर्थ हो जाती है। अतः जब तक मानसिक लय और ध्वन्यात्मक लय के बीच साम्य या समानान्तरता नहीं होगी वह ईश्वरप्रणिधान नहीं कहला सकता। इसलिये ‘ईश्वर प्रणिधान’ और ‘नाम जाप’ में जमीन आसमान का अन्तर है। ईश्वरप्रणिधान से चैतन्य हुए बीजमंत्र से उत्पन्न मानसिक तरंगें ओंकार ध्वनि के साथ सरलता से अनुनादित हो जाती हैं और इसी अनुनाद की अवस्था में आत्मानुभूति होती है अन्यथा नहीं ।