वृन्दावन के गोपगण, कृष्ण के अन्तरंग सखा थे। वे अपनी गाय भैंस चराने और कृष्ण के साथ खेलते हुए अधिक आनन्दित होते थे। उन्हें यह नहीं मालूम था कि कृष्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड के नियामक, प्राण पुरुष, पुरुषोत्तम हैं। उन्हें यह बड़ी बड़ी बातें जानने की आवश्यकता ही नहीं थी। वे तो केवल यह जानते थे कि कृष्ण कन्हैया केवल उनका सबसे प्रिय है, उनका अभिन्न है, वे उससे पृथक नहीं हो सकते। जब अक्रूर के साथ कृष्ण मथुरा जाने लगे तब वे सभी उनके रथ के पहिए के नीचे लेट गए और कहने लगे कि वे उन्हें बृज से जाने नहीं देंगे। पर कृष्ण की तो अपनी योजनाएं थीं अतः वे अवश्य ही जाएंगे और बताइए, गोप गोंपियां उन्हें रोक रही हैं। अक्रूर के बहुत समझाने पर भी बात न बनी तो वे केवल इस बात पर कम्प्रोमाइज करने को सहमत हो गई कि यदि कृष्ण कह दें कि वे लौट कर वृन्दावन वापस आएंगे तो पहिए के नीचे से वे सब हट जाएंगे। अब कृष्ण आज के राजनेताओं की तरह झूठ तो बोल नहीं सकते थे, उन्हें वोट तो पाना नहीं था कि वे झूठा आश्वासन देे देते। वे जानते थे कि वे अब वापस नहीं आएंगे, उन्हें तो बड़े बड़े काम करना हैं अतः उन्होंने अपने उन भाभुक भक्तों को भावमयी भाषा में ही कहा ‘‘मेरा शरीर बृज से दूर रह सकता है पर मेरा मन सदा बृज की धूल में लोटता रहेगा।’’ बस, इस भावप्रवण मधुरिमा ने भक्त गोपगोपियों का मन गदगद कर दिया। गोप का अर्थ होता है, ‘‘गोपायते इति सः गोपाः’’। यानी, वे व्यक्ति जिनके जीवन का एकमेव उद्देश्य परमपुरुष को आनन्दित करना है वे हैं गोप। भक्ति के अनेक प्रकारों में से सर्वश्रेष्ठ प्रकार है ‘रागात्मिका भक्ति’ इसमें भक्त की भावना यह होती है कि मुझे चाहे जितना कष्ट मिले मेरे प्रभु मेरी ओर से आनन्दित ही रहें। गोप गोपियाॅं रागात्मिका भक्ति की श्रेणी में आती हैं।
Friday, 30 July 2021
Wednesday, 28 July 2021
357 परम्परा
ऐसे अनेक लोग समाज में मिल जाएंगे जो परंपरा के नाम पर वह सब कुछ लादे रहते हैं जो आज के समय मेें औचित्यहीन हो चुका होता है। चाहे सड़ा गला दुर्गंध युक्त समान हो या निरर्थक हो चुके सिद्धान्त वे उन्हें परम्परा के नाम पर सहेज कर रखना चाहते हैं। कोई यदि तर्क पूर्वक उन्हें समझाना चाहे तो वे आक्रामक होकर उसे असंस्कृत कहने में भी नहीं चूकते। वास्तव में वे परम्परा और संस्कृति को समानार्थी मानने लगते हैं। सर्वविदित है कि समाज का अर्थ है जो एक समान उद्देश्य को लेकर लगातार आगे बढ़ते रहना चाहता है ‘‘समाने ईजति यः सः समाजः’’। अर्थात् वही लोग आगे बढ़कर उत्तरोत्तर प्रगति कर सकते हैं जो समयानुकूल अद्यतन ज्ञान के द्वारा अपने को परिमार्जित करते रहने का गुण विकसित कर लेते हैं। परन्तु पूर्वोक्त परम्परावादी केवल मानसिक रोगी ही कहला सकते हैं क्योंकि वे जानबूझकर अपनी प्रगति में स्वयं बाधक बन जाते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं और मानसिक विकास के अनुरूप प्रत्येक युग में सामाजिक व्यवस्थाओं में सहज भाव से परिवर्तन होते रहते हैं। समाज की गतिशीलता रुक जाए तो समाज का ढांचा ही चकनाचूर हो जाएगा। आज का हिंदु समाज खोखली परम्पराओं को लादे अपनी गतिशीलता को रुद्ध करके प्रतिदिन ध्वंस की ओर अग्रसर हो रहा है और भविष्य में निश्चिन्ह होने को उन्मुख है। आवश्यकता है पुरानी पड़ चुकी अतार्किक, अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण परम्पराओं के नाम पर अंधविश्वास फैलाकर लोगों को भ्रमित करने के स्थान पर उन्हें वैज्ञानिक सोच के साथ समय के अनुकूल परिवर्तित कर तदनुसार चलना और चलाना।
Tuesday, 13 July 2021
356 मन कैसे कार्य करता है?
मन के दो खंड होते हैं, एक व्यक्तिनिष्ठ (subjective mind) और दूसरा वस्तुनिष्ठ (objective mind) . मानलो एक बिल्ली दिखाई दी, अब यदि आँख बंद कर उस बिल्ली को फिर से याद किया जाता है तो मन का जो भाग बिल्ली का आकार बनाने लगता है उसे वस्तुनिष्ठ मन और जो भाग केवल देखता रहता है अर्थात् साक्ष्य देता है कि बिल्ली का रूप बन गया, उसे व्यक्तिनिष्ठ भाग कहते हैं।
इस प्रकार सभी के पास वस्तुनिष्ठ मन है अर्थात् मन का वह भाग है जो सोचने की वस्तुनिष्ठता रखता है, अब देखना यह है कि यह वस्तुनिष्ठ मन कार्य कैसे करता है। मानलो कोई पोस्टआफिस के बारे में सोचता है तो पोस्ट आफिस उसके वस्तुनिष्ठ मन में है और यदि कोई मेंढक या मच्छर के बारे में सोचता है तो वह मच्छर, मेंढक के वस्तुनिष्ठ मन में है। इसलिये किसी के द्वारा किसी वस्तु के संबंध में सोचने का अर्थ हुआ उसके वस्तुनिष्ठ मन के द्वारा उस वस्तु का आकार या रूप ग्रहण कर लेना।
इसके अलावा यह वस्तुनिष्ठ मन भी दो प्रकार से कार्य करता है, एक तो वह जो किसी देखी गई वस्तु जैसे बिल्ली को फिर से आँख बंद कर देखने पर वह वस्तुनिष्ठ मन बिल्ली का प्रतिविंब बना लेता है। इसी वस्तुनिष्ठ मन के कार्य करने का दूसरा प्रकार यह है, मानलो अब उसकी कल्पना करते हैं जिसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे भूत, तो अस्तित्व न होते हुए भी जो सोचा जा रहा है कि इस अंधेरे कमरे में भूत रहता है जिसके बड़ेबड़े दाॅंत और उल्टे पैर होते हैं, यह बिल्कुल कल्पना है परंतु फिर भी वह वस्तुनिष्ठ मन में अपना प्रतिविंब बनाता है और इस कल्पित भूत को जो देखने का काम करता है वह भी इसी मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग है। अधिकाॅंश मनोवैज्ञानिक बीमारियाॅं इसी दूसरे प्रकार के काल्पनिक चिंतन का परिणाम होती हैं। जब, कि प्रारंभिक अवस्था में चेतन मन अपनी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से देखे जा रहे कल्पित भूत को परख लेता है कि सचमुच में भूत है भी कि नहीं तब अंत में पाता है कि कोई भूत नहीं है और जो आभास हो रहा था वह मात्र कल्पना थी। यही सही भी है। इसका अर्थ यह है कि यथार्थ निर्णय करने के लिये मन का व्यक्तिनिष्ठ भाग (अर्थात् जो देख रहा है या साक्ष्य दे रहा है), वस्तुनिष्ठ भाग (अर्थात् जो देखा जा रहा है) से अधिक शक्तिशाली होना चाहिये ।
अब यदि कहीं इसका उलटा हो जाये, अर्थात् वस्तुनिष्ठ भाग की शक्ति व्यक्तिनिष्ठ भाग से अधिक हो जाये तब इस अवस्था में वह व्यक्ति भूत का होना ही सही कहेगा। यदि यह एक या दो बार ही होता है तो उसे समझाया जा सकता है परंतु यदि सोचने वाले के व्यक्तिनिष्ठ भाग को उसके वस्तुनिष्ठ भाग ने अपने चंगुल में ले लिया है तो यह वही अवस्था होती है जहाॅं से मनोवैज्ञानिक बीमारियाॅं जन्म लेती हैं। वह अपने हृदय से मानने लगता है कि भूत सचमुच होता है। काल्पनिकता उसके लिये जीवन्तता में बदल जायेगी और वह भयंकर मनोवैज्ञानिक बीमारी से ग्रस्त हो जायेगा।