Sunday, 15 August 2021

360 सहज नैतिकता और आध्यात्मिक नैतिकता


मनुष्य स्वाभाविक रूप से नैतिक है पर समय के प्रभाव से कुटिलता ने उसके जीवन में स्थान पा लिया और वह अनैतिक होता चला गया। जब किसी के मन में यह बोध दृढ़ होंता है कि ‘‘ मैंने अपराध नहीं किया है, आज भी नहीं करता हॅूं और भविष्य में भी नहीं करूंगा’’ तो उसमें नैतिक बल अवश्य  ही जागेगा। गुंडे, बदमाश , चोर और नशाखोर व्यक्ति शारीरिक रूप से कितने ही बलशाली हों पर उनमें नैतिक बल नहीं होता इसीलिए पुलिस को देखते ही डर जाते हैं। नैतिक व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर भले हो पर पुलिस से वह भयभीत नहीं होगा। 

सहजनैतिक व्यक्ति यदि प्रतिज्ञा करेगा तो पूरी करने में कसर नहीं छोड़ेगा, किसी ने उसका उपकार किया है तो उसे भूलेगा नहीं वरन् कृतज्ञ रहेगा। सहज नैतिक व्यक्ति को कुटिल लोग अपने कपट जाल में फंसा कर उनका शोषण करते देखे जाते हैं। इस प्रकार के अनेक उदाहरण है जिनमें किसी व्यक्ति को संकट में फंसाया जाकर उसे बचा लेना और बाद में उसकी कृतज्ञता का लाभ उठाकर अपना उल्लू सीधा करना आदि। सहजनैतिक व्यक्तियों में आध्यात्मिक नैतिकता की कमी होने से वे कुटिल लोगों के चंगुल में फंसे रहने को विवश  हो जाते हैं। 

आध्यात्मिक नैतिकता उत्पन्न करने के लिए सहजनैतिक व्यक्ति को ब्रह्म साधना पद्धति का अनुसरण करने की आवश्यकता  होती है जिसका सुयोग विरले लोगों को ही होता है। इस पद्धति से जीवन यापन करने वालों की बुद्धि अत्यंत उन्नत हो जाती है जिससे वे किसी भी भ्रमजाल में नहीं फंसते। सहतनैतिक व्यक्ति आदर के पात्र हैं उनके पास नैतिक बल होता है पर आध्यात्मिक नैतिक व्यक्ति के पास नैतिक बल के साथ बुद्धि का बल भी होता है अतः वे देश  काल और पात्र के अनुसार अपने को व्यवस्थित करते हुए अपने नैतिक बल का उपयोग कर सकते हैं।

किसी भी युग में कुटिल और धूर्त लोगों की कमी नहीं रही, आज भी उन्हीं का वर्चस्व देखा जाता है। प्रतिज्ञाओं से भरे महाभारत काल में तो सहजनैतिक लोगों के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जैसे, भीष्म और कर्ण दोनों ही महान, अजेय योद्धा और धार्मिक व्यक्ति थे पर थे केवल सहजनैतिक। भीष्म का कहना था कि उन्होंने दुर्योधन का अन्न खाया है इसलिए दुष्ट होते हुए भी युद्ध में उसका साथ देंगे। कर्ण भी दुर्योधन के उपकारों से दबे थे अतः सहजनैतिकता से ही उसके हर विचार को न चाहते हुए भी सहमति देते थे और युद्ध भी उसी के पक्ष में लड़े। यदि ये दोनों आध्यात्मिक नैतिकता का उपयोग करते तो कह सकते थे कि देखो दुर्योधन! तुमने हमारे ऊपर बहुत उपकार किए हैं जिनके हम कृतज्ञ हैं इसलिए यह सुझाव दे रहे हैं कि अनीति पर चलना छोड़ दो अन्यथा हम तुम्हारा साथ नहीं दे सकते।

सहजनैतिकों और आध्यात्मिक नैतिकों में बस यही अन्तर है।


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