361
निशिदिन
व्यस्त वंचनाओं में
सुनते कर्कश कलरव,
मृत्यु समय पर्यन्त
सुसज्जित
गीततान न गा पाई।
तरस तरस कर
धीरज धर धर
मन को बोध कराके,
झॉंकी भी
जिनने न कभी उन दिव्य
कल्पनाओं की देखी।
दत्तचित्त रह
नित्य परिश्रम में
निज को न निहारा,
सुना उलहना
निठुर भूख का
आस ‘शॉंत‘ की देखी।
ध्यान जरा
उनका भी कर लो
धन अट्टालिका वालो,
जिनने कभी स्वप्न में भी
निज तन पर
नजर न फेकी।
सब कहते हैं
झुग्गियॉ जिनको
वे हैं उनकी जगहें,
शामें जिनकी थकी हुई हैं
कराह रहीं हैं सुबहें।
मान शहर का ‘दाग‘
मिटाने तुले
लोग..
उनकी दिया बत्ती,
सृष्टि के इस अभिन्न अंग की
करुण दशा को
सदा ही घेरे नई विपत्ति।
आज तुम्हारा
जो है अपना
कल होगा औरों का,
इसे समझ कर आज,
अभी से
करो मदद इन सबकी।
- डॉ टी आर शुक्ल, सागर मप्र।
10ः05ः1970
No comments:
Post a Comment