Tuesday, 21 December 2021

363 गान्धारी

गान्धारी

महाभारत काल में ‘कान्दाहार’ नामक क्षेत्र को भारत का प्रत्यन्तदेश अर्थात् सुदूर सीमावर्ती देश कहा जाता था। यहॉं के सामाजिक रीति रिवाज भारत जैसे ही थे परन्तु यह भारत के अन्तर्गत नहीं था। उस समय लोग सहज नैतिकता का पालन करते थे। गान्धारी, कान्दाहार (संस्कृत में गान्धार) देश की महिला थीं। महाभारत में अनेक महिलाओें के नाम आए हैं परन्तु विशेष विवरण कुन्ती या द्रौपदी के बारे में ही मिलता है वह भी उनकी कष्टों की सहनशीलता के संबंध में, परन्तु गान्धारी का चरित्र सबसे भिन्न है। यह सर्वविदित है कि गान्धारी को जब पता चला कि उनका पति जन्मान्ध है तो उन्होंने अपनी आंखों पर यह कहते हुए पट्टी बांध ली कि जब मेरा होने वाला पति संसार को देख ही नहीं सकता तो वह भी क्यों देखे। यह उनकी सहज नैतिकता ही कही जाएगी कि उनके आंसू आजीवन इसी पट्टी में सूखते रहे। कुछ विद्वान इस कार्य से उनकी आलोचना करते पाए जाते हैं कि उनके द्वारा अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिये जाने के कारण उनके पुत्र विगड़ गए और सामाजिक बुराई के पर्याय बन गए। इस कथन को ठीेक मान भी लें तो भी उनका यह व्रत क्या कठोर नैतिक बल को प्रदर्शित नहीं करता? वह भगवान कृष्ण के चरित्र के महत्व से विशेष रूप से अवगत थीं और उनकी भक्त थीं। गान्धारी ने अपनी आंखों के ऊपर बंधी पट्टी केवल दो बार खोली। पहली बार अपने स्वामी धृतराष्ट्र के निर्देश पर और दूसरी बार कृष्ण को देखने के लिये।

युद्ध प्रारंभ होने के समय धृतराष्ट्र ने दुर्योधन और उसके भाइयों को निर्देश दिया कि वे अपनी माता के पास जाकर उनसे सस्नेह दृष्टिपात करते हुए युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद मांगे ताकि उनके मानस शक्तिसम्पात से उन सबकी देह लोहे की तरह कठोर हो जाय। प्रारंभ में गान्धारी यह करने को अनिच्छुक थीं पर जब स्वयं धृतराष्ट्र ने गान्धारी को ऐसा करने का निर्देश दिया तब उन्होंने मान लिया और कुछ क्षणों के लिये पट्टी खोल दी। यह उनकी स्वामी भक्ति प्रदर्षित करती है पर इससे बढ़कर उनका उन्नत चरित्र अपने पुत्रों को दिये गये आशीर्वाद से स्पष्ट होता है। क्या आप जानते हैं कि उन्होंने अपने पुत्रों को ‘विजयी भव’ नहीं कहा वरन् यह कहा कि ‘‘यतो कृष्णः ततो धर्मः, यतो धर्मः ततो जयः।‘‘ स्पष्टतः यह उनकी चारित्रिक दृढ़ता ही नहीं धार्मिकता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी। 

दूसरी बार गान्धारी ने पट्टी खोली थी कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद जब पूरा कुरुक्षेत्र महाश्मशान में बदल गया था और गान्धारी की सभी विधवा पुत्रवधुएं अपने अपने पति की मृत देह के पास खड़ी हुई विलाप कर रहीं थी। माता कुन्ती के साथ वहां पर गान्धारी आईं, पांडव भाई और भगवान कृष्ण भी वहॉ उपस्थित थे। यहॉं पर उनके वार्तालाप पर विचार कीजिए-

कृष्ण ने गान्धारी को सान्तवना देते हुए कहा ‘‘माता! आप क्यों रोती हैं, पृथ्वी का यही नियम है, हम सभी एक दिन पृथ्वी छोड़ कर चले जाएंगे अतः विलाप क्यों?’’ गान्धारी ने कहा‘‘ कृष्ण ! तुम मुझे व्यर्थ ही सान्तवना दे रहे हो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता।’’ कृष्ण ने कारण जानना चाहा। गान्धारी ने कहा,‘‘ तुम यदि यह परिकल्पना न करते तो मेरे पुत्रों का प्राणनाश नहीं होता।’’ कृष्ण ने कहा, ‘‘धर्म की रक्षा करने और पाप के विनाश हेतु यह करना अनिवार्य हो गया था मैं इसमें क्या कर सकता था, मैं तो यंत्र मात्र हॅूं।’’ गान्धारी बोली, ‘‘ कृष्ण तुम तो ‘तारक ब्रह्म’ हो अगर चाहते तो युद्ध किये बिना ही मेरे पुत्रों के मनोभाव में परिवर्तन ला सकते थे।’’ बोलने को बहुत कुछ था परन्तु कृष्ण चुप रहे क्योंकि वास्तव में वह चाहते थे कि गान्धारी को भी भीष्म पितामह की तरह कठोर नीतिवादी होने का गुरुत्व मिले।  

इससे गान्धारी के मन में उमड़ रहा क्र्रोध किस स्तर पर रहा होगा इसका अंदाज लगाना किसी को भी कठिन नहीं है परन्तु उसे व्यक्त करने के लिये उन्होंने अपनी सीमा नहीं तोड़ी। वह जानती थी कि कृष्ण तारक ब्रह्म हैं अतः कुछ भी करने के पहले उनसे स्वीकृति लेना आवश्यक है इसलिए बोली, ‘‘ कृष्ण! मैं तुम्हें श्राप देना चाहती हॅूं’’। कृष्ण भी तत्काल बोले, ‘‘आज्ञा करें माता!’’  इसके बाद गान्धारी ने कृष्ण को अभिशाप दिया कि ‘‘ जैसे मेरे परिवार के सदस्यगण मेरी ही आंखों के सामने ध्वंस हो गए वैसे तुम्हारा वंश भी ध्वंस हो जाय’’ कृष्ण ने भी तत्क्षण स्वीकार करते हुए कहा ‘‘एवमस्तु’’ अर्थात् यही हो। और, हुआ भी वही। यदि वे स्वीकार न करते तो अवस्था दूसरे प्रकार की होती। कृष्ण ने उनका श्राप इसलिये स्वीकार कर लिया क्योंकि वह चाहते थे कि नैतिक षक्ति को जनजीवन में गुरुत्व एवं स्वीकृति मिले। 


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