Monday, 21 March 2022

375 वर्णार्घ्य


रंग सभी को आकर्षित करते हैं। यह विश्व रंगीन है, सभी इन रंगों को पाने की इच्छा से उसी ओर दौड़ते जा रहे हैं। बसंत ऋतु में प्रकृति अपने रंगों को अद्वितीय रूप से विकीर्णित करती है। इसके उल्लास में लोग बसंतोत्सव मनाते हैं। रंगों की ओर पागलों की तरह दौड़ने वाले यह लोग वैसा ही कार्य कर रहे होते हैं जैसे कोई धुएं या ध्वनि को पकड़ने के लिए उनके पीछे भागे। विवेक पूर्वक सोचने पर पता चलता है कि यदि धुएं या ध्वनि के श्रोत को ही पकड़ लिया जाए तो इन्हें नियंत्रित कर पाना कठिन नहीं है। पर यह कोई नहीं करता, उन रंगीन वस्तुओं को पाने के लिए उनके पीछे दौड़ लगाते हैं जो उनका है ही नहीं। विज्ञान के अनुसार सभी रंग तो प्रकाश के ही हैं वस्तुएं तो केवल उसे परावर्तित ही करती हैं। लोगों के मन में यह विचार कभी नहीं आता कि जिसने इतने आकर्षित करने वाले रंगों की दुनिया बनाई है वह निश्चय ही इससे अधिक अकर्षक होना चाहिए पर उसे पाने की इच्छा ही नहीं जागती।

संस्कृत में रंग को ‘‘वर्ण’’ कहा जाता है और विज्ञान में ‘‘तरंगदैर्घ्य’’। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध में व्याख्या करते हैं तो इसीलिए उसे कहा जाता है ‘वर्णन’। विद्यातंत्र में सभी प्रकार के अच्छे बुरे संस्कारों को मन के ऊपर तरंगों अर्थात् वर्णों के रूप में चिपका हुआ माना जाता है। इसका साक्षीस्वरूप जीवात्मा भी इसी कारण इन रंगों के प्रभाव में आकर वर्ण बिखेरने लगता है। मूलतः वर्णहीन, यह अलग अलग प्रकार से वर्णित किया जाने लगता है और संसार इसी में भ्रमित बना रहता है। विद्यातंत्र में इन सभी वर्णों से मुक्त होकर अपने ‘अवर्ण स्वरूप’ को जाने की विधियां समझाई गई है। प्रतिदिन इन्हें प्रयुक्त करते हुए अपने अवर्ण स्वरूप से साक्षात्कार किया जा सकता है। इन्हें ‘‘वर्णार्घ्य दान ’’ कहा जाता है। जिसका अर्थ है रंगों के रूप में चिपके हुए सभी संस्कारों को उनके निर्माता को ही दान करते जाना। वैष्णवतंत्र में इस सिद्धान्त को ‘‘हरि’’ शब्द से व्यक्त किया जाता है जिसका अर्थ है ‘‘हरति पापान् इत्यर्थे हरिः’’ अर्थात् जो पापों को हर लेता है वह हरि है। 


Tuesday, 15 March 2022

374 निरुक्तकार ‘‘यास्क’’

  

‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ यह वेद का कथन नहीं है परन्तु 6 वेदांगों में से एक जिसे ‘निरुक्त’ कहा जाता है, की व्याख्या है। निरुक्त में, वेदों में प्रयुक्त हुए शब्दों की शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर व्याख्या की गई है। निरुक्त का जनक ‘‘यास्क’’ को माना जाता है। यास्क ने सरल सूत्रों के अनुसार वैदिक संस्कृत के शब्दों की व्याख्या की है अतः वेदों का सही सही अर्थ जानने के लिये निरुक्त का अध्ययन करना परम आवश्यक है। इसका महत्व ‘पाणिनी’ जैसे व्याकरणाचार्य ने समझाते हुए कहा है कि निरुक्त श्रुति (वेद) के श्रोतृ (कान) हैं। निरुक्त में तीन कांड क्रमशः नैघंटुक, नैगम और दैवत हैं इन्हें 12 अध्यायों में विस्तारित किया गया है।

निरुक्त के अध्याय 2 के 12 वें श्लोक में यास्क का कथन मनन करने योग्य है ‘‘मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानब्रुवन् को न ऋषिर्भवतीति। तेभ्य एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन्....’’ अर्थात् वेदार्थ को भली भांति समझने के लिए ‘‘तर्क ऋषि’’ की मदद ली जाना चाहिए क्योंकि अब ऋषियों का उत्क्रमण हो चुका है। अतः तर्क से गवेषणापूर्वक निश्चित किया हुआ  अर्थ ऋषियों के अनुकूल ही होगा। इसी आधार पर स्मृतियों में भी कहा गया है कि ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नापरः’‘ अर्थात् जो तर्क से  वेदार्थ का अनुसंधान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं।

हमारे देश में बाहर से आकर अपनी जड़ें फैलाते जा रहे कुछ तथाकथित धर्मों का कहना है कि उनके ज्ञाता जो कह रहे हैं वही सत्य है उसे आंख मूंद कर स्वीकार करना चाहिए, उसमें तर्कवितर्क करने की गुंजाइश ही नही है। वे अपने धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ‘मजहब में अकल का दखल नहीं ’। इससे प्रभावित होकर देश के कुछ लोगों ने यह भी कहना प्रारंभ कर दिया है कि ‘‘ विश्वासे ही फल मिले तर्के बहुदुर ।’’ स्पष्ट है कि ये मतावलंबी, अंधानुकरण करने की प्रेरणा ही देते हैं जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि होती रहे। इसलिए सत्य के अनुसंधान कर्ताओं को ‘‘निरुक्त’’ में की गई व्याख्या के आधार पर प्रत्येक शब्द का अर्थ अपने तर्क, विज्ञान और विवेक के अनुसार ही निर्धारित करना चाहिए। 


Sunday, 13 March 2022

373 अंतर्ज्ञान कालातीत होता है।

 अंतर्ज्ञान कालातीत होता है। 

बुढ़ापे की प्रक्रिया न केवल हाथों  और पैरों को प्रभावित करती है, बल्कि मस्तिष्क सहित पूरे शरीर को भी अपने प्रभाव में ले लेती है। मस्तिष्क  हमारा  मानसिक केंद्र है । यही कारण है कि 50 या 60 साल की आयु पार करने के बाद, आम लोगों की बुद्धि कमजोर पड़ती है। उनकी तंत्रिका कोशिकायें अधिक से अधिक  कमजोर हो जाती हैं। लोग, अपनी स्मृति और मनोवैज्ञानिक संकाय धीरे धीरे एक दिन कम होते जाते हैं और एक दिन  उनके दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं।  यह असाधकों के साथ होता है जब वे बहुत बूढ़े हो जाते हैं। हालांकि, योग साधना करने वालों के मामले में, यह नहीं होता है। परन्तु आपको केवल बुद्धि पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए क्योंकि बुद्धि में इतनी  दृढ़ता नहीं होती है। अगर आपके पास भक्ति है, तो अंतर्ज्ञान विकसित होगा और इसके साथ, आप समाज को बेहतर और बेहतर सेवा करने में सक्षम होंगे। 

इसलिए मानसिक क्षेत्र में, भक्त अंतर्ज्ञान पर अधिक निर्भर करते हैं जो  कभी भी क्षय नहीं होता क्योंकि अंतर्ज्ञान ब्रह्मांडीय विचारों पर आधारित होता है। जब मन को सुदृढ़ किया जाता है या उसे सूक्ष्म दृष्टिकोण की ओर निर्देशित किया जाता  है, तो वह  “पुराना हो रहा है“ इसका प्रश्न ही नहीं उठता । मन अपना विस्तार करना जारी रखता है जिससे वह  अधिक तेज और अधिक एकाग्र  होता जाता है परन्तु जो लोग केवल बुद्धि पर निर्भर होते हैं वे बहुत कष्ट पाते हैं। इसका कारण यह है कि बुढ़ापे की शुरुआत से ही  उनका  मानसिक संकाय अधिक से अधिक कमजोर  होता  जाता है जब तक कि उनकी बुद्धि पूरी तरह से नष्ट होने  की संभावना न हो जाय । जो लोग अपने अन्तर्मन से भक्ति कर रहे हैं वे आसानी से परमपुरुष  द्वारा अंतर्ज्ञान पाने का  आशीर्वाद प्राप्त कर लेते  हैं।

अगर किसी ने अपनी युवा अवस्था  से ही उचित साधना की है  और मन को आध्यात्मिक  अभ्यास  में प्रशिक्षण दिया  है तो उसकी  प्राकृतिक प्रवृत्ति परमार्थ  की ओर बढ़ने की हो जाती है।  इस प्रकार  साधना करते हुए  उसे अंतिम सांस तक कोई समस्या आने का कोई प्रश्न नहीं उठता । उनका मन  आसानी से ब्रह्मांडीय लय और  ताल में बह जाएगा और साधना क्रिया स्वाभाविक रूप से सरल होगी । इसके विपरीत यदि कोई कहे कि साधना करना तो बुढ़ापे का कार्य है तो उसे बहुत कठिनाई होगी।