रंग सभी को आकर्षित करते हैं। यह विश्व रंगीन है, सभी इन रंगों को पाने की इच्छा से उसी ओर दौड़ते जा रहे हैं। बसंत ऋतु में प्रकृति अपने रंगों को अद्वितीय रूप से विकीर्णित करती है। इसके उल्लास में लोग बसंतोत्सव मनाते हैं। रंगों की ओर पागलों की तरह दौड़ने वाले यह लोग वैसा ही कार्य कर रहे होते हैं जैसे कोई धुएं या ध्वनि को पकड़ने के लिए उनके पीछे भागे। विवेक पूर्वक सोचने पर पता चलता है कि यदि धुएं या ध्वनि के श्रोत को ही पकड़ लिया जाए तो इन्हें नियंत्रित कर पाना कठिन नहीं है। पर यह कोई नहीं करता, उन रंगीन वस्तुओं को पाने के लिए उनके पीछे दौड़ लगाते हैं जो उनका है ही नहीं। विज्ञान के अनुसार सभी रंग तो प्रकाश के ही हैं वस्तुएं तो केवल उसे परावर्तित ही करती हैं। लोगों के मन में यह विचार कभी नहीं आता कि जिसने इतने आकर्षित करने वाले रंगों की दुनिया बनाई है वह निश्चय ही इससे अधिक अकर्षक होना चाहिए पर उसे पाने की इच्छा ही नहीं जागती।
संस्कृत में रंग को ‘‘वर्ण’’ कहा जाता है और विज्ञान में ‘‘तरंगदैर्घ्य’’। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति के संबंध में व्याख्या करते हैं तो इसीलिए उसे कहा जाता है ‘वर्णन’। विद्यातंत्र में सभी प्रकार के अच्छे बुरे संस्कारों को मन के ऊपर तरंगों अर्थात् वर्णों के रूप में चिपका हुआ माना जाता है। इसका साक्षीस्वरूप जीवात्मा भी इसी कारण इन रंगों के प्रभाव में आकर वर्ण बिखेरने लगता है। मूलतः वर्णहीन, यह अलग अलग प्रकार से वर्णित किया जाने लगता है और संसार इसी में भ्रमित बना रहता है। विद्यातंत्र में इन सभी वर्णों से मुक्त होकर अपने ‘अवर्ण स्वरूप’ को जाने की विधियां समझाई गई है। प्रतिदिन इन्हें प्रयुक्त करते हुए अपने अवर्ण स्वरूप से साक्षात्कार किया जा सकता है। इन्हें ‘‘वर्णार्घ्य दान ’’ कहा जाता है। जिसका अर्थ है रंगों के रूप में चिपके हुए सभी संस्कारों को उनके निर्माता को ही दान करते जाना। वैष्णवतंत्र में इस सिद्धान्त को ‘‘हरि’’ शब्द से व्यक्त किया जाता है जिसका अर्थ है ‘‘हरति पापान् इत्यर्थे हरिः’’ अर्थात् जो पापों को हर लेता है वह हरि है।
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