Tuesday 15 March 2022

374 निरुक्तकार ‘‘यास्क’’

  

‘‘वाक्यं रसात्मकं काव्यं’’ यह वेद का कथन नहीं है परन्तु 6 वेदांगों में से एक जिसे ‘निरुक्त’ कहा जाता है, की व्याख्या है। निरुक्त में, वेदों में प्रयुक्त हुए शब्दों की शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर व्याख्या की गई है। निरुक्त का जनक ‘‘यास्क’’ को माना जाता है। यास्क ने सरल सूत्रों के अनुसार वैदिक संस्कृत के शब्दों की व्याख्या की है अतः वेदों का सही सही अर्थ जानने के लिये निरुक्त का अध्ययन करना परम आवश्यक है। इसका महत्व ‘पाणिनी’ जैसे व्याकरणाचार्य ने समझाते हुए कहा है कि निरुक्त श्रुति (वेद) के श्रोतृ (कान) हैं। निरुक्त में तीन कांड क्रमशः नैघंटुक, नैगम और दैवत हैं इन्हें 12 अध्यायों में विस्तारित किया गया है।

निरुक्त के अध्याय 2 के 12 वें श्लोक में यास्क का कथन मनन करने योग्य है ‘‘मनुष्या वा ऋषिषूत्क्रामत्सु देवानब्रुवन् को न ऋषिर्भवतीति। तेभ्य एतं तर्कऋषिं प्रायच्छन्....’’ अर्थात् वेदार्थ को भली भांति समझने के लिए ‘‘तर्क ऋषि’’ की मदद ली जाना चाहिए क्योंकि अब ऋषियों का उत्क्रमण हो चुका है। अतः तर्क से गवेषणापूर्वक निश्चित किया हुआ  अर्थ ऋषियों के अनुकूल ही होगा। इसी आधार पर स्मृतियों में भी कहा गया है कि ‘‘यस्तर्केणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नापरः’‘ अर्थात् जो तर्क से  वेदार्थ का अनुसंधान करता है वही धर्म को जानता है दूसरा नहीं।

हमारे देश में बाहर से आकर अपनी जड़ें फैलाते जा रहे कुछ तथाकथित धर्मों का कहना है कि उनके ज्ञाता जो कह रहे हैं वही सत्य है उसे आंख मूंद कर स्वीकार करना चाहिए, उसमें तर्कवितर्क करने की गुंजाइश ही नही है। वे अपने धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ‘मजहब में अकल का दखल नहीं ’। इससे प्रभावित होकर देश के कुछ लोगों ने यह भी कहना प्रारंभ कर दिया है कि ‘‘ विश्वासे ही फल मिले तर्के बहुदुर ।’’ स्पष्ट है कि ये मतावलंबी, अंधानुकरण करने की प्रेरणा ही देते हैं जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि होती रहे। इसलिए सत्य के अनुसंधान कर्ताओं को ‘‘निरुक्त’’ में की गई व्याख्या के आधार पर प्रत्येक शब्द का अर्थ अपने तर्क, विज्ञान और विवेक के अनुसार ही निर्धारित करना चाहिए। 


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