Thursday, 18 August 2022

389राजाधिराज योग

  

लगभग 2000 वर्ष पहले भारत के एक महान सन्त अष्टावक्र ने योग विज्ञान में क्रान्तिकारी अनुसंधान किया था। वास्तव में उनका शरीर अष्टांगयोग की साधना करने के लिए वांछित योगासनों को उचित प्रकार से नहीं कर पाता था। बताया जाता है कि उनके शरीर में आठ प्रकार की वक्रता थी जिससे वे किसी भी प्रकार से अपने शरीर को साधना करने के लिए सीधा और स्थिर रखकर नहीं बैठ पाते थे। इसलिए उन्होंने शरीर में स्थित विभिन्न ऊर्जा केन्द्रों (जिन्हें योगविज्ञान में चक्र कहा जाता है) और उनसे संबंधित वृत्तियों पर नियंत्रण करने का उपाय खोजा जिनके आधार पर वे शरीर की किसी भी स्थिति में साधना करने में सफल हो गए। अपनी ‘‘अष्टावक्र संहिता’’ नामक पुस्तक में उन्होंने इस योग साधना की पद्धति को उन्होंने ‘‘राजाधिराज योग’’ नाम दिया है। उन्होंने इस पद्धति को सबसे पहले बंगाल के वक्रेश्वर में अलार्क नामक शिष्य को सिखाया था।

उन्होंने अपनी पुस्तक में बताया है कि मनुष्य के शरीर में स्थित रीढ़ के सबसे निम्न विंदु पर जो ऊर्जा केन्द्र होता है उसे ‘मूलाधार चक्र’ कहा जाता है और वह चार वृत्तियों, धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष को नियंत्रित करता है। उससे ऊपर लिंगमूल के बिलकुल पीछे ‘स्वाधिष्ठान चक्र’ छह वृत्तियों अवज्ञा, मूर्छा, प्रणाश, अविश्वास, सर्वनाश, और क्रूरता को नियंत्रित करता है। उससे ऊपर नाभि पर स्थित मनीपुर चक्र दस वृत्तियों लज्जा, पिशूनता, ईर्ष्या, सुषुप्ति, विषाद, क्षय, तृष्णा, मोह घृणा और भय पर नियंत्रण करता है। उससे ऊपर छाती के केन्द्र पर अनाहत चक्र होता है जो बारह वृत्तियों, आशा, चिंता, चेष्टा, ममता, दंभ, विवेक, विकलता, अहंकार, लोलता, कपटता, वितर्क और अनुताप पर नियंत्रण करता है।

गले के क्षेत्र में स्थित विशुद्ध चक्र 16 वृत्तियों षडज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत्य, निषाद, औम, हुम्, फट्, वोषट, वषट, स्वाहा, नमः, विष और अमृत को नियंत्रित करता है। दोनों भौहों के बीच स्थित आज्ञा चक्र दो वृत्तियों अपरा, और परा ज्ञान को नियंत्रित करता है। इन चक्रों के आस पास ही इनके उपचक्र होते हैं जो इनसे जुड़ी वृत्तियों को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार मनुष्य से संबंधित सभी 50 वृत्तियां भीतर, बाहर और दसों दिशाओं में क्रियारत होने के कारण कुल 1000 हो जाती है जिन्हें कपाल के मध्य स्थित सहस्त्रार चक्र नियंत्रित करता है। आज के विज्ञान को यह अभी तक अज्ञात है, इसे जानकर आगे के अनुसंधान की आवश्यकता है।

अष्टावक्र ने बताया कि हम नियमित योगासनों की सहायता से प्रत्येक चक्र से जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण पा सकते हैं और अपने विचारों और व्यवहार में परिवर्तन ला सकते हैं। आसनों से इन चक्रों या उपचक्रों पर या तो दबाव बढ़ाया जाता है या कम किया जाता है जिससे वृत्तियों पर नियंत्रण होता है जैसे, मयूरासन से मनीपुर चक्र पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है अतः यदि इसे नियमित रूप से किया जाता है तो इस चक्र और उसके चारों ओर के उपचक्रों से स्रावित होने वाले हरमोन्स व्यवस्थित होकर उनसे जुड़ी हुई वृत्तियों को भी अधिक संतुलित कर लेते हैं। मानलो कोई व्यक्ति बड़े जनसमूह के सामने बोलने से डरता है तो इसका अर्थ है उसका मनीपुर चक्र कमजोर है। अब यदि वह मयूरासन नियमित रूप से करता है तो उसका यह भय समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार अन्य चक्रों और उपचक्रों  पर आवश्यक दबाव कम करके भी हारमोन्स को अपने अनुकूल स्रावित करने योग्य बनाया जा सकता है और उनसे जुड़ी वृत्तियों पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

स्पष्ट है कि आध्यात्मिक साधना करने वालों को अपने अनुकूल आसनों को ज्ञात कर सावधानी से उन्हें करने का अभ्यास नियमित रूप से करते रहने पर अवश्य ही सफलता मिलती है। आजकल तथाकथित योग के प्रचार से विश्व भर में योगासनों का व्यापक प्रदर्शन करने वाले योग गुरुओं की अचानक बाढ़ आ गई और यह धंधा जोर पकड़ता जा रहा है। योग साधना करने के इच्छुक और योग से रोग हटाने के इच्छुक लोगों को बहुत सोच समझकर योग्य व्यक्ति से ही इनसे यह सीखना चाहिए।


Saturday, 6 August 2022

388 शिव को प्रणाम कैसे करें ?

 

(प्रणाम मंत्र में शिव)

‘‘नमस्तुभ्यं विरुपाक्ष नमस्ते दिव्य चक्षुसे, 

नमः पिनाक हस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः,

नमः त्रिशूल हस्ताय दंडपाशासिपानये, 

नमस्त्रैलोक्यनाथाय भूतानाम पतयेनमः,

नमः शिवाय शॉंताय कारणत्रयहेतबे, 

निवेदयामि चात्मानम् त्वमगतिः परमेश्वरा।’’

अर्थात्, ‘‘दिव्यद्रष्टि वाले विरूपाक्ष तुम्हें प्रणाम, पिनाक और बज्र को हाथ में धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, त्रिशूल रस्सी और दंड को धारण करने वाले तुम्हें प्रणाम, सभी प्राणियों/भूतों के स्वामी और तीनों लोकों के स्वामी तुम्हें प्रणाम, तीनों लोकों के आदिकारण शॉंत शिव को प्रणाम, परम प्रभो मेरी यात्रा के अंतिम बिंदु और लक्ष्य मैं अपने आप को आपके समक्ष समर्पित करता हॅूं।’’

स्पष्टीकरण- 

शब्द ‘विरूपाक्ष’ के दो अर्थ हैं, एक तो वह जिसके नेत्र विरूप अर्थात् अप्रसन्न या क्रोधित हों, दूसरा यह कि जो प्रत्येक को विशेष मधुर और कल्याणकारी द्रष्टि से, दयालुता से देखता हो। पापियों के लिये शिव, विरूपाक्ष  पहले रूप में और सद्गुणियों के लिये दूसरे अर्थ में लेते थे।

‘दिव्यचक्षु’ का अर्थ है जिसके पास प्रत्येक वस्तु के भीतर छिपे मूल कारण को देख सकने  की दिव्य द्रष्टि है, अर्थात् वर्तमान भूत और भविष्य को देख सकने वाला।

‘पिनाक’ अर्थात् जो डमरु को बजा कर सभी प्राणियों के शरीर मन और आत्मा को कंपित कर देता हो वह सदाशिव हैं। दुष्टों को दंडित करने और अच्छे लोगों की रक्षा के लिये हमेशा से हर युग में हथियार बनाये जाते रहे हैं शिव ने भी सब की भलाई के लिये भयंकर वज्र धारण किया। इसलिये वे वज्रधर ही नहीं ‘शुभवज्रधर’ कहलाते हैं ।

‘त्रिशूल’ से शिव शत्रुओं को तीन ओर से छेदित करते थे, शिव इसे हाथ में लिये रहते थे इसलिये वे ‘शूलपाणि’ कहलाते हैं। पापियों के हृदय में भय पैदा करने और बांधने के लिये, जिससे कि वे पाप से दूर रहें और सच्चे लोगों को शॉंति से रहने दें, शिव, दंड और रस्सी लिये रहते थे।

‘त्रैलोक्यनाथ’, शिव तीनों लोकों के जीवन प्रवाह को नियंत्रित, पालित और पोषित करने के कारण त्रैलोक्यनाथ और इस पृथ्वी के सभी जीवधारियों की प्रकृति को भलीभांति जानते हैं अतः वे भूतनाथ कहलाते हैं। संगीत विद्या के विद्यार्थियों के लिये वह प्रमथनाथ हैं। चूॅंकि शिव अपने भीतर और बाहर पूर्ण नियंत्रित रहते थे अतः वे शान्त कहलाते हैं। इस शॉंत पुरुष के पास सब पर नियंत्रित करने की शक्ति है इसलिये कहा गया  है ‘नमः शिवाय शान्ताय‘।

जड़, सूक्ष्म और कारण संसार के मूलकारण घटक को चितिशक्ति कहते हैं। ये शिव और चितिशक्ति एक ही हैं। इसीलिये उन्हें ‘कारणस्त्रयहेतबे‘ कहा गया हैं। उस परमसत्ता को, जिसने अपने मधुर और प्रभावी प्रकाश से सभी निर्मित और अनिर्मित को भीतर बाहर से प्रकाशित कर रखा है, सभी प्रणाम करते हैं और समर्पित रहते हैं। वही सबके अंतिम लक्ष्य होते हैं, अतः कहा गया है ‘निवेदयामि च आत्मानम् त्वम गतिः परमेश्वरा‘। हे परमेश्वर मैं अपने आपको आपके समक्ष समर्पित करता हूॅ क्योंकि आप ही मेरे परम आश्रय हैं। हे शिव, हे परम पुरुष, अनाथों के अंतिम आश्रय, थकेमांदों के अंतिम आश्रयस्थल, मैं अपने अस्तित्व की सभी भावनायें आपके चरणों में समर्पित करता हॅूं।


Wednesday, 3 August 2022

387अजपा जप अर्थात् ‘‘आटो सजैशन’’

  

सभी लोग यह अनुभव करते हैं कि उनके जीवन का आधा समय तो सोने में बीत जाता है। शरीर को इस प्रकार के सोने से आराम मिल सकता है परन्तु मस्तिष्क को नहीं। मनोविज्ञान(साइक्लाजी) में जब अपने ‘मन’(माइंड) के द्वारा अपने ‘मन’ पर ही विशेष संवेदनों की आवृत्तियांॅ लगातार डाली जाती हैं तब इस क्रिया को ‘‘आटो सजैशन’’ कहते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने ‘इष्टमंत्र’ को लगातार बिना रुके जपते हुए निर्धारित विन्दु पर मन को स्थिर करने का अभ्यास करता रहता है तब उससे बनने वाली तरंगों की आवृत्तियांॅ एक लय (रिद्म) उत्पन्न करती हैं। यह तरंगें उस व्यक्ति के मन पर ‘‘आटो सजैशन’’ निर्मित कर उसके सोते समय भी इसी प्रकार की तरंगें उत्पन्न कर लय में ही बनी रहती है। व्यक्ति को यह याद नहीं रहता परन्तु जब वह सोकर उठता है तब उसे लगता है कि वास्तव में अच्छी नींद क्या होती है। इस प्रकार की नींद में न तो स्वप्न आते हैं और न ही कोई अन्य विचार (मन की निर्वात अवस्था) इसलिए इससे मस्तिष्क को आराम मिलता है।

मंत्र के लगातार जाप से या ध्यान से व्यक्ति थोड़े समय के लिए उच्च स्तर के ज्ञान क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। अतः ध्यान और इष्टमंत्र के जाप से उत्पन्न तरंगों का लय जब कुछ देर तक स्थिर बना रहता है तब इसे योग विज्ञान में ‘‘धर्ममेघ समाधी’’ कहते हैं। इन तरंगों का स्वरसाम्य अर्थात् ‘सिंफोनी’ अधिक देर तक बने रहने पर व्यक्ति यदि ध्यान या जप नहीं कर पाता तब भी अपने इष्ट के प्रति उसकी स्मृति क्षय नहीं होती इसे ‘‘धुवास्मृति’’ कहते हैं। इस प्रकार की स्मृति प्राप्त साधक सोते रहने की अवस्था में भी अपना ध्यान या जाप करता रहता है। अर्थात् वास्तव में वह जाप या ध्यान नहीं कर रहा होता है फिर भी उसकी यह क्रिया सोते हुए भी चलती रहती है। योगविज्ञान में इसे ‘‘अजपा जप’’ या ‘‘अध्यान ध्यान’’ कहा जाता है। ‘आटो सजैशन’ का यह उत्तम उदाहरण है।

महर्षि विश्वामित्र, धर्मराज युधिष्ठिर, राजाधिराज योगी वशिष्ठ, महर्षि अष्टावक्र, विबंधक और कालहन जैसे योगियों ने भी ध्रवास्मृति और अजपाजप के महत्व को स्वीकार किया है। वे यह भी स्वीकारते हैं कि ध्यान करते हुए आई निद्रा में व्यतीत हुए समय को व्यर्थ खर्च हुआ नहीं माना जाना चाहिए। योग मार्ग पर चलते हुए इन अवस्थाओं से भेंट होना स्वाभविक है।