सभी लोग यह अनुभव करते हैं कि उनके जीवन का आधा समय तो सोने में बीत जाता है। शरीर को इस प्रकार के सोने से आराम मिल सकता है परन्तु मस्तिष्क को नहीं। मनोविज्ञान(साइक्लाजी) में जब अपने ‘मन’(माइंड) के द्वारा अपने ‘मन’ पर ही विशेष संवेदनों की आवृत्तियांॅ लगातार डाली जाती हैं तब इस क्रिया को ‘‘आटो सजैशन’’ कहते हैं। जब कोई व्यक्ति अपने ‘इष्टमंत्र’ को लगातार बिना रुके जपते हुए निर्धारित विन्दु पर मन को स्थिर करने का अभ्यास करता रहता है तब उससे बनने वाली तरंगों की आवृत्तियांॅ एक लय (रिद्म) उत्पन्न करती हैं। यह तरंगें उस व्यक्ति के मन पर ‘‘आटो सजैशन’’ निर्मित कर उसके सोते समय भी इसी प्रकार की तरंगें उत्पन्न कर लय में ही बनी रहती है। व्यक्ति को यह याद नहीं रहता परन्तु जब वह सोकर उठता है तब उसे लगता है कि वास्तव में अच्छी नींद क्या होती है। इस प्रकार की नींद में न तो स्वप्न आते हैं और न ही कोई अन्य विचार (मन की निर्वात अवस्था) इसलिए इससे मस्तिष्क को आराम मिलता है।
मंत्र के लगातार जाप से या ध्यान से व्यक्ति थोड़े समय के लिए उच्च स्तर के ज्ञान क्षेत्र में प्रवेश कर जाता है। अतः ध्यान और इष्टमंत्र के जाप से उत्पन्न तरंगों का लय जब कुछ देर तक स्थिर बना रहता है तब इसे योग विज्ञान में ‘‘धर्ममेघ समाधी’’ कहते हैं। इन तरंगों का स्वरसाम्य अर्थात् ‘सिंफोनी’ अधिक देर तक बने रहने पर व्यक्ति यदि ध्यान या जप नहीं कर पाता तब भी अपने इष्ट के प्रति उसकी स्मृति क्षय नहीं होती इसे ‘‘धुवास्मृति’’ कहते हैं। इस प्रकार की स्मृति प्राप्त साधक सोते रहने की अवस्था में भी अपना ध्यान या जाप करता रहता है। अर्थात् वास्तव में वह जाप या ध्यान नहीं कर रहा होता है फिर भी उसकी यह क्रिया सोते हुए भी चलती रहती है। योगविज्ञान में इसे ‘‘अजपा जप’’ या ‘‘अध्यान ध्यान’’ कहा जाता है। ‘आटो सजैशन’ का यह उत्तम उदाहरण है।
महर्षि विश्वामित्र, धर्मराज युधिष्ठिर, राजाधिराज योगी वशिष्ठ, महर्षि अष्टावक्र, विबंधक और कालहन जैसे योगियों ने भी ध्रवास्मृति और अजपाजप के महत्व को स्वीकार किया है। वे यह भी स्वीकारते हैं कि ध्यान करते हुए आई निद्रा में व्यतीत हुए समय को व्यर्थ खर्च हुआ नहीं माना जाना चाहिए। योग मार्ग पर चलते हुए इन अवस्थाओं से भेंट होना स्वाभविक है।
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