Sunday, 23 April 2023

407 शत्रु कौन और मित्र कौन है?


शत्रु और मित्र में विभेद करना कठिन है क्योंकि उनकी कोई स्पष्ट पहचान कहीं नहीं मिलती। कब मित्र शत्रु हो जाए और शत्रु मित्र यह भी  ज्ञात नहीं होता। विद्वान लोग मित्रों की महिमा में कहते हैं कि जिसे सच्चा मित्र मिल गया उसे सब कुछ मिल गया। 

परन्तु शास्त्र क्या कहते हैं?

शास्त्र कहते हैं कि 

‘‘न कस्यकस्यचित मित्रम न कस्यकस्यचित रिपुम्,

व्यवहारेण जायन्ति मित्राणी रिपवस्तथा।’’

अर्थात् न तो कोई किसी का मित्र होता है और न कोई शत्रु। वह तो अपना अपना व्यवहार ही है जो मित्र या शत्रु को जन्म देता है।

यह बात तार्किक और सत्य लगती है। श्रीमद्भवदगीता में भी मोक्ष मार्ग पर बढ़ने वालों के लिए ही नहीं सबके लिए यह स्पष्ट कहा गया  है कि, 

‘‘उद्धरेदात्मानम् न आत्मानम्वसादयेत्,

आत्मैवात्मानम् बंधु आत्मैव रिपुरात्मनः।’’

अर्थात् अपने आप की उन्नति करना चाहिए न कि अवनति क्योंकि अपना आप ही अपना मित्र है तथा अपना आप ही अपना शत्रु।

स्पष्ट है कि उस विचारधारा और संगति को ही प्रश्रय देना चाहिए जो आत्मोन्नति में सहायक हो। आत्मोत्थान करना ही मानव जीवन का मूल उद्देश्य है, इसलिए अपने आपको अपना मित्र बनाने में ही भलाई है।


Thursday, 20 April 2023

406 सत्य और कल्पना की दृष्टि


हमारे वेदों में इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संबंध में युक्तिपरक व्याख्या की गई है परन्तु पौराणिक युग में उसे कहानियों के माध्यम से समझाने के प्रयास में लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर डाला है।

जैसे, उस परम चैतन्य सत्ता को निर्विकार और निर्गुण अवस्था में ‘ब्रह्म’ या ‘शिव तत्व’ कहा गया है जिसे उपनिषदों के सार श्रीमद्भगवद्गीता में सत्,चित और आनन्द की घनीभूत अवस्था (सच्चिदानन्दघन) कहा गया है। इस अवस्था में वे अपनी प्रकृति(अर्थात् उनकी क्रियात्मक सत्ता या शक्ति) के सभी गुणों (सत, रज और तम) को अपने में ही लीन किए होते हैं। इसीलिए कहा गया है ‘‘शिवशक्त्यात्मकं ब्रह्म’’। प्रकृति के इन तीनों गुणों का स्वभाव परस्पर प्रतिद्वन्द्विता का होता है अर्थात् वे शान्त नहीं रह सकते, अपना अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अन्य गुणों को दबाए रखने के प्रयास में लगे रहते है। प्रकृति के गुणों के इस प्रकार के आलोड़न से जब आनन्दघन सत्ता को अपना आभास होता है तब उनके मन में विचार आता है कि ‘मैं अकेला हॅूं क्यों न बहुत हो जाऊं?’(एकोहं बहुस्याम।) इस विचार के आते ही प्रकृति उनके ही थोड़े से भाग में अपने अनन्त स्वरूपों की रचना में जुट जाती है और अब वह परमसत्ता, साक्षी स्वरूप होकर उसके इस कृत्य को देखने लगते हैं। इस स्थिति में उन्हें  एक दार्शनिक नाम ’ब्रह्मा’ कहा जाता है, (ध्यान दीजिए ब्रह्म से वे हुए ब्रह्मा)। इसलिए इस समग्र सृष्टि को ही उनका सगुण रूप कहा गया है जिसे सूत्र में समझाया गया है ‘‘ सर्वं खल्विदं ब्रह्म’’। क्षण भर में ब्रह्मांड की उत्पत्ति होने को आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है।

इस संकल्पना को समझाने के लिए पुराणों में अपनी अलग काल्पनिक कहानियॉं गढ़ कर जनसामान्य को बताया गया है कि काली माता शिव के वक्षस्थल पर नृत्य करती हैं। इस प्रकार के चित्र सभी जगह देखने में आते हैं कि बेसुध लेटे हुए शिव की छाती पर पैर रखे काली देवी अपनी जीभ बाहर निकाले हुए हैं। इसके पीछे लम्बे काल्पनिक दृष्टान्तों का भी विवरण दिया गया है। इस प्रकार कहानियों के पात्रों को सत्य मानकर उनकी पूजा की जाने लगी है और असली शिव तत्व को भूलकर अपने मन के देवों के देव महादेव, या भोलेनाथ को भांग धतूरा खिला कर बेहोश ही रहने दिया जाता है! 

इस संबंध में आधुनिक शोधकर्ताओं के अनुसार 93 बिलियन लाइटईयर व्यास  वाला यह ब्रह्मांड, 13.75 बिलियन वर्ष पूर्व अचानक ही अस्तित्व में आया परन्तु इस पर जीवन का संचार बहुत बाद में हुआ। मनुष्य लगभग एक लाख साल पहले अस्तित्व में आए परन्तु मानव सभ्यता लगभग सोलह हजार साल पुरानी ही है। इसमें अपने अपने ढंग से जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को नई दिशा देने और सही जीवन पद्धति से परिचय कराने के लिए आज से 7 हजार साल पहले एक सरल, शान्त, तेजस्वी और साहसी  व्यक्तित्व अस्तित्व में आया जिसका कार्य था सदा सबकी भलाई करना, सभी को कल्याण का रास्ता दिखाना। उनका नाम हुआ सदाशिव। सदाशिव ने जीवन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जिस पर उन्होंने जनसामान्य को सच्चाई का अनुभव न कराया हो। उन्होंने बिखरे ज्ञान को एकत्रित कर उचित रूप दिया और विद्यातन्त्र के नाम से अपने पुत्र भैरव और पुत्री भैरवी को प्रशिक्षित कर सबको सिखाने का दायित्व दिया। अपने अन्य पुत्र कार्तिकेय जो बर्हिमुखी थे, को सैन्य विद्या और सुरक्षा के कार्य में निपुण बनाकर संगठन का कार्य सौंपा, धन्वन्तरी को वैद्यक विज्ञान में पारंगत कर सभी वनस्पतियों के औषधीय गुणों से परिचय कराकर लोगों को स्वस्थ बनाने का दायित्व सौंपा, नन्दी को कृषिकार्य और पशुपालन तथा विश्वकर्मा को भवन निर्माण और स्थापत्य कला में पारंगत कर लोगों को घर बनाकर रहना सिखाने का कार्य दिया। जीवन को सरस बनाने के लिए उन्होंने भरत मुनि को संगीत की शिक्षा दी और जनसामान्य को वाद्य, नृत्य और गायन सिखाने का दायित्व दिया। इस प्रकार सदाशिव ने व्यवस्थित जीवन जीने और जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने जैसे दुरूह कार्य कर समाज का निर्माण करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। परन्तु उनके इस योगदान को भूलकर क्या हमने उन्हें गंजेड़ी, भंगेड़ी बनाकर उनके व्यक्तित्व को विकृत नहीं कर दिया है? इन शोधकर्ताओं ने पूर्व वर्णित लेटे हुए शिव की छाती पर काली के नृत्य करने की घटना को इस प्रकार समझाया है-

शिव के द्वारा सिखाई गयी विद्यातंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार बहुत देर हो जाने पर काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर डरती हुई भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्। अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम ‘कावेरी’ हो गया। इस घटना को पुराणकार ने काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ बाहर निकाले हुये वर्णित किया है!


Monday, 3 April 2023

405 ध्यान का विषय क्या हो अर्थात् किसका ध्यान किया जाय?

 

अनेक विद्वान अपने अपने ढंग से इस प्रश्न का उत्तर देते हैं परन्तु संतोषप्रद नहीं पाए जाते हैं। जैसे, कुछ लोग कहते हैं कि ‘काल अर्थात् समय’ ही सब कुछ है उससे ताकतवर और कोई नहीं है, इसलिये वही ध्यान करने योग्य है। परन्तु सभी जानते हैं कि विज्ञान के अनुसार समय अर्थात् टाइम दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ही है जो अन्तरिक्ष में चौथी डायमेंशन के रूप में स्वीकृत है। इतना ही नहीं विज्ञान में ‘‘समय’’ को स्पेस के साथ बुना हुआ लचीला रेशा भी कहा गया है। परन्तु सच्चाई यह है कि वैज्ञानिक भी स्पष्टतः उसे पारिभाषित नहीं कर पाते हैं।

 चिंतन करने के बाद ऋषिगण कहते हैं कि ‘समय या काल‘ वास्तव में क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है जबकि पात्र, मन की सहायता से इसे ग्रहण करने वाला और स्पेस, पात्र तथा काल के बीच सम्बंध स्थापित करने वाली सत्ता है। स्पष्ट है कि समय अलौकिक घटक नहीं है।  इसका कारण यह है कि जहॉं क्रिया नहीं होगी वहॉं समय भी नहीं होगा। जैसे सूर्य के चारों ओर धरती चक्कर लगाती है इससे हम सौर वर्ष, सौर माह , सौर दिन पाते हैं और चन्द्रमा धरती के चक्कर लगाता है जिससे चन्द्र वर्ष, चन्द्र मास और चन्द्र दिन पाते हैं। यह सभी गतियॉं हमारे मन के द्वारा किये गये मापन से ही इन नामों के द्वारा प्रकट की जाती हैं। इसलिये मन एक सापेक्षिक घटक है, मन और गतिशीलता में से किसी एक के न होने पर समय का कोई अस्तित्व नहीं होता। स्पष्ट है कि काल या समय परम या निर्पेक्ष घटक या अखंड सत्ता नहीं है इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकता। 


-तो क्या ‘प्रकृति या स्वभाव’ को ध्यान का विषय माना जा सकता है?

परन्तु प्रकृति ब्रह्मॉंड का क्रियात्मक पक्ष ही है। किसी समय विशेष पर क्रियात्मक पक्ष द्वारा प्रयोग में लाई गयी प्रणाली ही प्रकृति कहलाती है। कुछ लोग मानते हैं कि प्रकृति से ही ब्रह्मॉंड उत्पन्न हुआ है जो गलत है। यह तो उस क्रियात्मक सिद्धान्त की शैली है इसलिये यह सर्जनात्मक सत्ता नहीं है। पदार्थवादियों ने प्रकृति को सर्जनात्मक माना है जो सही नहीं है, इसलिए प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय नहीं माना जा सकता।


-तो क्या भाग्य को ही मार्गदर्शक घटक मान लेना चाहिए?

 ऋषियों का उत्तर है नहीं। क्योंकि भाग्य मानव की गतिशीलता को नियन्त्रित नहीं करता। भाग्य क्या है? वह है हमारे पिछले अभुक्त संस्कारों का परिणाम। सभी को अपने अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जब तक क्रिया की प्रतिक्रिया को (जो बीज रूप में रहती है) पूरी तरह सन्तुष्ठ हो जाने का अवसर नहीं मिलता है तब तक मुक्ति नहीं मिलती। यही सुप्त बीज रूपी संस्कार भाग्य कहलाते हैं अतः वे मार्गदर्शक कैसे हो सकते हैं? 

 तर्क-परन्तु कुछ लोग जैसे ज्योतिषी कहते हैं कि इस धरती पर या अन्य ग्रहों की संरचना और उनकी स्थिति के आधार पर ही जीवों का जन्म होता है। 

 ऋषियों का उत्तर है, नहीं यह भी सच नहीं है। जिस प्रकार के किसी ने कर्म किए होते हैं उस प्रकार की ग्रह स्थिति के अनुसार ही उसे संस्कार भोग पाने का अवसर जुट पाता है और उसे जन्म मिलता है, और अपने पूर्व कर्मों के अनुसार सुख या दुख मिलता है। स्पष्ट है कि ग्रह जीवों को नियंत्रित नहीं करते उनके अपने कर्म ही उन्हें नियंत्रित करते हैं। जहॉं मूल क्रिया अथवा कर्म का पता नहीं होता है परन्तु उसका फल मिलता है तो उसे कहते हैं नियति। इसलिए भाग्य न तो नियंत्रक और न ही रचनात्मक घटक है अतः वह ध्यान का विषय भी नहीं हो सकता।

अन्य लोग जो इसको एक दुर्घटना अर्थात् एक्सीडेंट मानते हैं, वे अपने अज्ञान को छिपाने के लिय यह कहते हैं। ब्रह्मॉंड में कुछ भी बिना कारण के नहीं घटित होता, यह अलग बात है कि हमें वह पहले से मालूम हो भी सकता है और नहीं भी। हॉं, कभी कभी यह हो सकता है कि वह कारण बहुत कम समय के लिए अपना प्रभाव डाले, जिसे लोग एक्सीडेंट कहने लगते हैं। यह उचित नहीं है अतः भाग्य भी ध्यान करने का विषय नहीं हो सकता।


- तो क्या पदार्थ को ही सब कुछ मान लिया जाए?

 ऋषियों का उत्तर है कि, यदि पदार्थ ही सब कुछ होता तो ‘कारण मन‘ उससे कैसे आ सकता है? मन पदार्थ से श्रेष्ठ होता है, मानव बुद्धि और आत्मा उससे भी श्रेष्ठ होती है। इसलिए पदार्थ को पूजा का या ध्यान का विषय नहीं बनाया जा सकता अन्यथा वह व्यक्ति पदार्थ में ही बदल जा सकता है। 


- तो क्या जीवात्मा को ध्यान करने हेतु मूल तत्व माना जा सकता है?

  ऋषियों का उत्तर है नहीं, क्योंकि असंख्य जीवात्मा हैं, हर सत्ता की अपनी जीवात्मा है। इतना ही नहीं पदार्थों में भी जीवात्मा है यह अलग बात है कि उनका मन अविकसित होने से वे उसका अनुभव नहीं कर पाते। किसी भी इकाई मन के सुख दुख के अनुसार वह जीवात्मा भी प्रभावित होती रहती है, जैसे दो टीमें फुटवाल मैच खेलती हैं, सामान्य दृष्टाओं के लिए उनके जीतने हारने से कोई मतलब नहीं है परन्तु फिर भी मैच देखते हुए मन प्रभावित होता है कि नहीं?  इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं, जैसे दर्पण का कोई रंग नहीं है परन्तु लाल रंग का फूल उसके सामने लाने पर वह लाल दिखने लगता है वैसे ही जीवात्मा भी सुख दुख से प्रभावित होती है। अतः स्पष्ट है कि कोई विशेष जीवात्मा, विशेष सत्ता या इकाई चेतना पूरे ब्रह्मॉंड की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं हो सकती इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकती । 

- तो क्या काल, प्रकृति या स्वभाव, नियति, और दुर्घटना, इन सब घटकों का संयोजन ब्रह्मॉंड की उत्पत्ति का मूल घटक है?

 ऋषियों का उत्तर है, नहीं, क्योंकि इनमें प्रत्येक में कोई न कोई अपूर्णता अवश्य है अतः ये अथवा ये सभी मिलकर भी ब्रह्मॉंड के होने का परम कारण नहीं हो सकते । 

तर्क- परन्तु कुछ लोग तो महामाया को इसका कारण मानते हैं?

 ऋषियों का उत्तर है, महामाया अर्थात् क्रियात्मक सत्ता कोई भी कार्य कर सकती है परन्तु संज्ञानात्मक सत्ता की स्पष्ट अनुमति के बिना कुछ नहीं कर कर सकती। शिव के बिना शक्ति का पृथक अस्तित्व नहीं है, अतः महामाया भी ब्रह्मांड की रचना का मूल कारण नहीं है, ध्येय नहीं है।

-इकाई चेतना कर्मफल के अनुसार रूप बदलती रहती है, प्रकृति भी सदा ही अपने रूप बदलती रहती है तो फिर वह कौन है जो इनका संज्ञान रखता है, जिसे अपना ध्येय बनाया जाए? 

ऋषियों का उत्तर हैः-

अब सोचिए जैसे, आप हो, आपके होने का आप ही अनुभव करते हो, परन्तु आपके अस्तित्व का साक्ष्य कौन देता है कि आप हो ? वही संज्ञानात्मक परमसत्ता जिससे सभी आते हैं, जिसमें रहते हैं और अन्त में जिसमें जा पहॅुंचते हैं । इस सत्ता को ही शिव, परमब्रह्म या अखंडसत्ता कहते हैं। केवल यही चिन्तन करने योग्य, ध्यान करने योग्य, मनन करने योग्य और पूजनीय ह,ै अन्य सब व्यर्थ है।