अनेक विद्वान अपने अपने ढंग से इस प्रश्न का उत्तर देते हैं परन्तु संतोषप्रद नहीं पाए जाते हैं। जैसे, कुछ लोग कहते हैं कि ‘काल अर्थात् समय’ ही सब कुछ है उससे ताकतवर और कोई नहीं है, इसलिये वही ध्यान करने योग्य है। परन्तु सभी जानते हैं कि विज्ञान के अनुसार समय अर्थात् टाइम दो घटनाओं के बीच का अन्तराल ही है जो अन्तरिक्ष में चौथी डायमेंशन के रूप में स्वीकृत है। इतना ही नहीं विज्ञान में ‘‘समय’’ को स्पेस के साथ बुना हुआ लचीला रेशा भी कहा गया है। परन्तु सच्चाई यह है कि वैज्ञानिक भी स्पष्टतः उसे पारिभाषित नहीं कर पाते हैं।
चिंतन करने के बाद ऋषिगण कहते हैं कि ‘समय या काल‘ वास्तव में क्रिया की गतिशीलता का मानसिक मापन है जबकि पात्र, मन की सहायता से इसे ग्रहण करने वाला और स्पेस, पात्र तथा काल के बीच सम्बंध स्थापित करने वाली सत्ता है। स्पष्ट है कि समय अलौकिक घटक नहीं है। इसका कारण यह है कि जहॉं क्रिया नहीं होगी वहॉं समय भी नहीं होगा। जैसे सूर्य के चारों ओर धरती चक्कर लगाती है इससे हम सौर वर्ष, सौर माह , सौर दिन पाते हैं और चन्द्रमा धरती के चक्कर लगाता है जिससे चन्द्र वर्ष, चन्द्र मास और चन्द्र दिन पाते हैं। यह सभी गतियॉं हमारे मन के द्वारा किये गये मापन से ही इन नामों के द्वारा प्रकट की जाती हैं। इसलिये मन एक सापेक्षिक घटक है, मन और गतिशीलता में से किसी एक के न होने पर समय का कोई अस्तित्व नहीं होता। स्पष्ट है कि काल या समय परम या निर्पेक्ष घटक या अखंड सत्ता नहीं है इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकता।
-तो क्या ‘प्रकृति या स्वभाव’ को ध्यान का विषय माना जा सकता है?
परन्तु प्रकृति ब्रह्मॉंड का क्रियात्मक पक्ष ही है। किसी समय विशेष पर क्रियात्मक पक्ष द्वारा प्रयोग में लाई गयी प्रणाली ही प्रकृति कहलाती है। कुछ लोग मानते हैं कि प्रकृति से ही ब्रह्मॉंड उत्पन्न हुआ है जो गलत है। यह तो उस क्रियात्मक सिद्धान्त की शैली है इसलिये यह सर्जनात्मक सत्ता नहीं है। पदार्थवादियों ने प्रकृति को सर्जनात्मक माना है जो सही नहीं है, इसलिए प्रकृति या स्वभाव को ध्यान का विषय नहीं माना जा सकता।
-तो क्या भाग्य को ही मार्गदर्शक घटक मान लेना चाहिए?
ऋषियों का उत्तर है नहीं। क्योंकि भाग्य मानव की गतिशीलता को नियन्त्रित नहीं करता। भाग्य क्या है? वह है हमारे पिछले अभुक्त संस्कारों का परिणाम। सभी को अपने अपने अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। जब तक क्रिया की प्रतिक्रिया को (जो बीज रूप में रहती है) पूरी तरह सन्तुष्ठ हो जाने का अवसर नहीं मिलता है तब तक मुक्ति नहीं मिलती। यही सुप्त बीज रूपी संस्कार भाग्य कहलाते हैं अतः वे मार्गदर्शक कैसे हो सकते हैं?
तर्क-परन्तु कुछ लोग जैसे ज्योतिषी कहते हैं कि इस धरती पर या अन्य ग्रहों की संरचना और उनकी स्थिति के आधार पर ही जीवों का जन्म होता है।
ऋषियों का उत्तर है, नहीं यह भी सच नहीं है। जिस प्रकार के किसी ने कर्म किए होते हैं उस प्रकार की ग्रह स्थिति के अनुसार ही उसे संस्कार भोग पाने का अवसर जुट पाता है और उसे जन्म मिलता है, और अपने पूर्व कर्मों के अनुसार सुख या दुख मिलता है। स्पष्ट है कि ग्रह जीवों को नियंत्रित नहीं करते उनके अपने कर्म ही उन्हें नियंत्रित करते हैं। जहॉं मूल क्रिया अथवा कर्म का पता नहीं होता है परन्तु उसका फल मिलता है तो उसे कहते हैं नियति। इसलिए भाग्य न तो नियंत्रक और न ही रचनात्मक घटक है अतः वह ध्यान का विषय भी नहीं हो सकता।
अन्य लोग जो इसको एक दुर्घटना अर्थात् एक्सीडेंट मानते हैं, वे अपने अज्ञान को छिपाने के लिय यह कहते हैं। ब्रह्मॉंड में कुछ भी बिना कारण के नहीं घटित होता, यह अलग बात है कि हमें वह पहले से मालूम हो भी सकता है और नहीं भी। हॉं, कभी कभी यह हो सकता है कि वह कारण बहुत कम समय के लिए अपना प्रभाव डाले, जिसे लोग एक्सीडेंट कहने लगते हैं। यह उचित नहीं है अतः भाग्य भी ध्यान करने का विषय नहीं हो सकता।
- तो क्या पदार्थ को ही सब कुछ मान लिया जाए?
ऋषियों का उत्तर है कि, यदि पदार्थ ही सब कुछ होता तो ‘कारण मन‘ उससे कैसे आ सकता है? मन पदार्थ से श्रेष्ठ होता है, मानव बुद्धि और आत्मा उससे भी श्रेष्ठ होती है। इसलिए पदार्थ को पूजा का या ध्यान का विषय नहीं बनाया जा सकता अन्यथा वह व्यक्ति पदार्थ में ही बदल जा सकता है।
- तो क्या जीवात्मा को ध्यान करने हेतु मूल तत्व माना जा सकता है?
ऋषियों का उत्तर है नहीं, क्योंकि असंख्य जीवात्मा हैं, हर सत्ता की अपनी जीवात्मा है। इतना ही नहीं पदार्थों में भी जीवात्मा है यह अलग बात है कि उनका मन अविकसित होने से वे उसका अनुभव नहीं कर पाते। किसी भी इकाई मन के सुख दुख के अनुसार वह जीवात्मा भी प्रभावित होती रहती है, जैसे दो टीमें फुटवाल मैच खेलती हैं, सामान्य दृष्टाओं के लिए उनके जीतने हारने से कोई मतलब नहीं है परन्तु फिर भी मैच देखते हुए मन प्रभावित होता है कि नहीं? इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं, जैसे दर्पण का कोई रंग नहीं है परन्तु लाल रंग का फूल उसके सामने लाने पर वह लाल दिखने लगता है वैसे ही जीवात्मा भी सुख दुख से प्रभावित होती है। अतः स्पष्ट है कि कोई विशेष जीवात्मा, विशेष सत्ता या इकाई चेतना पूरे ब्रह्मॉंड की उत्पत्ति का मूल कारण नहीं हो सकती इसलिए ध्यान का विषय नहीं हो सकती ।
- तो क्या काल, प्रकृति या स्वभाव, नियति, और दुर्घटना, इन सब घटकों का संयोजन ब्रह्मॉंड की उत्पत्ति का मूल घटक है?
ऋषियों का उत्तर है, नहीं, क्योंकि इनमें प्रत्येक में कोई न कोई अपूर्णता अवश्य है अतः ये अथवा ये सभी मिलकर भी ब्रह्मॉंड के होने का परम कारण नहीं हो सकते ।
तर्क- परन्तु कुछ लोग तो महामाया को इसका कारण मानते हैं?
ऋषियों का उत्तर है, महामाया अर्थात् क्रियात्मक सत्ता कोई भी कार्य कर सकती है परन्तु संज्ञानात्मक सत्ता की स्पष्ट अनुमति के बिना कुछ नहीं कर कर सकती। शिव के बिना शक्ति का पृथक अस्तित्व नहीं है, अतः महामाया भी ब्रह्मांड की रचना का मूल कारण नहीं है, ध्येय नहीं है।
-इकाई चेतना कर्मफल के अनुसार रूप बदलती रहती है, प्रकृति भी सदा ही अपने रूप बदलती रहती है तो फिर वह कौन है जो इनका संज्ञान रखता है, जिसे अपना ध्येय बनाया जाए?
ऋषियों का उत्तर हैः-
अब सोचिए जैसे, आप हो, आपके होने का आप ही अनुभव करते हो, परन्तु आपके अस्तित्व का साक्ष्य कौन देता है कि आप हो ? वही संज्ञानात्मक परमसत्ता जिससे सभी आते हैं, जिसमें रहते हैं और अन्त में जिसमें जा पहॅुंचते हैं । इस सत्ता को ही शिव, परमब्रह्म या अखंडसत्ता कहते हैं। केवल यही चिन्तन करने योग्य, ध्यान करने योग्य, मनन करने योग्य और पूजनीय ह,ै अन्य सब व्यर्थ है।
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