हमारे वेदों में इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संबंध में युक्तिपरक व्याख्या की गई है परन्तु पौराणिक युग में उसे कहानियों के माध्यम से समझाने के प्रयास में लोगों ने अर्थ का अनर्थ कर डाला है।
जैसे, उस परम चैतन्य सत्ता को निर्विकार और निर्गुण अवस्था में ‘ब्रह्म’ या ‘शिव तत्व’ कहा गया है जिसे उपनिषदों के सार श्रीमद्भगवद्गीता में सत्,चित और आनन्द की घनीभूत अवस्था (सच्चिदानन्दघन) कहा गया है। इस अवस्था में वे अपनी प्रकृति(अर्थात् उनकी क्रियात्मक सत्ता या शक्ति) के सभी गुणों (सत, रज और तम) को अपने में ही लीन किए होते हैं। इसीलिए कहा गया है ‘‘शिवशक्त्यात्मकं ब्रह्म’’। प्रकृति के इन तीनों गुणों का स्वभाव परस्पर प्रतिद्वन्द्विता का होता है अर्थात् वे शान्त नहीं रह सकते, अपना अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अन्य गुणों को दबाए रखने के प्रयास में लगे रहते है। प्रकृति के गुणों के इस प्रकार के आलोड़न से जब आनन्दघन सत्ता को अपना आभास होता है तब उनके मन में विचार आता है कि ‘मैं अकेला हॅूं क्यों न बहुत हो जाऊं?’(एकोहं बहुस्याम।) इस विचार के आते ही प्रकृति उनके ही थोड़े से भाग में अपने अनन्त स्वरूपों की रचना में जुट जाती है और अब वह परमसत्ता, साक्षी स्वरूप होकर उसके इस कृत्य को देखने लगते हैं। इस स्थिति में उन्हें एक दार्शनिक नाम ’ब्रह्मा’ कहा जाता है, (ध्यान दीजिए ब्रह्म से वे हुए ब्रह्मा)। इसलिए इस समग्र सृष्टि को ही उनका सगुण रूप कहा गया है जिसे सूत्र में समझाया गया है ‘‘ सर्वं खल्विदं ब्रह्म’’। क्षण भर में ब्रह्मांड की उत्पत्ति होने को आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है।
इस संकल्पना को समझाने के लिए पुराणों में अपनी अलग काल्पनिक कहानियॉं गढ़ कर जनसामान्य को बताया गया है कि काली माता शिव के वक्षस्थल पर नृत्य करती हैं। इस प्रकार के चित्र सभी जगह देखने में आते हैं कि बेसुध लेटे हुए शिव की छाती पर पैर रखे काली देवी अपनी जीभ बाहर निकाले हुए हैं। इसके पीछे लम्बे काल्पनिक दृष्टान्तों का भी विवरण दिया गया है। इस प्रकार कहानियों के पात्रों को सत्य मानकर उनकी पूजा की जाने लगी है और असली शिव तत्व को भूलकर अपने मन के देवों के देव महादेव, या भोलेनाथ को भांग धतूरा खिला कर बेहोश ही रहने दिया जाता है!
इस संबंध में आधुनिक शोधकर्ताओं के अनुसार 93 बिलियन लाइटईयर व्यास वाला यह ब्रह्मांड, 13.75 बिलियन वर्ष पूर्व अचानक ही अस्तित्व में आया परन्तु इस पर जीवन का संचार बहुत बाद में हुआ। मनुष्य लगभग एक लाख साल पहले अस्तित्व में आए परन्तु मानव सभ्यता लगभग सोलह हजार साल पुरानी ही है। इसमें अपने अपने ढंग से जीवन व्यतीत कर रहे लोगों को नई दिशा देने और सही जीवन पद्धति से परिचय कराने के लिए आज से 7 हजार साल पहले एक सरल, शान्त, तेजस्वी और साहसी व्यक्तित्व अस्तित्व में आया जिसका कार्य था सदा सबकी भलाई करना, सभी को कल्याण का रास्ता दिखाना। उनका नाम हुआ सदाशिव। सदाशिव ने जीवन का ऐसा कोई कोना नहीं छोड़ा जिस पर उन्होंने जनसामान्य को सच्चाई का अनुभव न कराया हो। उन्होंने बिखरे ज्ञान को एकत्रित कर उचित रूप दिया और विद्यातन्त्र के नाम से अपने पुत्र भैरव और पुत्री भैरवी को प्रशिक्षित कर सबको सिखाने का दायित्व दिया। अपने अन्य पुत्र कार्तिकेय जो बर्हिमुखी थे, को सैन्य विद्या और सुरक्षा के कार्य में निपुण बनाकर संगठन का कार्य सौंपा, धन्वन्तरी को वैद्यक विज्ञान में पारंगत कर सभी वनस्पतियों के औषधीय गुणों से परिचय कराकर लोगों को स्वस्थ बनाने का दायित्व सौंपा, नन्दी को कृषिकार्य और पशुपालन तथा विश्वकर्मा को भवन निर्माण और स्थापत्य कला में पारंगत कर लोगों को घर बनाकर रहना सिखाने का कार्य दिया। जीवन को सरस बनाने के लिए उन्होंने भरत मुनि को संगीत की शिक्षा दी और जनसामान्य को वाद्य, नृत्य और गायन सिखाने का दायित्व दिया। इस प्रकार सदाशिव ने व्यवस्थित जीवन जीने और जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने जैसे दुरूह कार्य कर समाज का निर्माण करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। परन्तु उनके इस योगदान को भूलकर क्या हमने उन्हें गंजेड़ी, भंगेड़ी बनाकर उनके व्यक्तित्व को विकृत नहीं कर दिया है? इन शोधकर्ताओं ने पूर्व वर्णित लेटे हुए शिव की छाती पर काली के नृत्य करने की घटना को इस प्रकार समझाया है-
शिव के द्वारा सिखाई गयी विद्यातंत्र साधना की विधि को श्मशान में प्रारंभिक अभ्यास करने हेतु जाने के समय एक बार बहुत देर हो जाने पर काली को अपनी पुत्री भैरवी के संबंध में बहुत चिंता होने लगी और वह उसे देखने श्मशान में पहुंची। वहां पर शिव बहुत गंभीर ध्यान में मग्न थे। काली, श्मशान में अंधेरे में चलते हुए रास्ते में शिव से टकरा गयीं। शिव ने पूछा, कस्त्वम्? अर्थात् तुम कौन हो? काली घबराईं, पहले अपना नाम काली का ‘का‘ ही उच्चारित कर पायीं फिर डरती हुई भैरवी उच्चारित करने के प्रयास में बोल गयीं ‘‘का...वै...री‘‘ असम्यहम्। अर्थात् मैं कावेरी हूॅं, तब से उनका एक नाम ‘कावेरी’ हो गया। इस घटना को पुराणकार ने काली को नग्नावस्था में शिव के ऊपर पैर रखे जीभ बाहर निकाले हुये वर्णित किया है!
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